Friday, January 30, 2009

करिश्मा ये तेरा कुदरत,खुदा का रहमो करम है ये,

बर्फ़ ही बर्फ बिछी हो जमीँ पर,
तब,
इन हौसलोँ का क्या होगा ऐ,
मेरे दील !
हमने भी सुना था, कि,
खुद को इतना तू कर बुलँद,
कि खुदा पूछे कि,
' ऐ बँदे,बता, तेरी रजा क्या है?'
वीराँ लग रही जमीँ है तो क्या है ?
सब कुछ बदल जायेगा,
जो उसकी रजा है !
जो हरी घास बिछी थी,
कालीन -सी,
जमीँ पे मखमली,
आज ढँकी है ,
सुफेदी ओढ !
फिर फूल खिल उठेँगेँ,
उन सूखे दरख्तोँ पे,
मुस्कुराते, हजार रँगोँ मेँ !
है करिश्मा ये तेरा कुदरत,
खुदा का रहमो करम है ये,
हैँ जब तक ऊसूल तेरे कायम,
ना हौसलोँ को टूटने का डर है !
बहारेँ फिर लौट आयेँगी
चमन गुलजार, बाग -बाग होगा
इसकी खुशी है मुझको एय खुदा
आबाद यूँ ही, तेरा , रहमो करम होगा !
तपती हुई धरती से,
ठहरे हुए सहरा से,
मुश्किल हर लम्हे से,
इन्सा ही बनाता है
हर राह नई नई -
जिन पर चलकर,
आतीं हैँ, पीढीयाँ,
इतिहास नया रचने,
सेतु समय पर रखने,
इस २१ वीँ सदी मेँ !
-लावण्या
The snow promises
The coming of spring
The spring that of summer!
Summer's heat beckons autumn
And autumn turns to winter!
The ever-changing cycle
We face with such surety!
As days turn to nights,
And darkness turns to dawn!
Nothing remains the same,
forever,Yet everything looks the same!
A child grows everyday
And a youth becomes a man!
A man will surely age then,
And an old man will surely die!
Who has set all these patterns?
Who controls ebbs and tides?
Who paints the sky above?
And who lends the colors below?
Who fashions each blade and dale?
Who paints the merry flowers?
Who fashioned this world around us?
Who silently smiles and hides?
Who gave me eyes to see all this?
And ears to hear, sweet melodies?
Who gave me love and life?
Who gave laughter and smiles?
Why tears flow from memories,
Why pain brings forth new pain?
What then men strive to gain?
In the whirling, churning flow...
I try to grasp some straws!
These are my understandings?
For the riddles of life's flows.
-- by : Lavanya Shah
हमारे शहर में , आस पास बस , चारों और , यही नज़ारा है
बर्फ ही बर्फ ....पिघली हुई चांदनी सी फ़ैली हुई है ज़मी पर !
किसी ने मानो खेल खेल में ,
रुई के असंख्य ढेर बिछाए हैं
और मन करता है , उन पे ,
हलके हलके पाँव रखते हुए
सरपट भागा जाए !
कुदरत के करिश्मे के सामने ,
वाणी मौन है
पर मन मयूर
नाच उठने को उतावला सा अधीर -!
लावन्या





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Monday, January 26, 2009

भारत की एक बिटिया

पीर विलायत खाँ का जन्म सन्` १९१६ मँ लँदन मेँ हुआ था और वे भारत के सुप्रसिध्ध सँगीतज्ञ हज़रत इनायत खाँ साहब के बेटे थे -
अँतर धर्म समुदाय की बैठक की पार्लियामेन्ट ओफ वर्ल्ड रीलीजन उन्हेँ होलीस्टर सम्मान से, बार्सीलोनिया शहर मेँ नवाजनेवाली थी --
८८ साल की आयु मेँ सुरेन्ज़, नामक शहर जो पेरिस , फ्रान्स की राजधानी से कुछ मीलोँ की दूरी पर है वहाँ पीर विलायत खाँ साहब जो सुफी धर्म के प्रमुख और वक्ता थे उन्होँने , आखिरी साँसेँ लीँ
 दिन था जुन १६, २००४, उनके ८८ वेँ जन्म दिन से २ दिन पहले का !

