Saturday, August 30, 2008

भीष्म बने मुकेश खन्ना की बातें - जारी --

वैसे तो चोपडा साहब और रविजी का निर्देशन ही है जिसने मुझे सही मार्ग पर डाला और मुझे वो गल्तियाँ करने से रोका, जो हर किरदार कहीँ न कहीँ कर बैठता है । यह डायरेक्टर का काम होता है कि वह हर कलाकार की खामियाँ छुपाये और उसके "प्लस पाइँट" को उभारे। भीष्म के किरदार को जीने मेँ उन्हँने मेरा बहुत मार्गदर्शन किया. इसके अलावा डा. राही मासूम रज़ा साहब ने इस किरदार की वाणी को इतने भारी - भरकम और जोरदार सँवाद दिये कि जिनकी वजह से आज यह भीष्म पितामह का किरदार , लोगोँ को इतना विशाल लग रहा है इसका सारा श्रेय राही साहब को ही जाता है।
लेकिन भीष्म पितामह की आत्मा से अगर मुझे किसीने मिलाया तो वे पँडित नरेन्द्र शर्मा ही थे !
उनके पास मैँ जितनी बार बैठा, कुछ ज्ञान अर्जित करके ही उठा । वैसे तो इत्तफाकन मैँने "महाभारत " बचपन से ही पढी है, जिसकी वजह से मुझे "महाभारत " के सभी किरदारोँ के बारे मेँ काफी कुछ पता है , लेकिन जब पँडितजी बोलते, तो मुझे पता चलता कि , " महाभारत " कितना विशाल है, उसमेँ जानजे जैसा कितना कुछ है !
कई बार वे कुछ गूढ बातेँ बोल जाते कि मैँ उसे समझना छोडकर उनका मुँह ताकता रह जाता और मेरे दिमाग मेँ उस वक्त यही बात टेप की तरह चलती रहती कि कितना ज्ञान है इनमेँ ! जैसे एक बार वे मुझे कालिया मर्दन का तत्व समझा रहे थे और दस मिनट तक मैँ उनका मुँह ताकता रह गया बातेँ इतनी गूढ थीँ कि मेरे तुच्छ दिमाग को क्या समझ आतीँ !
मैँ पूरी तरह आत्म विभोर होकर उनका दिया ज्ञानग्रहण करने की कोशिश करता रहा भले वह बात पूरी तरह मेरे भेजे मेँ गयी नहीँ लेकिन उस दिन मुझे अहसास हुआ की ज्ञान की कोई सीमा नहीँ होती, उस वक्त मुझे पता चला कि पढने और समझने मेँ क्या फर्क है !
भीष्म प्रतिज्ञा : लिंक :
http://www.youtube.com/watch?v=H6dpP0OdlBE&feature=related

और गीत : दिन पर दिन बीत गए :
http://www.youtube.com/watch?v=4gY_3vNZigA&feature=related

" उनकी भविष्यवाणी अक्षरश:सत्य हुई उन्होँने कहा था कि " .and now you wait for a terrific boost in coming weeks " ......" और सचमुच कुछ ही हफ्तोँ मेँ भीष्म पितामह का किरदार पूरे भारत वर्ष मेँ छा गया - यह सारा श्रेय मैँ उन्हीँ को देता हूँ जिन्होँने मुझे भीष्म पितामह की आत्मा के दर्शन करवाये इस तरह से महाभारत बनती रही और हर कदम पर अपने मार्गदर्शन लेते रहे - हर कलाकार एक बार उनसे मिलकर, अपना किरदार जान लेना, समझ लेना, जरुरी समझता था।

अक्सर लोग उनके घर भी पहुँच जाते थे, पता नहीँ ये सँयोग था कि मैँ चाहकर भी उनके घर नहीँ जा पाया ! एक बार जब आखिरकार उनके घर पहुँचा भी तो उनसे मिल नहीँ पाया ! उनकी तबियत उस दिन कुछ ठीक नहीँ थी उनकी धर्मपत्नी मुझसे बडी आत्मीयता से मिलीँ और मुझसे कहा,

" बेटे , उनकी तबियत कुछ खराब थी इस्लिये अभी लेटे हैँ, कहो तो उन्हेँ उठा दूँ ? " मैँने कहा, ;

" नहीँ , मैँ तो सिर्फ मिठाई देने आया हूँ "

मैँने नई मारुति गाडी ली थी और उसीकी मिठाई देने गया था पँडित जी को !

उन्हेँ ये जानकर बहुत खुशी हुई वे बोलीँ,

" पँडितजी अक्सर तुन्हेँ याद करते हैँ तुम्हेँ बहुत चाहते हैँ वो ! "

जब मुझे बाहर छोडने आयीँ तो बोलीँ,

" तुम और भी तरक्की करो और अगली बार इससे भी बडी गाडी मेँ आओ ! " लेकिन विधाता का खेल कि मैँ पँडित जी को उनके घर पर कभी नहीँ मिल पाया ! :-(

अगली बार जब उनके घर पर गया तब मिला उनके पार्थिव शरीर से !

मुझे जब गुफी ने उनके निधन की खबर दी तो मैँ चकरा गया !

यह कैसे हो गया ? ऐसा लगा मानोँ सर पर से पिता का साया चला गया हो !

कुछ पल फोन पकडकर सुन्न यूँ ही बैठा रहा ! ऐसा लगा, जैसे हम अनाथ हो गये हैँ ! महाभारत से जुडे सभी के मन मेँ पहला प्रश्न यही आया कि अब " महाभारत " कैसे बनेगी ?

उनके घरवालोँ के लिये यह बहुत बडा नुकसान है ही पर महाभारत से जुडे सभी के साथ ऐसा हुआ मानोँ कोई रेगिस्तान मेँ अकेला छोडकर चला गया जहाँ मीलोँ कहीँ पानी ही न हो ! हम सबके सर से एक बुजुर्ग का हाथ उठ गया था - वह हाथ जो हर कदम पर सहारा देने को तत्पर था, एक ज्ञानी पुरुष जो ज्ञान बाँटने के लिये तैयार खडा रहता था वही आज हमारे सामने से अचानक चला गया था, हमेँ अज्ञान के मरुस्थल मेँ अकेला छोडकर !

मैँ जब उनके घर पहुँचा तब सारा समाँ शोक मेँ डूबा हुआ था - हर कोने मेँ लोग स्तब्ध खडे थे - मुझे उनकी बेटी उनके पार्थिव शरीर की ओर ले गई मैँने वहाँ उनके अँतिम दर्शन किये - चरण छुए - उनकी बेटीने कहा,

" आपको बहुत याद करते थे , तीन दिनोँ से आपके बारे मेँ ही पूछ रहे थे ! "

उनकी पत्नी से मिलने भीतर घर मेँ गया तो आँसू भरी आँखोँ से बोलीँ,

" वे कल से तुम्हारे बारे मेँ परेशान थे कि मुकेश कैसा है ? वो तो मैसुर गया होगा फिर मैँने ही बताया कि आप ठीक हो और परसोँ नई गाडी की मिठाई देने आप आये थे "

मुझे "टीपू सुल्तान " की शूटीँग के लिये मैसूर जाना था !

भगवान कृपासे वो टल गया था - और मैँ, वहाँ शूटीँग सेट पर लगी भयानक आग के हादसे से बच गया था !

- जब से उन्होँने उस भीषण आग की खबर पढी थी वे मेरी चिँता मेँ पड गये थे - उनकी बेटीने बताया कि ३ दिनोँ से उनकी तबियत ठीक न थी फिर भी वे मेरे बारे मेँ चिँतित थे !

मेरी आँखोँ मेँ आँसू उमड आये - मेरे मन मेँ यह टीस और भी जोर से उभरी कि तीन दिन पहले उनके घर गया था फिर भी आखिरी पलोँ मेँ उनसे न मिल पाया ! काश, वे जागे होते तो उनसे मिल पाता !

मुझे पता है, ज़िँदगी भर मुझे इस बात का अफसोस रहेगा !

प्रभु के खेल निराले हैँ जिस आत्मीयता और तन्मयता से पँडितजी "महाभारत " के प्रोजेक्ट से जुडे हुए थे और कमाल का योगदान था उसे के पूर्ण होने तक वे नहीँ रहे ! इसके पहले भी सभी जानते हैँ उन्होँने कई प्रोजेक्टोँ को उन्होँने बुलँदियोँ ता पहुँचाया था मैँ समझता हूँ कि महाभारत जैसे विशाल ग्रँथ को " गीता " जैसे गूढ ज्ञान को साकार रुप देने के मिशन को जिसमेँ वे पूरी तन्मयता से जुडे थे। -

उनके बिछुडने का जितना अफसोस हमेँ है, किसी को न होगा ! जाते जाते भी वे इतना कुछ बता गये हैँ महाभारत लेखन मँडली को कि उस लौ को अँत तक ले जाने मेँ वे सफल ही होँगेँ पँडितजी की दिव्यात्मा वैकुँठ से जब महाभारत के पूरे स्वरुप को देखेगी तो उन्हेँ पूर्ण सँतोष ही होगा ।

आखिर मेँ यही कहना चाहूँगा कि जिस तरह से भीष्म को "इच्छा मृत्यु " का वरदान मिला था, वैसे ही काश, हमारे पँडितजी को भी इच्छामृत्यु का वरदान मिला होता तो वे इस तरह द्वापर युग मे महाभारत को कलियुग मेँ पूरा किये बिना न जाते !

मैँ उनकी दीव्यात्मा को कोटि कोटि प्रणाम करता हूँ और ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि उनकी आत्मा को शाँति प्रदान करे *

( प्रस्तुति : - लावण्या " शेष ~ अशेष से साभार )

Wednesday, August 27, 2008

हमारे भीष्म पितामह - महाभारत सीरीज़ मेँ भीष्म बने मुकेश खन्ना के सँस्मरण

हमारे भीष्म पितामह - महाभारत सीरीज़ मेँ भीष्म बने मुकेश खन्ना के संस्मरण :
http://video.aol.com/video-detail/mahabharat-arjun-gives-arrow-bed-to-bhishma-pitamah/540748085

" जिस तरह महाभारत युग के कुरुवँश के ज्येष्ठ थे और कुरुवँश का भार उनके चौडे कँधोँ पर था, वैसे ही द्वापर युग के इस महाभारत को आज के इस कलियुग मेँ टी.वी. के परदे पर लानेवाले महारथियोँ मेँ अगर किसी को , भीष्म पितामह की उपाधि दी जा सकती है तो वे थे हमारे स्वर्गीय पँडित नरेन्द्र शर्माजी।

जिस तरह द्वापर युगके भीष्म पितामह को धर्म का पूरा ज्ञान था, वैसे ही पँडित जी को महाभारत का पूरा ज्ञान था और महाभारत बनाने का कोई कदम उनसे पूछे बगैर नहीँ उठाया जाता था।

टीका कैसा होना चाहिये ( किसी कीरदार के माथे पर ) इस छोटी सी बात से लेकर , आयु, रूप रंग , वेशभूषा -

ये सभी बाते पँडितजी बताते थे जैसे वे वहाँ मौजूद थे !

