Tuesday, November 28, 2017

श्रध्धेय स्व. नारायण देसाई जी का पत्र पढ़कर, उन्हें लिखा मेरा पत्र


स्व. नारायण देसाई का तेजस्वी जीवन २४  दिसम्बर १९२४  - १५  मार्च २०१५ तक भारत और विदेश में गाँधी जी के सन्देश को विश्व में बाँटता रहा। वे एक प्रख्यात गाँधीवादी थे। वे गाँधीजी के निजी सचिव और उनके जीवनीकार महादेव देसाई के पुत्र थे। नारायण देसाई भूदान आंदोलन और सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन से जुड़े रहे थे।  ऊपर के चित्र में किशोर वय के श्री नारायण देसाई, महात्मा गाँधीजी के साथ हैं।प्रस्तुत है श्री नारायण देसाई जी लिखित पुस्तक 

स्वतंत्रता संग्राम का वसंत'का आवरण चित्र : 

 (श्री अफलातून जी के ब्लॉग से साभार जो श्रध्धेय नारायण देसाई जी के सुपुत्र हैं और हिंदी ब्लॉग ~ जगत के हमसफर व साथी रहे हैं। ) 
प्रस्तुत है ~ नारायण देसाई का दोस्तों के नाम पत्र :
संपूर्ण क्रान्ति विद्यालय - वेडछी २२.११.२०१०

प्यारे दोस्तों ,

सप्रेम जय जगत ।

मेरे बाद की पीढ़ी वाले, लेकिन विचारों में मुझसे आगे जानेवाले लोगों तक पहुंच पाने के मनोरथसे यह पत्र मैं अपने दो पुत्रों द्वारा इलेक्ट्रॉनिक प्रसार माध्यम से भेज रहा हूँ । आशा है आपमें से कुछ को जरूर मेरा यह पागलपन छूएगा । तुकाराम ने गाया है : ” आम्ही बिगड़लो ,तुम्हीं बिघडाना ! “

दिन दहाडे स्वप्न देखना मुझे बुरा नहीं लगता । अक्सर जब लोग मुझे पूछते हैं कि ’ क्या गांधी आज प्रासंगिक हैं ? ’ तब मुझे उसके सीधे जवाब ’ जी हाँ ’ के अलावा और भी एक विचार आता है , कि गांधी विचार जो एकरूप में भूदान – ग्रामदान-ग्राम स्वराज आन्दोलनमें और दूसरे रूपमें संपूर्ण क्रांति आन्दोलन के रूपमें प्रकट हुआ था , वह न आज सिर्फ़ प्रासंगिक है , बल्कि आज उसे प्रासंगिक बनाया भी जा सकता है । संपूर्ण क्रांति के लिए मेरी कल्पनाकी व्यूहरचना के आधार पर वह नीचे प्रस्तुत है ।
आज का संकट सर्वक्षेत्रीय और संपूर्ण है , इसलिए उसका जवाब भी संपूर्ण होना चाहिए । संपूर्ण क्राम्ति के लिए व्यक्ति की मनोवृत्तिमें  तथा समाज के मूल्योंमें परिवर्तन होना चाहिए । इस दोहरी प्रक्रिया के लिए पंचविध कार्यक्रम हों , जिसके क्रममें  विविध स्थानो की विविध परिस्थिति के कारण क्रम परिवर्तन हो सकता है और हो
१ : 
प्रबोधन : ( कोन्सिएन्टाइज़ेशन ) : लोगों को असम्तोष है , लेकिन परिस्थिति का ठीक से विश्लेषण नहीं , न पूरा आकलन ही है ।हमें स्वयं अपने से शुरु कर लोगों को खुद अपनी गुत्थियां सुलझाने के लिए प्रवृत्त करना चाहिए । शासन , नेता या अवतार के आने का इन्तेजार करना नहीं चाहिए । लोकजागरण के हर संभव तरीके का प्रयोग करना चाहिए । मुखोमुखी बातचीत और चिट्ठी पत्र से लेकर गोष्ठियां , सभाएं तथा ’जात्रा’ , मेले, डिंडी आदि शताब्दियों से चले आये, लेकिन आजकल पुराने पड़ रहे माध्यमों से लेकर नाटक , पथनाट्य , छाया नाटक  मुशायरे , कवि सम्मेलन , 'तमाशे’, चौपाल , ’भवाई’,’दायरे’ इत्यादि सांस्कृतिक उपकरण एवं कार्टून प्रदर्शनियां,डॉक्यूमेन्टरी,फिल्म,रेडियो,टी.वी. तथा वेबसाइट आदि तक ।
