Sunday, August 22, 2010

अमर युगल पात्र : प्रस्तुत है ......... ऋषि वसिष्‍ठव ऋषि पत्नी देवी अरूंधती की उज्जवल जीवन गाथा


" अमर युगल पात्र " भारत के दम्पतियों पर आधारित श्रृंखला है
कुछ पूर्व परिचित या सर्वथा नवीन ,
स्त्री व पुरुष - द्वय के जीवन से
आप परिचित होंगें --
उत्तर अमरीका से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका " विश्वा में ,
" अमर युगल पात्र "श्रृंखला
" स्थायी स्तम्भ के अंतर्गत

आज " लावण्यम - अंतर्मन " ब्लॉग पर मिलिए प्रथम युगल
" गुरु वशिष्ठ व अरूंधती देवी के यशस्वी जीवन कर्म से : ~~
प्रस्तुत है .........

http://www.evishwa.com/


अमर युगल पात्र :
वसिष्‍ठ-अरुंधती
श्रीमती लावण्य शाह
सिनसिनाटी, ओहायो, अमेरिका
श्रीमती लावण्या शाह प्रसिद्ध कवि
और गीतकार
पं. नरेन्द्र शर्मा की पुत्री है।
आप मुंबई में पली व बढी।
पिछले १५ वर्षों से अधिक से
लावण्या जी अपने परिवार के साथ सिन्सिनाटी, ओहायो में रहती हैं। लावण्या जी का प्रथम काव्य संग्रह ``फिर गा उठा प्रवासी'' हाल ही में प्रकाशित हुआ है।
वसिष्‍ठ ऋषि ब्राह्मण वंश के मूलपुरुष कहलाते हैं। सप्‍तर्षियों में इनका तथा उनकी पत्‍नी अरुंधती का नाम है। अरुंधती ने अपने नाम की व्‍याख्‍या इस प्रकार की है—‘‘यह अपने पति वसिष्‍ठ को छोड़कर अन्‍य कहीं भी नहीं रहतीं तथा कभी अपने पति का विरोध नहीं करती।’’
वसिष्‍ठ स्‍वायंभुव मन्‍वंतर में उत्‍पन्‍न हुए ब्रह्मा के दस मानसपुत्रों में से एक हैं। कहते हैं कि वसिष्‍ठ का जन्‍म ब्रह्माजी के प्राणवायु (समान) से हुआ था। ‌वसिष्‍ठ ऋषि का ब्राह्मण वंश सदियों तक अयोध्‍या के सूर्यवंशी राजाओं का पुरोहित पद सँभाले रहा। इनकी दो प‌‌त्नियाँ बताई गई हैं। एक तो दक्ष प्रजापति की कन्‍या ‘उर्जा’ और दूसरी ‘अरुंधती’। अरुंधती कर्दम प्रजापति की नौ कन्‍याओं में से आठवीं गिनी जाती हैं। दक्ष प्रजापति की कन्‍या ‘सती’ से शिव ब्‍याहे थे। इस नाते से वसिष्‍ठ शिव के साढ़ू हुए। दक्ष प्रजापति के यज्ञ के ध्‍वंस के समय शिव ने वसिष्‍ठ का वध किया था। अरुंधती के अलावा ‘शतरूपा’ भी वसिष्‍ठ की पत्‍नी मानी गई हैं। (वे अयोनिसंभवा थीं।)

वसिष्‍ठ-अरुंधती का नाम सदा आदर से लिया जाता है। अरुंधती पतिव्रता सन्‍नारियों में उज्‍ज्‍वल स्‍थान प्राप्‍त किए हुए हैं। सप्‍तर्षि तारामंडल में अन्‍य ऋषियों के साथ अरुंधती को एकमात्र स्‍त्री और पत्‍नी, जो पति के सदैव साथ रहती हैं, होने का गौरव प्राप्‍त है। पाश्‍चात्‍य वैज्ञानिकों ने ध्रुव से कुछ नीचे, उत्तर दिशा को प्रज्‍वलित करते हुए इस तारामंडल का नाम The Great Bear रखा है और सर्वोच्‍च स्‍थान पर स्‍थित ‘ध्रुव तारे’ को ‘पोलार बेर’ कहा जाता है। पुराणों में वर्णित है कि वसिष्‍ठ पत्‍नी ‘शतरूपा’ के ‘वीर’ नामक पुत्र को कर्दम प्रजापति की पुत्री ‘काम्‍या’ से विवाह होने के पश्‍चात् ‘प्रियव्रत’ तथा उत्तानपाद दो पुत्र हुए। उत्तानपाद को अत्रि ऋषि ने गोद लिया और उन्‍हीं के ‘ध्रुव’ नामक पुत्र हुआ।
अरुंधती कर्दम प्रजापति तथा माता देवहूति की कन्‍या थीं। कश्‍यप की कन्‍या अरुंधती का उल्‍लेख वायु पुराण, लिंग पुराण, कूर्म पुराण वगैरह में प्राप्‍त है। उनका विवाह वसिष्‍ठ से हुआ यह ज्ञात होता है। वसिष्‍ठ की प्राप्‍ति के लिए देवी अरुंधती ने सीता तथा रुक्‍मिणी की भाँति ‘गौरी-व्रत’ पूजन किया था। इसी कारण इन्‍हें विवाह सुख प्राप्‍त हुआ।

