Tuesday, October 4, 2016

माँ दुर्गा नौ शक्तियों का वर्णन /उत्तर अमरीका गणराज्य में भारतीय परंपराएं व त्यौहार

ॐ 
भारत विविधता में एकता समेटे हुए एक महादेश है।भारत के विशाल उपखंड पर अनेक त्यौहार एवं  उत्सव, भारत के प्रत्येक प्रांत में बसे हुए विभिन्न कौम के नागरिकों द्वारा अलग अलग तरीकों से मनाए जाते हैं। भारतीय मूल के लोग अब विश्व के सातों खण्डों में बस गए हैं।वे अपने संग भारतीय परंपराएं , तीज त्यौहार और धार्मिक अनुष्ठानों को भी दैनिक जीवन में खूब मन से सम्पूर्ण आयोजन कर , संपन्न करते हैं। 
        उत्तर अमरीका गणराज्य के ५० प्रांत हैं। इन प्रत्येक प्रान्त में  भारतीय मूल के लोग भारत से आकर बसे हुए हैं। 
गुजरात से अमरीका आकर बसी प्रजा गरबा , डांडिया के लोक नृत्यों का सामूहिक आयोजन कर माँ अम्बिका भवानी की आरती करते हुए श्रद्धा विगलित हुए , प्रसाद धरते हैं और पारंपरिक लोक गीतों को जो मध्यकालीन भारत में प्रत्येक गाँव और छूटे बड़े जनपदों में गाया जाता रहा है उन्हीं गीतों को अब अमरीका में भी सहर्ष , सोल्लास गाते हुए गोलाकार में प्राचीन लोक नृत्य करते हैं। हर्षित होते हैं। 
पंजाब से आये हुए भारतीय लोग नवरात्रि में माता का जगराता आयोजित करते हैं।माँ  को नई चुनरी चढ़ाई जाती है और अखंड भजन पाठ किया जाता है। कई श्रद्धालु ९ दिन उपवास रख कर फलाहार और उपवास के व्यंजन ही खाते हैं। उनकी श्रद्धा और आस्था में कोइ फर्क नहीं आया कि अब यह भारतीय भारत में नहीं रहते बल्कि वे अब अमरीकी नागरिक हो गए हैं ! वही जोश, वही परंपराएं और वही माहौल कायम है ! 
     बंगाल से आये लोग माँ दुर्गा की स्थापना करते हैं और बंगाल में प्रात: काल में जो बंगाली भद्र लोक  माँ दुर्गा की स्तुति सुना करते थे अब वे अमरीका में स्थानांतरित होकर भी यही स्तुति सुनते हैं। 
महादेवी नव रात्रि के पावन ९ दिनों में ९ स्वरूपों में पूजित हैं।जिनके नाम इस प्रकार हैं। 
१ ) शैलपुत्री : सती स्वरूप में शिव पत्नी और प्रजापति की कन्या सती योगाग्नि में भस्म हो गईं और पुनर्जन्म पर्बतराज  हिमालय की बेटी बनकर देवी का जन्म हुआ। शैल या पर्बत की पुत्री शैलपुत्री कहलाईं।उनके अन्य नाम भवानी, हेमावती, पार्वती, सती व परा प्रकृति है।ललाट पर अर्ध चंद्र , दाऐं हस्त में त्रिशूल व बाएं में कमल धरे नंदी बैल पर विराजमान देवी माँ 
मूलाधार चक्र कीअधिष्ठात्री देवी हैं। 

ध्यान

वन्दे वांछितलाभाय चन्द्रार्धकृत शेखराम्।
वृषारूढ़ा शूलधरां शैलपुत्री यशस्वनीम्॥
पूर्णेन्दु निभां गौरी मूलाधार स्थितां प्रथम दुर्गा त्रिनेत्राम्॥
पटाम्बर परिधानां रत्नाकिरीटा नामालंकार भूषिता॥
प्रफुल्ल वंदना पल्लवाधरां कातंकपोलां तुग कुचाम्।
कमनीयां लावण्यां स्नेमुखी क्षीणमध्यां नितम्बनीम्॥