चोपडा साहब से लेकर डा. राही मासूम रज़ा , सतीश भटनागर, भृँग तुपकरी सब उन पर निर्भर थे, हम सभी कलाकार भी, चाहे शकुनी मामा या अर्जुन या कर्ण या विकर्ण सभी उनका मुँह छोटी -छोटी बातोँ के लिये यूँ ताकते थे जैसे किसी शब्द के अर्थ के लिये शब्द कोष की ओर लपकते हैँ !

वैसे तो पँडितजी हिन्दी साहित्य - सागर के एक बहुत कीमती रत्न थे, जिनकी प्रसिध्धि देश -विदेश तक फैली थी॥ मैँने भी स्कूल मेँ हिन्दी की किताबोँ मेँ उनके अक्सर दर्शन किये थे॥ पर सही भावोँ मेँ मेरा साक्षात्कार उनसे, "महाभारत " के निर्माण के दौरान चोपडा साहब के ओफिस मेँ ही हुआ। मैँने सही मानोँ मेँ उन्हेँ वहीँ देखा और वहीँ पहचाना और जैसा सुना था, उससे कहीँ अधिक गुना विशाल व्यक्तित्व मैँने पाया। हिन्दी साहित्य के प्रति उनका क्या योगदान था , ये तो सभी जानते हैँ पर महाभारत सीरियल जो आज हिन्दुस्तान ही नहीँ बल्कि पूरी दुनिया के लोगोँ को हमारी भूली हुई सँस्कृति का दर्शन करा रहा है, उसको, उसके रँग, रुप और आकार मेँ लाने का बहुत बडा श्रेय पँडितजी को ही जाता है। मैँने जब बी. आर ओफिस मेँ पहली बार उनके बारे मेँ सुना तो कोई कह रहा था,

" जब महाभारत की स्टोरी सीटीँग मेँ पँडितजी " महाभारत " का कोई द्रश्य सुनाते हैँ तो वो अक्सर इतने तन्मय हो जाते हैँ कि खडे होकर सुनाने लगते हैँ ..." तब श्री कृष्ण चाबुक लेकर दौडे ..." ऐसे लगता है, जैसे वो खुद महभारत के मैदान मेँ होँ ! इतना सजीव चित्रण वो करते हैँ कि हम सबके रोँगटे खडे हो जाते हैँ ! वो जो कुछ कहते हैँ , उनके एक एक शब्द कीमती होते हैँ और कुछ छूट न जाये इसका हमने उपाय किया है ! एक छोटा टेप रिकार्डर रख दिया जाता है और उनके हर शब्द रेकार्ड कर लिये जाते हैँ "

इतना सुनने के बाद मेरे मन मेँ उनका व्यक्तित्व बन चुका था , लिकिन "महाभारत " की शूटीँग शुरु होनेके बावजूद मैँ उनसे मिल नहीँ सका था । सिर्फ उनके बारे मेँ औरोँ से सुना था कि,

" आज उन्होँने ये "सीन" सुनाया , वो "सीन " सुनाया ! "

स्टोरी सीटीँग सुबह होती थी और मैँ शहर के दूसरे कोने मेँ रहने की वजह से वहाँ अक्सर दोपहर को ही जाता था ।- इसीलिये कभी उनसे मिल नहीँ पाया - फिर एक दिन जब मैँ आफिस मेँ उसी समय गया जब स्टोरी सीटीँग चल रही थी , तो वहीँ पहली बार उनके दर्शन किये और पहले ही दर्शन मेँ उनसे पूरी तरह प्रभावित हो गया ।

मुस्कुराता चेहरा, हँसतीँ आँखेँ , पानकी लालीसे रँगेँ होँठ और उनके पूरे चेहरे से ज्ञान दमकता था ! वो उस समय , महाभारत का कोई द्रश्य सुना रहे थे मैँ पीछे बैठकर सुनता रहा, बिना उन्हेँ डीस्टर्ब किये ! जो कुछ सुना था, वही पाया , या उससे कहीँ अधिक ही ! वो पूरी तरह आत्म विभोर होकर सुना रहे थे और सब उनकी ओर ताकते बैठे थे - कुछ देर बाद जब द्रश्य पूरा हुआ, तो वो पीछे मुडे । मैँने उठकर अपना परिचय दिया तो बडी आत्मीयता से मिले और बोले कि, " You are doing a great job " !"

मैँ पहली ही मीटीँग मेँ उनका कायल हो गया - फिर इसके बाद कई बार उनका और मेरा सामना ओफीस मेँ हुआ और हर बार वे ऐसे मिलते जैसे पिता पुत्र से मिल रहा हो और सचमुच उस ओफिस मेँ उनका स्वागत ऐसे होता था जैसे वो सबके पितामह होँ ! मेरे काम से वे सम्तुष्ट थे , इसकी खबर मुझे किसी न किसी के द्वारा मिल ही जाती थी। "

" आज पँडितजी ने ये कहा ...आज पँडितजी ने वो कहा "

एक बहुत बडा कोम्प्लीमेन्ट जो उन्होँने मेरे काम के बारे मेँ दिया, मैँ ज़िँदगी भर भूल न पाऊँगा। मुझे किसी ने आकर कहा कि आज पँडितजी ओफिस मेँ कह रहे थे कि,

" मुकेश, भीष्म के कीरदार को जी रहा है और बाकी सब तो अच्छी एक्टीँग कर ही रहे हैँ ( शेक्सपीएरियन टाइप की ) मगर, भीष्म महाभारत को सजीव कर रहे हैँ "

मुझे इतना अच्छा काम्प्लीमेम्ट आज तक नही मिला और वो भी मेरी पीठ पीछे ! ये सुनकर मेरी छाती फूल कर दुगुनी हो गयी थी - फिर जिस रोज़ टीवी पर महाभारत प्रदर्शित हुआ, उसके तीसरे हफ्ते जब मेरा प्रवेश " महाभारत " मेँ हुआ ( बडे देवव्रत के रुप मेँ ) तो इत्तफाक से दूसरे दिन मेरी मुलाकात उनसे बी. आर. ओफिस के दरवाजे पर ही हुई वे जा रहे थे और मैँ आ रहा था मैँने उनसे आशीर्वाद लिया और कहा,

" कल आपने मुझे " महाभारत " मेँ "लैन्ड" ( प्रवेश ) करवा ही दिया "

तो मुस्कुराते हुए, मुझे सुधारते हुए बोले,

" लैँड नहीँ हुए तुम, "टेक -ओफ " हुआ है and now you wait for a terrific boost in coming weeks " ....

मैँने उनसे कहा

" मुझे आशीर्वाद दीजिए कि इस किरदार को मैँ पूरी तरह जी सकूँ "

उन्होँने मुझे आशीर्वाद दिया । उन्हीँ के आशीर्वाद का फल है कि मैँ भीष्म पितामह हुआ हूँ ! "

क्रमश: ~~~~~~

( शेष ~ अशेष पुस्तक से साभार : प्रेषक : लावण्या )

http://www.indiantelevision.com/interviews/mukesh1.htm

Tuesday, August 26, 2008

" इच्छा - मृत्यु" वेद व्यास की "जय गाथा : महाभारत " से

" यत्र योगेश्वर कृष्ण: यत्र पार्थो धनुर्धर "
श्री कृष्ण का "पाँचजन्य "
(पाँच प्रकार के जीवोँ पर जिसका राज है वही पाँचजन्य है)
और अर्जुन माने , धनँजय (जो अर्जुन का एक और नाम है) उसका शँख था :
" देवदत्त " ये शँख, महाभारत कथा से विख्यात हुए।
महाबली भीम का पौँड्र नामी शँख था और युधिष्ठिर का शँख "अनँतविजय" था। नकुल का " सुघोष" और सहदेव का
" मणिपुष्प" नामक शँख था ~
क्षीर सागर मँथन से पाँचजन्य शँख की उत्त्पत्ति होते ही
महाप्रणव नाद गुँजायमान हुआ, जिसके घोष से, असुर डरे !
तब महाविष्णु ने उसे धारण किया !
यही श्री कृष्ण का भी शँख, महाभारत मेँ
भगवान वेद व्यास द्वारा बतलाया गया है!
वेद व्यास ने, महाभारत मेँ , इस तरह,
नारायण विष्णु व श्री कृष्ण का
ऐक्य भी साबित किया !
" भगवान शँकर" शँख धारी ईश्वर हैँ जिनका आह्वान किया जाता है हर सत्कार्य के आरँभ मेँ। आज भी बँगाल मेँ लग्नोत्सव के पहले , स्त्रियाँ, शँखनाद करके , वातावरण और अनुष्ठान को पवित्रता व माँगल्य प्रदान करतीँ हैँ।

पतले शँख को "शँखिनि " स्त्रीलिँग माना जाता है और गाढे तने का पुर्लिँग
" शँख "कहलाता है। ये है शँखनाद : click here
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…महाभारत के पात्रोँ मेँ अनेक प्रकार की विशेषताएँ हैँ -
कहीँ काशी नरेश की कन्या अँबा का भीषम द्वारा हस्तिनापुर की बहुरानी बनाये जाने के लिए, काशीसे बलपूर्वक लाना और फ़िर अम्बा का त्याग !
- फिर राजकुमारी अम्बा का अगले जन्म मेँ द्रौपदी के दूसरे भाई शिखँडी के रुप मेँ जन्म लेना जो एक किँपुरुष गिना गया भीष्म पितामह की द्रष्टि मेँ !....
.द्रौपदी के बडे भाई ध्युष्टधुम्न का आचार्य द्रौणाचार्य का शिरच्छेद करना ॥
अरे, महायुध्ध के पहले , श्री कृष्ण का सँधि के लिये अँतिम प्रयास करते हस्तिनापुर जाना और दुर्योधन का घमँडी बर्ताव जिसका अँध १०० कौरवोँ के पिता राजवी धृतराष्ट्र का अनदेखा करते हुए अपने दुष्ट पुत्र दुर्योधन के दुस्साहस को,
बढावा देना और श्री कृष्ण का धर्मात्मा विदुर के घर जाकर सादा भोजन और आतिथ्य स्वीकार करना
ये महा समर की पूर्व भूमिका रहीँ !-॥ श्री कृष्ण का , युध्ध के निर्णय तक ये कहना कि "मैँ अस्त्र नहीँ उठाऊँगा ~~ एक तरफ मेरी वीर सेना
रहेगी दूसरी तरफ निहत्था मैँ ! जिसे चाहो, ले लो "
और दुर्मति दुर्योधन का सेना लेने का निर्णय और अर्जुन का श्री कृष्ण के चरण पकड कर उनकी शरणागति लेनी यही युध्ध के पहले की घटनाएँ हैँ॥
भीष्म पितामह ने सेनापति पद लेकर युध्धारँभ किया
- घोर तबाही मची !
श्री कृष्ण अपना प्रण भूल गये और भीष्म का वध करने हेतु,
हाथ मेँ टूटे हुए रथ का पहिया ही
अपने अजेय आयुध " सुदर्शन चक्र " की तरह घुमाते हुए,
रौद्र रुपसे , दौडे ॥
अर्जुन यिधिष्ठिर दोनोँ ने उन्हेँ रोकने की कोशिश की और स्बयम्` भीष्म, गद्`गद्` होकर, अपने अस्त्र फँककर प्रभु की स्तुति करने लगे कि,
" हे केशव ! आज मेरा जन्म सफल हुआ ! आप साक्षात नररुप हरि, मेरा सँहार कीजिये ! आज मैँ आपकी कृपा पाकर धन्य हुआ !"
ये चित्र उसी अवसर का है ...