नाडिया बोलेन्गर नामक सँगीत मर्मज्ञ से चेलो वाध्य की विलायत खाँ ने शिक्षा ली थी --
फ्रान्स की विख्यात सोर्बोर्न अकादमी से उन्होँने मनोविज्ञान विषय की शिक्षा भी ली थी
उनकी बडी बहन नूर और विलायत खाँ ने ब्रिटीश सता की द्वीतीय विश्व युध्ध के समय सहायता करने की ठानी
नुर ने " मेडेलीन " नाम अपनाया !

नुर आका मेडेलीन फ्रान्स और ब्रिटीश सत्ता के लिये बहादुर नायिका बनीँ -
विलायत बम विस्फोटक बँकर की सफाई करते हुए घमासान युध्ध के इलाके , नोर्मन्डी मेँ
" डी -डे "मेँ बम का शिकार हुए थे

१९५० मे साल मेँ अमरीका के न्यू - योर्क शहर मेँ पीर विलायत खाँ साहब ने सूफी सँप्रदाय की शाखाएँ खोलीँ -
 जिनके नाम थे , " ओमेगा इन्स्टीट्यट " और 
 " अबोड ओफ ध मेसेज " !
सन्` १९७० और १९७८ मेँ उनकी कई पुस्तकेँ सूफी सँप्रदाय के बारे मेँ प्रकाशित हुईँ -
 " कोल ओफ ध दरवेश " १९८१ मेँ छपी थी -
साइकोथेरिपी सँबँधित पुस्तकेँ छपी थी
( Introducing Spirituality into Counseling and Psychotherapy (1982),
That which Transpires through that Which Appears (1994), Awakening
(1999), and finally, in 2003,
 In Search of the Hidden Treasure, a wide-ranging exploration of Sufi teachings in the form of an imagined
congress of Sufis through the ages.)

भारत मेँ भी पीर विलायत खाँ साहब ने योग सँबधित,  ध्यान पर केन्द्रीत साधना सीखीँ तथा अन्य कई धर्म गुरुओँ से मुलाकातेँ करते हुए भ्रमण किया था
 बौध्ध, यहूदी, क्रिश्चीयन हिन्दू सभी धर्मोँ का ऐक्य उन्होँने अनुभव किया और सूफी सँप्रदाय की नीँव मजबूत की
१९६५ से वे अँतर धर्मोँ की बैठकोँ का आयोजन कर,  परस्पर समभाव का प्रचार प्रसार करते रहे..

वैज्ञानिकोँ से भी अक्सर धर्म और विज्ञान सँबँधी विस्तृत बातचीत करते रहते...

ध्यान कैम्प आल्प्स पर्बत की छाया मेँ शिबिर का अयोजन कर किया करते रहे
और अमरीका मेँ भी किये जहाँ हज़ारोँ लोगोँ ने ध्यान और योग सीखा
उनकी पत्नी मेरी वोल्स थीँ जिन के सँग ५० वर्ष साथ बिताये
बहन क्लेर हार्पर थीँ और भाई थे हिदायत खाँ
पुत्री मारिया और पुत्र ज़िया उन के वारिस हैँ और पीर विलायत खाँ के शरीर को उनके पिताजी की कबर के पास भारत ले जाकर दफनाया गया

ज्यादा जानकारी के लिये यहाँ क्लिक करेँ और देखेँ
Additional information can be found @ PirVilayat.org, Universel.net,
and