स्तोत्र पाठ

प्रथम दुर्गा त्वंहि भवसागर: तारणीम्।
धन ऐश्वर्य दायिनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यम्॥
त्रिलोजननी त्वंहि परमानंद प्रदीयमान्।
सौभाग्यरोग्य दायनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यहम्॥
चराचरेश्वरी त्वंहि महामोह: विनाशिन।
मुक्ति भुक्ति दायनीं शैलपुत्री प्रमनाम्यहम्॥

कवच

ओमकार: में शिर: पातु मूलाधार निवासिनी।
ह्रींकार: पातु ललाटे बीजरूपा महेश्वरी॥
श्रींकार पातु वदने लावाण्या महेश्वरी ।
हुंकार पातु हदयं तारिणी शक्ति स्वघृत।
फट्कार पात सर्वांंगे सर्व सिद्धि फलप्रदा॥
शैलपुत्री देवी 
मूलाधार चक्र कीअधिष्ठात्री 
Shailaputri Sanghasri 2010 Arnab Dutta.JPG
माँ दुर्गा की नौ ९ शक्तियों का वर्णन २) दूसरा स्वरूप ब्रह्मचारिणी का है।
ब्रह्मचारिणी द्वितीय
ब्रह्मचारिणी देवी
 यहाँ ब्रह्म शब्द का अर्थ तपस्या है। ब्रह्मचारिणी अर्थात तप की चारिणी-तप का आचरण करने वाली। ब्रह्मचारिणी देवी का स्वरूप पूर्ण ज्योतिर्मय एवं अत्यंत भव्य है। इनके दाहिने हाथ में जप की माला एवं बाएँ हाथ में कमण्डल है।


ध्यान

वन्दे वांछित लाभाय चन्द्रार्धकृत शेखराम्।
जपमाला कमण्डलु धरा ब्रह्मचारिणी शुभाम्॥
गौरवर्णा स्वाधिष्ठानस्थिता द्वितीय दुर्गांं त्रिनेत्राम।
धवल परिधाना ब्रह्मरूपा पुष्पालंकार भूषिताम्॥
परम वंदना पल्लवराधरां कांत कपोला पीन।
पयोधराम् कमनीया लावणयं स्मेरमुखी निम्ननाभि नितम्बनीम्॥

स्तोत्र पाठ

तपश्चारिणी त्वंहि तापत्रय निवारणीम्।
ब्रह्मरूपधरा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥
शंकरप्रिया त्वंहि भुक्ति-मुक्ति दायिनी।
शान्तिदा ज्ञानदा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥

कवच

त्रिपुरा में हृदयं पातु ललाटे पातु शंकरभामिनी।
अर्पण सदापातु नेत्रो, अर्धरी च कपोलो॥
पंचदशी कण्ठे पातु मध्यदेशे पातु महेश्वरी॥
षोडशी सदापातु नाभो गृहो च पादयो।
अंग प्रत्यंग सतत पातु ब्रह्मचारिणी।
३) माँ दुर्गा की तृतीय शक्ति का नाम चंद्रघंटा है। 
चंद्रघंटा तृतीय
देवी चंद्रघंटा
 नवरात्रि विग्रह के तीसरे दिन इन का पूजन किया जाता है। माँ का यह स्वरूप शांतिदायक और कल्याणकारी है। इनके माथे पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र है, इसी लिए इन्हें चंद्रघंटा कहा जाता है। इनका शरीर स्वर्ण के समान उज्ज्वल है, इनके दस हाथ हैं। दसों हाथों में खड्ग, बाण आदि शस्त्र सुशोभित रहते हैं। इनका वाहन सिंह है। इनकी मुद्रा युद्ध के लिए उद्यत रहने वाली है। इनके घंटे की भयानक चडंध्वनि से दानव, अत्याचारी, दैत्य, राक्षस डरते रहते हैं।

