Friday, May 27, 2022

माँ शारदामणी व ठाकुर श्रीरामकृष्ण परमहंस के श्री चरणों में साष्टाँग प्रणाम

 

 परम पूज्य ठाकुर श्री रामकृष्ण परमहँस देव ~ माँ शारदामणी ~
  
' वेदान्त ' भारतीय सनातन धर्म की परम्परा ५,००० वर्ष से भी अधिक प्राचीन है। 
उपनिषद् ‘वेद’ के अन्त में आते हैं। ‘ वेद ’ के अंतर्गत  प्रथमतः वैदिक संहिताएँ- ऋक्, यजुः, साम तथा अथर्व हैं। तदउपरान्त ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषद् आते हैं।  साहित्य के अन्त में होने के कारण उपनिषद् वेदान्त कहे जाते हैं।वेदान्त की तीन शाखाएँ अधिक प्रसिद्ध हैं : 
१) अद्वैत वेदान्त के  आदि शंकराचार्य प्रवर्तक हैं। 
२) विशिष्ट अद्वैत ~  रामानुज द्वारा प्रतिपादित हुआ तथा 
३) द्वैत ~  श्री मध्वाचार्य द्वारा प्रतिपादित हुआ। 
प्रथम  संहिताओं का अध्ययन होता था। तद्पश्चात गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने पर
यज्ञादि गृहस्थोचित कर्म हेतु, ब्राह्मण-ग्रन्थों के अनुसार, कर्म काण्ड संपन्न किये जाते थे। वानप्रस्थ या संन्यास आश्रम में प्रवेश करने पर, आरण्यकों की आवश्यकता होती थी। वन में रहते हुए ज्ञान पिपासु व्यक्ति, जीवन तथा जगत् की अबूझ पहेली को सुलझाने का प्रयत्न करते थे। यही उपनिषद् के अध्ययन तथा मनन की अवस्था थी। वेदान्त को उपनिषद भी कहते हैं। ईश, केन, कठ, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य तथा बृहदारण्यक यह उपनिषद के विभिन्न भाग हैं। 
ज्ञानयोग की कुछ अन्य शाखाएँ भी हैं जिन के प्रवर्तक हैं ~ भास्कर, वल्लभ,
चैतन्य, निम्बार्क, 
वाचस्पति मिश्र, सुरेश्वर व विज्ञान भिक्षु ।
आधुनिक काल  में  ठाकुर रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, अरविंद घोष, 
स्वामी शिवानंद, राजा राममोहन रॉय व  रमण महर्षि उल्लेखनीय हैं। 
ठाकुर श्री रामकृष्ण परमहँस देव ~ 
जन्म : सं. १८३६, फरवरी १८ :  कामारपुकुर ग्राम, बंगाल में 
जन्म नाम : गदाधर चट्टोपाध्याय 
पिता का नाम ख़ुदीराम चट्टोपाध्याय था तथा माँ का नाम चंद्रमणि देवी था। 
भक्तों के अनुसार माता को गर्भ धारण काल अवस्था में अलौकिक अनुभव हुए थे।
एक दिन वे शिव मँदिर में थीं तथा उन्हें अलौकिक प्रकाश पुँज उनके शरीर में
 प्रवेश कर रहा हो ऐसा भास् हुआ था।  पिता खुदीराम को गदाधारी महाविष्णु ने स्वप्न में आकर कहा कि, ' वे पुत्र रूप में आयेंगें। 'बालक का जन्म हुआ तो
' गदाधर ' नामकरण हुआ। स्नेह से सभी उस मनमोहक मुस्कानवाले बालक को
' गदाई ' बुलाया करते थे। 
महाभारत, रामायण, पुराण  व भगवद गीता का ज्ञान, शैशव में ही गदाई ने प्राप्त कर लिया था। सात वर्ष के होते, गदाई के सर से पिता का साया उठ गया। बड़े भाई रामकुमार चट्टोपाध्याय कोलकत्ता में पाठशाला के संचालक थे।  वे गदाई को अपने संग ले चले। जन्मस्थान कामारपुकुर तथा शैशव का आवास छूट चला। 
चित्र : कामारपुकुर का घर 
कामारपुकुर में स्थित इस छोटी सी घर में श्रीरामकृष्ण रहते थे
कोलकत्ता नगर में रानी रासमणि देवी अत्यंत धनाढ्य ज़मींदार परिवार से थीं।
शहर की उत्तर दिशा में, हुगली नदी  किनारे, देवी रासमणि द्वारा निर्मित 
माँ भवतारिणी, माँ काली का, भव्य दक्षिणेश्वर काली मँदिर था। 
Rani Rasmoni
                      देवी रासमणि  ने सुवर्णरेखा नदी से जगन्नाथ पुरी तक सड़क का निर्माण करवाया था।कलकत्ता  निवासियों के लिए, गङ्गास्नान की सुविधा हेतु, उन्होंने,  केन्द्रीय व  उत्तर कलकत्ता में हुगली के किनारे बाबुघट, अहेरिटोला घाट व  नीमताल घाट का निर्माण करवाया। लोककथनुसार, देवी काली ने भवतारिणी ' स्वरूप में स्वप्न दर्शन दिए तब उन्होंने, देवी आद्यशक्ति भवतारिणी महामाया का यह भव्य मंदिर बनवाया था।  सं १८४७ में भारतवर्ष पर ब्रिटिश राज की हुकूमत बदस्तूर जारी थी। उस समय यह मँदिर, ५८  एकड़ भूमि पर  निर्मित हुआ। 
रामकुमार चट्टोपाध्याय को इस मन्दिर के प्रधान पुरोहित पद पर नियुक्त किया गया। छोटे भाई रामेश्वर भी काली मँदिर में पूजा किया करते थे। कलकत्ता आने के पश्चात एक वर्ष के भीतर, बड़े भाई रामकुमार का देहांत हुआ।  तब  गदाई ने पुरोहित पद सम्हाला। गदाई के साथ,' ह्रदय ' श्री रामकृष्ण की बहन का बेटा, उन का भतीजा भी  साथ आया था।
 वर्ष सं १८५७ -६८  तक, युवा  गदाधर, जिसे समस्त विश्व, ठाकुर स्वामी रामकृष्ण परमहंस के पवित्र नाम से पुकारने लगा, वे, इस मंदिर के प्रधान पुरोहित पद पर रहे। वहीं रहते हुए, श्री रामकृष्ण ने अपनी दिव्य  साधना को प्रखर किया। 
श्री रामकृष्ण को काली माता के दर्शन, ब्रम्हांड की माता के रूप में हुए थे। 
 ठाकुर श्री रामकृष्ण ने अपने दिव्य अनुभव का वर्णन इन शब्दों में किया है,
 " घर ,द्वार ,मंदिर व सब कुछ अदृश्य हो गया, जैसे कहीं कुछ भी नहीं था! 
 मैंने एक अनंत तीर विहीन आलोक का सागर देखा, जो चेतना का सागर था।
 जिस दिशा में भी मैंने दूर दूर तक जहाँ भी देखा, बस उज्जवल लहरें दिख रहीं थीं, जो एक के बाद एक, मेरी ओर आ रहीं थीं। "
दक्षिणेश्वर माँ काली का मुख्य मंदिर है। भक्त स्वभाव के नवीन पाल काली प्रतिमा के  शिल्पकार थे। दिन में मात्र एक बार भोजन ग्रहण करते हुए अत्यंत भक्तिभाव से उस  शिल्पी ने, इस भव्य माँ काली प्रतिमा का निर्माण किया था। मँदिर के भीतरी भाग में चाँदी से बनाए गए कमल के फूल पर कि जिसकी हजार पंखुड़ियाँ हैं,  माँ काली, अपने  शस्त्र धारण किये, भगवान शिव पर विराजित हैं। 
आदिशक्ति, आदि पराशक्ति, काल की नियामक, माँ, तांत्रिक, ज्ञानी, भक्त तथा गृहस्थ, इस  समस्त सँसार  की,भवतारिणी हैं। प्रणम्य हैं !  माँ स्वरूप हैं। 
' काली काली महाकाली कालिके परमेश्वरी।
 