किसी तरह भीष्म पितामह को परास्त किया जाये उसके उपाय स्वरुप 'शिखँडी " को आगे रखा गया और पीछेसे अर्जुन के तीक्ष्ण बाण भीष्म पितामह की छाती बीँधते हुए रक्त पीने लगे तब माहात्मा भीष्म ने कहा था,
" जानता हूँ बाण है यह वीर अर्जुन का,
नहीँ शिँखँडी चला सकता एक भी शर,
बीँध पाये कवच मेरा, किसी भी क्षण,
बहा दो, सँचित लहू तुम आज सारा " -
( लावण्या )
और वे चोट पे चोट सहते गये और धरा पर, घायल सिँह की तरह गिर पडे !
मानोँ आकाश ही धरा पर आ गिरा था !
उसके बाद का द्रश्य कविता द्वारा कहने का प्रयास है अब,
इच्छा ..............
" इच्छा - अनिच्छा के द्वंद में धंसा , पिसा मन
धराशायी तन , दग्ध , कुटिल अग्नि - वृण से ,
छलनी , तेजस्वी सूर्य - सा , गंगा - पुत्र का ,
गिरा , देख रहे , कुरुक्षेत्र की रण- भूमि में , युधिष्ठिर!
[ युधिष्ठिर] " हा तात ! युद्ध की विभीषिका में ,
तप्त - दग्ध , पीड़ित , लहू चूसते ये बाणोँ का , सघन आवरण ,
तन का रोम रोम - घायल किए ! ये कैसा क्षण है ! "
धर्म -राज , रथ से उतर के , मौन खड़े हैं ,
रूक गया है युद्ध , रवि - अस्ताचलगामी !
आ रहे सभी बांधव , धनुर्धर इसी दिशा में ,
अश्रु अंजलि देने , विकल , दुःख कातर, तप्त ह्रदय समेटे ।
[ अर्जुन ] " पितामह ! प्रणाम ! क्षमा करें ! धिक् - धिक्कार है !"
गांडीव को उतार, अश्रु पूरित नेत्रों से करता प्रणाम ,
धरा पर झुक गया पार्थ का पुरुषार्थ ,
हताश , हारा तन - मन , मन मंथन
कुरुक्षेत्र के रणाँगण में !
[ भीष्म पितामह ] " आओ पुत्र ! दो शिरस्त्राण,
मेरा सर ऊंचा करो !"
[ अर्जुन ] " जो आज्ञा तात ! "
कह , पाँच तीरों से उठाया शीश
[ भीष्म ] " प्यास लगी है पुत्र , पिला दो जल मुझे "
फ़िर आज्ञा हुई , निशब्द अर्जुन ने शर संधान से , गंगा प्रकट की !
[ श्री कृष्ण ] " हे , वीर गंगा -पुत्र ! जय शांतनु - नंदन की !
सुनो , वीर पांडव , " इच्छा - मृत्यु", इनका वरदान है !
अब उत्तरायण की करेंगें प्रतीक्षा , भीष्म यूँही , लेटे,
बाण शैय्या पर , यूँही , पूर्णाहुति तक ! "
कुरुक्षेत्र के रण मैदान का , ये भी एक सर्ग था ~~
-- लावण्या

Sunday, August 24, 2008

सूर्य - स्वर्णिम


भाई अभिषेक ओझा से फोन पर बात करने का मौका मिला !

लगा मानोँ हम लोग पुराने परिचित ही हैँ !

आजकल अभिषेक भाई हमारे अतिथि हैँ ! स्वागत है यहाँ !!

"Welcome to USA !! "

आशा है अमरीकी यात्रा बढिया चल रही है. आपकी !!

... खूब मज़े करिये और खूब घूमिये और तस्वीरेँ भी दीखलाइयेगा !

" बकलमखुद " पर भी आपकी जीवन यात्रा के बारे मेँ पढकर खुशी हो रही है :) और आपके प्रेम के किस्से , फुरसतिया जी के ब्लॉग पर पढ़कर कर भी खुशी हुई :) अगर आपने ना देखी हों ये प्रस्तुति , अवश्य देखियेगा और आज , सूर्य देवता को अर्पित है ये कविता : ~~~

सूर्य - स्वर्णिम [ HYMN : स्तुति ]
सूर्य स्वर्णिम आत्मा भी स्वर्णिम फूल स्वर्णिम !
तरंग आतीं व्योम भरतीँ उठाये हूँ , भुजा , रोम रोम झरतीं !
स्वर्ण लेखा रेख चिरंतन शाश्वती आह्वान देता हूँ तुम्हे
सँवारो गीत - स्वप्न मेरे !
हे प्रभु मेरे पुण्योदय स्वर्ण -गर्भा कोख तुम !
व्योम पार प्रकाशित तुम ,फूल सद्रश सुकोमल !
सुरभित स्वप्न से तुम ,करते दिशा दिशा उद्भासित
अहम् , सत्त्व , शरीर - तीनो कृपा तेरी आराधाते हैं !
दो ज्योति का वरदान हे ,यह , तुम से मांगते हैं !
दो मुक्ति का आधार -इतना याचते हैं !
दो स्वर्णिम प्रभा एक बार ,
हे मेरे स्वर्णिम - पुष्प - सूर्य प्राण मेरे , तुमसे मांगते हैं !
मेरी प्रार्थनाओं के तुम ही तो , हो आधार ,
सर्वस्व मेरा दोहराता बार ~ बार , बाहें फैला प्राण ,
तुम्ही से गान - आशा का प्रभु ! ये मांगते हैं !
स्वर्णिम प्रभा बलवती, सद्`-गति तुम से मांगते हैं !

दिवाकर ! नमोस्तुते ! प्रभाकर ! नमोस्तुते !

भास्कर नमोस्तुते ! ॐ ! शान्ति ! शान्ति शान्ति :
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~



- लावण्या

Thursday, August 21, 2008

शिरस्त्राण

एक मॉडल पगडीनुमा टरबन पहने
बेज रँग हल्का बादामी रँग है जिसकी ये हेट पहने मुस्कुराती ब्रिटीश कन्या
यहां असंख्य तितलियाँ सजी हैं उड़ने को तैयार ?
ये है ब्रिटिश घुड़दौड़ रेस रोयल डर्बी में हरेक स्त्री
ऐसी ही अजीबोगरीब हेट्स पहनतीं हैं उसी के चित्र !
शिरस्त्राण या पगडी टोपी, हेट कई तरह के होते हैँ ।-
इन्सानको सभ्यता आरँभ हुई तभीसे अपने आपको दूसरोँ से
अलग दीखलाने की चाह रही है।
जिसके लिये कई तरह की वेशभूषा सामने आयी हैँ।
ये हैं अमरीकी रेड इंडियन :
पगडी कई तरह की होतीँ हैँकेले राजस्थान मेँ पगडी से प्राँत, ग्राम और प्रसँग का भी पता लगता है ऋउतुओँ के अनुसार भी पाग का रँग साफे का रँग अलग होनेसे विशेष घोषणा कर देता है -
ये हैं पंजाबी सीख कौम का पहनावा
राजा महाराजा देवी देवता तो खैर हमेशा मुकुट पहने ही हर चित्र मेँ दीखलाई देते हैँ - श्री कृष्ण के मुकुट पर मयूर पँख सुशोभित रहता है और सर्वथा अलग दीखता है। आजके समय मेँ टीवी के धारावाहिक भी कौरव पाँडवोँ के शिरस्त्राण को
नये सिरे से मशहूर करने मेँ सँलग्न हैँ !
रानियाँ, परियाँ, देवियाँ भी मुकुट धारण कर शृँगार करतीँ हैँ तो आजकी विश्व सुँदरी के माथे पे भी हीरोँ से जडा ताज रखकर विजय श्री का ऐलान किया जाता है।
- खिलौनो की दुकानँ मेँ भी नन्ही बालिकाओँ के लिये प्लास्टीक के मुकुट मिलते हैँ जिन्हेँ पहनकर बच्चियाँ खुश हो जातीँ हैँ और अपने आपको सजा हुआ देखने शीशे के सामने खडी हो जातीँ हैँ ॥
राजनीतिज्ञ भी स्वतँत्रता दिवस के उपलक्ष्य मेँ "गाँधी टोपी " पहनकर एकाध तस्वीर जरुर खिँचवा लेते हैँ ताकि उनकी देशप्रेम युक्त छवि समाचार पत्रोँ मेँ , खूब चमके और उन्हेँ जनता का विश्वास दिलवाये ॥
भारत के राजे महाराजे अलग अलग तरह के मुकुट पहनते थे
दक्षिण और उत्तर भारत के महाराजा की शिरस्त्राण शैली भी भिन्न होतीँ थीँ -
समुद्रगुप्त और बिँबिसार के मुकुट अलग थे
और मुघलोँ के भी खूब रत्न जटीत होते थे -
महाराणा प्रताप युध्ध करते हुए जब शत्रुओँ से घिर गये थे तब बहादुर आल्हाने उनका लौह शिरस्त्राण अपने सर पर रखा जिससे सेना उसकी ओर धावा बोली और वह वीरगति को प्राप्त हुआ तब तक प्रताप को लिये उनका अश्व चेतक दूर जा चुका था - ऐसे किस्से इतिहास का हिस्सा हो गये हैँ ~~
ईजिप्ट के फेरो के सर पे भी प्रभावशाली शिरस्त्राण था - देखिये ,
शिरस्त्राण या हेट आज अमरीका मेँ बेसबोल केप की तरह
खूब प्रचलन मेँ है और खूब बिकतीँ हैँ -
हेट फेशन के लिये, अपनी पसँदीदा टीम या प्राँत के लिये
या ठँड से बचने के लिये या फिर अपना स्टेटस जमाने के लिये भी पहनी जातीँ हैँ ।
देखिये लिंक : http://en.wikipedia.org/wiki/Hat
और विश्वके बहुमूल्य रत्न महारानी एलिझाबेथ के राजसी मुकुटों में जड़े हुए हैं
ये मैंने लन्दन यात्रा के दौरान देखे थे --
भारत से प्राप्त कोहीनूर हीरा विश्व का सबसे कीमती और सबसे श्रेष्ठ हीरा है वो ब्रिटिश रोयल क्राउन में लगा हुआ है - http://www.englishmonarchs.co.uk/crown_jewels.htm
&
६५७३७१">http://www.cafepress.com/artegrity/६५७३७१
बहुत तेज धूप से बचने के लिये पहना जानेवाला हेट "पनामा हेट " कहलाता है जिसे "इन्डीयाना jones " फिल्म मेँ हेरीसन फोर्ड पहनते हैँ और कई ब्रिटीश अफसर भारत की लू और उमस भरी गरमियोँ मेँ भी टोपा पहने रहते थे भले ही पसीने से तरबतर क्योँ ना हो जायेँ !
आप बताएं क्या आप को भी ऐसे शिरस्त्राण पसंद हैं ? :-)
- लावण्या