ध्यान

वन्दे वांछित लाभाय चन्द्रार्धकृत शेखरम्।
सिंहारूढा चंद्रघंटा यशस्वनीम्॥
मणिपुर स्थितां तृतीय दुर्गा त्रिनेत्राम्।
खंग, गदा, त्रिशूल,चापशर,पदम कमण्डलु माला वराभीतकराम्॥
पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्।
मंजीर हार केयूर,किंकिणि, रत्नकुण्डल मण्डिताम॥
प्रफुल्ल वंदना बिबाधारा कांत कपोलां तुगं कुचाम्।
कमनीयां लावाण्यां क्षीणकटि नितम्बनीम्॥

स्तोत्र पाठ

आपदुध्दारिणी त्वंहि आद्या शक्तिः शुभपराम्।
अणिमादि सिध्दिदात्री चंद्रघटा प्रणमाभ्यम्॥
चन्द्रमुखी इष्ट दात्री इष्टं मन्त्र स्वरूपणीम्।
धनदात्री, आनन्ददात्री चन्द्रघंटे प्रणमाभ्यहम्॥
नानारूपधारिणी इच्छानयी ऐश्वर्यदायनीम्।
सौभाग्यारोग्यदायिनी चंद्रघंटप्रणमाभ्यहम्॥

कवच

रहस्यं श्रुणु वक्ष्यामि शैवेशी कमलानने।
श्री चन्द्रघन्टास्य कवचं सर्वसिध्दिदायकम्॥
बिना न्यासं बिना विनियोगं बिना शापोध्दा बिना होमं।
स्नानं शौचादि नास्ति श्रध्दामात्रेण सिध्दिदाम॥
कुशिष्याम कुटिलाय वंचकाय निन्दकाय च न दातव्यं न दातव्यं न दातव्यं कदाचितम्॥
४) माँ दुर्गा के चौथे स्वरूप का नाम कूष्माण्डा है। कूष्माण्डा देवी
अपनी मन्द हंसी से अण्ड अर्थात ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारंण इन्हें कूष्माण्डा देवी के नाम से जाना जाता है। संस्कृत भाषा में कूष्माण्ड कूम्हडे को कहा जाता है, कूम्हडे की बलि इन्हें प्रिय है, इस कारण से भी इन्हें कूष्माण्डा के नाम से जाना जाता है। जब सृष्टि नहीं थी और चारों ओर अंधकार ही अंधकार था तब इन्होंने ईषत हास्य से ब्रह्माण्ड की रचना की थी। यह सृष्टि की आदिस्वरूपा हैं और आदिशक्ति भी। इनका निवाससूर्य मंडल के भीतर के लोक में है। सूर्यलोक में निवास करने की क्षमता और शक्ति केवल इन्हीं में है। 

ध्यान

वन्दे वांछित कामर्थे चन्द्रार्घकृत शेखराम्।
सिंहरूढ़ा अष्टभुजा कूष्माण्डा यशस्वनीम्॥
भास्वर भानु निभां अनाहत स्थितां चतुर्थ दुर्गा त्रिनेत्राम्।
कमण्डलु, चाप, बाण, पदमसुधाकलश, चक्र, गदा, जपवटीधराम्॥
पटाम्बर परिधानां कमनीयां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्।
मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल, मण्डिताम्॥
प्रफुल्ल वदनांचारू चिबुकां कांत कपोलां तुंग कुचाम्।
कोमलांगी स्मेरमुखी श्रीकंटि निम्ननाभि नितम्बनीम्॥

स्तोत्र पाठ

दुर्गतिनाशिनी त्वंहि दरिद्रादि विनाशनीम्।
जयंदा धनदा कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्॥
जगतमाता जगतकत्री जगदाधार रूपणीम्।
चराचरेश्वरी कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्॥
त्रैलोक्यसुन्दरी त्वंहिदुःख शोक निवारिणीम्।
परमानन्दमयी, कूष्माण्डे प्रणमाभ्यहम्॥