अब कथा मेँ आतीँ हैँ राजकुमारी नुर

- इस कथा का फलक अति विशाल है -
कथा के पात्र रशिया से चलकर प्रथम विश्व युध्ध से पहले
नुर अपने माता पिता और ३ भाई बहनोँ के साथ पेरिस पहुँची थी

१९१४ मेँ वे लँदन चले गये
१९२० मेँ दुबारा पेरिस फ्रान्स की राजधानी लौट आये
जहाँ नुर सँगीत और कविता सीखती रही
१९४० मेँ जब नुर के परिवार ने युध्ध स्थल बने पेरिस को छोडा
तब तक नुर की प्रथम पुस्तक
" २० जातक कथाएँ " छप चुकी थी
लँदन मेँ वायर - लेस ओपरेटर का काम नुर की रुचि के मुताबिक निकला
वुमेन्स ओक्ज़ीलरी फोर्स से नुर जुडीँ
और बहुत बाद मेँ डायरेक्टर पद पर भी आसीन हुईँ
ब्रिटेन की सरकार ने नुरुन्नीसा को मृत्यु के बाद सर्वोच्च सम्मान " जोर्ज क्रोस " दिया और
फ्रान्स की सरकार ने उन्हेँ सबसे उच्च
" क्रोइक्स डी गुर्रे " सम्मान से नवाजा
भारत के सुरक्षा मँत्री श्री प्रणब मुखर्जी अपनी विदेश यात्रा के दौरान
जब फ्रान्स पहुँचे तब वे नुर के पुश्तैनी मकान
( at Rue de la Tulleries ) पहुँचे
और उन्हेँ सम्मान (मरणोपराँत) दिया !

अब आप सोच रहे होँगेँ , ऐसा क्यूँ ?
तो सुनिये,

नुर् उन्नीसा इनायत खाँ द्वीतीय विश्व युध्ध के सभी पात्रोँ के बीच
एक अति रहस्यमय और रोमाँचक पात्र रहीँ हैँ

मुस्लीम पिता और अमरीकी माँ की बेटी नुरुन्नीसा,  ब्रिटीश सता को आखिरी दिनोँ तक,  जर्मन सेना की गतिविधियोँ के बारे मेँ सूचना देतीँ रहीँ , आगाह करतीँ रहीँ और फ्रान्स जो हार गया था उसके लिये अपनी जान की बाजी लगातीँ रहीँ

नुरुन्नीसा के घर के बाहर फ्रान्स की सरकार हर १४ जुलाई के अपने राष्ट्रीय स्वतँत्रता दिवस के पावन अवसर पर ब्युगल बजाकर
 इस वीराँगना को सलामी देती है

सन १९४३ तक जब फ्रान्स की हिम्मत पस्त हो चुकी थी , नुर अँतिम जासूस थी जो बराबर शत्रु की हर चाल से ब्रीटनया और फ्रान्स और अब युध्ध मेँ शामिल हुए अमरीकी फौजी दस्तोँ को सही खबरोँ से आगाह करती रही -
अक्तूबर १९४३ को नुर को र्मन सेना के वरिष्ठ कमान्डरोँ ने बहुत अर्से बाद पक़ड लिया
नुर ने जेल से निकलने की कई असफल कोशिशेँ कीँ अँत मेँ उसे जर्मनी की जेल मेँ एकाँत वास मेँ सबसे खतरनाक कैदी की बहुत कडी सुरक्षावाली जेल मेँ रखा गया -
नुर से राज़ उगलवाने की नाकाम कोशिसेँ होतीँ रहीँ पर उसने मुँह नहीँ खोला तो नहीँ खोला
भयानक "डाचु कनसन्ट्रेशन कैम्प" मेँ आखिर सितम्बर १३, १९४४ के दिन नुर ने भीषण शारीरिक यातना से हार कर अपने प्राण खोये !