सर्वानन्दकरी देवी नारायणि नमोऽस्तुते ।। '
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 ज्ञान वैराग्य सिद्धयर्थं भिक्षाम देहि च पार्वती "
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रामकृष्ण की उग्र तपस्या व साधना से ग्राम कामारपुकुर में उनकी माताज़ी चिंतित रहतीं थीं। वे अपने पुत्र का विवाह करवा देना चाहतीं थीं। श्री रामकृष्ण ने स्वतः अपनी  माँ को बतलाया कि, ग्राम जयरामबाटी में उन की वधु हैं। उनसे जाकर आप मिलिए ' 
माँ शारदा 🙏🏻🌺
देवी शारदा मुखोपाध्याय का जन्म सं. १८५३ में २२ दिसम्बर, ग्राम  जयरामबाटी  में एक गरीब ब्राह्मण परिवार जो बंगाल प्रांत में निवास करता था उनके घर हुआ। उनके पिता का नाम श्री रामचन्द्र मुखोपाध्याय तथा माता का नाम श्यामासुन्दरी देवी थीं।  दम्पति कठोर परिश्रमी, सत्यनिष्ठ एवं भगवद् परायण थे  तथा खेती व धार्मिक अनुष्ठानों को संपन्न करवा कर अपना निर्वाह किया करते थे।  
चित्र ~ जयरामबाटी में माँ शारदा देवी का निवास
माँ शारदामणीखेमङ्करि, ठाकुरमणी मुखोपाध्याय इन पवित्र नामोँ  से, माँ शारदा की पूजा की जाती है।  शारदामणी के जन्म के बाद, कादम्बिनी, प्रसन्न कुमार, उमेशचंद्र,  काली कुमार, वरदा प्रसाद व अभयचरण  यह उन के भाई बहन का जन्म हुआ था। 
सं. १८५९ में शारदामणी,  ५ वर्ष की थीं तब श्री रामकृष्ण २३ वर्ष के थे। उसी अवस्था में  उन दोनों का विवाह सम्बन्ध तै हुआ। 
            अपने शैशव में, नदी पर स्नान के लिए जाने के लिए, शारदामणी घर के पिछवाड़े, खड़ी खड़ीं किसी के संग - साथ की प्रतीक्षा किया  करतीं थी। ठीक उस समय न जाने कहाँ  से, आठ कन्याएं, आ जातीं थीं।  चार आगे और चार पीछे चलतीं हुईं, वे , शारदामणी  को स्नान करवा लातीं। बहुत वर्षों बाद पता चला कि,  वे कन्याएं उस गाँव की थीं ही नहीं। परन्तु वे देवियाँ थीं !  अष्टनायिकाएँ थीं !   ऐसे दिव्य अनुभव शारदामणी के जीवन में हुए। अब शारदामणी १४ वर्ष की हुईं तब अपनी ससुराल, कामारपुकुर ३ माह के लिए आईं। 
श्री रामकृष्ण ने उन्हें वहाँ  ध्यान व आध्यात्म का उपदेश दिया।सं. १८७२ में माँ शारदा १८ वर्ष की हुईं तब दक्षिणेश्वर पधारीं। ' नाहबत ' संगीत घर  मकान के नीचले तले पर, एक छोटे कक्ष में, माँ शारदा आकर रहीं। 
 
सं १८८५ पर्यन्त माँ शारदा वहीं रहीं। जयरामबाटी की यात्राएं भी वे करतीं रहीं। 
श्रीरामकृष्ण ने विधिवत संन्यास  ग्रहण कर लिया था।
 षोडशी पूजा कर श्रीरामकृष्ण ने माता त्रिपुरसुन्दरी का ध्यान करते हुए, अपनी पत्नी माँ शारदा की पूजा की। श्रीरामकृष्ण उन्हें ' श्री माँ ' पुकारते थे। 
माँ शारदा, ठाकुर श्री रामकृष्ण जी को ' गुरुदेब ' कहतीं थीं। 
प्रातः ३ बजे उठकर श्री माँ भागीरथी हुगली में स्नान करतीं। फिर सूर्य आगमन पर्यन्त, वे  जप ध्यान करतीं। श्रीरामकृष्ण ने उन्हें मन्त्र दीक्षा दी थी। दिन में वे श्रीरामकृष्ण की रसोई देखतीं। घरेलू बातों का ध्यान, ईश्वर भक्ति,अतिथि सेवा, वस्तुओं को सम्हालना, छोटों से स्नेह भरा बर्ताव करना, कर्तव्य परायणता का पालन करना, देश काल व  पात्र के अनुसार आचरण करना, इन बातों  की शिक्षा, ठाकुर  श्रीरामकृष्ण जी से माँ शारदामणी ने सीखीं थीं। 
श्रीरामकृष्ण की साधना प्रखरतम हो रही थी।देवी रासमणी के दामाद
मथुरनाथ बिस्वास बाबू ने गहने बनवाये थे उन गहनों को, श्रीरामकृष्ण ने, 
माँ शारदा को पहना दिए। आजीवन वे माँ के शरीर पर रहे।  उग्र तपस्या से, ठाकुर के शरीर में, अग्नि दाह उत्पन्न हुआ था। 
श्रीरामकृष्ण के  शरीर में अग्नि दाह उठ कर उन्हें व्यथित कर रहा था। उसी समय वहाँ भैरवी ब्राह्मणी पधारीं। उन्होंने  आदेश दिया, ' इन्हें पुष्पमालाएं पहना कर, शरीर पर  चन्दन का लेप करो ' आध्यात्म मार्ग पर ईश्वर साक्षात्कार की प्रबल आकांक्षा से, उनकी यह स्थिति हो रही थी। 
भैरवी, श्री रामकृष्ण के शरीर में, रघुवीर का आविर्भाव देख रहीं थीं।
चौसंठ तंत्रो की साधना, भैरवी ब्राह्मणी ने श्रीरामकृष्ण से संपन्न करवाई।
 तद्पश्चात कुछ समय पर्यन्त  मधुर भाव से श्रीराधे रानी सा भेस धारण कर श्रीरामकृष्ण ने  श्रीकृष्ण की आराधना संपन्न की।
माँ काली की आज्ञा से, ठाकुर ने स्वामी तोतापुरी से, तद्पश्चात वेदांत साधना ग्रहण की।उन्होंने इस्लाम धर्म के अनुसार भी  साधना की। ठाकुर के स्वभाव में सहज  विनोद प्रियता तथा  कौतुकप्रियता भी थी। उनके ह्रदय में आनंद का पूर्ण घट स्थापित हो चुका था अतः  सदा मन  उल्लसित  रहता। वे अपना दैनिक भोजन, चाव से , रस ले कर खाते। यह एक मात्र वासना, अपने  शरीर को, इस  धरती से जोड़े रखने के हेतु से ही ठाकुर ने अपने में बचा रखी  थी। आगे चलकर ठाकुर श्रीरामकृष्ण जी की तपस्विनी भार्या उनके मठ  के सन्यासियों की
' माँ शारदा माता '  बन कर  सुशोभित हुईं ।  ठाकुर की उच्च आद्यात्मिक अवस्था के लिए यह उदाहरण सही है कि  जिस तरह रस से भरा हुआ सुँदर पुष्प, जब  पूर्ण रूप से खिल जाता है तब उस  पुष्प पर असंख्य भँवरे  मंडराने लगते हैं। ठीक उसी तरह, ठाकुर श्रीरामकृष्ण की कठोर आध्यात्मिक साधना  व उनकी सिद्धियों की चर्चा से, उन की चहुंओर फ़ैली प्रसिद्धि से, दक्षिणेश्वर का मंदिर  उद्यान, शीघ्र ही, भक्तों एवं भ्रमणशील संन्यासियों का प्रिय आश्रयस्थान बन गया था । 
कुछ बड़े-बड़े विद्वान एवं प्रसिद्ध वैष्णव एवं तांत्रिक साधक जैसे- पं॰ नारायण शास्त्री, पं॰ पद्मलोचन तारकालकार, वैष्णवचरण, गौरीकांत तारकभूषण आदि उनसे आध्यात्मिक प्रेरणा ग्रहण करने हेतु, ठाकुर के पास, खींचे हुए चले आते थे। 
 ठाकुर सुविख्यात विचारकों के घनिष्ठ संपर्क में भी आए। बंगाल में विचारों का नेतृत्व कर रहे थे इन में केशवचंद्र सेन, विजयकृष्ण गोस्वामी, ईश्वरचंद्र विद्यासागर के नाम प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त साधारण भक्तों का एक दूसरा वर्ग था जिस के सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति रामचंद्र दत्त, गिरीशचंद्र घोष, बलराम बोस, दुर्गाचरण नाग इत्यादि हैं।  महेंद्रनाथ गुप्त (मास्टर महाशय) जिन्होंने ठाकुर रामकृष्ण के जीवन से अमृत बिंदु ग्रहण कर समाज को ' कथामृत ' पुस्तक के रूप में देकर बहुत महत्त्वपूर्ण  कार्य किया है।महेन्द्रनाथ गुप्त बीसवीं सदी के भारतीय संत परमहंस योगानंद के गुरु भी थे। चित्र : योगी श्री महेन्द्रनाथ गुप्त ~ 
सच ही कहा है, सत्संग से श्रद्धा, रति ( ईश्वर प्रेम) व भक्ति विकसित होती है। रात्रि के अन्धकार में लिपटे आकाश में  फैले, टिमटिमाते तारागण व  नक्षत्र मंडल, अपने पथ पर अग्रसर होते हुए, हमें उस एक अनदेखे व अनचिन्हे ईश्वर की ओर ले जाने का संकेत करते रहते हैं। उसी काल में महान साधक, तोतापुरी का काली मँदिर मे आगमन हुआ। वे ११ महीने वहीं रहे। उनके समक्ष श्रीरामकृष्ण ' निर्विकल्प समाधि' अवस्था में समाधिष्ठ हो गए थे। ठाकुर कहते, ' मेरी माँ काली, स्वयं सच्चिदानंद  हैं ! '
         सं. १८६३ में श्रीरामकृष्ण ने वैध्यनाथ, काशी व प्रयाग की यात्राएँ की। 
सं.१८६८ में दुसरी बार काशी, प्रयाग व  वृन्दावन की यात्राएँ कीं। मोक्षदायिनी काशी नगरी  में  समाधी लगते ही, साक्षात् विश्वनाथ शिवशंकर को मणिकर्णिका घाट पर विचरण कर, मृतकों के कान में  तारक मन्त्र फुसफुसाते ठाकुर ने देखा व सुना। मौनव्रतधारी  त्रैलंग स्वामी से वहीं ठाकुर की भेंट वार्ता हुई। मथुरा के ध्रुव घाट पर श्रीकृष्ण को वासुदेव की गोद में साक्षात् विराजित हुए देखा। 
वृन्दावन में जमुना पार, गोधूलि बेला में, श्रीकृष्ण को गैयाओं के संग लौटते  हुए देखा। निधिवन में गँगा मैया को सशरीर, राधेरानी की आराधना करते हुए दर्शन किये। कभी जड़ समाधि तो कभी भाव समाधी अवस्था में, ठाकुर बच्चों से प्रसन्न रहते।वैषणव, शाक्त, शैव, सीखों के १० धर्म गुरु का खालसा पंथ, राजा राम मोहन रॉय द्वारा स्थापित ब्रह्मो समाज, बौद्ध, ईसाई, इस्लाम या ठाकुर की अपनी आराध्या माँ जगधात्री काली, सभी धर्म पंथों को वे, ' यह सभी एक ईश्वर तक पहुँचने के विभिन्न मार्ग हैं '  ऐसा कहते। ईश्वर एक हैं यह परम्  सत्य, ठाकुर जान गए थे।  पंचवटी के पाँच वृक्ष, बट पीपल, नीम, आम्लकी व बेल ठाकुर रामकृष्ण जी ने  अपने हाथों से  रोपे थे व उस पंचवटी में, वे अपनी प्रखर साधना संपन्न किया करते थे।
        सं. १८८१ नवम्बर माह में दक्षिणेश्वर में नरेंद्रनाथ दत्त नामक एक नव युवक का श्रीरामकृष्ण परमहंस जी के आश्रम में आगमन हुआ। युवक नरेन्द्रनाथ, लॉ  कॉलेज में पढ़ते थे। अंग्रेजी कविता के क्लास में प्राध्यापक अंग्रेज प्रोफ़ेसर विलियम हेस्टी थे। उन्होंने  एक कविता में ' ट्रांस  ' शब्द का उपयोग हुआ था उसकी विस्तृत चर्चा करते हुए , ट्रांस - या ध्यान शब्द की व्याख्या करते हुए अपने छात्रों से कहा,' यदि trance क्या है यह तुम अपनी आँखों से देखना चाहते हो तो 
दक्षिणेश्वर के काली मंदिर के सन्यासी रामकृष्ण ठाकुर को जाकर देख आओ ' 
अपने अँगरेज़ प्राध्यापक के इस हिन्दू योगी के बारे में बतलाने से, युवा  नरेन्द्रनाथ, ठाकुर रामकृष्ण के दर्शन करने, दक्षिणेश्वर आये हुए थे।  इस नवयुवक को देखते ही ठाकुर प्रसन्न हो गए।  ठाकुर के नेत्रों से, हर्ष के अश्रु बहने लगे। वे बोले, ' पुत्र तुम आ गये ! मैं कब से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था ! '  यह सुनकर, नरेन्द्रनाथ को बहुत अचरज हुआ। कुछ अकड़कर युवक नरेन्द्रनाथ ने प्रश्न किया,
 ' क्या आपने ईश्वर को देखा है ? '  
ठाकुर से उत्तर मिला,' हाँ।  जैसे तुम्हें देख रहा हूँ उससे अधिक प्रखरता से ईश्वर को देखता हूँ '  नरेन्द्रनाथ के जीवन के यह प्रथम व्यक्ति थे जिसने सहजता से, ठोस हामी भरते  हुए ' ईश्वर दर्शन ' जैसे अबूझ विषय को स्वीकार किया था। 
        