कवच

हंसरै में शिर पातु कूष्माण्डे भवनाशिनीम्।
हसलकरीं नेत्रेच, हसरौश्च ललाटकम्॥
कौमारी पातु सर्वगात्रे, वाराही उत्तरे तथा,पूर्वे पातु वैष्णवी इन्द्राणी दक्षिणे मम।
दिगिव्दिक्षु सर्वत्रेव कूं बीजं सर्वदावत
५) पांचवें स्वरूप को स्कन्दमाता के रूप में जाना जाता है। 
स्कन्दमाता पंचम
स्कन्दमाता देवी
न्हें स्कन्द कुमार कार्तिकेय नाम से भी जाना जाता है। यह प्रसिद्ध देवासुर संग्राम में देवताओं के सेनापति बने थे 
ध्यान
वन्दे वांछित कामार्थे चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
सिंहरूढ़ा चतुर्भुजा स्कन्दमाता यशस्वनीम्।।
धवलवर्णा विशुध्द चक्रस्थितों पंचम दुर्गा त्रिनेत्रम्।
अभय पद्म युग्म करां दक्षिण उरू पुत्रधराम् भजेम्॥
पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानांलकार भूषिताम्।
मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल धारिणीम्॥
प्रफुल्ल वंदना पल्ल्वांधरा कांत कपोला पीन पयोधराम्।
कमनीया लावण्या चारू त्रिवली नितम्बनीम्॥

स्तोत्र पाठ

नमामि स्कन्दमाता स्कन्दधारिणीम्।
समग्रतत्वसागररमपारपार गहराम्॥
शिवाप्रभा समुज्वलां स्फुच्छशागशेखराम्।
ललाटरत्नभास्करां जगत्प्रीन्तिभास्कराम्॥
महेन्द्रकश्यपार्चिता सनंतकुमाररसस्तुताम्।
सुरासुरेन्द्रवन्दिता यथार्थनिर्मलादभुताम्॥
अतर्क्यरोचिरूविजां विकार दोषवर्जिताम्।
मुमुक्षुभिर्विचिन्तता विशेषतत्वमुचिताम्॥
नानालंकार भूषितां मृगेन्द्रवाहनाग्रजाम्।
सुशुध्दतत्वतोषणां त्रिवेन्दमारभुषताम्॥
सुधार्मिकौपकारिणी सुरेन्द्रकौरिघातिनीम्।
शुभां पुष्पमालिनी सुकर्णकल्पशाखिनीम्॥
तमोन्धकारयामिनी शिवस्वभाव कामिनीम्।
सहस्त्र्सूर्यराजिका धनज्ज्योगकारिकाम्॥
सुशुध्द काल कन्दला सुभडवृन्दमजुल्लाम्।
प्रजायिनी प्रजावति नमामि मातरं सतीम्॥
स्वकर्मकारिणी गति हरिप्रयाच पार्वतीम्।
अनन्तशक्ति कान्तिदां यशोअर्थभुक्तिमुक्तिदाम्॥
पुनःपुनर्जगद्वितां नमाम्यहं सुरार्चिताम्।
जयेश्वरि त्रिलोचने प्रसीद देवीपाहिमाम्॥

६) कात्यायनी षष्टम : 

६) कात्यायनी षष्टम
कात्यायनी देवी

ध्यान

ऐं बीजालिंका देवी पदयुग्मघरापरा।कवच

हृदयं पातु सा देवी कार्तिकेययुता॥
श्री हीं हुं देवी पर्वस्या पातु सर्वदा।
सर्वांग में सदा पातु स्कन्धमाता पुत्रप्रदा॥
वाणंवपणमृते हुं फट्‌ बीज समन्विता।
उत्तरस्या तथाग्नेव वारुणे नैॠतेअवतु॥
इन्द्राणां भैरवी चैवासितांगी च संहारिणी।
सर्वदा पातु मां देवी चान्यान्यासु हि दिक्षु वै॥
शास्त्रों में कहा गया है कि इस चक्र में अवस्थित साधक के मन में समस्त बाह्य क्रियाओं और चित्तवृत्तियों का लोप हो जाता है और उसका ध्यान चैतन्य स्वरूप की ओर होता है, समस्त लौकिक, सांसारिक, मायाविक बन्धनों को त्याग कर वह पद्मासन माँ स्कन्दमाता के रूप में पूर्णतः समाहित होता है। साधक को मन को एकाग्र रखते हुए साधना के पथ पर आगे बढ़ना चाहिए।