एक और विस्मयकारी क्रम ये है कि नुरुन्नीसा
 टीपु सुल्तान की वँशज थीँ उनकी पड़ पोती थी !
PRINCESS NOOR APPRECIATION SOCIETY INTERNATIONAL 1998
BEGUM NOOR CONNECTION


भारत के सुरक्षा मँत्री श्री प्रणब मुखर्जी ने वहाँ आगँतुक डायरी मेँ अपने मनोभाव व्यक्त करते हुए ये लिखा ~~~~
"Noor-un-Nisa Inayat Khan was an extraordinary heroic woman
who fought and gave her life for freedom and liberty,"
Mukherjee wrote on the
Visitor’s Book at her home on Monday.

फज़ल मँज़िल के पुश्तैनी मकान मेँ आज भी नुर का नाम लिखा हुआ है

NOOR INAYAT KHAN १९१४ -१९४४

Madeleine dans la Resistance
Fusillee a Dachau
operatrice-radio des reseaux Buckmaster
Croix de Guerre 1939-1945 George Cross

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Here lived Noor Inayat Khan 1914-1944
Called Madeleine in the Resistance
Shot at Dachau
Radio operator for the Buckmaster network
Awarded the French Croix de Guerre 1939-1945, and the English George Cross

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Additional Notes:

Many thanks to David Fideler at
caravansarai for this :-
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She stood out among her schoolmates for her shyness. Her mysterious and
luminous glance and slightly tanned face could not fail to attract notice.
Undoubtedly she was intimidated by the teasing directed against any
unfamiliar child, yet she answered with an understanding and winning
smile. One could hardly believe that her mother was a blonde American with blue eyes, if it were not for certain hardly discernible features.
Her father had come from India and settled in Suresnes. This Eastern sage drew people from all corners of the world to Suresnes.
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She so greatly gained the affection of her school pals that they elected her for the prize of "good comradeship." When she was twelve years old,
after the Master's death, she became a little mother to her brothers and sisters, as her mother was committed to bed for years, suffering from the
physical symptoms of a broken heart. All those who knew her had a deep respect for her and were moved by some endearing feature of her being.
Was it because she so deeply cared for all those she came across-even her jailers?
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During the Second World War, this gentle girl distinguished herself by her courage as one of the heroes of the French Resistance. And yet, in
the middle of her greatest acts of courage she was afraid, which makes
her extreme courage the more remarkable. This should embolden those who
are afraid of being cowards when tested.
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On the eve of the war, Noor and I conferred deeply and at length on the pros and cons of our participation in the war. The problem was the same
question asked today by conscientious objectors. We had been formed at
the school of our father, an Eastern sage and teacher. Behind him lay the entire tradition of Eastern spirituality. The then budding Gandhian
non-violent campaign had proven its effectiveness as a means of
confronting violence but was barely explored in the West. And was this
not the message of Christ? Was there not a contradiction in killing in
order to stop manslaughter? But suppose a Nazi should hold hostages at
gunpoint and starve them to death; it would be complicity in their murder if, having the means to kill the Nazi and unable to otherwise
prevent him from carrying out his deed, we abstained from doing it in
the name of non-violence। As we had that conversation, could we have ever imagined that one day Noor would find herself in the plight of the people she wanted to save?
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In the face of the extermination of Jews, how could one preach spiritual morality without actively participating in preventive action?
The secret behind Noor's courage was the spiritual power inspired by our father,
Hazrat Inayat Khan:
spiritual idealism in action,
not just in words।