अरुंधती अत्‍यंत तपस्‍विनी तथा पति-सेवापरायण थीं। ऋषियों के पूछने पर उन्‍होंने सविस्‍तार धर्म-रहस्‍य, श्रद्धा, आतिथ्‍य-सत्‍कार, गौ सेवा, ग्राहस्‍थ्‍य धर्म तथा गोशृंग स्‍नान माहात्‍म्‍य की चर्चा की थी।
अग्‍निदेव की पत्‍नी ‘स्‍वाहा’ को एक बार अपने पतिदेव को रिझाने की इच्‍छा हुई। अग्‍नि ने कहा कि ‘मैं सप्‍तर्षियों की पत्‍नियों से बहुत प्रभावित हूँ। जब-जब ऋषिगण यज्ञ करते हैं तब मैं उनकी पवित्रता तथा धर्म की आभा देखता ही रहता हूँ।’ तब स्‍वाहा ने पति अग्‍नि देव को प्रसन्‍न करने की चेष्‍टा से छह ऋषियों की पत्‍नी का रूप धरा। हर बार वे अग्‍निदेव को लुभाने में तथा भ्रमित करने में सफल हुईं। अंतिम बार वे वसिष्‍ठ पत्‍नी अरुंधती का रूप धरने लगीं। जब-जब उन्‍होंने कोशिश की तब-तब उन्‍हें असफल ही होना पड़ा। अरुंधती देवी सी पतिव्रता के तेज के आगे छल-कपट व मायावी शक्‍तियाँ व्‍यर्थ हो गईं। तब संपूर्ण विश्‍व ने जाना की अरुंधती धर्म में कितनी अटल थीं।

एक बार सप्‍तर्षिगण बदरपाचनतीर्थ हिमालय में फल-मूल लाने गए थे। तब बारह वर्षों तक वर्षा बंद हो गई थी। अतः सप्‍तर्षि हिमालय पर ही रुक गए। शंकर भगवान अरुंधती की परीक्षा लेने हेतु दरिद्र ब्राह्मण का रूप धरकर वसिष्‍ठ के आश्रम पर पधारे। अरुंधती के पास कुछ न था। सो उन्‍होंने (लोहे के) बेर शंकर को दिए। शंकर ने कहा, ‘‘देवी, मैं निर्धन हूँ। कहाँ पकाता फिरूँगा? आप ही पका दीजिए।’’ अरुंधती ने अग्‍नि पर बेरों को पकने रखा और समय व्‍यतीत होवे, इस आशय से अनेक धर्म, ज्ञान के विषयों पर ब्राह्मण से चर्चा आरंभ की। चर्चा में लीन अरुंधती को पता भी न चला कि बारह वर्ष व्‍यतीत हो गए। सप्‍तर्षिगण फल-मूल लेकर लौटे। तब भगवान शंकर अपने असली स्‍वरूप में प्रगट हुए, उन्‍होंने अरुंधती की कड़ी तपस्‍या की भूरि-भूरि प्रशंसा की। और तभी से वह आश्रम पवित्र तीर्थस्‍थल बन गया।

अरुंधती और वसिष्‍ठ के पुत्र का नाम ‘शक्‍ति’ था। अन्‍य अरुंधती नामक कन्‍या ‘मेधातिथि’ मुनि की कन्‍या थी। वे ब्रह्मदेव की संध्‍या नामक मानस कन्‍या थी। चंद्रभागा नदी किनारे मेघातिथि मुनि के यज्ञकुंड से वह कन्‍यारूप में प्रगट हुईं। वे जब पाँच वर्ष की थीं ब्रह्मा ने उन्‍हें आकाश में विमान में बैठकर जा रहे थे तब देखा। उन्‍होंने मेधातिथि को आदेश दिया कि इसे साध्‍वी स्त्रियों के संपर्क में रखा जाए। तब मुनि मेधातिथि सावित्री देवी के पास गए तथा हाथ जोड़कर कहा कि–‘‘माँ, मेरी इस पुत्री को उत्तम शिक्षा दीजिए।’’ सावित्री देवी ने सहर्ष अरुंधती का स्‍वागत किया और सात वर्ष बीत गए।