ध्यान

वन्दे वांछित मनोरथार्थ चन्द्रार्घकृत शेखराम्।
सिंहरूढ़ा चतुर्भुजा कात्यायनी यशस्वनीम्॥
स्वर्णाआज्ञा चक्र स्थितां षष्टम दुर्गा त्रिनेत्राम्।
वराभीत करां षगपदधरां कात्यायनसुतां भजामि॥
पटाम्बर परिधानां स्मेरमुखी नानालंकार भूषिताम्।
मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल मण्डिताम्॥
प्रसन्नवदना पञ्वाधरां कांतकपोला तुंग कुचाम्।
कमनीयां लावण्यां त्रिवलीविभूषित निम्न नाभिम॥

स्तोत्र पाठ

कंचनाभा वराभयं पद्मधरा मुकटोज्जवलां।
स्मेरमुखीं शिवपत्नी कात्यायनेसुते नमोअस्तुते॥
पटाम्बर परिधानां नानालंकार भूषितां।
सिंहस्थितां पदमहस्तां कात्यायनसुते नमोअस्तुते॥
परमांवदमयी देवि परब्रह्म परमात्मा।
परमशक्ति, परमभक्ति,कात्यायनसुते नमोअस्तुते॥

कवच

कात्यायनी मुखं पातु कां स्वाहास्वरूपिणी।
ललाटे विजया पातु मालिनी नित्य सुन्दरी॥
कल्याणी हृदयं पातु जया भगमालिनी॥

कालरात्रि सप्तम
कालरात्रि देवी
विवरणनवरात्र के सातवें दिन माँ दुर्गा के सातवें स्वरूप 'कालरात्रि' की पूजा होती है।
स्वरूप वर्णनइनके शरीर का रंग काला, बाल बिखरे हुए, गले में विद्युत की भाँति चमकने वाली माला है। इनके तीन नेत्र हैं जोब्रह्माण्ड की तरह गोल हैं, जिनमें से बिजली की तरह चमकीली किरणें निकलती रहती हैं। इनका वाहन 'गर्दभ' (गधा) है। दाहिने ऊपर का हाथ वरद मुद्रा में सबको वरदान देती हैं, दाहिना नीचे वाला हाथ अभयमुद्रा में है। बायीं ओर के ऊपर वाले हाथ में लोहे का कांटा और निचले हाथ में खड्ग है।
पूजन समयचैत्र शुक्ल सप्तमी को प्रात: काल
धार्मिक मान्यताभगवती कालरात्रि का ध्यान, कवच, स्तोत्र का जाप करने से 'भानुचक्र' जागृत होता है। इनकी कृपा से अग्नि भय, आकाश भय, भूत पिशाच स्मरण मात्र से ही भाग जाते हैं।
संबंधित लेखकाली देवी
अन्य जानकारीइस दिन साधक का मन सहस्त्रारचक्र में अवस्थित होता है। साधक के लिए सभी सिद्धियों का द्वार खुलने लगता है।
७) दुर्गा की सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती है। इनके शरीर का रंग घने अंधकार की भाँति काला है, बाल बिखरे हुए, गले में विद्युत की भाँति चमकने वाली माला है। इनके तीन नेत्र हैं जो ब्रह्माण्ड की तरह गोल हैं, जिनमें से बिजली की तरह चमकीली किरणें निकलती रहती हैं। इनकी नासिका से श्वास, निःश्वास से अग्नि की भयंकर ज्वालायें निकलती रहती हैं। इनका वाहन 'गर्दभ' (गधा) है। दाहिने ऊपर का हाथ वरद मुद्रा में सबको वरदान देती हैं, दाहिना नीचे वाला हाथ अभयमुद्रा में है। बायीं ओर के ऊपर वाले हाथ में लोहे का कांटा और निचले हाथ में खड्ग है। माँ का यह स्वरूप देखने में अत्यन्त भयानक है किन्तु सदैव शुभ फलदायक है। 