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After our exodus from Paris, the convoys of cars were mowed down by the
machine guns of the Nazi pilots zooming at ground level during the embarkation at Bordeaux. We volunteered, Noor in the secret service
network linking up with the French underground, the Maquis, I as a
fighter pilot in the Royal Air Force. The secret service discovered
in Noor the ideal agent: she was bilingual and knew the French territory and French customs and so gentle that nobody could have
suspected her daring.
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During the intensive training at the limits of human endurance, Noor
distinguished herself by her perseverance. So much depended upon the
leverage applied by the French Underground from inside. At the critical
moment before the D-Day landing in Normandy she remained the last radio
operator on the Continent, ensuring the last link between the Allied
Headquarters and the French Underground. The life and death of millions
and the fate of generations after the war was to depend upon one
spirited by the vocation of a hero who accepted the risk of the supreme
sacrifice: torture.
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She was denounced by a "friend," a sister of a colleague in the network
who sold information about her whereabouts to the Gestapo for a fee of
approximately one thousand francs. The annals of her interrogation are
silent about the torture, but one gleans echoes that are filled with
terror. Her attempts to escape resulted in her being chained in a cold
prison in Pforzheim with one bowl of soup daily, made out of potato peel.
Her ordeal lasted until the very moment when, as the Allies advanced into
West German territory, they discovered the horrors of the concentration
camp. She was immolated at the extermination camp of Dachau a few days
before the Allies rescued those few who could still be saved from the
carnage. A witness affirms having seen the gauleiter try to coerce her
into saying, "Heil Hitler." She refused, saying, "The day will come
when you will see the truth," wherefore she was whipped to death.
  • लावण्या

Thursday, January 22, 2009

बदलाव, जारी रहने की खुशी है.......... .

प्रेसीडन्ट के अमरीकी सील पर खडे नृत्य करते हुए प्रथम दँपत्ति बराक ओबामा और मीशेल ओबामा
"पापा यू आर ग्रेट"

टसकीगी वायुसेना का दल : राष्ट्रपति ट्रुमेन के समय मेँ और आज ओबामा के साथ : सन २००७ मेँ उस वक्त सीनेटर रहे ओबामा ने इन्हीँ बहादुर जाँबाज़ विमान चालकोँ को याद किया था
टसकीगी एरमेन का दस्ता द्वीतिय विश्व युध्ध मेँ अमरीकी राष्ट्रपति हैरी ट्रुमेन की सता के तहत
बहादुरी की मिसाल कायम कर चुके थे परँतु सम्मान और समान दर्जा हासिल नहीँ कर पाये थे.
उसके बाद रेवरँड मार्टीन ल्युथर कीँग ने,
" मेरा एक स्वप्न है कि मै , समानता और प्रेम देखूँगा ."

का सँदेस दिया था जिसके बाद उनकी निर्मम हत्या की गई ..

और आज ओबामा के राष्ट्रपति पद पर नियुक्ति पर,टस्कीगी के बहादुरोँ को सम्मानीय अतिथि की हैसियत से ओबामा का बुलावा पहुँचा था जो, बदलाव का सूचक है लोगोँ का आमूल ह्रदय परिवर्तन भी एक स्वप्न ही है .

जो सत्य होते शायद हम कभी ना देख पायेँगेँ परँतु,

बदलाव जारी रहने की खुशी भी है .

टसकीगी विमान दल के बारे मेँ अधिक जानकारी पढने क लिये लिन्क हैँ यहाँ
ttp://www.nytimes.com/2008/12/10/us/politics/10inaug.html?_r=1&scp=3&sq=Tuskegee%20air%20men&st=cse
टसकीगी विमान दल : आज ~~~
हिन्दी ब्लोग जगत पर, बहुत सी प्रतिक्रियाएँ पढने को मिलीँ
- घुघूती जी ने लिखा -