अरुंधती अब बारह वर्ष की हुई। महासती बेहुला तथा सावित्री देवी के संग वे एक बार मानस पर्वत के उद्यान में गईं। वहीं अरुंधती ने तपस्‍या करते हुए वसिष्‍ठ ऋषि को देखा। दृष्‍टि मिलन होते ही दोनों एक-दूसरे पर आकर्षित हुए। जब सावित्री देवी को ज्ञात हुआ तब उन्‍होंने वसिष्‍ठ-अरुंधती का ब्‍याह रचाया। इस तरह जितने भी उदाहरण हैं पुराणों में, वहाँ वसिष्‍ठ और ‘अरुंधती’ पति-पत्‍नी के रूप में हम देखते हैं।
वसिष्‍ठ ऋषि की विश्‍वामित्र ऋषि के साथ दुश्‍मनी थी। वह ज्‍यादातर विश्‍वामित्र के अहंकार व क्रोध के ही कारण थी। वसिष्‍ठ ब्रह्मर्षि थे। उन्‍होंने इंद्रियों को जीत लिया था।

काम, क्रोध, मद, मोह, बंधन सभी से वे परे हो गए थे। विश्‍वामित्र ने ‘नंदिनी’ नामक कामधेनु का वसिष्‍ठ आश्रम से हठपूर्वक अपहरण करना चाहा। किंतु वे असफल रहे। विश्‍वामित्र ऋषि गायत्री मंत्र सिद्ध कर पाए परंतु अपने दर्प को न जीत पाए। वसिष्‍ठ की शांति व संयम को भंग करने के लिए तब उन्‍होंने वसिष्‍ठ-पुत्र ‘शक्‍ति’ की हत्‍या कर दी। माता अरुंधती पुत्र-वियोग में रो पड़ी। परंतु धीर-संयमी जितेंद्रिय वसिष्‍ठ ने अँधेरी रात्रि में अरुंधती को ढाढ़स बँधाया।

वसिष्‍ठ ने कहा,
‘‘हे माता! मैं तुम्‍हारे शोक को समझ पाता हूँ। तुम्‍हारे अश्रु को छू सकता हूँ।
तुम्‍हारी ‘मनोवेदना’ को अनुभव कर पाता हूँ।
परंतु इस क्षण मेरा मन विश्‍वामित्र के लिए रो रहा है। मुझे उस पर दया आ रही है।’’


तब अरुंधती ने रुँधे कंठ से पूछा,
‘‘क्‍यों नाथ? आपको विश्‍वामित्र के प्रति इस भयानक क्षण में क्‍यों सहानुभूति हो रही है?’’
वसिष्‍ठ ने उत्तर दिया,

‘‘मुझ पर क्रोध करके विश्‍वामित्र अपने तप की, बल की, वीर्य की, अपने मन की शांति का नाश कर रहे हैं। शक्‍ति हमारा पुत्र था। उसका वध करके विश्‍वामित्र को कुछ प्राप्‍त न हुआ।
मुझे दुःख है कि गायत्री मंत्र का द्रष्‍टा, गंभीर तपस्‍वी पता नहीं क्‍यों मुझ पर अपना वर्चस्‍व स्‍थापित करना चाहता है। वह जीते अपने आपको। कुमार्ग पर चलनेवाले ज्ञानी व तपस्‍वी के प्रति दयाभाव से मैं विगलित हो रहा हूँ।
काश! परम कृपालु परमात्‍मा उन्‍हें सन्‍मति दें और सच्‍ची राह सुझा दे।’’


वसिष्‍ठ का मन से निकला आशीर्वाद सुनकर विश्‍वामित्र (जो छुपकर सारी बातें सुन रहे थे)
ब्रह्मर्षि के चरणों में गिर पड़े। वे फूट-फूटकर रोने लगे।

वसिष्‍ठ ने बड़ी कोमलता से उन्‍हें उठाया। बड़ी स्‍निग्‍धता व सौजन्‍य से बिठाया। प्रेमपूरित हाथों से अश्रु पोंछे। माता अरुंधती ने पुत्र के हत्‍यारे का अतिथि-सत्‍कार किया। उसी क्षण से विश्‍वामित्र तपस्‍या की उच्‍चतम श्रेणी में प्रविष्‍ट हुए।