सं १८६३ के वर्ष में  १२ जनवरी के दिन जन्मे नरेन्द्रनाथ एक सभ्रांत बंगाली परिवार से थे। वकालत में उनकी रूचि थी। नरेन्द्रनाथ के पिता थे विश्वनाथ दत्त तथा माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। कई लोग उनका नाम ज्ञानदासुँदरी भी कहते हैं। शारीरिक सौष्ठव, नियमित व्यायाम, संगीत, पढ़ाई सभी विषयों में नरेन्द्रनाथ बहुत अच्छे थे। पाश्चात्य इतिहास, सनातन धर्म से जुड़े  योग - ध्यान जैसे विषयों में भी उनकी गहन रूचि थी।
 सं. १८८४ में पिता विश्वनाथ दत्त के देहांत के बाद नरेन्द्रनाथ के परिवार पर विपत्तियों के पहाड़ टूट पड़े। हार थक कर नरेन्द्रनाथ रामकृष्ण के आश्रय में जा पहुंचे। सविनय ठाकुर से कहा, ' आप अपनी माँ से कहिए, मेरे दुःख दूर कर दें। मेरी माता वृद्ध हैं, बहन का विवाह करना है, मेरे पास नौकरी नहीं है। पिता का कर्ज चुकाना है इत्यादि '  
ठाकुर ने मंद ~ मृदु मुस्कान सहित नरेन को सुझाव दिया, 
' पुत्र तुम स्वयं जा कर यह सब माँ  से क्यों नहीं मांग लेते  ' 
नरेन्द्रनाथ राजी हुए ! वे  तीन बार माँ काली के समक्ष अपने दुःख व  याचना लेकर गए। परन्तु प्रत्येक बार, पूर्ण ज्ञान व भक्ति का  प्रसाद दक्षिणेश्वरी माँ काली से मांग कर, अपने दुःख की कथा कहना भूल कर, लौट आये। 
नरेन्द्रनाथ की आत्मा को एक सच्चे गुरु, ठाकुर श्रीरामकृष्ण ने छु कर, आत्मा की 
 कई जन्मों से  सुषुप्त चेतना को जागृत कर दिया था। सं १८८६ में नरेन्द्रनाथ ने
 संन्यास लिया।  सं. १८९० में  माँ शारदा से आशिष लेकर वे भारत भ्रमण के लिए निकल पड़े। भारत के दरिद्रों को, पिछड़े जन को देख कर  उनका ह्रदय विदीर्ण हो उठा। अजित सिंह खेत्री ने विवेक व आनंद के गुणसमूह से युक्त सन्यासी नरेन्द्रनाथ को स्वामी विवेकानंद नाम सुझाया। आगामी वर्षों में यही  नाम भारत के कोने कोने में सुप्रसिद्ध हुआ। विश्व में गूंजा। 
Image of Vivekananda, sitting in meditative posture, eyes opened
सं.१८८६ ई. १६ अगस्त सवेरा होने से पहले आनन्दघन विग्रह श्रीरामकृष्ण इस नश्वर देह को त्याग कर महासमाधि ले  स्व-स्वरुप में लीन हो गये। उनके शिष्यों के भग्न  व विषाद संतप्त ह्रदयों को स्वामी विवेकानंद ने सम्हाला। 
श्रीरामकृष्ण परमहंस लघु कथाओं से बोधपरक उपदेश देकर बुद्धिजीवी तथा साधारण जन के मन को, सही दिशा में जीवन यात्रा ले चलने के लिए प्रेरित किया करते थे। उनसे मिले आध्यात्म प्रसाद से जनसाधारण में  देशभक्ति की भावना भी  मुखरित हुई थी ।
सं. १८८६ ई. में ठाकुर श्री रामकृष्ण के देहान्त के बाद, माँ शारदा  तीर्थयात्रा पर चली गयीं। वहाँ से लौटने के बाद वे कामारपुकुर में रहने आयीं। वहाँ  उनकी उचित व्यवस्था न हो पाने के कारण, भक्तों के अत्यन्त आग्रह पर, वे कामारपुकुर छोड़कर पुनः कलकत्ता आ गयीं। कलकत्ता आने के बाद सभी भक्तों के मध्य  संघ  की माता के रूप में प्रतिष्ठित होकर उन्ह़ोने सभी को माँ रूप में संरक्षण एवं अभय प्रदान किया। अनेक भक्तों को दीक्षा देकर उन्हें आध्यात्मिक मार्ग पर चलने की दीक्षा दे कर मार्ग प्रशस्त किया। प्रारंभिक वर्षों में स्वामी योगानन्द ने उनकी सेवा का दायित्व लिया। स्वामी सारदानन्द ने उनके रहने के लिए कलकत्ता में उद्भोदन भवन का निर्माण करवाया। 
सं १८९७, मई की १ तारीख को जन जागरण तथा करोड़ों की सेवा व उत्थान के लिए स्वामी विवेकानंद ने, बेलूर मठ  में, अद्वैत वेदांत,  ज्ञान, भक्ति, वैराग्य तथा राज योग पर आधारित रामकृष्ण मिशन की स्थापना की । 
EmblemRamakrishnaMission.jpg
अद्वैत वेदांत ' अहं ब्रह्मास्मि ' शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित
ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या  
दर्शन की विचारधाराओँ
 में से एक है।  

