
साथ उमस लाई पीली नीलिमा
विवश थकान भरे तन मन मेरे,
अश्रु सुषुप्त मन बालू में
मन जगा , भागे अविरल चेतक सा -
नेत्र खींच ले पलक बिछोना,
हे मन, होंगें, ऐसे कितने प्राणी
बोझ लिए मंथन का !
हर तरफ़ ग्रीष्म जलन फ़ैली,
पीली तपन बिखरती,
गहरी सुनहरी, दिन भर ,
फ़िर, रात उतर आयी थकी बुझी ,
चाँद मुरझाया ,
गगन पे मैली सी चांदनी,
रात उतर आयी गहरी कालिमा
आज रात ...
-- लावण्या
bahut hi sundar
ReplyDeleteअश्रु सुषुप्त मन बालू में
ReplyDeleteमन जगा , भागे अविरल चेतक सा -
नेत्र खींच ले पलक बिछोना,
हे मन, होंगें, ऐसे कितने प्राणी
बोझ लिए मंथन का !
अति सुन्दर भाव.... बोझ लिये मंथन का...
धन्यवाद
सुन्दर अभिव्यक्ति है
ReplyDeleteमहादेवी वर्मा की कवितायें याद आ रही हैं। चित्र और पोस्ट दोनो आकर्षक हैं।
ReplyDeleteLavanyaji
ReplyDeleteNice expressions.
Rgds.
सुंदर अभिव्यक्ति !!
ReplyDeleteजैसी अभिव्यक्ति वैसे ही मोतियों से शब्द...
ReplyDelete***राजीव रंजन प्रसाद
आप सभी ने इस प्रविष्टी को पढा और अपनी बातेँ शेर कीँ
ReplyDeleteउसके लिये,
आप सभी का शुक्रिया !
-- लावण्या
बहुत सुन्दर एवं भावपूर्ण. बधाई.
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आप हिन्दी में लिखती हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं, इस निवेदन के साथ कि नये लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें-यही हिन्दी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है.
एक नया हिन्दी चिट्ठा किसी नये व्यक्ति से भी शुरु करवायें और हिन्दी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें.
यह एक अभियान है. इस संदेश को अधिकाधिक प्रसार देकर आप भी इस अभियान का हिस्सा बनें.
शुभकामनाऐं.
समीर लाल
(उड़न तश्तरी)
समीर भाई,
ReplyDeleteशुक्रिया -
आपका प्रयास अच्छा लगा -
मैँ अक्सर ,
नये एवँ पुराने ,
हिन्दी ब्लोगरोँ को
प्रोत्साहित करती रहती हूँ :)
-- लावण्या