वर्तमान वैवस्‍वत मन्‍वंतर के मैत्रावरुणी वसिष्‍ठ व अरुंधती के अन्‍य पुत्र हैं–पराशर, कृष्‍ण द्वैपायन, शुक्र भूरिश्रवस, प्रभुशंभु और कृष्‍ण गौर। शक्‍ति, सुद्यम्‍नु, कुंडिन, वृहस्‍पति, भरद्वसु, भरद्वाज।
वसिष्‍ठ अयोध्‍या के राजा दशरथ के राजपुरोहित के रूप में बड़े प्रसिद्ध हुए। वे एक नीति विशारद मंत्री, पुरोधा तो थे ही–सर्वश्रेष्‍ठ ब्रह्मज्ञानी, तपस्‍वियों में श्रेष्‍ठ, क्षमाशील, अत्‍यधिक शांतिप्रिय व सहिष्‍णु थे। पुत्रकामेष्‍टि यज्ञ के समय वही दशरथ यज्ञ के ऋत्‍विज बने।

‘राम’ नामकरण भी इन्‍होंने किया। युवराज पदाभिषेक इन्‍हीं ने किया। ‘योगवसिष्‍ठ’ नामक ग्रंथ इन्‍होंने ही भारत को दिया है। धर्मशास्‍त्रकार वसिष्‍ठ रचित ‘वसिष्‍ठस्‍मृति’ नामक स्‍मृति ग्रंथ है। इसमें आचार, संस्‍कार, प्रायश्‍चित्त, रजस्‍वला, संन्‍यासी, आत‌तायी आदि के लिए नियम दिए गए हैं। ‘मनुस्‍मृति’ तथा ‘याज्ञवल्‍क्‍य स्‍मृति’ में भी इसका उल्‍लेख है। अन्‍य ग्रंथ– वसिष्‍ठ-कल्‍प, वसिष्‍ठ-तंत्र, वसिष्‍ठ-पुराण वसिष्‍ठ-शिक्षा, वसिष्‍ठ-संहिता, वसिष्‍ठ-श्रद्धाकल्‍प इत्‍यादि हैं।


वसिष्‍ठ ऋषि का आश्रम विपाशा नदी के किनारे ‘वसिष्‍ठशिला’ नाम से था। एक अन्‍य स्‍थान ‘कृष्‍ण शिला’ उनकी तपस्‍या भूमि थी। इसी कड़ी तपस्‍या के कारण उन्‍हें समस्‍त पृथ्‍वी का पुरोहित पद मिला।
ऋग्‍वेद में वसिष्‍ठ को मैत्रावरुण व उर्वशी अप्‍सरा का पुत्र कहा गया है। इस नाते हम कह सकते हैं कि वसिष्‍ठ वंश अति प्राचीन वंशों में गिना जा सकता है। ऋग्‍वेद के अनुसार वसिष्‍ठ का पुत्र शक्‍ति था तथा पौत्र का नाम ‘पाराशर’ शाक्‍त्‍य था। पाराशर के पुत्र हुए श्री कृष्‍ण द्वैपायन व्‍यास, जिन्‍होंने महाभारत ग्रंथ की रचना की।

वसिष्‍ठ सुवर्चस सँवरण राजा के पुरोहित थे। अतः वसिष्‍ठ नाम के कई ऋषिगण हैं तथा उनके वंश में अनेक महान् व्‍यक्‍ति आते हैं। उनमें से प्रमुख हैं :
1. वसिष्‍ठ देवराज—अयोध्‍या के त्रय्यरुण, त्रिशंकु एवं हरिश्‍चंद्र के काल में।
2. वसिष्‍ठ आपव—हैहयराज कार्तवीर्य अर्जुन के समकक्ष।
3. वसिष्‍ठ अथर्वनिधि—अयोध्‍या के बाहुराजा का समकालीन।
4. वसिष्‍ठ श्रेष्‍ठभाज—अयोध्‍या के मित्रसह कल्‍माषपाद सौदाह राजा के काल के।
5. वसिष्‍ठ अथर्वनिधि (द्वितीय)—अयोध्‍या के दिलीप खट्वांग के समकालीन।
6. वसिष्‍ठ दाशरथि—दशरथ व राम के अयोध्‍या के राजपुरोहित।
7. वसिष्‍ठ मैत्रावरुण—उत्तर पांचाल के पैजवन सुदास राजा के काल के।
8. वसिष्‍ठ शक्‍ति—वसिष्‍ठ मैत्रावरुण का पुत्र (वसिष्‍ठ शक्‍ति)।
9. वसिष्‍ठ सुवर्चस्—हस्‍तिनापुर के संवरण राजा के समकालीन।
10. वसिष्‍ठ—अयोध्‍या के मुचकुंद राजा का समकालीन।
11. वसिष्‍ठ—हस्‍तिनापुर के ‘हस्‍तिन्’ राजा के समकालीन।
12. वसिष्‍ठ धर्मशास्‍त्रकार—वसिष्‍ठस्‍मृति के रचियता।