२ : संगठन : प्रबोधन के साथ साथ ,एवं उसके आगे बढ़ने के बाद भी संगठन होते रहना चाहिए । पूरी क्रांति तो तब होगी जब लोग उसे उठा लेंगे ।लेकिन उसके अग्रदूतकी भी आवश्यकता रहेगी । लेकिन संगठन करने की हमारी प्रक्रियामें कुछ गुणात्मक परिवर्तन की जरूरत है । यह तो जाहिर है कि गांधी , विनोबा, जयप्रकाश नहीं हैं । इसीलिए संगठन की प्रक्रिया न सिर्फ़ आदर्शों की दृष्टिसे वरन व्यावहारिक आवश्यकतासे भी कुछ अलग होना जरूरी है । विनोबा ने ’गणसेवकत्व’ के विचार बीज बोये थे , लेकिन अभी तक का हमारा अनुभव बहुत कुछ एक नेतृत्व आधारित ही रहा है । तरुण शांति सेना और मेडिको फ्रेण्ड सर्कल नयी दिशामें कुछ गति कर रहे थे । लेकिन अभी लम्बी राह बाकी है । मेंसा लेखा के प्रयोग कुछ पथ प्रदर्शन कर सकते हैं । कालेजोंमें , छात्रालयोंमें , गाँवोंमें , मुहल्लोंमें आरंभ करना होगा । संगठन अहिंसा की अग्नि परीक्षा है – ऑर्गनाइजेशन इज़ द एसिड टेस्ट ऑफ़ नॉनवायल्न्स इस गांधी वाणी को निरंतर मद्देनजर रखकर आगे बढ़ना होगा ।
३ : नमूने प्रस्तुत करना : हमारा जीवन दर्शन हमारी जीवन शैलीसे गाढ़ संबध रखता है । जगह जगह ऐसे केन्द्र बनाने की कोशिश हो जहां व्यक्तिगत गुण संवर्धन , सामाजिक न्याय एवं शांति तथा सृष्टि के साथ संवादिता (हार्मनी) पैदा करने की सतत साधना होती हो । ऐसे नमूने निकट तथा दूर दोनों तरफ़ ध्यान आकर्षित कर सकते हैं तथा परस्पर अनुभवों के आदान-प्रदान से तो तात्कालिक लाभ मिल ही सकता है । इन नमूनों का आधार प्रयोगवीरों की गुणवत्ता पर होगा और यही उनका मानदण्ड भी होगा । व्यक्तिगत जीवनशैली के नमूने स्वावलम्बन , परस्परावलम्बन या ग्राम स्वावलम्बन के हो सकते हैं । वैकल्पिक उर्जा – सौर,पवन,जल,पशु, उर्जा आदि – के विविध प्रकार के प्रयोगों की आज अत्यन्त आवश्यकता है । हम में से कुछ लोग इन प्रयोगों के पीछे जीवन बिता सकते हैं । गांधी के सारे रचनात्मक कार्य नवसंस्करण की राह देख रहे हैं ।उन्हें इन्तेज़ार है उन प्राणवान हाथों की जिन्हें जीवन की ताकतों के लिए प्रयोग करने की ललक है ।
