Monday, May 5, 2008

मेरे मन का भेदी

मेरे मन का भेदी : [ आइना : मेरा हमराज़ ]
बदरीया बीच जिम चन्दा ,तुझ में , झांके जो मूखडा ,
काजल की ओट समाया है ज्यूँ मेरी अँखियोँ में सजनवा !
सिंगार ऊतारूं , जब् जब् , सिंगार सजाऊं निस - दिन ,
तू मेरे मन का भेदी ,तुझ से न छिपी कोई बात !
जोबन को देखे दर्पण ,नयनन माँ जलती आग !
गए मोरे पिया गहन , वन , तू दिखलाना घर की बाट !
नीली सारी मोरी मैली भई, नील गगनवा चमके तारे ,
तुझ से कहती हूँ , सुन ले , तू ,पियु कब लौटेंगे मोरे दुवारे

- लावण्या

8 comments:

  1. वाह जी वाह!! हमेशा की तरह उम्दा!

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  2. मेहक जी , समीर भाई ,
    आप दोनोँ का भी बहुत बहुत आभार !
    -- लावण्या

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  3. बहुत ही सुंदर भाव लिए हुए लिखी गयी रचना.. बधाई स्वीकार करे...

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  4. जितना सुंदर चित्र उतनी ही मासूम कविता....खूबसूरत.....

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  5. sundar kavita di,aur Raja Ravi Verma Painting bahut acchhi lagi

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  6. आप सभी का बहुत बहुत आभार , कविता पसन्द की -- शुक्रिया !
    पारुल्, हाँ, राजा रवि वर्मा के सारे चित्र बहोत खूबसुरत हैँ, है ना ?
    स्नेह्,
    -- लावण्या

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