सप्‍तर्षियों में स्‍थान प्राप्‍त किए हुए, आकाश में स्‍थित, पवित्र तारामंडल में अपना अडिग पद सँभाले हुए, अमर युगल पात्र ‘वसिष्‍ठ-अरुंधती’ को भारतवर्ष प्रणाम करता है।

कहते हैं, जब भी तपस्‍या सफल होने की सीमा में प्रवेश करती है

तब ईश्‍वर के आशीर्वाद की बधाई देते हुए प्रथम सप्‍तर्षियों का आगमन व दर्शन होता है।

रामचंद्र के गुरु वसिष्‍ठ व गुरुपत्‍नी अरुंधती को हम

पवित्रता से अंजलि बाँधे नमन करते हैं और विदा लेते हैं।

सप्‍तर्षि
1. अंगिरस् भृगु
2. अ‌त्रि
3. क्रतु
4. पुलत्‍स्‍य
5. पुलह
6. मरीचि
7. वसिष्‍ठ

खगोल शास्त्र में

इस सप्तर्षि तारा मंडल को " बीग डीपर " कहते हैं -
और स्वच्छ आकाश में ,सप्तर्षि , उरसा मेजर
निहारिका में , साफ़ दीखलाई पड़ते हैं

File:Ursa Major constellation detail map.PNG

Sunday, August 1, 2010

मृण्मय तन, कंचन सा मन

आदरणीया देवी नागरानी जी के संग भोजन कक्ष में , मैं
न्यू योर्क में आयोजित किये गये विश्व हिन्दी सम्मलेन में -
देवी जी बेहतरीन ग़ज़ल लिखतीं हैं पर उससे भी अच्छी
बात ये के बहुत भली व मिलनसार , गुणी महिला हैं
प्रकाशन :रविवार, 1 अगस्त 2010 |

मृण्मय तन, कंचन सा मन

लावण्या दीपक शाह


इंसान अपनी जड़ों से जुडा रहता है । दरख्तों की तरह। कभी पुश्तैनी घरौंदे उजाड़ दिए जाते हैं तो कभी ज़िंदगी के कारवाँ में चलते हुए पुरानी बस्ती को छोड़ लोग नये ठिकाने तलाशते हुए, आगे बढ़ लेते हैं नतीज़न , कोई दूसरा ठिकाना आबाद होता है और नई माटी में फिर कोई अंकुर धरती की पनाह में पनपने लगता है ।

यह सृष्टि का क्रम है और ये अबाध गति से चलता आ रहा है। बंजारे आज भी इसी तरह जीते हैं पर सभ्य मनुष्य स्थायी होने की क़शमक़श में अपनी तमाम ज़िंदगी गुज़ार देते हैं । कुछ सफल होते हैं कुछ असफल !

हम अकसर देखते हैं कि इंसानी कौम का एक बहुत बड़ा हिस्सा अपने पुराने ठिकानों को छोड़ कर कहीं दूर बस गया है । शायद आपके पुरखे भी किसी दूर के प्रांत से चलकर कहीं और आबाद हुए होंगें और यह सिलसिला, पीढी दर पीढी कहानी में नये सोपान जोड़ता चला आ रहा है । चला जा रहा है । फिर, हम ये पूछें - अपने आप से कि हर मुल्क, हर कौम, या हर इंसान किस ज़मीन के टुकड़े को अपना कहे ? क्या जहाँ हमने जनम लिया वही हमारा घर, हमारा मुल्क, हमारा प्रांत या हमारा देश, सदा सदा के लिए हमारा स्थायी ठिकाना कहलायेगा ?

उन लोगों का क्या, जिनके मुकद्दर में देस परदेस बन जाता है और अपनी मिटटी से दूर, वतन से दूर,अपनी भाषा और संस्कृति से दूर कहीं परदेस में जाकर उन्हें अपना घर, बसाना पड़ता है ?