Monday, August 18, 2008

३ भाई ~ ३ गीत

बड़े भाई राज कपूर साहब का संगम फ़िल्म का गीत सुनिए : http://www.youtube.com/watch?v=MfLl_kDM240&feature=related
ब्रह्मचारी फ़िल्म का गीत ; नायक : शम्मी कपूर
http://www.youtube.com/watch?v=5Fq1K-Eax_E

http://www.youtube.com/watch?v=CU_rEtjTtY0
शशि कपूर नायक : फ़िल्म : जब जब फूल खिले
यहां दिए हुए तीनो गीत ऐसे सजाये गए हैं जिनमे पियानो का उपयोग किया गया है। ये पाश्चात्य वाध्य है जिस का उपयोग हिन्दी सिनेमा में , कई संगीतकारों ने बखूबी किया है । ये गीत सुनते हुए शायद आपको , दुसरे पियानो पे बजाये गीत याद आये होंगें अवश्य बताइयेगा कौन से हैं ऐसे गीत जिनमें बजाई पियानो , आपको पसंद है।
कपूर परिवार ने ३ - नायक दिए हिन्दी फ़िल्म जगत को - तीनोंने लोकप्रियता के शिखर तक का सफर किया और अनगिनती , सुरीले, यादगार गीतों का तोहफा भी अपनी अदाकारी के साथ पेश किया ये सारे गीत , आज भी , संगीत प्रेमियों के लिए , अनमोल हैं !
इनके पिता श्री पृथ्वीराज कपूर भी, एक सफल और यशस्वी नाटक और ड्रामा के सफल कलाकार रहे हैं !
मेरा सौभाग्य रहा है इन तीनों को कई बार देखने का - राज अंकल के घर पर अकसर देखते थे इन्हें जब् हम बहुत छोटे थे !
राज अंकल, पार्टी की शान हुआ करते थे !
मजाल है किसी की निगाह उनपर पड़ने के बाद और किसी पे जाए !
उनमें एक गज़ब का चुम्बकीय आकर्षण था जिसको वे ख़ुद भी जानते थे और कैमरा , ओन हो या ऑफ़ , लगता ऐसा ही , मानों राज साहब , फ़िल्म के लिए द्रश्य फिल्माने बैठे हैं :)
बड़ी अदा से, सिगरेट सुलगाते, कश लेते, व्हिस्की का प्याला थामते , कभी ऐसा नाचते के बस ! खानाबदोशोँ की तरह ही !! और लोग देखते रह जाते !
दोनों हाथों में रुमाल लिए, सबसे आला , तरीके से , थिरकते हुए,
वे कमाल का डान्स करते थे ! ये अदाएं उन्हीं की होती थी :)
शम्मी साहब, लंबे लंबे डग भरते, पार्टी को , एक कोने से दुसरे तक, मिनटों में ,
पुरा नापते हुए , घूम लेते और यदाकदा, किसी नई हिरोइन के आगे खड़े हो जाते, उसका हाथ थामे, टेबल पे गिलास रखे बतियाते रहते !
ये भी देखा हुआ है नज़ारा !
शशि कपूर निहायत शरीफ इंसान थे।
उनकी ब्रिटिश पत्नी जेनीफर के साथ सबसे हेल्लो कहते हुए घूमते और मुस्कुराते बड़े भले लगते !
३ भाई की एक बहन " उमी " - जो जबलपुर ब्याहीँ थीँ और राज कपूर की पत्नी कृष्णा जी भी जबलपुर की बिटिया हैँ !
उनका परिवार ( ३ भाइयोँ का ) और उनके बच्चे अब बड़े हो गए हैं और आज भी , नई पीढी , फिल्मों से जुडी हुई कपूर खानदान का नाम , रोशन किए हुए है।
बहुत सारी यादें हैं इस परिवार के साथ जुडी हुई उनका किस्सा , फ़िर कभी ....!
- लावण्या

Thursday, August 14, 2008

श्री सादिक अली : आल इंडिया कांग्रेस कमिटी की यादें

हरेक श्रमजीवी के श्रम से मुस्कुराती हैं "भारत - माता " वँदे मातरम !!
स्व पँडित नरेन्द्र शर्माकी कुछ काव्य पँक्तियाँ
" रक्तपात से नहीँ रुकेगी, गति पर मानवता की
हाँ मानवता गिरि शिखर, गहन, गह्वर
सीखै पाशवत व्यथा छिपे सीमा नहीँ मनुज के,
गिर कर उठने की क्षमता की !
आज हील रही नीँव राष्ट्र की,
व्यक्ति का स्वार्थ ना टस से मस !
राष्ट्र के सिवा सभी स्वाधीन,
व्यक्ति स्वातँत्र अहम के वश!
राष्ट्र की शक्ति सँपदा गौणॅ,
मुख्य है, व्यक्ति व्यक्ति का धन!
नहीँ रग कोई अपनी जगह,
राष्ट्र की दुखती है नस नस!
राष्ट्र के रोम रोम मेँ आग,
बीन " नीरो " की बजती है-
बुध्धिजीवी बन गया विदेह ,
राष्ट्र की मिथिला जलती है !
क्राँतिकारी बलिदानी व्यक्ति,
बन बैठे हैँ कब से बुत !
कह रहे हैँ दुनिया के लोग,
कहाँ हैँ भारत के सुत ?
क्योँ ना हम स्वाभिमान से जीयेँ?
चुनौती है, प्रत्येक दिवस !
जन क्राँति जगाने आई है,
उठ हिँदू, उठ मुसलमान-
सँकीर्ण भेद त्याग,
उठ, महादेश के महा प्राणॅ !
क्या पूरा हिन्दुस्तान, न यह ?
क्या पूरा पाकिस्तान नहीँ ?
मैँ हिँदू हूँ, तुम मुसलमान,
पर क्या दोनोँ इन्सान नहीँ ?"
नहीँ आज आस्चर्य हुआ,
क्योँ जीवन मुझे प्रवास ?
अहंकार की गाँठ रही,
निज पँसारी के हाथ !
हो भ्रष्ट न कुछ मिट्टी मेँ मिल,
केवल गल जाए अंहकार ,
मेरे अणु अणु मेँ दिव्य बीज,
जिसमेँ किसलय से छिपे भाव !
पर, जो हीरक से भी कठोर !
यदि होना ही है अँधकार,
दो, प्राण मुझे वरदान,
खुलेँ, चिर आत्म बोध के बँद द्वार!
यदि करना ही विष पान मुझे,
कल्याण रुप हूँ शिव समान,
दो प्राण यही वरदान मुझे!
तिनकोँ से बनती सृष्टि,
सीमाओँ मेँ पलती रहती,
वह जिस विराट का अँश,
उसी के झोँकोँ को ,
फिर फिर सहती !
हैं तिनकोँ मेँ तूफान छिपे ,
ज्योँ, शमी वृक्ष मेँ छिपी अगन !

आल इंडिया कांग्रेस कमिटी की यादें : श्री सादिक अली जी के शब्दों में :

पुस्तक : शेष - अशेष से -
Shri Sadiq Ali जी :

"नरेन्द्र " : Association with All India Congress Committee : I greatly cherish my brief but intimate association with Narendra Sharma He was with me in the A।I।C।C। Secretariat at Allahabad in the late thirties। He was in charge of its Hindi department even though Hindi or Hindustani had yet to get its due place in the Congress scheme of things।It is good to recall the political environment for Hindi when Narendra assumed the responsibility। Most of the A।I।C.C. work was done in English despite Gandhiji's stress on Hindi or Hindustani.The working committee of the Congress carried on its deliberations mostly in English.There was, of course, the outstanding exception of Maulana Azad. The other exceptions were Khan Abdul Ghaffar Khan and Seth Janalal Bajaj whenever they chose to express themselves on any issue.Gandhiji, at times, spoke in Hindi but he was often prevailed upon to speak in English. It was important and necessary that each member of the working committee understood correctly what Gandhiji meant.Further, all the proceedings of the working committee and the A.I.C.C. meetings were in English. There was however one important change. In the A.I.C.C. deliberations and the deliberations of the annual open session, there was a growing number of Hindi and Urdu speakers.It was in this set-up that we had Narendra Sharma in charge of the Hindi department. We were all happy with him. It fell on him to translate all Congress resolutions and the A.I.C.C. circulars in good effective Hindi.Congress resolutions in those stormy days carried great weight. They did not just contain Congress decisions on issues of the day. They were, in not a few cases, a clarion call to the nation to be ready for a grim trial ahead and a source of inspiration not only to congressmen but to millions outside the formal congress register.At all A.I.C.C. meetings it was important that the Hindi knowing members had the Hindi translation in their hands along with the original English version.It was Narendra Sharma's task to produce quick translations and he did it with ease and without fail. There was also some correspondence in Hindi which Sharmaji handled for the period he was in the A.I.C.C. Secretariat.He would have been with us a few years longer but with the coming of Industrial Civil Disobedience Movement and the1942 final struggle for freedom the working of the A.I.C.C. office was thrown into some kind of turmoil.Narendra Sharma was a poet in the making when he was with us in the A.I.C.C. Secretariat.Association with the A.I.C.C. in those days meant active association with India's struggle for freedom and experience in prison life if not anything more extreme.Narendra was ready for this experience but he had a wide range of interests. He had pronounced literary tastes. He had contacts with literary figures in Allahabad, Sumitranandan Pant and he lived under the same roof. In Pant, he found a perennial fountain of inspiration. These two were kindred souls, the elderly Pant treating Narendra almost as his son".Poet, late Pandit Narendra Sharma, was arrested without trial under the British Viceroy's Orders, for more than two years. His appointment to AICC was made by Pandit Jawaharlal Nehru.Pandit Narendra Sharma's photo along with then AICC members, is still there in Swaraj Bhavan, Allahabad.Call of 'the Nation':2.On 3rd October 1957, at 10.30 a.m. Government of India, under the Ministry of Information and Broadcasting, All India Radio [AIR] started 'Vividh Bharati'; Poet, late Pandit Narendra Sharma not only conceived, planned and programmed but also named both Vividh Bharati and all its programs, including but not limited to Hava Mahal, Chaubara, Gunjaan, Bela Ke Phool, Jai Mala for the 'Jawans'.Here it need not be mentioned that 'Vividh Bahrati' has brought in thousands of crores of revenue, name and fame to the Government of India.After the Chinese aggression on India and after Pandit Jawaharlal Nehru's death, Pandit Narendra Sharma, stayed on with Vividh Bharati as it's Chief Producer, politely turning down an offer to teach Indian Culture and Hindi at the Berkeley University, California, USA, as Smt. Indira Gandhi, then I&B Minister, asked him to stay on, in the country's interest.