SwansCygnus olor.jpg
स्वामी विवेकानंद जी ने दूर अमरीका के शिकागो शहर में विश्व धर्म बैठक के बारे में सुना। सं. १८९३, ३१ मई को स्वामीजी ने सुदूर देशों की यात्रा आरम्भ की। जापान व चीन में प्रवास करते हुए  वे केनेडा पहुंचे। उसी वर्ष सं १८९३ की  ३० जुलाई को , वे  शिकागो पहुंचे। सं. १८९३ की ११ सितम्बर के दिवस, श्रीरामकृष्ण परमहंस द्वारा दीक्षित,स्वामी विवेकानंद का उदबोधन सभा में गूँज उठा ' मेरे अमरीकी भाईयों व बहनों '  मानों सिँह  गर्जना हुई। लोगों के ह्रदय में एक सच्चे तप: पूत सन्यासी की वाणी ने जादू सा असर किया। सभागार में उपस्थित ७,०००  लोगों ने,करतल ध्वनि करते हुए ,पुरे २ मिनट तक खड़े होकर, स्वामीजी का अभिवादन करते हुए तालियों की गड़गड़ाहट से वातावरण को गुंजारित कर दिया। स्वामीजी ने अपने सटीक व मृदु भाषण में ' शिव महिमा स्त्रोत ' से समस्त धर्म के एक मूल से निकलने के सत्य को प्रतिपादित किया। 
सं. १८९७ में स्वामीजी भारत लौटे। 
आजीवन स्वामी विवेकानंद अपने आध्यात्मिक गुरु ठाकुर श्रीरामकृष्ण परमहंस द्वारा प्राप्त आध्यात्मिक ज्ञान को तथा माँ शारदा के माधुर्य भाव से उपजे जन जन के प्रति स्नेह निर्झर को प्रसारित करते रहे। 
माँ शारदा के आजीवन किये अत्यंत कठिन परिश्रम एवं बारबार मलेरिया के रोग के संक्रमण से  माँ का स्वास्थ्य बिगड़ता गया था।
सं. १९२० की २१  जुलाई को, श्री माँ सारदा देवी ने अपने नश्वर शरीर का त्याग किया! माँ की पावन स्मृति में, बेलूर मठ में,  समाधि स्थल पर एक भव्य मंदिर का निर्माण हुआ है।
        भारतवर्ष महान है। तुर्क, फारस जैसे देशों से आये आक्रमणकारी भारत आये तथा यहीं बस गए। उनके वंशज मुगलों ने, पीढ़ी दर पीढ़ी  भारत पर राज किया। 
तब भी तुलसीदास, मीराँ सूरदास, कबीर, नानक, चैतन्य जैसी विभूतियाँ,
 भारत की पावन भूमि पर जन्म लेतीं रहीं। धर्म के मार्ग पर अग्रसर  होने की सीख, जन साधारण को, अपने पवित्र जीवन आचरण तथा सत्य वाणी तथा मनन से यह विभूतियां प्रेरित करतीं रहीं ज्ञान का प्रकाश उजागर करतीं रहीं । 

मुगल साम्राज्य का सूर्य, अस्ताचलगामी हुआ तब,अंग्रेज, फ्रेंच, डच व पुर्तगाली भी भारत भूमि पर आये। अपने लोभ लालच के कारण उन्होंने भारत की समृद्धि व सम्पदा को लूटा। उनके द्वारा सत्ता हथियाई गयी व भारत की सम्पदा व वैभव का स्थानांतरण हुआ।  तब भी श्रीरामकृष्ण परमहंस तथा माँ  शारदामणी  जैसी दिव्य आत्माओं ने, भारत की पावन भूमि पर जन्म लिया तथा नवजागरण के स्वप्न को सत्य दिशा प्रदान की। अपने पट्ट शिष्य विवेकानंद के कार्य द्वारा, भारत भूमि पर देशप्रेम देशभक्ति का विकास किया। धन्य है भारतवर्ष तथा धन्य हैं भारत भूमि पर जन्मे असाधारण युगल दंपत्ति। हम श्रद्धा विगलित होकर माँ शारदामणी  व ठाकुर श्रीरामकृष्ण परमहंस के श्री चरणों में साष्टाँग प्रणाम करते हैं। 
~ लावण्या

महामुनि अगस्त्य जी ~तथा विदर्भ नरेश कन्या 'लोपामुद्रा' ( अमर युगल पात्र से )

 