४ : संघर्ष : संपूर्ण क्रांति का मार्ग हमेशा सीधा या आसान तो होगा नहीं । वर्तमान व्यवस्था के अनेक पहलू उसके आडे आ सकते हैं । वैसे देखें तो संपूर्ण क्रांति अपने में ही यथास्थिति – स्टेटस को – केखिलाफ़ एक बगावत है । इसलिए अकसर शोषण , अन्याय , अनीति , भ्रष्टाचार के खिलाफ़ संघर्ष के मौके आते ही रहेंगे । हर संघर्ष के समय संपूर्ण क्रांतिकारी का ध्यान गांधी के बताये हुए उन तीन उसूलों पर स्थिर रहना चाहिए जो गांधी ने सत्याग्रही के लिए अनिवार्य माने थे । उनकी अपेक्षा थी कि स्त्याग्रही सत्यकी ठोस आधारशिला पर ही खड़ा रहेगा , व अपना ध्येय हासिल करने के लिए वह तीव्रतम कष्ट सहने के लिए तैयार होगा और उसके दिलमें अन्यायपूर्ण व्यवस्था के प्रति चाहे जितना आक्रोश हो , किन्तु प्रतिपक्षी के लिए तो निरा निर्मल प्रेम ही होगा । साधन शुद्धि ही संपूर्ण क्राम्तिकारी परख और वही उसकी कसौटी होगी ।
५ : 
प्रकाशन : इस सारे कार्यक्रम के लिए प्रचार एवं प्रकाशन की जरूरत होगी । यद्यपि गांधी का व्यक्तित्व तथा उनका जीवन ही प्रकाशन का उत्तम माध्यम बन जाता था , फिर भी यह ध्यान रहे कि उन्होंने लगभग आधे शतक तक प्रकाशन का कोई न कोई माध्यम सम्हाल कर अपने साथ रखा था ।प्रकाशन का एक व्यापक , विकेन्द्रित तंत्र खड़ा करना होगा । अनेक आधुनिक उपकरणों ने विकेन्द्रित प्रकाशन सुलभ बना दिया है । हममें से कइयों को इस काम में अपनी शक्ति और सामर्थ्य लगाने होंगे ।
सब से पहले तो इस समूचे विचार पर हमें आपकी बहुमूल्य टिप्पणी चाहिए । यह सारा प्रयास ही ’एक: अहम बहुस्याम’ का है । आपके विचारों से हमारे विचारों का स्पष्टीकरण , शुद्धीकरण एवं संशोधन होगा ।
फिर आपको यह सोचना होगा कि हम किस प्रकार इस अभियान में जुड़ सकते हैं । इसमें सब प्रकार के लोगों का उपयोग हो सकता है , आंशिक समय देनेवाले , एक नि्श्चित प्रकार का ही काम करनेवाले से ले कर इसी काम में पूरी शक्ति लगाने वाले तक की । अपने अलावा औरों को जुटाने वाले भी चाहिए ।
हमारे विद्यालय की दृष्टि से इसमें प्रशिक्षण पाने के लिए योग्य एवं उत्सुक प्रसिक्षार्थी चाहिए । हमारे काम में प्रत्यक्ष सहभागी बनने के लिए साथी चाहिए। आप अपने कुछ नये साथियों को हमारे खुले सहजीवन से परिचित कराके अपनी सेकण्ड लाइन तैयार करना सोचते हों तो एक दो साथियों को उस दृष्टि से यहां भेजिए और उपरोक्त पांचों प्रकार के कामों में अभिज्ञता रखनेवाले साथी तो इस अभियान के निहायत जरूरी है ही । अपने क्षेत्रों यदि आज तक ऐसा कुछ न कुछ शुरु न कर चुके हों तो आज से शुरु कीजिए। इस काम में क्या अड़चनें आ रही हैं उनके विषय में हम आपस में सलाह मशविरा तो करें । और यह भी खोजें कि कहां से किस प्रकार की सहायता मिल सकती है।स्व.श्री सूर्यकांत त्रिपाठी ( हरिवंशराय बच्चन की पंक्तियां) की एक पंक्ति ने मुझे तो बरसों से क्या दशाब्दियों से प्रेरित किया है: 'आज लहरों में निमंत्रण, तीर पर कैसे रुकूँ मैं ?’