ध्यान

करालवंदना धोरां मुक्तकेशी चतुर्भुजाम्।
कालरात्रिं करालिंका दिव्यां विद्युतमाला विभूषिताम॥
दिव्यं लौहवज्र खड्ग वामोघोर्ध्व कराम्बुजाम्।
अभयं वरदां चैव दक्षिणोध्वाघः पार्णिकाम् मम॥
महामेघ प्रभां श्यामां तक्षा चैव गर्दभारूढ़ा।
घोरदंश कारालास्यां पीनोन्नत पयोधराम्॥
सुख पप्रसन्न वदना स्मेरान्न सरोरूहाम्।
एवं सचियन्तयेत् कालरात्रिं सर्वकाम् समृध्दिदाम्॥

स्तोत्र पाठ

ह्रीं कालरात्रि श्रींं कराली च क्लीं कल्याणी कलावती।
कालमाता कलिदर्पध्नी कमदीश कुपान्विता॥
कामबीजजपान्दा कामबीजस्वरूपिणी।
कुमतिघ्नी कुलीनर्तिनाशिनी कुल कामिनी॥
क्लीं ह्रीं श्रीं मन्त्र्वर्णेन कालकण्टकघातिनी।
कृपामयी कृपाधारा कृपापारा कृपागमा॥

कवच

ऊँ क्लीं मे हृदयं पातु पादौ श्रीकालरात्रि।
ललाटे सततं पातु तुष्टग्रह निवारिणी॥
रसनां पातु कौमारी, भैरवी चक्षुषोर्भम।
कटौ पृष्ठे महेशानी, कर्णोशंकरभामिनी॥
वर्जितानी तु स्थानाभि यानि च कवचेन हि।
तानि सर्वाणि मे देवीसततंपातु स्तम्भिनी॥
८) महागौरी 

महागौरी देवी

ध्यान

वन्दे वांछित कामार्थे चन्द्रार्घकृत शेखराम्।
सिंहरूढ़ा चतुर्भुजा महागौरी यशस्वनीम्॥
पूर्णन्दु निभां गौरी सोमचक्रस्थितां अष्टमं महागौरी त्रिनेत्राम्।
वराभीतिकरां त्रिशूल डमरूधरां महागौरी भजेम्॥
पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्।
मंजीर, हार, केयूर किंकिणी रत्नकुण्डल मण्डिताम्॥
प्रफुल्ल वंदना पल्ल्वाधरां कातं कपोलां त्रैलोक्य मोहनम्।
कमनीया लावण्यां मृणांल चंदनगंधलिप्ताम्॥

स्तोत्र पाठ

सर्वसंकट हंत्री त्वंहि धन ऐश्वर्य प्रदायनीम्।
ज्ञानदा चतुर्वेदमयी महागौरी प्रणमाभ्यहम्॥
सुख शान्तिदात्री धन धान्य प्रदीयनीम्।
डमरूवाद्य प्रिया अद्या महागौरी प्रणमाभ्यहम्॥
त्रैलोक्यमंगल त्वंहि तापत्रय हारिणीम्।
वददं चैतन्यमयी महागौरी प्रणमाम्यहम्॥

कवच

ओंकारः पातु शीर्षो मां, हीं बीजं मां, हृदयो।
क्लीं बीजं सदापातु नभो गृहो च पादयो॥
ललाटं कर्णो हुं बीजं पातु महागौरी मां नेत्रं घ्राणो।
कपोत चिबुको फट् पातु स्वाहा मा सर्ववदनो॥
९ ) सिद्धिदात्री नवम
सिद्धिदात्री देवी
   