स्थानान्तरण के कई कारण होते हैं । आर्थिक, पारिवारिक , मानसिक या कुछ और ये सारे संजोग बनते हैं। कोई व्यक्ति, कोई क्षण, निमित्त बन जाता है जब इंसान एक जगह से दूसरे की ओर चल देता है और जीवन नए सिरे से आरम्भ करता है । ऐसा सिर्फ़ मेरे साथ ही नहीं हुआ है । यह क़िस्सा कईयों के साथ हुआ है और आगे भी होता रहेगा । तब हम सोचें कि सबसे पहले भारत में रहनेवाले, भारत को अपना कहनेवाले, विशुध्ध भारतीय कौन थे ? वे आर्य थे या द्रविड़ थे ?

हम ये भी सोचें कि आज के महाराष्ट्र प्रांत में बसे मराठी भाषी ही क्या महाराष्ट्र की मधुरम धरा के एकमात्र दावेदार हैं ? क्या किसी अन्य प्रांत से आये मेहनतक़श इंसानों का कोई हक़ नहीं महाराष्ट्र में बसने का ? यहाँ काम करने का ? या आजीविका प्राप्त करने का ? सोचिये, राजनीति के धुरंधर खिलाड़ी दादा बाळ ठाकरे व उनके अनुयायी गण, बिहार प्रांत से महाराष्ट्र आये, बिहारी प्रजा के लोगों से क्यों इतना बैर रखते हैं ?

भारत भूमि के नागरिक, बिहारी भाई मुम्बई की जगमगाहट व कामधंधे की बहुलता की आकर्षक बातों को सुनकर मुम्बई नगरी में अपनी क़िस्मत आजमाने के लिए, खींचे चले आये हैं । क्या उन्हें कोई हक़ नहीं मुम्बई में अपना ठौर ठिकाना ढूँढने का ?

समाचार पत्रों में, दूरदर्शन के फलक पर व मीड़िया में हम अक्सर देखते हैं - हिंसा, आगजनी, मारपीट और हाथापाई के भयानक दृश्य सताये गये भारतीय, एक प्रांत के दूजे प्रांत के गुस्साये लोगों से प्रताड़ित होते बेबस बिहारी और उन पर हाथ उठाते, वार करते मराठी माणूस के बीच घटित हुए द्रश्य देख देख कर मन में विषाद और कडुवाहट घुल जाती है ।

हाय रे इंसान ! मिटटी का तन, सोने सा मन लिए इंसान
क्यों कर इस दुर्गत में स्वारथ-रत है ?
यह क्या बर्ताव है एक मनुष्य का दूसरे के संग ?
हम इंसान इतने छोटे दिल के क्यों हैं ?

यह बात साफ़ हो जाती है जब हम ऐसे दृश्य देखते हैं कि इंसानियत मर चुकी है । पशुता जीत गयी है । इंसान की जंग में, एकमात्र दुर्गुणों की विजय हुई है। बदचलनी और मक्कारी की जय हुई है ! जय हो ! जय हो !!

ऐसे कैसे हो गये हैं हम लोग जो अपनी सीमा में किसी आगंतुक के लिए कोई भी जगह नहीं दे पाते ? हर इंसान के भीतर महाभारत' का दुर्योधन नायक बना हुआ है जो वनवासी पांडवों को सूई की नोक पर टिक जाए उतनी सी भी जगह देने से साफ़ इनकार कर देता है ! ध्रृतराष्ट्र के नयन ऐसा अनाचार देखते ही नहीं ! हमारे मन में कहीं छिपे भीष्म पितामह सा विवेक गर्दन नीचे लटकाए मौन श्वेत वस्त्रों से अपना मुख ढाँप कर विवश रेशमी गाव-तकिये का सहारा लिए । मौन है तो आचार्य द्रोण सा साहस, मूक होकर परिस्थिति से विवश होकर संधि प्रस्ताव की आस में, अश्वत्थामा से लोभ के पुत्र मोह में निमग्न है !