स्नेहसने सलाम,
- नारायण देसाई 
महात्मा गांधी के जीवन और जीवन संदेश को कथामय रूप में सुनाने के लिए नारायण भाई ने मंच पर  'गांधीकथा'  कहना आरम्भ किया।
नारायण देसाई गाँधी के आदर्शों पर अटूट श्रद्धा और विश्वास रखते थे। उन्होंने आपना जीवन महात्मा के बताये मार्ग पर व्यतीत किया और इन्ही आदर्शों का प्रसार करने में लगे रहे। उन्होंने 'तरुण शांति सेना' का नेतृत्व किया, वेडची में अणु शक्ति रहित विश्व के लिये एक विद्यालय की स्थापना की तथा गांधी शान्ति प्रतिष्ठान, गांधी विचार परिषद और गांधी स्मृति संस्थान से जुड़े रहे। 
श्री नारायण भाई गुजरात विद्यापीठ के २३ जुलाई २००७ से, कुलाधिपति रहे।
सं २०१५ , तारीख १० दिसम्बर से वे कोमा में थे किन्तु पुनः चैतन्य होकर स्वास्थ्यलाभ कर रहे थे और चरखा चलाना उनकी नित्यक्रिया थी उसी का  चित्र : 
'गांधीकथा' शुरू करने वाले विख्यात गांधीवादी नारायण देसाई के स्वास्थ्य में सुधार हुआ। वे कोमा से बाहर आए। सेहत दुरस्त होने पर उन्हें आइसीयू से बाहर ले लिया गया । चिकित्सकों की निगरानी में उन्हें हल्का व्यायाम सिखाने का प्रयास किया गया। साथ ही फीजियोथैरपी भी दी गयी।  किन्तु गांधीमय नारायण भाई ने इसके लिए अलग ही उद्यम उठाया । उनके मन से तो चरखा चलाना ही फीजियोथैरपी थी। इसलिए वह ऐसी सेहत में भी चरखा चला कर बापू को याद करते रहे । श्री नारायण देसाई का दिसंबर-१४ से एक अस्पताल में उपचार चल रहा था।
पूजनीया कस्तूरबा पर लिखी उनकी पुस्तक का आवरण चित्र :उनके शब्द : ~~ 

" इस पुस्कत का अधिकतम अनुवाद वर्ष २०१३ के फरवरी से अप्रेल महीने के बिच पूरा हुआ | बा और बापू पुरे देश के है | उसमे भी बापू तो देश की सरहदों को पार करके पूरी दुनिया के; लेकीन १९२३ में जन्मी और सत्याग्रही माँ बेटी मै, अगर उन्हें मेरे निजी स्वजन माँनू और दोनों के थोड़े -बहुत लेकिन मधुर संस्मरणों को अपनी कीमती पूंजी समजू तो भला एश्में अजीब क्या है?
                  - नारायण देसाई.*******************************************************
श्रध्धेय स्व. नारायण देसाई जी का पत्र पढ़कर, उन्हें लिखा मेरा पत्र प्रस्तुत है 
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परम श्रध्धेय बापूजी ( श्री नारायण भाई ) को सादर नमन व चरण स्पर्श 
मैं, लावण्या, सुप्रसिद्ध
कवि स्व.पण्डित नरेंद्र शर्मा जी की पुत्री हूँ। मेरे पापा जी ने बापू की अहिंसक क्रान्ति में जुड़कर, २ वर्ष ब्रीटीश साम्राज्य से सजा पाते हुए, आगरा सेन्ट्रल जेल, देवली ड़ीटेंशन जेल और राजस्थान जेल में सहर्ष कारावास स्वीकार किया था और कारावास के दिनों में  १४ दिन का अनशन भी किया।                