ॐ 
ऋग्वेद का कथन है कि मित्र तथा वरुण नामक देवताओं का अमोघ तेज एक दिव्य यज्ञिय कलश में पुंजीभूत हुआ।उस कलश के मध्य भाग से, दिव्य तेज:सम्पन्न महर्षि अगस्त्य का प्रादुर्भाव, प्राचीन काल में, काशी  नगरी में हुआ था। 
" सत्रे ह जाताविषिता नमोभि: कुंभे रेत: सिषिचतु: समानम्। 
  ततो ह मान उदियाय मध्यात् ततो ज्ञातमृषिमाहुर्वसिष्ठम्॥ "
इस ऋचा के भाष्य में आचार्य सायण ने लिखा है कि,
 ' ततो वासतीवरात् कुंभात् मध्यात् 
  अगस्त्यो शमीप्रमाण उदियाप प्रादुर्बभूव।
    तत एव कुंभाद्वसिष्ठमप्यृषिं जातमाहु:॥' 
इस प्रकार कुंभ से अगस्त्य तथा महर्षि वसिष्ठ का प्रादुर्भाव हुआ।
 ( उपरोक्त तथ्य : कृष्ण्कोष से साभार )
        महामुनि अगस्त्य जी ऋषि वसिष्ठ के बड़े भ्राता तथा सप्तर्षियों में से एक हैं। ऋग्वेद के प्रथम मंडल के १६५  सूक्त से क्रम १९१  तक के सूक्त, ऋषि अगस्त्य द्वारा दृष्ट हैं। अतः अगस्त्य को मन्त्र द्रष्टा ऋषि कहते हैं।
' गया ग्राम के पास ' गयशिर 'नामक पर्वत है। बेंत के वन से घिरी अति मनोहारी महानदी पास ही बहती है। अनेक ऋषि मुनियों से सेवित ' धरणीधर ' पर्वत भी वहीं है। उस पर्वत पर ' ब्रह्मसर'  नामक पवित्र तीर्थ है वह साक्षात धर्मराज तथा श्री महादेव जी का निवास स्थान है। 
         एक समय की  बात है कि ब्रह्मसर तीर्थ पे भगवान अगस्त्य, सूर्यपुत्र यमराज धर्मराज से मिलने पधारे। शास्त्र चर्चा आरम्भ हुई। शमठ नामक संयमी व ब्रह्मचारी साधू ने उपस्थित विद्वान ने, अमृतराया के पुत्र, राजर्षि
' गय ' की कथा सुनाई। गय से ही उस स्थान को ' गया ' नाम मिला है। शमठ ने बतलाया कि, गय ने अनेकानेक यज्ञ ब्रह्मसर के समीप संपन्न किये थे। 
अगस्त्य ऋषि वार्तालाप के पश्चात तीर्थ में भ्रमण करने लगे। एक निर्जन स्थान पर,भूमि में बने एक गढ्ढे में, बहुत से साधू पुरुषों को सर के बल औंधे लटके हुए अगस्त्य को दिखलाई दिए।  समीप जाकर देखा तो वे अगस्त्य के पित्री थे। अगस्त्य को आश्चर्य हुआ तो अपने  पितरों से प्रणाम करते हुए पूछा, ' प्रणाम पितृगण महात्मा ! कृपया बतलाएं, आप इस प्रकार, अपार कष्ट  क्यों कर झेल रहे हैं ? ' वेदवादी पितरों ने उत्तर दिया,' पुत्र, संतान परम्परा के लोप की सम्भावना के कारण हमारी यह दुर्दशा हो रही है। कब तुम्हें संतान प्राप्ति होगी ? तुम कब पितृ तर्पण करोगे न जाने ! अतः हमारी ये दुर्दशा है। तुम्हें एक पुत्र  तो हमें और तुम्हें सद्गति मिल सकती है।" 
अगस्त्य अत्यंत तेजस्वी एवं सत्यनिष्ठ थे। हाथ जोड़ उन्होंने सविनय उत्तर दिया ,
' हे पितृगण मैं, इच्छा पूर्ण करूंगा। आप निश्चिन्त हों। '  
अपने पितरों की यह दुर्दशा देखने के बाद अगस्त्य मुनि ने विवाह करने का निश्चय किया। पुत्रोत्पति की इच्छा से अगस्त्य विदर्भ नगरी में आ पहुंचे जहां विदर्भ नरेश कन्या 'लोपामुद्रा'  अद्वितीय सुन्दरी और परम चरित्रवती के रूप में विकसित हो, राजमहल में सुशोभित थी। 
     अगस्त्य ऋषि ने लोपामुद्रा से विवाह प्रस्ताव रखा तो विदर्भ नरेश घबड़ा गए। ऋषि को आदर सत्कार सहित ठहराया। स्वयं अपनी पत्नी के पास आकर बोले, ' हे महारानी, यदि मैं ना करता हूँ  ~ तो महर्षि रुष्ट होंगे। यदि हाँ कह दूँ तब मेरी पुत्री को तपस्वीनी बन कर जीवन जीने के लिए बाध्य करता हूँ ! मैं करूं तो क्या करूँ ? उहापोह से मन विचलित है। ' महारानी धीरज बँधाने लगीं।  उस समय लोपामुद्रा  ने अन्तः पुर में अपनी सखियों व दासियों के मुख से ऋषि अगस्त्य के इस प्रस्ताव की बात सुनी। वह तुरंत अपने माता, पिता के समीप आयी। आदर सहित प्रणाम किये। तथा वे बोली, ' आप को प्रणाम ! परम ज्ञानी ऋषि अगस्त्य, जैसे महापुरुष अकारण कुछ नहीं करते। सदैव तापस शिरोमणि शिवशंकर से ब्याह रचाकर, गिरिवरनन्दिनी माता पार्वती, जगज्जननी कहलाईं। हैं सो ऐसे  तेजस्वी ऋषि अगत्स्य ने वृथा ऐसा  भेजा। होगा हमारे वंश को कीर्ति प्रदान  करने हेतु ही ऋषिवर पधारे हैं। हे माता हे पूज्य पिता , आप व्यर्थ में शोक न करें। इसी क्षण से मैं, महामना अगस्त्यजी का पति रूप में वरण करती हूँ' अपनी पुत्री की बोधयुक्त वाणी सुनकर विदर्भ नरेश व् महारानी अति प्रसन्न हुए। 
शास्त्रोक्त विधिपूर्वक ऋषि अगस्त्य से लोपामुद्रा का पाणिग्रहण संस्कार संपन्न हुआ। पत्नी सहित अगस्त्य जी अगस्त्याश्रम आये। पत्नी से कहा ,' देवि लोपामुद्रा इन बहुमूल्य आभूषणों तथा रेशमी वस्त्रों का आश्रम में क्या उपयोग है अतः इन्हें त्याग दो। ' राजकुमारी लोपामुद्रा ने पति के आदेश मानकर, सुँदर महीन वस्त्र उतार कर  वल्कल, चर्म व छाल से तन सजाया तथा आभूषण के स्थान पर रुद्राक्ष धारण किये। 
         तदन्तर अगस्त्य ऋषि हरिद्वार में आश्रम बनाकर रहने लगे। पतिपरायणा लोपामुद्रा बड़ी तत्परता से ऋषिवर की सेवा करने लगीं। अगस्त्य ऋषि अपनी भार्या से, बड़े प्रेम से मधुर बर्ताव करते।  
            एक दिन ऋतुस्नान के पश्चात, तप से बड़ी हुई कांतिवाली  लोपामुद्रा को ऋषिवर ने देखा।अपनी पत्नी की सेवा, पवित्रता, संयम, कांति व रूप माधुरी ने उन्हें मुग्ध किया।समागम हेतु अगस्त्य ने कल्याणी का आह्वान किया। लोपामुद्रा ने सकुचाते हुए कहा, ' मुनिवर निस्संदेह पति पत्नी संतान प्राप्ति हेतु संसार बंधन में बांधते हैं। मेरी व आपकी प्रीती सार्थक हो। परन्तु हे ऋषिश्रेष्ठ, इन काषाय वस्त्रों में, तपस्विनी वेशभूषा में, मैं, आपके पास नहीं आऊंगी।कृपया मेरी इच्छानुसार मेरे लिए, वैसे ही वस्त्राभूषण जुटायें, जैसे अपने पिता के यहां धारण किया करती थी। '  अगस्त्य जी ने कहा, मेरे पास ऐसा धन ऐश्वर्य कहाँ ?~ 'लोपामुद्रा ने संयत किन्तु दृढ स्वर में कहा, ' स्वामी, आपके तपोबल के समक्ष कुबेर की संपत्ति वैभव नगण्य है। आप इच्छा करें तो समस्त संपत्ति क्षणमात्र में उपस्थित हो जाए ! ' 
अगस्त्य जी बोले , ' सत्य है।  मुझ में यह सामर्थ्य है, किन्तु देवी, मेरा  सँचित तपोबल ऐसा करने से क्षीण हो जाएगा। हाँ एक उपाय है, किसी सामर्थ्यवान राजवी  से दान दक्षिणा मांग लाता हूँ। '
      प्रथम वे राजा श्रुतर्वा  के राजमहल में आये।राजा ने श्रद्धा तथा आदर से सत्कार करते हुए ऋषि की माँग के अनुसार, अपना पूरा लेखा - जोखा उनके समक्ष रख दिया। आय - व्यय बराबर था।
अतः अगस्त्य ऋषि ने उससे  लेना अनुचित समझ कर वहां से प्रस्थान कर लिया। 
 महाराज बृहदश्व के राज दरबार से भी ऋषि निराश लौटे। आय - व्यय उसका भी समान था। सो ऋषि ने सोचा, ' यदि मैं इस का धन लेता हूँ, तो राज्य के अन्य प्राणी अपार कष्ट भोगेंगे ! ' तब उसका धन लेनेका संकल्प त्याग कर वे तीनों, पुरुकुत्स राजा ने महान पुत्र ,ईष्वाकुभूषण त्रसदस्यु के पास गए। उत्साह से त्रसदस्यु ने स्वागत किया किन्तु उसके पास भी अतिरिक्त धन का अभाव था। अब श्रुतर्वा, बृहदश्व तथा त्रसदस्यु - आपस में मंत्रणा कर, इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि,  संसार में असुर राज ' इल्वल ' ही धनी है। अतः वे सभी इल्वल के पास गए। 
अगस्त्य जी बोले ,' हे असुर राज इल्वल हम सभी आपको सामर्थ्यवान व धनकुबेर समझते हैं। अतः आप मेरी सहायता कीजिए। मैं थोड़ा धन  चाहता हूँ।   '
इल्वल, आदर सहित प्रणाम कर बोला, ' दे तो दूँ , पर मेरी आसुरी वृत्ति आपसे एक प्रश्न पूछना चाहती है। क्या आप ये बतला सकते हैं कि, मैं आपको कितना धन देना  चाहता हूँ ?  यदि आप मेरे गुप्त मनोभाव बतला सकें तो मैं, सहर्ष आपको धन दूंगा। ' 
             अगस्त्य ऋषि ने एक लम्बे निः श्वास लेकर सोचा ' यह कैसी अप्रिय प्रदर्शन ~ क्रीड़ा है ! ' ज्ञान के महासमुद्र सामान संसार के विलक्षण ज्ञानी अगस्त्य ऋषि के मन को यह सुझाव न भाया। तथापि वे बोले, ' हे असुरराज ! मेरे संग तुम्हारे राजप्रसाद में पधारे प्रत्येक राजन को तुम दस सहस्त्र गौएँ तथा दस सहस्त्र स्वर्णमुद्राएँ देना चाहते हो। मुझे उनसे दुगुनी गौएँ तथा स्वर्णमुद्राएँ देना चाहते हो। स्वर्ण निर्मित रथ जिसमें जिस में मन की गति से दो वेगवान अश्व विराव तथा सुराव जुते होंगें जो, धन राशि को उठाने कर मेरे आश्रम तक पहुंचा दें तुम यही समस्त मुझे देना चाहते हो। '
          ऋषि अगस्त्य की वाणी सुनकर सभी अचंभित हुए। इल्वल प्रसन्न हुआ। ऋषि को सहर्ष दान देकर, असुरराज पुण्यवान हुआ। राजाओं से विदा लेकर अगस्त्य लोपामुद्रा के पास लौटे। 
अपनी प्रिय पत्नी लोपामुद्रा की समस्त मनोकामनाएँ ऋषि अगस्त्य ने पूर्ण कीं।
 लोपामुद्रा हर्षित होकर बोलीं,' आपने मेरे समस्त मनोरथों को पूर्ण किया है। यह श्रृंगार अपने पति  प्रसन्नता हेतु धारण किये मैं आपके समक्ष उपस्थित हूँ। हे परम् तेजस्वी ऋषिवर कृपा कर एक ऐसा पुत्र मुजगे दें जो बुद्धिमान हो, बलशाली हो तथा पराक्रमी बने। '  
अगस्त्य जी बोले, ' हे परम सुंदरी ! तुम्हारी यह प्रसन्न छवि विलोक, मैं संतुष्ट हूँ। संतति के विषय में मेरे विचार सुनो। तुम एक सहस्त्र पुत्रों  बनने की इच्छा रखती हो या सौ पुत्रों की या तुम एक पुत्र ऐसा  चाहती हो जो सहस्त्रों के समकक्ष हो ? ' 
लोपामुद्रा बोलीं ' हे तपोधन ! मैं सहस्त्रों की तुलना में श्रेष्ठ हो ऐसा एक पुत्र चाहती हूँ। क्योंकि सहस्त्र अयोग्य पुरुषों में, एक योग्य एवं विद्वान पुरुष ही श्रेष्ठ ठहरता है। ' लोपामुद्रा का निर्णय सुन अगस्त्य ऋषि ने ' तथास्तु ' कहा।
 लोपामुद्रा को शैशव से माँ भुवनेश्वरी का श्री सिद्धिदात्री यंत्र एवं उपासना पद्धति की दीक्षा की प्राप्ति हुई थी। 
 लोपामुद्रा उवाच अनेक ऋषिकाएं वेद मंत्रों की द्रष्टा हैं। अपाला, घोषा, सरस्वती, सर्पराज्ञी, सूर्या, सावित्री, अदिति- दाक्षायनी, लोपामुद्रा, विश्ववारा, आत्रेयी आदि |
 ऋग्वेद से ~ 
ऋषि :- लोपमुद्राऽगस्त्यौ
देवता :- दम्पती - युगल 

छन्द :- त्रिष्टुप्
स्वर :- धैवतः
लिपि-शुद्ध संस्कृत

न॒दस्य॑ मा रुध॒तः काम॒ आग॑न्नि॒त आजा॑तो अ॒मुत॒: कुत॑श्चित् । 

लोपा॑मुद्रा॒ वृष॑णं॒ नी रि॑णाति॒ धीर॒मधी॑रा धयति श्व॒सन्त॑म् ॥

ऋग्वेद के मंडल १ के सूक्त १७९ मंत्र ००४
(नदस्य) अव्यक्तशब्दं कुर्वतो वृषभादेः (मा) माम् (रुधतः) रेतो निरोद्धुः (कामः) (आगन्) आगच्छति प्राप्नोति (इतः) अस्मात् (आजातः) सर्वतः प्रसिद्धः (अमुतः) अमुष्मात् (कुतः) कस्मात् (चित्) अपि (लोपामुद्रा) लोपएव आमुद्रा समन्तात् प्रत्ययकारिणी यस्याः सा (वृषणम्) वीर्यवन्तम् (निः) नितराम् (रिणाति) (धीरम्) धैर्ययुक्तम् (अधीरा) धैर्यरहिता (धयति) आधरति (श्वसन्तम्) प्राणयन्तम् ॥४॥

