Friday, June 25, 2010

मुझे कहानी कहते कहते - माँ तुम क्यों सो गईं?

मुझे कहानी कहते कहते -
माँ तुम क्यों सो गईं?
जिसकी कथा कही क्या उसके
सपने में खो गईं?

मैं भरता ही रहा हुंकारा, पर तुम मूक हो गईं सहसा
जाग उठा है भाव हृदय में, किसी अजाने भय विस्मय-सा
मन में अदभत उत्कंठा का -
बीज न क्यों बो गईं?
माँ तुम क्यों सो गईं?

बीते दिन का स्वप्न तुम्हारा, किस भविष्य की बना पहेली
रही अबूझी बात बुद्धि को रातों जाग कल्पना खेली
फिर आईं या नहीं सात -
बहनें बन में जो गईं?
माँ तुम क्यों सो गईं?

पीले रंग के जादूगर ने कैसी काली वेणु बजाई
बेर बीनती सतबहना को फिर न कहीं कुछ दिया दिखाई
क्यों उनकी आँखें, ज्यों मेरी -
गगनलीन हो गईं?
माँ तुम क्यों सो गईं?

फिर क्या हुआ सोचता हूँ मैं, क्या अविदित वह शेष कथा है
जीव जगे भव माता सोए, मन में कुछ अशेष व्यथा है
बेध सुई से प्रश्न फूल मन -
माला में पो गईं !


पनिहारिन

अतलसोत अतल कूप आठ बाँस गहरा
मन पर है राजा के प्यादे का पहरा

कच्चाघट शीश धरे पनिहारिन आई
कते हुए धागे की जेवरी बनाई

घट भर कर चली, धूप रूप से लजाती
हंसपदी चली हंस किंकणी बजाती

मन ही मन गाती वह जीवन का दुखड़ा
भरा हृदय भरे नयन कुम्हलाया मुखड़ा

घट-सा ही भरा भरा जी है दुख दूना
लिपा पुता घर आँगन प्रियतम बिन सूना

काठ की घड़ौंची पर ज्यों ही घट धरती
देवों की प्यास ऋक्ष देश से उतरती

साँझ हुई आले पर दीप शिखा नाची
बार-बार पढ़ी हुई पाती फिर बाँची

घुमड़ रहे भाव और उमड़ रहा मानस
गहराई और पास दूर दूर मावस

जहाँ गई अश्रुसिक्त दृष्टि तिमिर गहरा
हा हताश प्राणों पर देवों का पहरा

अतलसोत अतल कूप आठ बांस गहरा
मन पर है राजा के प्यादे का पहरा

पापाजी पँ. नरेन्द्र शर्मा की
कुछ काव्य पँक्तिया
दीप ~ शिखा सी , पथ प्रदर्शित करती हुई ,
याद आ रही है.
" धरित्री पुत्री तुम्हारी, हे अमित आलोक
जन्मदा मेरी वही है स्व्रर्ण गर्भा कोख !"

और

" आधा सोया , आधा जागा देख रहा था सपना,
भावी के विराट दर्पण मे देखा भारत अपना !
गाँधी जिसका ज्योति ~ बीज, उस विश्व वृक़्श की छाया
सितादर्ष लोहित यथार्थ यह नही सुरासुर माया !
"

पँ. नरेन्द्र शर्मा

नरेन्द्र शर्मा

नरेंद्र शर्मा का जन्म १९१३ में खुर्जा के जहाँगीरपुर नामक स्थान पर हुआ। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शिक्षाशास्त्र और अंग्रेज़ी मे एम.ए. किया।

१९३४ में प्रयाग में अभ्युदय पत्रिका का संपादन किया। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी स्वराज्य भवन में हिंदी अधिकारी रहे और फिर बॉम्बे टाकीज़ बम्बई में गीत लिखे। उन्होंने फिल्मों में गीत लिखे, आकाशवाणी से भी संबंधित रहे और स्वतंत्र लेखन भी किया।

उनके १७ कविता संग्रह एक कहानी संग्रह, एक जीवनी और अनेक रचनाएँ

पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं।


10 comments:

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

बहुत भावपूर्ण सुंदर गीत है !
एक एक बंध मन को छूने वाला है …
फिर क्या हुआ सोचता हूँ मैं,
क्या अविदित वह शेष कथा है
जीव जगे भव माता सोए,
मन में कुछ अशेष व्यथा है
बेध सुई से प्रश्न फूल मन -माला में पो गईं !
माँ तुम क्यों सो गईं?

अमर रचनाकार पंडित नरेन्द्र शर्मा जी की स्मृतियों को प्रणाम !
और दीदी आपको भी नमन !
आपके माध्यम से ऐसा संचित श्रेष्ठ सृजन मिल रहा है , यह बहुत बड़ा उपहार है ! सच कहूं तो उपकार है हम पर!

अभी शस्वरं पर भी एक भावपूर्ण रचना लगाई हुई है आए न बाबूजी, समय मिल सके तो पढ़ते हुए सुन भी लें ।

- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं

प्रवीण पाण्डेय said...

ममता का प्रवाह बढ़ाती, उभारती पंक्तियाँ ।

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर गीत जी

मनोज कुमार said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति।
इसे 27.06.10 की चर्चा मंच (सुबह 06 बजे) में शामिल किया गया है।
http://charchamanch.blogspot.com/

Smart Indian said...

बहुत सुन्दर! आदरणीय पंडित जी की एक और रचना साझा करने के लिए धन्यवाद!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत सुन्दर कविताएँ....आभार

माधव( Madhav) said...

बहुत सुंदर कविता

शोभना चौरे said...

itni khubsurt kvitaye pdhvane ke liye abhar

RADHIKA said...

बस इतना ही कहूँगी "अत्यंत सुंदर पंक्तिया" ,इतनकी तारीफ में कुछ भी कहने के लिए छोटी पड़ रही हूँ

P.N. Subramanian said...

कितनी सुन्दर रचना है. आभार आपका की पिताश्री के बारे में यहाँ बताया. आपकी यह प्रवष्टि तो हमसे छूट ही गयी थी. सदा सुखी रहें.