- लावण्या






Wednesday, August 13, 2008

वह अगस्ती रात मस्ती की

" भर दी रोली से मांग प्रथम चुम्बन में,
बीती बातों में रात, हुआ फ़िर प्रात प्रथम चुम्बन में "
कवि श्री नरेन्द्र शर्मा
वह अगस्ती रात मस्ती की , गगन पर चाँद निकला था अधूरा,
किंतु, काले बादलों के बीच, मेरी गोद में था, चाँद पूरा
श्री हरिवंशराय "बच्चन "
मेरे अधर अधर से छू लेने दो!
अधर अधर से छू लेने दो!
है बात वही, मधुपाश वही,
सुरभी सुधारस पी लेने दो!
अधर अधर से छू लेने दो!
कंवल पंखुरी लाल लजीली,
है थिरक रही, नई कुसुम कली सी !
रश्मिनूतन को, सह लेने दो!
मेरे अधर अधर से छू लेने दो!
तुम जीवन की मदमाती लहर,
है वही डगर, डगमग पगभर,
सुख सुमन-सुधा रस,पी लेने दो!
मेरे अधर अधर से छू लेने दो!
अधर अधर से छू लेने दो! -

Monday, August 11, 2008

पर्बत प्रदेश मेँ पावस



कविता का शीर्षक है : पर्बत प्रदेश मेँ पावस

पावस ऋतु थी , परबत प्रदेश ,

पल पल परिवर्तित प्रकृति वेश ,

मेखलाकार परबत अपार,

अवलोक रहा है बार बार ,

नीचे जल में निज महाकार

जिसके चरणों में पड़ा ताल ,

दर्पण सा फैला है विशाल

गिरी का गौरव , गा गा कर ,

मद में नस नस उत्तेजित केर ,
मोती की लड़ियों से सुंदर ,

झरते है , झाग भरे निर्झर !

गिरिवर के उर से उठ उठ कर ,

उच्चाकाक्षाओँ से तरुवर ,
हैं झाँक रहे नीरव - नभ पर ,

अनिमेष , अटल ,कुछ चिंतापर !

उड़ गया अचानक , लो भूधर ,
फडका अपार पारद के पर,
रव शेष रह गए है निर्झर ,

है टूट पड़ा , भू पर , अम्बर !

धंस गए धरा में , सभय शाल ,
उठ रहा धुंआ , जल गया ताल ,
यों जलद यान में विचर विचर ,
था इन्द्र खेलता इन्द्र -जाल !

वह "सरला" , उस गिरी को

कहती थी - " बादल -घर ! "

सरल शैशव की सुखद सुधि ~ सी ,

वह , बालिका मेरी मनोरम मित्र थी !

इस तरह , मेरे चितेरे ह्रदय की ,

बाह्य प्रकृति बनी चमत्कृत चित्र थी !

सरल शैशव की सुखद सुधि ~ सी ,

वह ,बालिका मेरी मनोरम मित्र थी !

hindi।org/sankalan/varsha_mangal/poems/pavas।htm : लिंक

पंतजी ने इस में प्रकृति वर्णन कितना सजीव किया है।

हिमालय की पर्वत श्रृंखला, कविता पढ़ने वाले के सामने , सहज , साकार हो उठे !

शब्द चयन , भावः प्रवाह , लय और गति , छँदो की मात्राओं में बंधी " हिम प्रपात सी सुंदर " , सरल और वेगवती काव्य - धारा बन कर साक्षात् हो उठती है --

पहली पंक्तियाँ है , ------->

" पावस ऋतु थी , परबत प्रदेश ,"

पहाडो पर बरखा ऋतू का आगमन हुआ है ,

" पल पल परिवर्तित प्रकृति वेश , "

कवि पन्त जी की सशक्त कलम , यहाँ पर , हमारे समक्ष , चल चित्रोसे दृश्य प्रस्तुत करने की भूमिका बना चुके हैं ।

पाठक उत्सुकता से बंधे आगे के दृश्यों को देखने के लिए लालायित है ~~>

" मेखलाकार परबत अपार, "अलंकार , उपमान = मेखलाकार परबत श्रेणी

" अवलोक रहा है बार बार , " क्या देख रही है परबत श्रृंखलाएं ?

" नीचे जल में निज महाकार "

परबत का प्रतिबिम्ब , जल -राशिः में द्रष्टिगोचर है और

सुंदर शब्द - चित्रण बन पड़ा है

" जिसके चरणों में पड़ा ताल , दर्पण सा फैला है विशाल "

यहाँ दर्पण के साथ ताल की उपमा देने से जल की स्वछता का आभास मिल जाता है , यही दर्शाता है , सही शब्द - चयन , जो , भावों को भी मुखरित करने में सक्षम है ।

" गिरी का गौरव , गा गा कर , मद में नस नस उत्तेजित केर ,

मोती की लड़ियों से सुंदर ,झरते है , झाग भरे निर्झर !"

परबत से बहते हुए झरने , उसीका गौरव - गान , मद से उत्तेजित होकर गाते हुए , मोती की लड़ियों से शुभ्र + फेनिल , धारा लिए बह रहे हैं । ये कितना सजीव चित्रण है । उपमा , अलंकार सभी सफल हैं

" गिरिवर के उर से उठ उठ कर ,उच्चाकाक्षाओँ से तरुवर ,

हैं झाँक रहे नीरव - नभ पर , अनिमेष , अटल ,कुछ चिंतापर ! "

यहाँ कवि हमे उन्नत, उठे हुए वृक्षों से परिचित करवा रहे हैं , जो मौन होकर , कुछ चिंतित से , मानव - ह्रदय के उर = मनन से उठे भावों से प्रतीत हो रहे हैं । ये पाठक के " inner self - " अंतर्मन की चेतना " से जुडा, स्पर्श है जो काव्य को कालजयी स्वरुप प्रदान करता है ।

और अब ," उड़ गया अचानक , लो भूधर , फडका अपार पारद के पर,

रव शेष रह गए है निर्झर, है टूट पड़ा, भू पर , अम्बर ! "

यहाँ चित्र सजीव , सप्राण बन उठा है , भूधर पारे से , चमकीले , पर, फडफडाकर,

उड़ चला है ~~~ झरनों का संगीत भी जारी है , और अचानक , मानों सारा आकाश धरती पर टूट पड़ा हो ऐसे वर्षा , जोरों से गिरने लगती है !

यहाँ शब्द - चित्र में गति है , और पक्षी , झरना और बादल बरसने की ३ क्रिया , का एक साथ चित्रण
" धंस गए धारा में , सभय शाल ,

उठ रहा धुंआ , जल गया ताल

यों जलद यान में विचर विचर ,

था इन्द्र खेलता इन्द्र -जाल ! "

भारतीय पुरातन साहित्य में इन्द्र वर्षा ऋतु के देवता हैं । वे इस बरसाती मौसम में " जलद यान " मतलब पानी से संचालित विमान, जिस में घूमते हुए, "इन्द्र" - जाल का सम्मोहन " बिछा रहे हैं । जोरों की बारिश से डर कर शाल के पेड़ , जमीन में धंस से गए हैं । सरोवर की सतह पर कुहासा देख , कवि उसे धुएँ की उपमा देते हैं मानोँ ताल , जल रहा है और उसके ह्रदय से धुंआ उठ रहा है --

पिछले अंतरे में जो वर्षा का जोरों से गिरना उसके बाद ताल और शाल पर उसकी प्रतिक्रिया को इन्द्र के माया जाल के खेल के साथ जोड़ा गया है ।

" वह सरला , उस गिरी को कहती थी - " बादल -घर ! "

यह पंक्तियाँ एक बालिका के लिए लिखी गई हैं जो पर्बतों पर गिरती बारिश को देख उन्हें बादलों का घर कह कर पुकारा करती थी।

कवि की ये अन्तरमा की आवाज़ है , काव्य की आत्मा , या कहें , नज़्म की रूह है ये बालिका को कवि " सरला" यानि " मासूम" कहते हैं ।

कवि श्री सुमित्रानंदन पंतजी हिन्दी काव्य जगत के एक यशश्वी , अमर और जगमगाते नक्षत्र हैं । जिनकी दिव्य ज्योति , आज भी अजर - अमर है। उनकी कविताओं में जो एक मासूम , भोली , नादान नन्ही लड़की का पात्र है , वो अंग्रेज़ी साहित्य के विलियम वर्डज़्वर्थ के एक ऐसे ही पात्र , "LUCY " से भी मेल खाता है ~~ भाव एक से ही हैं , भाषाएँ दोनों कवि के काव्य की अलग अलग हैं , और

कविता रचनेवाले दो अलग भूखंड पर बसे कविर्मनीषी हैं ~~

ये लिंक देखें , ~

~ http://www.readbookonline.net/readOnLine/3315/

" इस तरह , मेरे चितेरे ह्रदय की , बाह्य प्रकृति बनी चमत्कृत चित्र थी "

कवि यह कहते हैं कि, बाहर , जो आँखें देख रही हैं , उसे मन रुपी चित्रकार एक रोमांचक चित्र की तरह अपने सजीव काव्य -शिल्पके द्वारा , रंगों में भर रहा है -

" सरल शैशव की सुखद सुधि ~ सी , वह ,बालिका मेरी मनोरम मित्र थी ! "

यह सरल बालिका , ये मासूम लड़की , शायद सच हो , या कविके सुनहले बचपन के दिनों की मीठी याद ही शायद हो ! या, एक नये अंदाज़ से, सामने आई हो , किसे पता ?

बचपन की याद किसे मीठी नही लगती ? और वे सभी मधुर यादें , आज उनकी मनोरम , सुंदर , बालिका मित्र में समां गई हैं !

शायद हर कवि ह्रदय, तभी कविता लिखता है जब वो उस भाव -भूमि पर जा कर बैठ जाता है जहाँ हर व्यक्ति , एक नादान , भोला बच्चा बन कर , समाज को , लोगों को , घर परिवार को , रिश्तों - नातों को और उनसे उठी अनुभूतियों को तो कभी , प्रकृति को भी देखता है !

कभी ऐसा भी होता है कि , इन सब को देखने परखने के बाद , ये भी सोचता है कि , " मैं कौन हूँ ? मेरा वजूद क्या है इस जहाँ में ? " और तब कवि उस के बारे में सोचता है जो इंसान को दीखलाई नही देता !