हिंदी अनुवाद ~ (इतः) इधर से वा (अमुतः) उधर से वा (कुतश्चित्) कहीं से (आजातः) सब ओर से प्रसिद्ध (रुधतः) वीर्य रोकने वा (नदस्य) अव्यक्त शब्द करनेवालें वृषभ आदि का (कामः) काम (मा) मुझे  (आगन्) प्राप्त हो। अर्थात् उनके सदृश कामदेव उत्पन्न हो। 

(अधीरा) धीरज से रहित वा (लोपामुद्रा) लोप होजाना लुक जाना ही प्रतीत का चिह्न है। जिसका सो यह स्त्री (वृषणम्) वीर्यवान् (धीरम्) धीरजयुक्त (श्वसन्तम्) श्वासें लेते हुए अर्थात् शयनादि दशा में निमग्न पुरुष को (नीरिणति) निरन्तर प्राप्त हो। (धयति) उससे गमन भी करती है ॥४॥

लोपामुद्रा के गर्भाधान पश्चात ऋषि अगस्त्य तपस्या करने चले गए। सात वर्ष गर्भ पेट में पल कर बढ़ता रहा। सातवां वर्ष समाप्त होते दृढस्यु नामक बुद्धिमान, तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ। दृढस्यु का दुसरा नाम इध्मवाहा भी है। दृढस्यु वेदों का सांगोपांग विद्वान एवं उपनिषदों का पाठ करनेवाला तेजस्वी ऋषिपुत्र था। ऐसे गुणवान पुत्र की प्राप्ति से अगस्त्य ऋषि के पितृगण तृप्त हुए। सभी पित्री सद्गति प्राप्त कर वे इच्छनीय ऊर्ध्व लोक को प्राप्त हुए। 

' अगस्त्याश्रम ' ~ 

एक बार नारद जी विध्याचल पर्वत से महामेरू परबत का महिमा मंडान करते गुणगान  करने लगे। विंध्य पर्वत ने सोचा, ' क्यों न मैं  मेरू के समान बढ़ूँ ! ' वह बढ़ने लगा। देवतागण भागे हुए अगस्त्य ऋषि के समीप आये।  प्रार्थना कर  कहने लगे ' हे ऋषिवर ! आप कृपा कर विंध्याचल परबत को स्तम्भित करें। ' 

अगस्त्य ऋषि अपनी धर्मपत्नी लोपामुद्रा सहित विंध्याचल को पार करने आये। पर्वतराज विंध्य ने सविनय ऋषिवर को प्रणाम किया। अगस्त्य ऋषि ने विंध्य को आदेश दिया, ' हे पर्वत राज मुझे प्रणाम करते हो,मेरा आदर करते हो तो मेरी बात सुनो। जब  लौट कर नहीं आता, तुम बढ़ना नहीं। इसी अवस्था में स्तम्भित, अचल रहना। ' विंध्याचल पर्वत ने ऋषि आज्ञा का पालन किया। अगस्त्य  ऋषि उत्तर भारत से दक्षिण भारत में आकर बस गए। 

             अब तक ना ही अगस्त्य ऋषि लौटे हैं ना ही विंध्य पर्वत बढ़ा ! ना ही पर्वतराज विंध्याचल अपने वचन को भूले हैं।दक्षिण भारत में मलयाचल पर्वत पर अगस्त्य ऋषि ने अगस्त्याश्रम की स्थापना की तथा दक्षिण भारतीय वांग्मय के वे पितृ पुरुष कहलाये। मान्यता है दक्षिण भारत में अगस्त्यकूट पर्वत पर वे  तपस्या रत हैं। दक्षिण भारत की अति प्राचीन ' तमिळ ' भाषा के तीन संघों मे से प्रथम दो संघों में अगस्त्य ऋषि का योगदान है। अगस्त्य नाटे कद के थे सो उन्हें ' कुरुमुनि ' भी कहते हैं।  तमिळ भाषा का व्याकरण,संगीत शास्त्र, साहित्य व नाट्य शास्त्र के दाता अगस्त्य ऋषि हैं। अगस्त्य ऋषि के शिष्य ' टॉकपयार ' ने ' टोकपायम ' व्याकरण शास्त्र ग्रन्थ लिखा। तमिलभाषी विद्वान श्रीमान विलुपुत्तरान का कहना है कि, ' अमृतवाणी तमिळ भाषा, भारतभूमि को अगस्त्य ऋषि द्वारा प्रदत्त दिव्य - प्रसाद है। 

अगस्त्य ऋषि द्वारा रचित सुप्रसिद्ध साहित्य :
ऋग्वेद में अगस्त्य ~ लोपामुद्रा संवाद है।  
 
 १ ) अगस्त्य ~ गीता २) अगस्त्य ~ संहिता ग्रन्थ में विद्युत ( बिजली ) उत्पादन से जुड़े सूत्र हैं। 

उदाहरणार्थ : 

संस्थाप्य मृण्मये पात्रे ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्‌। 

छादयेच्छिखिग्रीवेन चार्दाभि: काष्ठापांसुभि:॥ 

दस्तालोष्टो निधात्वय: पारदाच्छादितस्तत:। 

संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्‌॥ 

-अगस्त्य संहिता

अर्थात :एक मिट्टी का पात्र लें, उसमें ताम्र पट्टिका (Copper Sheet) डालें तथा शिखिग्रीवा (Copper sulphate) डालें, फिर बीच में गीली काष्ट पांसु (wet saw dust) लगाएं। 

 ऊपर पारा (mercury‌) तथा दस्त लोष्ट (Zinc) डालें। फिर तारों को मिलाएंगे तो उससे मित्रावरुणशक्ति (Electricity) का उदय होगा।

३ ) शिव ~ संहिता ४) द्वैध निर्णय तंत्र 

             वर्तमान काल भारतवर्ष में, राजगृह के निकट बिहार प्रांत में, उत्तर भारत का अगस्त्याश्रम स्थित है। प्राचीनकाल में पाण्डव भी अगस्त्याश्रम यात्रा करते हुए पहुंचे थे। इसे भृगु तीर्थ भी कहते हैं। यहां स्नान करनेसे प्राणी तेजस्वी हो जाता है ऐसी लोक मान्यता है। श्रीरामचन्द्र जी ने परशुरामजी के तेज को किन्ठित कर दिया था तद्पश्चात भृगु तीर्थ में स्नान व पूजन कर उन्हें तेज की पुनः प्राप्ति हुई थी। ज्येष्ठ पाण्डु पुत्र युद्धिष्ठिर के तेज को  कौरव पुत्र पापात्मा दुर्योधन के हर लेने पर भृगुतीर्थ में स्नान पूजन कर, युद्धिष्ठिर को अपना खोया हुआ तेज पुनः प्राप्त हुआ था। 

 अगस्त्य ऋषि से जुड़े अन्य रोचक प्रसंग ~ 

एक समय की बात है,  देवल ऋषि के आश्रम के समीप ' हु हु ' नामक गन्धर्व अपनी पत्नियों समेत जलक्रीड़ा करने आया था। नग्नावस्था में कोलाहल करते हुए  ' हु हु ' को ऋषिने श्राप दिया  ' जा तू व्याघ्र ( मगरमच्छ )  बन जा ! 

        त्रिकूट पर्वत के पास एक सरोवर में, पूर्व जन्म में राजा इन्द्रद्युम्न का हाथी के रूप में पुनर्जन्म हुआ था। पांड्य देश के राजा इन्द्रद्युम्न एक बार पूजा कर।  अगस्त्य ऋषि वहां पधारे। किन्तु पूजा में लीं इन्द्रद्युम्न को सुध ना रही। इस के कारण क्रुद्ध हुए अगस्त्य ऋषि ने  श्राप दिया,' ऋषियों का अनादर करनेवाले जा तू हाथी की योनि में जन्म ले ! ' 

      अब हाथी का जन्म लिए इन्द्रद्युम्न जल में प्रविष्ट हुए। ' हु हु ' जो व्याघ्र बना था उसने हाथी का पैर अपने बलिष्ट दांतों में जकड लिया। पूर्व जन्म के पुण्य कर्मों के प्रताप से हाथी बने इन्द्रद्युम्न महाविष्णु की स्तुति करने लगे। महाविष्णु गरूड़जी ने  पर सवार होकर, आकाश मार्ग से अवतरित हो, हु हु - व्याघ्र का सर काट कर हाथी की प्राण रक्षा की तदनन्तर दोनों को मुक्ति मिली। यही  पुराण प्रसिद्ध ' गजेंद्र ~ मोक्ष कथा '  है। 

                     श्रीरामचन्द्र जी ने श्री सीता स्वयंवर से पूर्व राक्षसी ताड़का का वध किया था। ताड़का सुकेतु यक्ष की पुत्री थी। ताड़का का विवाह ' इहराजा ' या ' सुन्द ' से हुआ था उसीका पुत्र ' मरीची ' था। पति सुन्द की मृत्यु के पश्चात तोड़ फोड़ करती, दौड़ती - भागती, ताड़का अगस्त्य ऋषि के आश्रम में  उत्पात करने लगी। अगस्त्य ऋषि के श्राप से ताड़का राक्षसी बन गयी तथा ताड़का पुत्र मरीचि कुरूप हो गया।  ताड़का अगस्त्याश्रम से निकल कर वन , वन भटकने लगी।  