९) दुर्गा की नवम शक्ति का नाम सिद्धिदात्री है। सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली माता इन्हीं को माना गया है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्रकाम्य, ईशित्व और वशित्व ये आठ सिद्धियां होती हैं। देवी पुराण के अनुसार भगवान शिव ने इन्हीं की कृपा से सिद्धियों को प्राप्त किया था। इन्हीं की अनुकम्पा से भगवान शिव का आधा शरीर देवी का हुआ था। इसी कारण वह संसार में अर्द्धनारीश्वर नाम से प्रसिद्ध हुए। माता सिद्धिदात्री चार भुजाओं वाली हैं। इनका वाहन सिंह है। ये कमल पुष्प पर आसीन होती हैं। इनकी दाहिनी नीचे वाली भुजा में चक्र, ऊपर वाली भुजा में गदा और बांयी तरफ नीचे वाले हाथ में शंख और ऊपर वाले हाथ में कमल पुष्पहै। नवरात्रि पूजन के नवें दिन इनकी पूजा की जाती है। भगवती सिद्धिदात्री का ध्यान, स्तोत्र व कवच का पाठ करने से 'निर्वाण चक्र' जाग्रत हो जाता है।

ध्यान

वन्दे वांछित मनोरथार्थ चन्द्रार्घकृत शेखराम्।
कमलस्थितां चतुर्भुजा सिद्धीदात्री यशस्वनीम्॥
स्वर्णावर्णा निर्वाणचक्रस्थितां नवम् दुर्गा त्रिनेत्राम्।
शख, चक्र, गदा, पदम, धरां सिद्धीदात्री भजेम्॥
पटाम्बर, परिधानां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्।
मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल मण्डिताम्॥
प्रफुल्ल वदना पल्लवाधरां कातं कपोला पीनपयोधराम्।
कमनीयां लावण्यां श्रीणकटि निम्ननाभि नितम्बनीम्॥

स्तोत्र पाठ

कंचनाभा शखचक्रगदापद्मधरा मुकुटोज्वलो।
स्मेरमुखी शिवपत्नी सिद्धिदात्री नमोअस्तुते॥
पटाम्बर परिधानां नानालंकारं भूषिता।
नलिस्थितां नलनार्क्षी सिद्धीदात्री नमोअस्तुते॥
परमानंदमयी देवी परब्रह्म परमात्मा।
परमशक्ति, परमभक्ति, सिद्धिदात्री नमोअस्तुते॥
विश्वकर्ती, विश्वभती, विश्वहर्ती, विश्वप्रीता।
विश्व वार्चिता विश्वातीता सिद्धिदात्री नमोअस्तुते॥
भुक्तिमुक्तिकारिणी भक्तकष्टनिवारिणी।
भव सागर तारिणी सिद्धिदात्री नमोअस्तुते॥
धर्मार्थकाम प्रदायिनी महामोह विनाशिनी।
मोक्षदायिनी सिद्धीदायिनी सिद्धिदात्री नमोअस्तुते॥