कारावास से पूर्व इलाहाबाद विश्वविद्यालय से, युवक नरेंद्र शर्मा ने स्वरचित हिंदी कविता पुस्तकों के प्रकाशन, सम्पादन कार्य एवं छात्रों को अध्यापन कराते हुए से अपनी पढ़ाई पूरी की थी। अंग्रेज़ी साहित्य से एम. ए. की परीक्षा में उत्तीर्ण होने के पश्चात नरेंद्र शर्मा, पंडित जवाहर लाल नेहरू जी से आनंद भवन के लॉन पर सबसे पहली बार मिले थे। उस रोज वहीं २, ३ घंटे टहलते हुए, बातचीत करते हुए नेहरू जी ने उन्हें अपने हिंदी अधिकारी के रूप में चयनित कर लिया था ! अगले  ४ साल तक, नरेंद्र शर्मा आनंद भवन जो आज ' स्वराज भवन ' के नाम से पहचाना जाता है, जिसे श्री मोतीलाल नेहरू जी ने भारतवर्ष को भेँट किया है वहीं काम करते रहे और कांग्रेस की गतिविधियों में सक्रीय  योगदान देते रहे । पंडित नेहरू जी के  निजी सचिव नहीं थे और कांग्रेस कार्यकारिणी समिति में 'हिंदी अधिकारी' पद पर भी कार्यरत थे ।आनंद भवन में जो बैठकें होतीं उन में इस्तेमाल किये गए  अंगरेजी संभाषणों का आम जनता तक पहुंचाने का कार्य,  कार्यकारिणी समिति के हिन्दी अधिकारी के रूप में नरेंद्र शर्मा ने  संपन्न किया। फलस्वरूप उन्हें ब्रिटिश हुकूमत द्वारा, बिना कोर्ट कचहरी या मुकदद्मे की कार्रवाई को किये बिना सीधा वाईस रॉय के डायरेक्ट ऑर्डीनन्स से २ वर्ष का कठिन कारावास ये दण्ड मिला।  इस सजा की खबर नरेंद्र शर्मा के जन्म स्थान जहांगीरपुर, खुर्जा जिला और डिस्ट्रिक्ट बुलंद शहर तक भी कुछ समय पश्चात पहुँची।                     कारावास में नरेंद्र शर्मा ने आमरण अनशन आरम्भ किया। इस निर्णय के १ सप्ताह बाद, मेरी स्व. दादीजी गंगादेवी को भी ये खबर पहुँच गई ! नरेंद्र शर्मा १४ दिनों तक भूखे रहे और उनकी अम्माँजी , मेरी  दादी जी ने भी १ सप्ताह तक अपने पुत्र के अनशन में सहकार देते हुए, स्वयं भी १ सप्ताह के लिए अन्न त्याग किया था। ऐसे कितने ही नन्हे नन्हे सिपाही, हमारे परम पूज्य बापू की अहिंसक सेना के अंग रहे हैं जिनको आज भारतवर्ष भूल गया है !
        भारत और भारत के कई नागरिक आज  साम्राज्यवाद और बाजारवाद के दुहरे भंवर में डूब कर, पश्चिम का अँधा अनुसरण करने लगा है ! आज का भारत कुछ हद्द तक त्याग, बलिदान, समर्पण देश - प्रेम की उद्दात भावनाओं को बिसार चुका है ये कितने क्षोभ और दुःख की बात है ! 
        स्वयं बापू के कहे का अनुसरण भी बिरले लोग ही कर रहे हैं। आप जैसे हितैषी जब भी हमे आगाह करवाते हैं तब बोध होता है कि बापू की दूरदर्शिता और विश्व के सभी मनुष्यों के प्रति दया, करूणा व भाईचारे की भावना ने ही उन्हें ‘ महात्मा ‘ बनाया।वे हमारे लिए और समस्त विश्व के लिए पूजनीय हैं।कैसी उत्कट तथा विरल विश्व बंधुत्व की भावना, भारत वर्ष के लिए  देश - प्रेम की भावना और प्राणोत्सर्ग का हाथ और उनके लिए किये सत्याग्रह का यज्ञ, बापूजी ने किया था।ऐसे तपस्वी ' हे राम ' का उदगार करते हुए चले गए ! काश लोग उन्हें समझें !  