जिस तरह एक ट्रेन के डिब्बे में पहले से सवार यात्री नये आनेवाले यात्री को स्थान नहीं देते - फिर वह नव आगंतुक येन केन प्रकारेण, अगर अपनी जगह मुक़र्रर करने में कामयाब हो गया तब वह भी पहले से सवार यात्रियों की टोली का सभ्य बन जाता है । और फिर उसके बाद आनेवालों से वही इंसान ऐसे पेश आता है कि नये आनेवालों को वह भी जगह नहीं देता।

यह पशुता का भाव, अक्सर जंगल में शेर बाघ जैसे हिंस्र पशु भी करते हैं । शेर और बाघ अपनी सीमा रेखा के भीतर दूसरे शेर या बाघों को घुसने नहीं देते और हमला कर के नवागंतुक को खदेड़ देते हैं । हम भी प्राणी जगत के अंश हैं उन्हीं की तरह हमारे भी नियम क़ानून और मनोवृतियाँ हैं । जिस के कारण समाज में रहते हुए हम अक्सर अपनी समा अपनी कौम, अपने मुल्क से लगाव रखते हुए अपने स्वार्थों को अक्षुण्ण रखते हैं।

भारतीय वांग्मय ने "वसुधैव कुटुम्बकम`" का उद्घोष सदियों पूर्व अवश्य किया था परंतु दैनिक व्यवहार और पुस्तकिया ज्ञान में सदा फ़र्क रहा है । ऐसे बुद्ध-प्रबुद्ध करोड़ों में बिरले ही हुए ! कोई परम योगी सा ही संसार के इस लोभ, मद, मोह, मत्सर के जाल से विरक्त हो पाया है -- अन्यथा हम मनुष्य स्वार्थरत ही रहे ।

हम भारतीय परदेस जाकर लाखों की संख्या में आबाद हुए हैं । विश्व के हर कोने में आपको कहीं ना कहीं एकाध भारतीय अवश्य ही मिल ही जाएगा । गिरमीटिया मज़दूर होकर भारत से यात्री सूरीनाम, मारीशस, बाली द्वीप, जावा, सुमात्रा, वेस्ट इंडीज़, फिजी जैसे कई मुल्क़ों में अपना 'मृण्मय तन, कंचन सा मन' लिए पहुँचे थे । कई भारतीय ओस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, इंग्लैण्ड, रशिया, अमरीका, यूरोपीय देशों में भी गये । विश्व के हर कोने में जा-जा कर भारतीय मूल के लोग बसे हैं और उन्हें अप्रवासी भारतीय कहा गया । आज ऐसी स्थिति है कि उत्तर अमरीका के न्यूजर्सी प्रांत के एडीसन शहर में वहाँ रहनेवाले इटालियन, जर्मन, डच या फ्रांसीसी या अँगरेज़ या कहें कि, यूरोपीय मूल के लोगों की बनिस्बत भारतीय प्रजा की बहुलता हो गयी है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी !

उत्तर अमरीका से प्रकाशित टाइम नामक पत्रिका (मैग्ज़ीन ) सुप्रसिद्ध है और विश्व स्तर पर बिकती है । उसकी पाठक संख्या भी करोड़ों की तादाद में है । उसी के एक पत्रकार जोईल स्टाइन ने, जो मूल इटालियन या इतालवी है; अपने एक आलेख में बदले हुए एडीसन शहर और वहाँ बढ़ती हुई भारतीय साग सब्जी की मंडी, रेस्तोरां, मंदिर, गुरूद्वारे, भारतीय परिधान व आभूषण बेचतीं दुकानों और वहाँ निर्विघ्न घुमते सैलानियों को देखकर दुःख और नोस्तेल्जीया प्रकट किया है - नोस्तेल्जीया माने ,परापूर्व स्थिति के प्रति अदम्य आकर्षण व उसे पुनः स्थापित करने की ललक !

देखें यह कड़ी:

देखें यह कड़ी लिंक : http://www.time.com/time/magazine/article/0,9171,1999416,00.html

यहाँ चित्र में, भारतीय लिपि से अँगरेज़ी अक्षरों में लिखा है - "वेलकम टू एडिसन न्यू जर्सी " ।

पूरे आलेख में भारतीयों के बढ़ते हुए प्रभाव से त्रस्त व आक्रांत होकर कुछ परेशान, कुछ झुंझलाकर क्लांत भाव है । यहाँ लिखा गया है और भारतीय प्रजा के आने से पहले जो व्याप्त था ऐसे इतालवी कल्चर की प्रभुता के दिनों की याद और फिर उन पुराने दिनों के लौट आने की कामना, माने इटालियन या यूरोपीयन कल्चर के प्रति भरपूर नोस्तेल्जीया की भावना इस लेख में साफ़ झलकती है । पत्रकार महोदय का नाम है जोईल स्टाइन ।

(आप भी ऊपर दी हुई लिंक पर जाकर, क्लिक कर , जोईल स्टाइन के आलेख को अवश्य पढ़ें)