प्रत्यक्ष से परोक्ष का सफर वहीँ से शुरू होता है !



~~ लावण्या

Saturday, August 9, 2008

एक विश्व, एक स्वप्न

विक्टोरिया पेँडल्टन ट्रेक और फील्ड धावक - ग्रेट ब्रिटन की महिला खिलाडी बेज़ीँग चीन मेँ जारी ओलिम्पीक मेँ , प्रसन्न मुद्रा मेँ दीखाई दे रही हैँ।
ये सोवियत संघ की महिला खिलाड़ी टीम , ओलीम्पीक के लिए सुसज्ज होकर प्रसन्न हो , चल पड़ीं हैं ....और दर्शक दीर्घा में , बारबरा बुश , अपनी माँ , लोरा बुश के साथ , तल्लीन हैं -
भारत ने जब से , ओलिम्पिक में हिस्सा लेना शुरू किया , तब से आज तक, १५ मैडल , हासिल किए हैं। लगभग ८० साल का समय हुआ है जहाँ, २ रजत पदक, ५ ताम्र पदक
भारत ने होकी के खेल में हासिल किए हैं। दुःख की बात है , इस साल होकी खेल के लिए
भारतीय टीम , शामिल भी न हो पाई !
भारत के लिए दुःख इस बात का भी है के खेलकूद पे भी राजनीति हावी है - खेलकूद के लिए
समय किसे है ? ना ही, सरकारी प्रोत्साहन या सहायता का स्तर ही ऐसा है जिसके बल पर , खिलाडी , तैयार हों !
आम भारतीय, जीवन यापन की दौड़ से , उभरते ही नहीं , ना ही खेलों को जीवन में कोई, ख़ास तवज्जो दी जाती है !
कई सारे दूसरे विषय व शौक , जनता को घेरे हुए हैं । इस के बावजूद , जो भी , स्पोर्ट्स खेले जाते हैं उनमे सिर्फ़ क्रिकेट ही सबसे ज्यादा पोपुलर है और कमाई का जरिया भी और क्रिकेट खिलाडी अब कमाई भी करने लगे हैं।
पहले की अपेक्षा ये स्थिति , अवश्य बदलाव , की है , परन्तु आज क्रिकेट भी कई खेमों में बाँट लिया गया है !
भारत के बच्चों को व्यायाम करवाया जाता है परन्तु खेलकूद के प्रति फ़िर भी , कम ध्यान दिया जाता है -
गली मोहल्ले में , क्रिकेट खेल लेना ही पर्याप्त नहीं रह गया आज के समय में ! हमारा खान पान का स्तर , आज भी , बहुत सुधरा नही - भले ही पाश्चात्य देशों के प्रमुख राजनीतिज्ञ ये कहें की चीन और भारत में खाद्यान्न की खपत बढ़ी है !
उनके देशों के मुकाबले , भारत का आम इंसान , कम ही खाता है !
ये मेरी देखी हुई बात है -- भरोसे के साथ कह रही हूँ .....
ओलिम्पिक खेलों के लिए भारतीय दस्ता काफ़ी विशाल लगा पर उसमे खिलाडी कम, अफसर अधिक होंगें , सरकारी खर्च पे घूमने निकले होंगें !
१९३४ से १९३२ में भारतीय फ़िल्म जगत के जानकीदास नामक हास्य कलाकार ने साइकिल प्रतियोगिता में विश्व विक्रम तोडा था !
ये भी आश्चर्य की घटना थी और बर्लिन १९३६ की ओल्य्म्पिक कमिटी के वे एकमात्र भारतीय सदस्य रह चुके हैं !
इंटरनेशनल ओल्य्म्पिक कमिटी : यहाँ क्लीक करिए और विस्तार से पढिये -

फ्रान्स के कोबुर्टीन नामक सज्जन ने इस की स्थपना, पेरिस शहर मे, १८९२ , २५ नवम्बर के दिन की थी। उस्के पीछे उनकी ये सोच थी कि, खेलकूद से ही शरीर सौष्ठव का विकास होता है जिसके रहते, सर्वाँगीण व्यक्तित्व का विकास भी हो जाता है -
ये बात उन्हेँ फ्रान्स की पराजय के समय समझ मेँ आई -
१८७ इस्वीसन मेँ, फ्रान्स और प्रशीया के युध्ध मेँ जर्मन सेना ने फ्रान्स को बुरी तरह पराजित किया तब एक अमीर फ्रेन्च नागरिक श्रीमान पियेर ड्`कोर्बुटीन : क्लीक करिए : Pierre de Coubertin
ने ये बात पर गौर किया कि शारीरिक निर्बलता ही मूल कारण था उनके देश की सेना की हार का और हमलाखोर जर्मन सेना बलवान सिध्ध हुई थी -
३९३ ईसा पूर्व काल में , प्राचीन ओलिम्पिक खेल हर ४ साल की अवधि पे आयोजित होते थे
यही क्रम १२०० वर्ष तक जारी रहा था -
देखें लिंक : ancient Olympic Games --
ओलिम्पिक खेलों की शुरुआत रोमन बहादुर हर्क्युलीस ने की थी -
Heracles (the Roman Hercules),
जो Zeus / ज़उस माने इन्द्र, जो देवों के अधिपति हैं , उन्ही का देव पुत्र था !
७७६ ईसा पूर्व के काल में उसी ने ओलिम्पस परबत की वादियों में , खेल का आरम्भ किया -
और आज वे सन २००८ में , दुनिया की सबसे ज्यादा आबादीवाले देश चीन के मुख्य शहर बेजींग में , आयोजित किए जा रहे हैं जहाँ विश्व के हर कोने से , खिलाडी प्रतिस्पर्धा के लिए आ गए हैं ....
और अब , विविध प्रकार के खेल आरम्भ हो चुके हैं !
...स्वर्ण, रजत और ताम्र पदक जीते खिलाड़ियों की मुस्कान के साथ, हर प्रदेश के टेलीविजन से , घर घर में प्रसारित हो रहे हैं programme & Events -
हमारी भी यही दुआ है , " एक विश्व, एक स्वप्न " साकार हो !!
- लावण्या








Thursday, August 7, 2008

आम इंसान की जिंदगी

सुजेन हृतिक रोशन, मशहूर स्टार ह्रतिक रोशन की पत्नी हैं - और ख़ुद भी , एक मशहूर कलाकार, हीरो संजय खान की पुत्री हैं -- चित्र में , वे , ननद सुनयना के साथ , सामने बैठी हुई हैं पीछे खड़े हैं पिंकी राकेश रोशन अपने मशहूर बेटे हृतिक रोशन के साथ -
पिंकी निर्माता , निर्देशक जे ॐ प्रकाश जी की गोद ली हुई बिटिया हैं --
जे ॐ प्रकाश जी ने कई " जुबली " मतलब , २५ हफ्ते तक , सिनेमाघर में , धूम मचानेवाली फिल्मों का निर्माण किया था -
उसी के इस सदाबहार नगमे का लुफ्त उठाएं -
शब्द हैं :
" तुम्हे और क्या दूँ मैं दिलके सिवा , तुमको , हमारी उमर लग जाए "

http://www.youtube.com/watch?v=3BrJxN2dcHA

फ़िल्म थी : " आयी मिलन की बेला " और वे एक बार , पापाजी से मिलने के लिए हमारे घर पर भी आए थे ..उनकी हल्की मुखाकृति , आज भी , याद है ...
और राकेश रोशन एक उभरते हुए सिने स्टार थे , देखिये ...
इस गीत में , मूंछ वाले गोरे युवक की भूमिका में यही , राकेश रोशन हैं --

http://www.youtube.com/watch?v=aIRztIeirDs

मशहूर संगीत निर्देशक श्री रोशन साहब के बड़े साहबजादे भी थे वे ..और हम रहते थे खार नामक उपनगर में और उसी के साथ लगा हुआ , नेक्स्ट , उपनगर आता है, " साँता- क्रूज़ " जिसका लिंकिंग रोड भी मशहूर है , वहीं आर्य समाज मन्दिर के सामने " श्री निकेतन " बिल्डिंग कोलोनी के ३ से मंजिल के एक फ्लैट में , रोशन साहब , रहते थे - इस कोलोनी में हमारे कई सहपाठी, कोलेज के दोस्त भी रहते थे और इसी आर्य समाज मन्दिर में हमारा ब्याह भी हुआ था और इसी आर्य समाज स्कूल में आजकी विश्व सुन्दरी , ऐश्वर्या राय , शायद हमारी शादी हुई उस वक्त , शिशु विहार में दाखिल हुई थीं ! ;-)
रोशन साहब की ख्याति , सिने संसार में , फ़ैली हुई थी .... उन्हीं का
स्वर बध्ध किया ये गीत सुनिए : फ़िल्म है " ममता "
http://www.youtube.com/watch?v=WsML3qb2tvQ

वहीं से , राकेश रोशन , उनके , बड़े पुत्र की , सिनेमा में हीरो की हैसियत से , कारकीर्दी शुरू हुई और उनके अनुज , राजेश रोशन , अपने पिताजी के नक्शे कदम पर चलकर सँगीत निर्देशक बने और
" कहो ना प्यार है " के सारे गीत जिन्होँन युवा वर्ग मेँ धूम मचा दी
वे उन्हीँ की सौगात हैँ !

http://www.youtube.com/watch?v=ZoI5kCPbi7M

सुना है , हृतिक रोशन की बहना , सुनयना कैंसर से लड़कर , आज भी मुस्कुराती हुई, जिंदगी के साथ , अपनी जंग जीतने की बाजी लगाए हुए हैं -- इस कलाकार से आबाद एक हँसते हुए परिवार के लिए , मेरी दुआएं ..हैं ...
रोशन साहब की यादों को हमारे स्नेहभरे , नमन !