कवच

ओंकारपातु शीर्षो मां ऐं बीजं मां हृदयो।
हीं बीजं सदापातु नभो, गुहो च पादयो॥
ललाट कर्णो श्रीं बीजपातु क्लीं बीजं मां नेत्र घ्राणो।
कपोल चिबुको हसौ पातु जगत्प्रसूत्यै मां सर्व वदनो॥
महादेवी दुर्गा आश्विन माह की अमावस्या के बाद सप्तमी, अष्टमी और नवमी को अपने भक्तों के पास पृथ्वी पर आती हैं और दशमी को लौट जाती हैं।महालया से नवरात्रि का आरम्भ होता है और भक्तजन सप्तशती के पाठ का आरम्भ कर देवी महाशक्ति के प्राकट्य  व देवी के स्वागत  में सजग हो जाते हैं।
माँ  देवी सद्यः सृजन हैं।  सद्यः विनाश हैं। वे भीमकान्त हैं। वे परम सुन्दरी हैं। वे विकट -विकराल हैं। उनकी काया कान्त है, उनकी काया अस्थिमात्र है। वे भव्य हैं ,अभव्य हैं। वे वस्त्रवेष्टित सुमनोहरा हैं। वे मुक्तकेशी, रौद्रमुखी, महोदरी, अग्निज्वाला हैं। अमेयविक्रमा हैं।  क्रूर हैं, सिंहवाहिनी, सर्वमंत्रमयी हैं ,वे चामुंडा हैं , वाराही हैं, वे देवमाता हैं, सर्वविद्यामयी हैं, सर्वास्त्रधारिणी हैं, पुरुषाकृति हैं, वे असाध्य हैं साध्य हैं वे सर्वस्वरूपा हैं , सर्वेश हैं।
 दुर्गमच्छेदिनी,दुर्गतोद्धारिणी,
दुर्गमध्यानदा,दुर्गमा,दुर्गमार्गप्रदा,
दुर्गमोहादुर्गमांगी,दुर्गभीमा दुर्गा हैं।
जब महादैत्य ने भैसे का विकराल रूप धारण कर समस्त लोकों को विक्षोभित कर दिया तब देबी मधुपान करने लगीं। उनका चेहरा मदप्रभाव से लाल होगया, वाणी लडखडाने लगी और वे जोर -जोर से हँसती  हुई बोलीं-
गर्ज गर्ज क्षणं मूढ मधु यावत्पिवाम्यहम।
मया त्वयि हतेत्रैव गर्जिष्यन्त्याशु देवताः।
ऐ मूढ! जबतक मैं मद्यपान कर रही हूँ ,तबतक क्षणभर तू गरज ले।यहीं मेरे हाथों तुम्हारे वध के पश्चात  देवता गर्जन करेंगे।
दुर्गा सप्तशती महातेजस स्थिति का विस्फूर्जन है।यह शब्दों की सीमा से पार का महानाद है।यह चित्तोत्कर्ष का चरम है । यह महानन्द का अविरल निनाद है ।
 ‘नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्यै नमोनमः’ की पुनः पुन: उच्चारणावृत्ति श्रोता को चरम भावदशा के लोक में प्रक्षेपित कर देती है।
वहाँ वाणी रूपादि से परे अनहद नाद बन जाती है। एक ऐसी गूँज बनकर भीतर प्रतिध्वनित होती है जो हमें जन्मजन्मान्तरों से जोड देती है।शरीर संवेग में परिणत होकर अनुभूति मात्र बन कर रह जाता है।
Durga by TARUNYAM


बीरेन्द्र कृष्ण भद्र महालया के शुभ प्रभात में आकाशवाणी कोलकाता से 'महिषासुर मर्दिनी' का प्रसारण होता रहा है । वीरेन्द्र कृष्ण भद्र जी की सावेश और आरोह - अवरोहपूर्ण वाणी में दुर्गासप्तशती का पाठ सुनना सही अर्थों में एक असाधारण और रोमांचक अनुभव है। 
सुदूर दक्षिण में बसे तमिलनाडु में  नवरात्रि  के नौ दिनों में  दुर्गा माँ की सहायता करने आये असंख्य देवी देवताओं का मानों जमघट लग जाता है जिसकी  झांकी ' गोलू - पूजा ' कहलाती है। गोलू पूजा में अपने घर के कक्ष में देवी देवताओं की मूर्तियों को सजाया जाता है। सजाते हैं और अतिथि गैन को चाय कॉफी नाश्ता जलपान करवाते हैं। आरती - प्रसाद नैवेद्य से ९ दिन माता दुर्गा की आराधना पूजा , व्रत किया जाता है। ७ सीढियां बनाई जातीं हैं जिन पर यह खिलौने सजाए जाते हैं।   खिलौनों की शोभा , आहा देखते ही बनती है। 
इस बार अमरीकी चुनावों की झांकी भी प्रदर्शित की गई ! देखें -- 
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4 comments:

कविता रावत said...

बहुत सुन्दर जानकारी ..
दुर्गोत्सव की हार्दिक मंगलकामनाएं!
जय माता दी!

Unknown said...

बहुत सुंदर लेख । अभिनंदन ।

Unknown said...
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menyeng said...
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