 श्रीरामचन्द्र जी अगस्त्य ऋषि तथा लोपामुद्रा से वनवास में मिले थे। श्रीरामचन्द्र जी को दैत्यराज रावण के संग युद्ध करने से पूर्व अगस्त्य ऋषि ने सूर्य देवता का पवित्र मंत्र आदित्य ह्रदय स्रोत महामंत्र ' प्रदान किया था जिसके पाठ से श्रीराम विजयी हुए। अगस्त्य ऋषि ने श्रीरामचन्द्र जी को  अमोघ बाण, धनुष, अक्षय तूणीर तथा खड्ग दिए थे।
नहुष के स्वर्ग से पतन का श्राप भी ऋषि अगस्त्य ने दिया था। 

कालकेय राक्षस समुद्र में जा कर छिप जाते थे। दिनभर वे छिपे रहते तथा रात्रि में बाहर निकलकर ब्राह्मणों व ऋषियों का वध कर देते थे। सभी देवतागण एकत्रित होकर शेषशायी महानारायण  के वैकुण्ठ धाम पहुंचे। महानारायण ने उनसे कहा,

' पृथ्वी पर अगस्त्य ऋषि हैं आप उनसे विनती करें मुझे पूर्ण विशवास है कि वे इस समस्या का समाधान अवश्य करेंगें। देवतागण अगस्त्याश्रम आये।

ऋषि से अंजलिबद्ध विनती कर बोले, ' हे कृपालु ऋषिवर आप से पुण्यश्लोक धर्मात्मा पृथ्वी का कष्ट हरने में समर्थ हैं।कृपया कालकेय राक्षसों के उत्पात से विप्र - ऋषि जन को रक्षा प्रदान करें '

ऋषि अगस्त्य ने देवताओं से कहा ' आप निश्चिंत हों। मैं, कालकेयों का सँहार करूंगा। ' देवताओं  लेकर अगस्त्य घरहराते गर्जन टार्जन करते सागर तट पर आ पहुंचे। अपनी अंजलि में सागर के जल को भर भर के वे समुद्र जल का आचमन करने लगे। कुछ क्षणों में सागर सूख गया। कालकेय राक्षस जो छिपे थे , प्रकट हो गए तब देवताओं ने उन  का सँहार किया। यह सूखा समुद्र देख सभी ग्लानि से भर गए। महाविष्णु ने प्रकट होकर कहा, ' ऋषि अगस्त्य ने समुद्र सोख लिया। भगीरथ प्रयास से पृथ्वी पर जिस समय गँगा  अवतरण संभव होगा, यह समुद्र भी उस समय लहराएगा। पौराणिक साहित्य के अनुसार अगस्त्य-ऋषि ने भारत की आर्य-सभ्यता का सुदूर दक्षिण तथा समुद्र पार के देशों तक प्रचार किया था।

तत: सम्प्रस्थितो राजा कौंतेयो भूरिदक्षिण: 
  अगस्त्याश्रममासाद्य दुर्जयायामुवा
अमर युगल पात्र : ऋषि अगस्त्य व उनकी पत्नी लोपामुद्रा को शत शत प्रणाम। 
      ~~ इति ~ ~




Wednesday, May 25, 2022

कच - देवयानी - ययाति - शर्मिष्ठा

ॐ 

चंद्रवंशी राजा पुरुरवा के पुत्र हुए आयु। आयु के पुत्र हुए नहुष।  नहुष से ययाति जन्मे।ययाति की २ पत्नियां थीं नाम थे,  देवयानी तथा शर्मिष्ठा। पुरंदर या देवराज इंद्र  स्वर्ग के अधिपति की एक कन्या का नाम जयंती थीं। जयंती देवाधिपति दानवों के कुलगुरु शुक्राचार्य के आश्रम में १० वर्ष रहीं।
देव कन्या जयंती ने ऋषिवर की अत्याधिक सेवा की। दानवों के गुरुवर ऋषि शुक्राचार्य के आश्रम में जयंती से देवयानी का जन्म हुआ। किन्ही पुराणों में प्रियव्रत राजा की पुत्री ऊर्जस्वती को देवयानी की माता कहा गया है। परन्तु  पुराण कथाओं में  ' देवयानी ' सदैव ऋषि शुक्राचार्य की पुत्री कहलातीं रहीं हैं।  
उस काल में देव व दानवों में त्रिलोकी के अधिकार व साम्राज्य के लिए युद्ध हो रहा था। देवताओं ने अंगिरस माने गुरु बृहस्पति को विजय प्राप्ति के लिए अपना गुरु बनाया था। दानवों ने शुक्राचार्य को अपना पुरोहित चयनित किया था क्योंकि गुरु शुक्राचार्य के पास एक अलौकिक विद्या '  मृत संजीवनी विद्या ' थी।ऋषि गौतम से शिवजी के परम मन्त्र महामृत्युंजय मन्त्र की सिद्धि से जो असुर मृत हो जाता उसे, इस विद्या के तेजोबल से गुरु शुक्राचार्य जीवित कर देते।इस कारण असुर देवताओं से युद्ध में विजय प्राप्त कर रहे थे।  देवताओं के गुरु बृहस्पति के पास यह विद्या न थी।तब देवताओं ने घबड़ाकर बृहस्पति के ज्येष्ठ पुत्र कच की शरण ली। कच से अनुरोध कर कहा कि,' हे परम् तेजस्वी कच !  कृपया आप गुरु शुक्राचार्य जी के पास जाएं। किसी प्रकार उनसे यह गुप्त ' संजीवनी विद्या ' प्राप्त कर लें। ' कच सहमत हुए। वे  शुक्राचार्य के आश्रम की ओर चल पड़े। 
भृगु ऋषि के पुत्र गुरु शुक्राचार्य, परम शिव भक्त थे। हिरण्यकश्यपु की पुत्री दिव्या के पुत्र उशना को कालान्तर में शुक्राचार्य नाम मिला। इस रिश्ते से शुक्राचार्य प्रह्लाद के भांजे थे।  
अमंत्रं अक्षरं नास्ति , नास्ति मूलं अनौषधं।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ:॥
 शुक्राचार्य : (शुक्र नीति)
  
अर्थात : कोई अक्षर ऐसा नहीं है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरू होता हो।  कोई ऐसा मूल (जड़) नहीं है जिससे कोई औषधि न बनती हो।  कोई व्यक्ति  अयोग्य नहीं होता, व्यक्ति द्वारा काम लेने वाले गुणी संयोजक ही दुर्लभ हैं।
 शुक्र नीति, नीति ग्रन्थ है। जिसमें  ज्ञान की चार शाखाएँ हैं। 
१) आन्वीक्षिकी, २) त्रयी, ३) वार्ता एवं ४) दण्डनीति को स्वीकार किया गया है।प्राचीन भारतीय चिंतन में राज्य को सप्तांग राज्य के रूप में परिभाषित किया गया है। राज्य सात अंगो से बना सावयवी है। वे चार अंग हैं ~ १) स्वामी, २ ) अमात्य, ३ ) मित्र, ४ ) कोश, ५ ) राष्ट्र, ६ ) दुर्ग, ७ ) सेना से बना है। 
शुक्रनीति में कहा गया है, ‘‘राज्य के इन सात निर्माणक तत्वों में स्वामी सिर, अमात्य नेत्र, मित्र कर्ण, कोश मुख, सेना मन, दुर्ग भुजाऐं एवं राष्ट्र पैर हैं।’’ 
एक अन्य प्रसंग में राज्य की तुलना वृक्ष से करते हुऐ राजा को इस वृक्ष का मूल, मंत्रियों को स्कन्ध, सेनापति को शाखा, सेना को पल्लव, प्रजा को धूल, भूमि से प्राप्त होने वाले कारकों को फल एवं राज्य की भूमि को बीज कहा गया है।
शुक्र ने राजाओं की वार्षिक आय के आधार पर आठ प्रकार के राजाओं का उल्लेख किया है। १) सामन्त २) माण्डलिक ३) राजा ४)  महाराजा ६) सम्राट७) विराट ८ ) सार्वभौम।
मत्स्य पुराण के अनुसार शुक्राचार्य का वर्ण श्वेत है। शुक्राचार्य को एकाक्ष नाम भी मिला हुआ है। इनका वाहन रथ है। रथ में अग्नि के समान आठ घोड़े जुते रहते हैं एवं रथ पर ध्वजाएं फहराती रहती हैं।इनका आयुध दण्ड है। शुक्र वृष और तुला राशि के स्वामी हैं। शुक्र की महादशा २०  वर्ष की होती है।
 