और ये नीचे के चित्र में हैं स्वर्गीय राजेंद्र कुमार के बेटे गौरव , जो स्वर्गीय सुनील दत्त और अविस्मरणीय अदाकारा ,अभिनेत्री श्रीमता नर्गिस दत्त साहब की बिटिया नम्रता से ब्याहे और उनके बच्चे, संजय दत्त माने मामा जी के साथ , यहाँ मौजूद हैं -

और इस चित्र में हैं ऐ आर रहमान , सफल संगीतकार उनकी पत्नी सायरा के संग

मशहूर हस्तियाँ भी अकसर , आम इंसान की जिंदगी जीते , हम और आप की तरह इंसान ही होते हैं ॥
फिल्में , रजतपट , चकाचौंध और फिल्मी ग्लैमर हमें ये बात भूला देता है के ये भी कहीं हम जैसे ही होते हैं -

हाँ आजीविका और कमाई का साधन जो वे चुनते हैं, उससे वे सुर्खियों में रहते हैं और जनता कई मर्तबा ये समझती है मानो ये अलग मिट्टी से बने , कोई ख़ास किसम के इंसान होंगे -
दक्षिण भारत में , कई बार ऐसा भी हुआ है जब लोग सिने कलाकारों को , भगवान् की तरह पूजने लगे और उनकी प्रतिमाएं भी बनाईं, तस्वीर लगाईं और फूलों के हार भी , भक्तिभाव से चढाये गए और धुप दीप भी प्रज्वलित किया -

अब , ये सुनकर, कोई , हंसा भी होगा -- पर
दुनियाभर में सेलेब्रिटी के लिए, एक अदम्य आकर्षण रहता है । लोग सोचते हैं, ना जाने ये किस तरह जीते हैं, क्या खाते पीते हैं, कहाँ घुमते हैं, कैसे शौक पालते होंगें , कितना कमाते होंगें इत्यादी इत्यादी --

और इस पब्लिक की भूख को , शांत करने के लिए ही , समाचार , तरह तरह के मेगेजिन्स, संवाददाता का बहुत बड़ा कारोबार भी शामिल हो गया है -
२१ वीं सदी के आरम्भ में, दुनियाभर के देशों में ये , करोड़ों अरबों का बिझनेस है
इसीका एक हिस्सा है फोटोग्राफर्ज़ -

जिसे , यहाँ परदेस में " पापाराझीज़ " कहा जाता है --
ब्रिटेन की विश्व विख्यात राजकुमारी लेडी डायना के लिए , दीवानगी इतनी हद्द तक थी के उनकी मौत के वक्त भी , ये पापाराझीज़ की एक फौज से बचने के लिए , वे , मर्सीडीज़ कार को , तेज भगाने का लगातार आदेश दे रही थी और ड्राईवर ने शायद शराब पी थी ..और एक्सीडेंट हुआ जिसमे राजकुमारी की मौत हुई !

...उसके पीछे भी रहस्य कथा के सूत्र आज भी , बकरार हैं ..कोई कहता है, इंग्लैंड के राजघराने की ये साजिश थी ...सच का पता नही ...पर " लेडी डायना " की आकस्मिक मौत , दुनियाभर के , समाचार सूत्रों के लिए, सबसे ज्यादा , दर्शक संख्या , बढ़ाने का , ख़ास प्रोग्राम , बन गया था यहाँ तक के उनके हफ्ते भर बाद ही जब ,
" मधर टेरेसा " की मृत्य हुई , उनकी दर्शक संख्या , कम पाई गयी थी --

इसके पीछे भी एक ही बात थी -- " ग्लैमर " -- ये आज के युग का , आजके समाज का कड़वा सत्य है !
जहाँ , " पैसा शोहरत, पब्लिसीटी " सभी , हाथ में हाथ बांधे, एक साथ , रास्ता तय करते हैं।
इससे कोई भी तबका अछुता नही !

-- यही है आज के समाज का आइना , यही है , आजकी मानसिकता और यही है आज समाज की , समाचार सुनाने की विधा और उसे पचाने की हमारी , सभी की , पाचन शक्ति -

जैसा कहा जाता है यहाँ, ५ मिनट की शोहरत और बस , ५ ही मिनट की , हमारी उनसे जुडी , एकरसता या समरसता --
" अटेण्शन स्पेन " बस वही ५ मिनट का है --
आज, आपके ५ मिनट , इस पोस्ट के लिए :) ही सही .

..........चलिए , आज ये ही ...........फ़िर मिलेंगें ...जी ॥

Wednesday, August 6, 2008

पहला सबक


और सबसे पहले , खुदा ने ....
बनाये आदम और होव्वा
अरे यह कौन गोलाकार - सा ,
उलझा हुआ इस वृक्ष से ?
ये कौन छल्ले की तरह लटका हुआ है , एक डाल से ?

दिशाओं का कोलाहल अब कुछ श्रांत है , वीरान भी ,

वो नर - मादा , प्रथम स्त्री - पुरूष का युगल ,

पेड़ की घनी छाँव के नीचे जो खड़ा था , वहां ,

कुछ क्षणों तक, क्लांत , भय - भीत सा था ,

वह, चुप चाप, नज़रें नीचे कीये, अब, जा चुका है !

नील गगन , स्वर्णिम उषा के ओर -छोर से ,

थक कर , खड़ा है ,बाट जोहता इतिहास की !

कब शुरू होगी कहानी ? सोच रही प्रकृति!

खुदा का हर करिश्मा , जादू बाँट रहा है !

सूखी रह गयी हर टहनी उस पेड़ की

और - सर्प ,छल्ले सा बन , जा लटका ,

पेड़ की टहनी से !

बनाये थे खुदा ने , स्त्री और पुरूष को !

स्त्री के हाथ में , एक फल भी था सजाया -

पुरूष को दिया वह फल, जब स्त्री ने ,

डंख मारा सर्प ने , उस , अमृत फल को !

दंश था वह प्रतीति का , सभानता का -

अकुला उठे थे दोनों , लजाते हुए , देखते रहे,

अपने आप को आदम और हव्वा, वो पहले !

और दुनिया बसाने, फ़िर, वे चल दीये !

और सर्प , पेड़ में जा लिप्त हुआ ,

पत्ते जहर हो गए , मानव इतिहास का यह ,

प्रथम परिचय : प्रथम परिश्रुति

इतिहास की यवनिका के आरम्भ में ,
यूँ , बाइबल धरम --ग्रन्थ का ,
पहला सबक बना !
[- लावण्या ]

Monday, August 4, 2008

नाच रे मयूरा!

नाच रे मयूरा!
नाच रे मयूरा!

खोल कर सहस्त्र नयन,

देख सघन गगन मगनदेख सरस स्वप्न,

जो किआज हुआ पूरा!

नाच रे मयूरा!

गूँजे दिशि-दिशि मृदंग, प्रतिपल नव राग-रंग,

रिमझिम के सरगम पर छिड़े तानपूरा!

नाच रे मयूरा!

सम पर सम, सा पर सा, उमड़-घुमड़ घन बरसा,

सागर का सजल गान क्यों रहे अधूरा?

नाच रे मयूरा!

- पं नरेंद्र शर्मा

ये गीत आकाशवाणी रेडियो कार्यक्रम का सबसे प्रथम प्रसारित किया गया गीत है जिसे स्वर दिया मन्ना डे जी ने और संगीत दिया था श्री अनिल बिस्वास जी ने।

राग : मियाँ की मल्हार

Saturday, August 2, 2008

ये भारत देश है मेरा ...जहाँ डाल डाल पर सोने की चिडियाँ करतीँ हैँ बसेरा


भारत , एक विशाल और प्राचीन देश है जहाँ विविधता का अद्भुत सामंजस्य पाया जाता है। " इंडीया " या भारत , महज एक स्वतंत्र और सार्वभौम देश ही नहीं, विचारों के सम्मिश्रण का प्रकट स्वरूप भी है। जिसकी नाज़ुक एकता , परस्पर गुंथे , अद्रश्य धागों से बंधी हुई है और अपनी भौगोलिक सीमाओं तक फ़ैली हुई है। अपने आप को सम्हाले हुए , विश्व को एहसास करवाते हुए , इस सत्य का कि," भारत आजाद है ..भारत आबाद है ...भारत...है ! "

एक त्रिकोण है, पूर्व में बंगाल की खाडी और पश्चिम दिशा में, अरबी समुद्र से आवृत , दक्षिण दिशा को हिंद महासागर की सीमाएं आरम्भ करतीं हैं जिसके भूखंड पर , १ अरब की आबादी बसती है !

उत्तर दिशा को हिमालय के हिमाच्छादीत पहाड़ , शोभित करते मुकुट बने दीखलाई देते हैं और राजस्थान की रेत से उठते कई सूरमा राजाओं के स्वप्न , मृगतृष्णा से तेज सूर्य के ताप में झिलमिलाते हुए ..अलोप हो जाते हैं !

हिम से ढँके ग्लेशीयरोँ से उतरती गंगा , यमुना ब्रह्मपुत्र , सतलुज, चिनाब , रावी और सिन्धु नदियाँ , उत्तर के रसाल भूभाग को सदीयों से , अपना अमृत जल पिलाती , कई नस्लों का, इतिहास गढ़ने में , अपना मूक , कर्तव्य पालन कर , आज भी धीर गंभीर बनी बहती जा रही हैं !

वर्तमान से भविष्य तक की धारा है ये ..भारत के शरीर की, शिरा और धमनियां हैं ये जो देखतीं हैं, कलकत्ता जैसे शहर को बस्ती से भरे हुए , उप नगर और नगर , जहाँ, आबाद हैं , हर तरह के प्राणी , जहाँ उन का बसेरा है।

बॉम्बे ,कलकत्ता , मद्रास , दिल्ली जैसे महानगर हैं और अलहाबाद, जयपुर , मैसूर, बनारस, लखनऊ, इंदौर , ग्वालियर जैसे संस्कृति के गढ़ भी हैं इस भारत देश में !

हर प्रांत की विविधता को , एक अद्रश्य , एकता के सूत्र में पिरोकर , जीता जागता , भारत देश ही नहीं है ये एक जेवर है , समूचे विश्व का !
हमारा भारत, जिसे परदेसी " इंडिया" कहते हैं और हसरत की निगाहों से देखते हैं और दिल ही दिल में , भारत आकर इस की विविधता में रंग जाने का सपना भी पालते हैं !
जी हाँ, ये सच है !
हम यहाँ, बौध्ध,ईसाई, इस्लाम, जैन धर्म ,ईसा मसीह का ख्रिस्ती धर्म प्रकृति पूजा , पारसीयोँ का जरथ्रुष्ट से शुरु हुआ धर्म , हर कोने मेँ फलता, फूलता हुआ देख लेते हैं --
८४५ भाषाएँ और असँख्य बोलियाँ , आर्य और द्रविड सभ्यता उत्तर और दक्षिण मेँ सुरक्षित और आज भी पनप रहीँ हैँ - तेलेगु, तमिल, कन्नड और मलायली भाषाओँ का साहित्य अति समृध्ध व विशाल है।
कहीँ केसरिया और नीली पगडी बाँधे सीख सँप्रदाय के बहादुर सिँघ आपको दीखाई देँगेँ तो कहीँ नागा साधुओँ का जत्था
" हर हर महादेव " के जयघोष के साथ कुम्भ स्नान मेँ गँगा मैया के आगोश मेँ समाने , धूल और समशान घाट की राख मले दौडता दीखलाई दे जायेगा और जँगलो मेँ , निसर्ग की गोद मेँ पलते , प्राकृत अवस्था मेँ जीते , आदिवासी दीख जायेँगे -
प्रखर ताप से काले हुई चर्म को, मुस्कान से रँगे, मुख हैँ तो कहीँ फ्रान्स से लायीँ गयीँ महँगी इत्र की शीशी से शरीर और महीन शीफोन की साडियोँ मेँ लिपटीँ महारानियाँ शोफर ड्रीवन
" रोल्स रोयस " कारोँ से उतरतीँ दीख जायेँगीँ -
इन्हीँ " "असूर्यशम्पाओँ " के लिये भाट चारण बिरदावली रचा करते थे!
माफ कीजिये, भारत की बात आते ही मेरी बिरदावली सी ये भूमिका भी अपनी ही रौ मेँ बह निकली है और गँगा माई की धारा - सी बहने लगी है।