और कुन्टा किन्टे सफल हो गया~~ और ये है

" ~~~



सफेद घर में काले आदमी का प्रवेश,

अनूप "सुकुल जी " का कहना था ओबामा एक ठो इधर भी लाओ यार
जापान मेँ आज भी एक सामाजिक असमानता और अवरोध मौजूद हैँ यह पढ कर विस्मय हुआ -बुराकु जाति के लोग आज भी उच्च पद पर आसीन नहीँ हो पाते और वे भी शौचालय साफ करना, मृत देह की अँतिम क्रिया जैसे कार्योँ को करते थे आप भी देखिये लिन्क : JapanFor Japan, the crowning of Hiromu Nonaka as its top leader would have been as significant as America’s election of its first black president. Taro Aso, By NORIMITSU ONISHI
('http://www.nytimes.com/2009/01/16/world/asia/16outcasts.html')
हम इंडियन लोग और अमेरिकन ओबामा
ओबामा से सोनिया तक यात्रा बदलाव की
पिछले दिनोँ ये फिल्म देखी और उस पर कई प्रतिक्रियाएँ भी पढीँ - अमरीका मेँ जब बास्केट बोल का खेल हो और गेँद नेट मेँ निशाने से पार हो जाये उसे कहते हैँ " स्लैम डँक़ " यही किया है इस फिल्म स्लम डोग ने और अमरीकी आदत हमेशा "अँडर डोग " माने जो सर्वथा माइनस लिये हो उसके पक्ष मेँ सहानूभुति जताने मेँ अव्वल है सो, ये "अँडर डोग " बालक की गाथा भी विजयी हुई बोक्स ओफिस पर "वर्ड ओफ माउथ " माने एकदूसरे के कहने से सर्वाधिक लोकप्रियता प्राप्त करने मेँ सफल हुई है - "गोल्डन ग्लोब विजेता रहमान को लोग पहचानने लगे हैँ ..और स्लेम डँक़ - अँडर डोग मीलीयेनर"

सफल फिल्म हुई है - ये भी देखिये --

आओ स्‍लमडॉग मिलेनियर देखें और कँचन के मन मेँ यह आईँ बातेँ :
"पुस्तक एडविना और नेहरू के बहाने गाँधी " ~~~

मेरी नानी जी "कपिला बा " अक्सर कहा करतीँ थीँ, " देवता भी इन्सान के बनाये हुए हैँ और देवता से दूरी ही भली "
गुजराती मेँ सुलगते हुए कोयले को भी "देवता " ही कहते हैँ ~~ उनका यही आशय था, कि हर सँत, मुनि, लीडर,नायक वगैरह से दूर से "राम राम " करो, हाथ लगाने से जलने की सँभावना है -
मेरी अम्मा की सीख भी यही रही,

"अपने घर की सात्विकता और शाँति और सुख को सर्वोपरि रखना ही सबसे श्रेष्ठ है "

और हम तो यही कहते हैँ कि,

( कृप्या इन ब्लोग प्रविष्टीयोँ पर click करेँ और पढेँ )

"समय ! धीरे धीरे चल !"

,

Thursday, January 15, 2009

"महा गणित "

पूर्ण को पूर्ण से निकाल लो फ़िर भी पूर्ण ही रहता है !
( चित्र पर --- क्लिक करेँ )
मुझे विश्वास है कि आज की पोस्ट पढकर अभिषेक भाई तथा सभी जिन्हेँ "गणित " विषय मेँ दिलचस्पी है उन्हेँ बहुत प्रसन्नता होगी !

गणित मेरा सबसे कमजोर विषय रहा है तथा सर्वथा उपेक्षित भी !

पैसा भी गणना से ही सँभाला जाता है परँतु 'लक्ष्मी देवी " का दूसरा नाम "चँचला " भी तो है ! वे कहाँ स्थिर होने लगीँ किसी एक के पास !!

नारायण ही एक मात्र प्रियतम पूर्ण पुरुषोत्तम हैँ 'लक्ष्मी देवी के

....जहाँ वे, चरण सेवा मेँ सँलग्न रहतीँ हैँ -स्थिर रहतीँ हैँ !

आजकल यहाँ समाचार सुनते हुए अचानक बीलियन डालर कर्जे की राशि जो भावि अमरीकी पीढी पर लाद दी गई है उसकी जगह अब ट्रीलियन डालर बजट डेफीसीट के आँकडे उछाले जा रहे हैँ !

