Tuesday, April 22, 2008

उच्चैश्रवा: Pegasus


समुद्र मंथन से निकले थे तुम
पंख फड़फडा़,उड़ चले स्वर्ग की ओर.
हे,श्वेत अश्व,नुकीले नैन नक्श लिये,
विध्युत तरँगो पर विराजित चिर किशोर!
मखमली श्वेत व्याल, सिहर कर उडे...
श्वेत चँवर सी पूँछ, हवा मेँ फहराते ..
लाँघ कर प्राची दिश का ओर छोर !
उच्चैश्रवा: तुम उड़ चले स्वर्ग की ओर !
इन्द्र सारथि मातलि,चकित हो, देख रहे
अपलक,नभ की ओर, स्वर्ग-गंगा,
मंदाकिनी में कूद पडे़,बिखराते,स्वर्ण-जल की हिलोर!
उच्चैश्रवा: तेज-पुंज, उड़ चले स्वर्ग की ओर!
दसों दिशा हुईँ उद्भभासित रश्मि से,
नँदनवन, झिलमिलाया उगा स्वर्ण भोर !
प्राची दिश मेँ, तुरँग का ,रह गया शोर!

अब भी दीख जाते हो तुम, नभ पर,
तारक समूह मेँ स्थिर खडे, अटल,
साधक हो वरदानदायी विजयी हो
आकाश गंगा के तारों से लिपे पुते,
रत्न जटीत,उद्दात, विचरते चहुँ ओर!
उच्चैश्रवा: तुम उड चले स्वर्ग की ओर!


-- लावण्या


8 comments:

  1. समुद्र मन्थन से हम भी निकले हैं। हम भी उच्चैश्रवा हैं। बस अपनी पहचान विस्मृत कर चुके हैं।

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  2. दिल की गहराइयों से निकली एक सदा,बहुत सुंदर

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  3. वाह! कितने सुंदर भाव, दीदी आपको पढ़कर बहुत सीखने मिलता है…:}

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  4. एक और बेहतरीन रचना ।

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  5. A wonderful poem.

    Rgds.
    -Harshad Jangla
    Atlanta, USA

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  6. adhbhut....

    जितनी सुंदर कविता उतने ही सुंदर चित्र है...

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  7. अब भी दीख जाते हो तुम, नभ पर,
    तारक समूह मेँ स्थिर खडे,

    अति सुंदर.. बहुत गहरे भाव वाली रचना.. बधाई स्वीकार करे..

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  8. ग्यान भाई साहब सही कह रहे हैँ - " तस्माद्` उत्तिष्ठ कौन्तैय "
    रक्शान्धा जी,पारुल्, ममता जी, अनुराग भाई, कुश जी व हर्षद भाई आप सभी का बहोत बहोत शुक्रिया
    मेरी कविता पढने के लिये और आपकी बातेँ यहाँ पर रखने के लिये
    स स्नेह्,
    - लावन्या

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