हम आज मिलने चले हैँ भारत के ३ रे प्रधानमँत्री ,
स्वर्गीय श्री लाल बहादुर शास्त्री जी से...
जिनका जन्म हुआ था
अक्टूबर - २ , १९०४ को और उन्होँने देहत्याग किया
जनवरी - ११ , १९६६ को !
उनका जन्म हुआ मुग़ल सराय , उत्तर प्रदेश में !
उनके पिताजी का नाम था श्री शारदा प्रसाद जी!
माता पिता प्यार से उन्हें 'नन्हे ' कहकर ही पुकारते
थे ये प्रार्थना वे हमेशा करते :
" हे नानक ! मैं कुश ( घास ) की तरह लघु हो जाऊं , क्यूंकि दुसरे पौधे , नष्ट हो जायेंगे परन्तु, कुश हमेशा हराभरा रहेगा "
लाल बहादुरजी के पिता जब वे डेढ़ सालके थे, चल बसे!
वे जब शिशु ही थे तब एक दिन उनकी माता के हाथोँ से नदी मेँ गिर पडे और किसी गौपालक के हाथोँ मेँ जा गिरे - अब वह ग्वाला सँतान के लिये तरस रहा था उसने इसे देव का वरदान मान लिया और वो उन्हेँ अपने घर ले आया ! लाल बहादुर जी के माता पिता ने अखबार मेँ खबर छपवाई और उस ग्वाले को ये बात का पता चला तब उसका ह्र्दय पसीजा और उसने बालक को थाने जा कर लौटा दिया और तब वे पुन: अपने घर पहुँचे थे।
ये घटना अपने आप मेँ अजीब सी है।
माता रामदुलारी देवी ने २ बड़ी बहनों के संग लाल बहादुर को ले , ननिहाल में आसरा लिया।
नाना जी हजारीलाल जी के घर लाल बहादुर जी १० साल तक रहे। आगे की पढाई के लिए मामाजी के घर वाराणसी भेज दिए गए।
हरिस्चन्द्र हाई स्कुल मेँ, पढाई करते रहे और उसी अर्से एक बार दोस्तोँ के सँग, गँगा पार, मेला देखने पहुँचे।
धारा मेँ पानी उफान पर था और लौटकर पार आने के लिये नाविक को देने के लिये गाँठ मेँ अधेला भी नहीँ था !
अब क्या हो ?
स्वाभिमानी लाल बहादुर ने, नदी मेँ छलाँग लगा दी और तैर कर नदी पार कर वे घर पहुँचे थे।
काशी विध्यापीठ मेँ भी शिक्शा ली --
१९२७ , शास्त्री जी का विवाह मिर्झापुर की कन्या
" ललिता देवी " के सँग हुआ
दहेज की प्रथा का प्रचलन , उस समय एक आम बात थी ऐसे समय मेँ अपनी सज्जनता की मिसाल देते हुए, लाल बहादुर जी ने सिर्फ एक चरखा और खादी की कुछ लडेँ ही उपहार स्वरुप स्वीकार कीँ थीँ।
केन्द्रीय कानून मँत्रालय मेँ ,१९५२ , रेल मँत्रालय मेँ १९५२ -५६ , और व्यापार वाणिज्य मँत्री रहे १९५७ -६१ और गृह मँत्रालय मेँ , १९६१ -६३ रहे जब अचानक श्री जवाहरलाल नेहरू का १९६४ में निधन हो गया !
मई २७, १९६४ का दिन, भारत के लिये एक भयँकर आघात बनकर उपस्थित हुआ जब प्रधानमँत्री के पद पर आरुढ जवाहर लाल जी दोपहर को चल बसे !

मुझे याद है, पापाजी ने बतलाया था कि आकाशवाणी के दिल्ली के वरिष्ठ कार्यालय मेँ मानोँ सभी को साँप सूँघ गया हो और काटो तो खून भी न निकले ऐसी परिस्थिती मेँ आम कर्मचारी बौखलाया हुआ, गभराया हुआ, सँज्ञाशून्य सा हो गया था !
कई अधिकारी सहमे हुए, ये अँतराष्ट्रीय स्तर के समाचार को, जाहीर करने से सकपका रहे थे और पापाजी ने अपने ऊपर ये जिम्मेदारी लेते हुए कहा था,
" ये समाचार इसी समय, जनता को देना हमारा कर्तव्य है -"
और समाचार प्रसारित करते ही पहले पूरा भारत और फिर विश्व के सभी हिस्सोँ मेँ शोक की लहर दौड गई थी साथ ही १९६२ की चीनी हमले की अपमान की याद भी कहीँ दब गई थी।
उसके बाद के समय मेँ, भारत मेँ अन्न का अभाव उभर कर सामाने आया था। बँगलूर से लुधियाना तक लोगोँ के असँतोष की अग्नि बाहर आकर भडकती दीखलाई देने लगी थी....

...पँडित नेहरु के शाशन काल मेँ कृषि पर ध्यान नहीँ दिया गया था बल्कि उध्योग और बँध बाँधने मेँ , पँचवर्षीय योजनाएँ चल रहीँ थीँ कुछ सफल हुईँ थीँ कुछ नहीँ।
कश्मीर और कच्छ के रण पर पाकिस्तानी सेना दस्तक दे रही थी युध्ध आया , अभी आया ...
जिससे असँतोष, असहजता, व्याप्त थी।
ऐशिया के अन्य महत्त्वपूर्ण देशोँ मेँ फिर भी भारत अपनी अलग पहचान बना रहा था इतिहास को रच रहा था,
गढ रहा था।
जिस के पीछे एक नन्ही शक्ति खडी थी द्रढता से भारत के प्रधान मँत्री पद की बागडोर सम्हाले हुए थे
श्री लाल बहादुर शास्त्री जी !
सज्जनता की शर्म ओढे , गुलाब का फूल सुफेद झक्क अचकन मेँ खोँसे, सुन्दर लँबे नेहरु जी के स्थान पर ,
छोटे सिर्फ कद से, परँतु अपने चारित्र्य के बल से ऊँचे,
इस सीधे सरल इन्सान पर
भारत की जनता की आस बँधी हुई थी।

शास्त्री जी ने जनता से अपील की थी
कि एक वक्त का भोजन छोड देँ और किसी जरुरतमँद इन्सान को भोजन खिलायेँ -
" जय जवान, जय किसान " का नारा भी
उन्होँने बुलँद किया था।
भारतीय सेना के २ दस्तोँ को पाकिस्तान के पास कच्छ की सीमा पे भेजा तो लोगोँ को उनके साहस का परिचय हो गया।

कैरो, मोस्को, युगोस्लाविया, बेलग्रेड और ओटावा की विदेश यात्राओँ से भारतीय शाँति का सँदेश लाल बहादुर जी ने पहुँचाया तो भारतीय आवाम ने उन्हेँ आदर दिया।

स्वदेश लौटे तो १६ प्राँतोँ के मुख्य मँत्रियोँ को बुलाकर खाध्यान्न के वितरण के लिये "रेशन -कार्ड " व्यव्स्था की शुरुआत करवायी।

पाकिस्तान के साथ युध्ध विराम की घोषणा के बाद,
जनरल अय्युब खाँ से शिखर मँत्रणा के लिये तब शास्त्री जी ताशकँद के लिये रवाना हुए।

ताशकँद इस वक्त उझ्बेकिस्तान का हिस्सा है पर पहले वो सोवियत सँघ का भाग रहा था।
सोवियत प्रमुख कोसीजीन के आग्रह पे ताशकँद करार पर लाल बहादुर शास्त्रीअय्युब खाँ ने ,
१० जनवरी १९६६ के दिन हस्ताक्षर किये -
दूसरे दिन १-३२ मिनट पर ह्र्दय गति रुक जाने के कारण शास्त्री जी का देहाँत हो गया !

आजतक कईयोँ का विश्वास है कि उनके अकाल मृत्यु के पीछे कोई साजिश थी - अब उसका कोई सबूत तो नहीँ है पर इस तरह बहुत कम देश के प्रमुख का परदेस मेँ निधन हुआ है - इसलिये ये प्रसँग आज भी अवास्तविक लगता है।

भारत के इस सच्चे सपूत की समाधि " विजय -घाट" दिल्ली मेँ बनी हुई है और भारत ~ रत्न से लाल बहादुर शास्त्री जी को देशने सम्मान दिया है।
आँध्र प्रदेश का क्रीडाँगण
"लाल बहादुर स्टेडीयम" कहलाता है।
भारत के लाल की कमी सबसे ज्यादा खली उनकी धर्मपत्नी श्रीमती ललिता देवी की बडी सी सिँदूरी बिँदिया की कमी से ! उनके भाल पर , सिँदूरी बिँदिया की गैरहाजरी से !
चूँकि, जब भी ललिता जी को हमने देखा तब , बडी सी बिँदिया सजाये , मुस्कुराता भाभी माँ सा चेहरा ही
आँखोँ के सामने आता रहा है।
भारत के प्रधान मँत्री पद पे फिर एक बार श्री गुलजारीलाल नँदा आये और भारत की स्वतँत्रता की यात्रा चलती रही ~~~
स्वर साम्राज्ञी लता मँगेशकर जी ने ललिता जी के लिखे कुछ भजन व गीतोँ को अपना स्वर देकर इस दँपत्ति को अपनी श्रध्धा से सन्मान दिया है -
ये भजन प्रस्तुत है।
शब्द यहाँ है -
अगर किसी के पास ये गीत हो तो अवश्य सुनवायेँ ।
नॉन - फ़िल्म / गायिका : लता मंगेशकर /
संगीत : श्री चित्रगुप्त जी :
लेखिका : श्रीमती . ललिता शास्त्रीजी / : १९६४ :
(बता दे कोई मोहे श्याम की डगरिया) - २
श्याम की डगरिया मोरे राम की डगरिया बता दे कोई मोहे श्याम की ...डगरिया....
कहाँ मैं ढोओँढ़ोओँ सीता रमन को कैसे मैं पाऔँ श्याम
सुन्दर को बता दे कोई श्याम से मिलने की जतनिया
बता दे कोई मोहे श्याम की डगरिया -२
श्याम सुन्दर की मोहनी मूरतराम-कृष्ण की सावली सूरत -२ दिखा दे कोई दोनों की मोहनी मूरतियाँ
बता दे कोई मोहे श्याम की डगरिया -२
निस दिन तरसत नैन हमारेकैसे मिलेंगे मोहे राम पिया रे -२ दिखा दे कोई ललिथ को श्याम कि नगरिया
बता दे कोई मोहे श्याम की डगरिया -२
श्याम की डगरिया मोरे राम की डगरियाबता दे कोई मोहे श्याम की डगरिया
-- लावण्या के नमन