तब ट्रीलियन शब्द सुनकर मैँ चौँकी और फिर सोचने लगीकि

" हे नारायण ! ये ट्रीलियन तो बहुत बडा आँकडा लगता है !!

अब और कोई लडाई छिडी, तब इसके भी आगे कौन सा नँबर आयेगा ?"

चलो पता तो करेँ - और "गुगल देवता " की कृपा से कुछ चटके लगाते ही बडा दीलचस्प नज़ारा सामने आया --

यहाँ भी हमारे भारतीय गणितज्ञोँ के ज्ञान तथा नामकरण सामने आये --

बडे बडे अँकोँ के लिये सुँदर सुँदर नाम भी हमारे महा ज्ञानी गणितज्ञोँ ने रखे हैँ -- आपने भी शायद सुने होँगेँ -

अब हमेँ भी नाम देने का शौक है तो आज इसे

"महा गणित " ही कहे देते हैँ !!

और कोई नाम आप को पसँद हो तब - आप भी सुझा देँ -

यहाँ कोटी से आगे के नाम हैं अगर इनमे संशोधन या सुझाव देना हो अवश्य दीजियेगा -- मैं इन सारे नामों को पहली बार पढ़ रही हूँ

-- Yajur Veda यजुर वेद ने (ईसवी पूर्व . १२०० –९०० ) कहा था ,

" पूर्ण को पूर्ण से निकाल लो फ़िर भी पूर्ण ही रहता है !
ललिताविस्तार सूत्र महा यान बौध्ध ग्रन्थ में एक प्रसंग है
जहाँ बुध्ध तथा कई प्रतिद्वंदी भाग लेते हैं --
लेखन, गणित, अंक गणित , मल्ल युध्ध, धनुष विद्या जैसे खेल रखे गए हैं --

बुध्ध तथा उस युग के महान गणितज्ञ अर्जुन के बीच अँकोँ की स्पर्धा होती है

१ तल्लक्षणा, १०५३ -- powers of ten up to 1 'tallakshana',

which equals १० ५३ , यह अंक बुध्ध बतलाते हैं और जीत जाते हैं !

बौध्ध धर्म में लिखी सबसे बड़ा अंक अवतास्मका सूत्र मेँ है १०३७२१८३८३८८१९७७६४४४४१३०६५९७६८७८४९६४८१२८ ,
कोटी—10 7
अयुत —109
नियुत—1011
कंकर —1013
पकोटी—1014
विवर —1015
क्षोभय —1017
विवाह —1019
कोटीप्कोटी—1021
बहुल—1023
नागबल —1025
नाहटा —1028
तित्लाम्भा —1029
व्यवस्थानापज्नापति —1031
हेतुहिला —1033
निन्नाहुता —1035
हेत्विन्द्रिया —1037
समप्तालाम्भा —1039
गणनागति —1041
अक्खोबिनी —1042
निरवद्य —1043
मुद्रबल—1045
सर्वबल —1047
बिन्दु —1049
सर्वजन —1051
विभुतान्गम —1053
अर्बुद—1056
निरब्द —1063
अहः —1070
अब्र —1077
अटत् —1084
सोगंघिका —1091
उप्पल —1098
कुमुद —10105
पुण्डरिक—10112
पदम —10119
कथना —10126
महकथाना —10133
asankheya/ असँख्य —10140
ध्वजग्रनिशाम्नी —१०४२१

१००० × १००० २ = १०९ बिलियन होता है और

उस से बड़ा अंक ट्रीलियन १००० × १००० ३ = १०१२ होता है ---
अमेरिका : और माडर्न ब्रिटिश में नाम अलग अलग होते हैं --

Million : अमेरिका में कहते हैं और ब्रिटिश उसे यही कहते हैं जबके, अमरीकी

बिलियन : और ब्रिटिश उसे Thousand million-- कहते हैं !