अब भारतीय मीडिया भी कहाँ चुप रहनेवाला था ! आजकल के ग्लोबल गाँव में कोई समाचार छिपा नहीं रह पाता । वर्ल्ड वाईड वेब से जुड़े संसार में, ख़बर आनन-फानन में फ़ैल गयी । ख़बर पहुँच गयी भारत में और पूरे विश्व में । भारत से प्रकाशित हिन्दू समाचार पत्र ने इस आलेख की भर्त्सना करते हुए अपने जवाबी आलेख जवाबी में लिखा - अजी यही तो होना था ना अब मीडिया ग्लोबल जो हो गया । टाइम मेगेज़ीन ने जोईल स्टाइन के आलेख के कहा कि भारतीय प्रजा के मन को दुखी करने वाले आलेख के लिए हम माफ़ी चाहते हैं । यहाँ प्रश्न उभारा गया कि क्या भारतीय मूल की प्रजा को अमरीका में रहते हुए भविष्य में विक्षोभ उठाना पडेगा ?

१ ) http://www.thehindu.com/news/international/article504244.ece

" भारतीय प्रजा के मन को दुखी करने वाले आलेख के लिए
हम माफी चाहते हैं "

आँकड़े और सर्वे इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि महज विगत 1 वर्ष में 94,563 भारतीय मूल के विद्यार्थी समुदाय के अमरीका आगमन से डालर $ 2.39 विलियन धन राशि अमरीकी इकोनोमी में जुडी है । भारतीय मूल के अमरीका में बसे नागरिक अमरीकी अर्थ व्यवस्था में मिलियनों डालरों के हिसाब से योगदान श्रमदान करते हैं । भारतीय मूल की प्रजा भले ही अप्रवासी कहलाती हो, परंतु जहाँ भी भारतीय बसे हैं उन्होंने उस देश को समृद्ध किया है । यही नहीं कई प्रमुख व्यवसाय जैसे चिकित्सा, इंजीनियरिंग, आईटी और अन्य तरह के व्यापार उद्योग के क्षेत्रों में इन नये नागरिकों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है । हर मुल्क से आकर उत्तर अमेरीकी धरा पर बसे दूसरी कौम के लोगों के मध्य जीते हुए रहते हुए भी सदा भारतीयों ने अपनाए हुए देश के नियम व क़ानून का विधिवत तथा व्यवस्थित रूप से पालन भी किया है और भारतीय संस्कार भी संजोए रखा है । हाँ, कुछ अपवाद हर बात में देखे जाते हैं सो ऐसा भी नहीं की हर भारतीय बस श्री रामचंद्र का अवतार-सा श्रेष्ठ मानुष ही बना रहा है । अच्छे और बुरे इंसान हर तबक़े और हर कौम में, हर मुल्क में होते हैं और हम भारतीय भी इस मामले में सब के जैसे हैं । हम कोई अपवाद नहीं हैं ! हम भी महज इंसान ही तो हैं !

निष्कर्ष यही कि आज विश्वव्यापी बाज़ारवाद और समाजवाद के २ पहियों के बीच चली मीडिया की गाडी में बैठा आम अदना इंसान अपने आप को कहे भी तो क्या कहे ? क्या समझे या समझाये कि वह कौन है ? प्रवासी है या अप्रवासी है ? भारतीय है या एनआरआई है ? बिहारी है या महाराष्ट्र वासी है ?

कहाँ से चले थे हम और कहाँ पहुँचेंगे ? क्या इंसानियत, मैत्रीभाव, दया करुणा, आपसी भाईचारा, अमन पसंदगी, सुकून की तमन्ना, आनेवाले समय में, ये सारे शब्द सिर्फ़ 'दीवानों की डिक्शनरी' के शब्द मात्र रह जायेंगें ? लोभ, लालच, व्याभिचार, दुश्मनी, बैर, लडाई-झगडा , दंगा-फ़साद, बम के गोले, बारूदों के ढेर, ख़ून ख़राबा, व्याभिचार, अनाचार... क्या बस यही विश्व में हर तरफ़ जारी रहेगा ? मनुष्य कब सभ्य होगा ? कब सुसंस्कृत होगा ? पता नहीं ...ये होगा भी या नहीं...

आख़िर में ये भी देख लीजिये...

युद्ध विनाश के बादल लेकर आते हैं और तबाही की बरसात कर कहर बरपाते हैं .....

देखिए यहाँ

.जैसा इस लिंक में आप देख पायेंगें

मैं तो बस इतना ही कहूँगी –

हम तो कुछ भी नहीं हैं ज़िंदगी के सताये हुए,

सहते हैं हर जुल्म ज़िंदगी के बस मुस्कुराते हुए ।
- लावण्या