Thursday, May 8, 2008

जीवंत प्रकृति



खिले कँवल से, लदे ताल पर,
मँडराता मधुकर~ मधु का लोभी.
गुँजित पुरवाई, बहती प्रतिक्षण
चपल लहर, हँस, सँग ~ सँग,
हो, ली !
एक बदलीने झुक कर पूछा,
"ओ, मधुकर, तू ,
गुनगुन क्या गाये?
"छपक छप -
मार कुलाँचे,मछलियाँ,
कँवल पत्र मेँ,
छिप छिप जायेँ !
"हँसा मधुप, रस का वो लोभी,
बोला,
" कर दो, छाया,बदली रानी !
मैँ भी छिप जाऊँ,
कँवल जाल मेँ,
प्यासे पर कर दो ये, मेहरबानी !"
" रे धूर्त भ्रमर,
तू,रस का लोभी --
फूल फूल मँडराता निस दिन,
माँग रहा क्योँ मुझसे , छाया ?
गरज रहे घन -
ना मैँ तेरी सहेली!"

टप, टप, बूँदोँ ने
बाग ताल, उपवन पर,
तृण पर, बन पर,
धरती के कण क़ण पर,
अमृत रस बरसाया -
निज कोष लुटाया !

अब लो, बरखा आई,
हरितमा छाई !
आज कँवल मेँ कैद
मकरँद की, सुन लो
प्रणय ~ पाश मेँ बँधकर,
हो गई, सगाई !!

9 comments:

  1. हँसी प्रकॄति की-नैसर्गिकता
    का सुन्दर चित्रण
    शब्द स्वयं महके हैं बनकर
    मधुकर का गुंजन

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  2. अमर कथा प्रेम की
    जीवन धारा बहाए,
    रूप, गंध, यौवन से
    भ्रमर-भ्रमर ललचाए।
    नेह पाश में उलझा कोई
    बन याचक निकट आए,
    ना बोले कुछ, चुप रहे
    सिमट-सिमट लजाए।

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  3. बहुत बढ़िया.... इसी तरह काव्य रस धारा बहते रहिये..

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  4. एक बदलीने झुक कर पूछा,
    "ओ, मधुकर, तू ,
    गुनगुन क्या गाये?
    "छपक छप -
    हँसता जीवन......खिल खिलाता जीवन......आपके ये रंग वाकई निराले है .....ओर ये फोटो क्या आपने स्वंय लिए है ?सुंदर........

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  5. बहुत बढ़िया कविता चित्रण भी अच्छा है बधाई

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  6. बहुत बढ़िया है, बधाई.

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  7. लावण्या जी
    बहुत उमदा काव्य.
    धन्यवाद
    -हर्षद जाँगला
    एट्लांटा युएसए

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  8. लावण्या जी, आप की कविता मे प्रकृति का अति सुन्दर रुप पढने को मिला...नेह पाश में उलझा कोई
    बन याचक निकट आए,
    ना बोले कुछ, चुप रहे
    सिमट-सिमट लजाए।
    अति उत्तम धन्यवाद

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  9. आप सभी ने इस प्रविष्टी को पढा और अपनी बातेँ शेर कीँ उसके लिये, आप सभी का शुक्रिया --
    " भँवरा बडा नादान " गीता दत्त जी का गीत भी याद आ रहा है
    दिनेश जी व
    राज भाई साहब की बातोँ से --

    -- लावण्या

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