फ़िर आता है अमरीकी , Trillion जिसे ब्रिटिश " बिलियन" कहते हैं !

अब आया, Quadrillion , Quintillio Sextillion Septillion, Octillion, Nonillion, Decillion, Undecillion, Duodecillion, Tredecillion, Quattuordecillion, Quindecillion, Sexdecillion -- देखिये -- ये लिंक :


http://en.wikipedia.org/wiki/Names_of_large_numbers


एक १ ,००० १ - १ एक १ ,००० ,००० ० .०
१० ३ = १ ,००० हजार १ ,००० १ + ० हजार १ ,००० ,००० ० .५
१० ६ = १ ,००० ,००० लाख १ ,००० १ + १ लाख
१ ,००० ,००० १ .०
१० ९ = १ ,००० ,००० ,००० बिलियन

१ ,००० १ + २ हजार मिलियन ( (इसे मिलियर्ड भी कहते हैँ )1,000,000 1.5
१०१२ = १ ,००० ,००० ,००० ,००० ट्रीलियन
१ ,००० १ + ३ बिलियन
१ ,००० ,००० २ .०
१०१५ = १ ,००० ,००० ,००० ,००० ,००० क्वाड्रीलियन .....
"Fast Food Nation," ( किताब के अँग्रेज़ी नाम पर क्लिक करेँ ज्यादा जानकारी के लिये ) के लेखक ऐरिक स्लोशर Eric Schlosser का कहना है , अमिरिकी फास्ट फूड विक्रेताओँ मेँ सबसे सफल "मैकडोनाल्ड ", " क्वीँटीलियन " नामक भौगोलिक सूचना पद्ध्ति इस्तेमाल करता है --

" Geographic Information System "
( अँग्रेज़ी नाम पर क्लिक करेँ ज्यादा जानकारी के लिये )

Quintillion : satellite photos, income, new housing plans, and road layouts to predict future incomes and population patterns.[12]

Some More Reading :
The names googol and googolplex were invented by Edward Kasner's nephew, Milton Sirotta, and introduced in Kasner and Newman's 1940 book, Mathematics and the Imagination,[14]

in the following passage:
Words of wisdom are spoken by children at least as often as by scientists. The name "googol" was invented by a child

(Dr. Kasner's nine-year-old nephew) who was asked to think up a name for a very big number, namely 1 with a hundred zeroes after it.

He was very certain that this number was not infinite, and therefore equally certain that it had to have a name.

At the same time that he suggested "googol"

he gave a name for a still larger number: "Googolplex".

A googolplex is much larger than a googol, but is still finite, as the inventor of the name was quick to point out.

It was first suggested that a googolplex should be1, followed by writing zeros until you got tired.

This is a description of what would actually happen if one actually tried to write a googolplex, but different people get tired at different times and it would never do to have Carnera a better mathematician than

Dr. Einstein, simply because he had more endurance.

The googolplex is, then, a specific finite number,

with so many zeros after the 1 that the number of zeros is a googol.

The highest numerical value banknote ever printed was a note for 100 trillion marks printed in Germany in 1924.

In 2008, Zimbabwe was forced to print a 100 billion Zimbabwean dollar note, which at the time of printing was only worth about the cost of two loaves of bread.[13]

गूगोल: : १०१०० ✓✓✓✓✓✓✓
googolplex:१०

googolगूगोल:✓✓✓✓✓✓

१४७५
French mathematician Jehan Adam recorded the words

"bymillion" and "trimillion" as meaning 1012 and 1018 respectively।

1484
French mathematician Nicolas Chuquet, in his article "Triparty en la science des nombres",[7] [8] used the words byllion, tryllion, quadrillion, quyllion, sixlion,septyllion, ottyllion, and nonyllion to refer to 1012, 1018, etc. Chuquet's work was not published until the 1870s, but most of it was copied without attribution byEstienne de La Roche and published in his 1520 book, L'arismetique