              मैं अपनी बात लम्बी न करते हुए यही कहूंगी, निजी स्तर पर मेरे लेखन से, अमरीकी निवासी होते हुए भी, सम्पूर्ण रूपेण भारतीयत मानस लिए, ‘ जय – जगत ‘ कहते हुए आपके प्रयासों में सहकार देने के लिए, मैं अपना भरसक प्रयास अवश्य करूंगी।  
    मैं, यदाकदा , अन्तराष्ट्रीय हिन्दी समीति ” विश्वा ” का सम्पादन कार्य भी करती रही हूँ और समीति के सदर्स्यों तक आपका पत्र पहुंचा रही हूँ। 
         आपके सुपुत्र भाई श्री अफलातून जी मेरे भ्राता हैं और मेरा बचपन, उन्हीं के बचपन के घर के समान एक पवित्र घर में, [जो  बंबई शहर में था] मेरे गांधीवादी, सत्य पूजक, कर्मठ पिता के, आश्रम जैसे पवित्र घर में बीता है। श्री अफलातून भाई की तरह मुझे भी, एक सत्य साधक की छत्र छाया में, पलकर बड़े होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। 
        मेरी नानी जी ” कपिला बा ” आजीवन अपने हाथ से बुने खादी की धागों से निर्मित साड़ी ही सदा, पहनतीं रहीं और उसी को ओढ़े हुए वे गयीं। 
         मेरे नाना जी श्री गुलाबदास गोदीवाला जी, ब्रीटीश राज्य काल में सेन्ट्रल रेलवे के चीफ़ वैगन एन्ड कैरिज इंस्पेक्टर अधिकारी के पद पर कार्य करते थे।     ब्रिटिश अफसरों के संग उनका उठना - बैठना था किन्तु नानाजी को, मेरी ' बा ' ने गांधीजी के सत्याग्रह आंदोलन से प्रभावित होकर भारतीयता की ओर मुड़ने के लिए बाध्य किया। नानाजी व नानीजी दोनों खादीधारी बने। स्वदेशी को पूर्णत: अपनाया।नानीजी ४ थी कक्षा तक पढ़ीं थीं किन्तु बंबई महानगर के अति व्यस्त ऐसे बांद्रा उपनगर में उनके आवास ' कपिलवस्तु ' रहते हुए , कांग्रेस कमिटी बांद्रा - महिला शाखा की वे अध्यक्षा रहीं। 
मेरी नानी जी हमारी 'बा ' ~ श्रीमती कपिला गुलाबदास गोदीवाला ~
~ महिला कोंगेस कमिटी में भाषण देते हुए 
मेरे मामाजी स्व. राजेन्द्र गोदीवाला जी ने ऋषितुल्य विनोबा जी के साथ झुम्पडी अलगट ग्राम में, सड़कें बनायीं, ग्राम - पाठशालाएं बनायीं  और भूदान  में हिस्सा लिया। अछूत उध्धार प्रयास विनोबा जी का साहसिक प्रयास था उस के लिए भी मामाजी राजेंद्र गुलाबदास गोदीवाला जी ने अभूतपूर्व योगदान दिया। 
       हरिजनों को लेकर मंदिर प्रवेश करते समय विनोबा जी के लिए उठीं, कई पागल ब्रह्मण दल की लाठियाँ , मेरे राजू मामाजी ने, अपनी पीठ पर झेलीं थीं। फल स्वरूप उनके पीठ की कई हड्डीयां टूट गयीं। उनकी  सेवा – सुश्रुषा, वर्धाश्रम पौनार में हुई और आदरणीया कुसुम्ताई देशपांडे की छोटी बहन शीला देशपांडे से मेरे मामा जी का विवाह होना इस घटना का एक सुखद उपसंहार बना !
          बापू जैसा न कोइ विगत शताब्दी में हुआ है और इस सदी में भी उनसे किसी के जन्म लेनेकी संभावना कम ही लग रही है !! जैसा आपने सही लिखा है कि
" कोइ 
 युगपुरुष ” उद्धार करने आनेवाला नहीं। " 
हमे परस्पर सहयोग करना होगा और आपके सुझाए ध्येय, इस मार्ग में सहायक सिध्ध होंगें इस में मुझे कतई भी संदेह नहीं है। 
बहुत आदर व श्रध्धा सहित आपकी एक भारतीय बेटी
उत्तर अमरीका से
– लावण्या शाह ( शर्मा )