गुरु शुक्राचार्य की पुत्री का नाम देवयानी था, पुत्र का नाम शंद और अमर्क था। 
इनके पुत्र शंद और अमर्क हिरण्यकशिपु के यहां नीतिशास्त्र का अध्यापन करते थे।
 ऋग्वेद में भृगुवंशी ऋषियों द्वारा रचित अनेक मंत्रों का वर्णन मिलता है। 
 जिसमें वेन, सोमाहुति, स्यूमरश्मि, भार्गव, आर्वि आदि का नाम आता है। 
 गुरु शुक्राचार्य के आश्रम आ कर कच ने सविनय निवेदन किया। ' हे परम् ज्ञानी गुरुवर, मैं, ऋषि अंगिरा पौत्र , बृहस्पति पुत्र कच, आपको प्रणाम करता हूँ। 
कृपया आप मुझे अपने शिष्य रूप में स्वीकार करें तो मैं कृतार्थ हो जाऊंगा। 
मैं वचन देता हूँ कि मैं ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए, आपके आश्रम में रहूँगा। '
गुरु शुक्राचार्य ने कहा,' पुत्र, कच,  स्वागत है। तुम्हारा सत्कार, बृहस्पति का सत्कार होगा।तुम सानंद मेरे पास रहो। ' अब कच गुरु शुक्राचार्य के आश्रम में रहने लगे। वहाँ के काम में हाथ बंटाने लगे अपने गुरु शुक्र की गौओं को वे वन में चराने ले जाने लगे। दानव नहीं चाहते थे कि, देवलोक के गुरु बृहस्पति, जिन के प्रति  दानवों को, अत्याधित द्वेष - भाव था, उन्हीं का पुत्र, यह कच - गुरु शुक्राचार्य के पास शिष्य बनकर रह रहा है। कच उन से संजीवनी विद्या न सीख ले। इस आशंका से का असुरों के मन में अत्याधिक भय उत्पन्न हुआ था। संजीवनी की गुप्त विद्या की सुरक्षा हेतु, दानवों ने कच की दो बार ह्त्या की थी। 
एक दिन संध्या काल होते, गौएँ, अपने रक्षक ग्वाले की बिना आश्रम में लौटीं। 
तब चिंतित गुरु कन्या देवयानी ने अपने पिता शुक्राचार्य से कहा,  ' पिताजी  कच गौओं के साथ लौटे नहीं। या तो अवश्य कुछ अप्रिय घटना हुई है। या किसी ने कच की ह्त्या की हो मुझे ऐसा जान पड़ता है।'  इतना कह, आगे देवयानी रोने लगी।
गुरू शुक्राचार्य, देवयानी को साथ लिए वहीं पहुंचे जहां कच मृत पड़ा हुआ था।  
अब बिलखती हुई देवयानी ने कहा, ' हा पिता ! यह कैसा अप्रिय काण्ड हुआ ! मैं कच से, मौन भाव से, प्रेम करने लगी हूँ।  उनके बिना अब मैं जीवित न रहूंगी। मैं सत्य कह रही हूँ ! आपकी सौगंध ! '  अपनी पुत्री के अश्रु देखकर शुक्राचार्य स्नेह विगलित हो गए। कहा,' अरे बिटिया तू इतना घबड़ाती क्यूँ है ! ले मैं अभी इसे जीवित कर देता हूँ।' इस प्रकार कच को गुरु शुक्राचार्य की संजीवनी विद्या से जीवन दान मिला। कुछ समय शान्ति से बीता। किन्तु एक संध्या कच आश्रम में पुनः लौट कर न आया।  इस बार दुष्ट असुरों ने  कच की ह्त्या कर के कच का शरीर भेड़ियों को खिला दिया था।  गुरु शुक्राचार्य ने संजीवनी मन्त्र पढ़कर अपने कमण्डलु से अभिषिक्त जल के छींटे छिड़कते हुए उच्च स्वर से पुकारा, ' आओ बेटा कच ! ' तत्क्षण भेड़िये के अंग प्रत्यंग को भेद कर, कच के अंग, एकदूसरे से जुड़ते हुए,गुरु सेवा में उपस्थित हो गए। देवयानी ने कच से पूछा कि,
' तुम्हारे साथ किस निर्मम ने ऐसा किया ? बताओ ये कैसे हुआ ? ' तब कच ने सारा वृतांत देवयानी को कह सुनाया। कुछ समय शाँति से बीता। परन्तु दुबारा कच के साथ पुनः वैसा ही हुआ।  गुरु शुक्राचार्य ने पुनः कच को जीवनदान दिया। 
 अब असुर एकत्रित हुए। कुटिल परामर्श व मंत्रणा करने के पश्चात असुरों ने एक युक्ति की। इस बार कच की ह्त्या कर उसे जलाकर भस्म कर दिया। उस भस्म को शुक्राचार्य की वारूणी पात्र में उंडेल कर, सेवा - भक्ति का स्वांग रचकर,
 गुरु के समीप गए। गुरु शुक्राचार्य के हाथों में भस्म मिश्रित सुरापात्र धमा दिया।
 गुरु शुक्राचार्य सुरा को पी गए।  देवयानी उसी समय दौड़ी हुई आयी और कहा,
       ' पिता जी कच अब तक लौटा नहीं। प्रातः काल पूजा के पुष्प लेने गया था। अब तो रात्रि हो चली है। अवश्य भारी विपत्ति आन पडी है। '  उसी समय कच ने गुरु के शरीर के भीतर से पुकारा, ' हे परम् कृपालु गुरुवर ! आपका यह शिष्य आपके शरीर के भीतर से बोल रहा है ! आप ही मेरे परम् दयालु प्राण रक्षक प्राण दाता हैं। मुझ परकृपा करें गुरुदेव ! ' शुक्राचार्य ने कहा,' अरे यह तो बड़ा कठिन काण्ड घटित हुआ है।मैं तुम्हें संजीवनी विद्या सिखलाता हूँ। मेरा पेट फाड़ कर तुम बाहर आ जाओ। सुयोग्य पुत्र की भाँति तुम, मुझे जीवित कर देना। '  
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गुरू शुक्राचार्य के शरीर से कच जीवित बाहर आये। तद्पश्चात कच  ने गुरू आज्ञा का पालन करते हुए संजीवनी विद्या से गुरु शुक्र को जीवित कर अपना प्रण निभाया । शुक्राचार्य को साष्टांग दंडवत कर बोले,' आज पश्चात आप ही मेरे माता, पिता, गुरु, भाई बँधु - बांधव सभी कुछ आप ही हैं।  मैं कृतज्ञ हूँ।आपने संजीवनी विद्या रूपी अमृत का मेरे इन कर्ण में, कर्णामृत समान प्रवेश करवाया है।आप धन्य हैं गुरुदेव ! मैं आपका सदैव आदर करूंगा। जो व्यक्ति गुरु का आदर नहीं करते, वे संसार में सर्वथा कलंकित होते रहते हैं।' 
चित्र : शुक्राचार्य और कच ~~ इस घटना पश्चात शुक्राचार्य को बड़ी ग्लानि हुई। सुरापान से विवेकहीन होना उन्हें आत्मग्लानि से भर गया। गुरु शुक्राचार्य ने श्राप  देते हुए कहा,' मैं समस्त ब्राह्मणों को श्राप देता हूँ कि जो ब्राह्मण सुरापान करेगा वह धर्मभ्रष्ट कहलाएगा। '
कच का  विद्या अध्ययन सम्पूर्ण हुआ। गुरु शुक्राचार्य ने कच की स्वर्ग लौटने की आज्ञा दी   कच अमरावती अपने धाम लौटने को उद्यत हुआ।  देवयानी उस क्षण कच के समीप आयी।मधुर, विनीत स्वर से बोली, ' कच , तुम कुलीन, सदाचारी, जितेंद्रीय, तापस स्वभाववाले हो। अब तुम स्नातक हुए। मैं तुम से प्रेम करती हूँ।अतः  मुझ सेविका का स्वीकार करो। ' कच ने हाथ जोड़कर सविनय प्रतिकार करते हुए कहा,' एक पिता के शरीर से तुम व मैं दोनों प्रकट हुए। इस संसार में आये।अतः तुम मेरी बहन हुईं। तुम्हारे आश्रम में आपके परिवार की स्नेह छैंया में, मैं सुखपूर्वक रहा।  देवी, अब कृपया घर लौटने की अनुमति प्रदान करें तथा मुझे आशीर्वाद दें। तथा यदाकदा मुझे स्नेह भाव से स्मरण कर लीजिएगा जैसे मैं करता रहूंगा। ' 
 कच के प्रेम प्रस्ताव ठुकराने से आहात हुई देवयानी अब कुपित हो गयी। सरोष बोली, ' मैं, गुरु शुक्राचार्य कन्या देवयानी, तुम्हें श्राप देती हूँ तुम्हारी संजीवनी विद्या, कभी सफल ना हो ! ' 
             कच ने विनम्रता से उत्तर दिया ' जो कुछ हो वही सही। मैं इस विद्या को अन्य को सीखलाऊँगा। मैं शाप का अधिकारी न था। देवी प्रणाम '  इतना कहकर कच, अमरावती लौट गए। स्वर्ग में देवतागण कच को लौट आया देख कर अति प्रसन्न हुए व उसका अभिनन्दन किया गया व कच को यज्ञ का भागी बनाया गया।संजीवनी विद्या प्राप्ति का उद्देश्य, देवों का मनोरथ कच द्वारा इस प्रकार सिद्ध हुआ।   
कुछ काल बीता। वृषपर्वा असुरों का  राजा था। उसकी पुत्री रूपवती शर्मिष्ठा थी। वह देवयानी की शिष्या भी थी।  एक दिवस कुछ कन्याओं सहित वह जल क्रीड़ा कर रही थी। देवराज इंद्र मरुत वरुण इत्यादि देवताओं के संग इसे निरख कर आनंद ले रहे थे।  मरूत से इंद्र के कहने पर वायु के झोंकों से स्त्रियों के वस्त्र भिगो दिए गए। तब शर्मिष्ठा ने भूल से अपनी गुरु देवयानी के वस्त्र धारण किये। जिसे देखते ही देवयानी अत्यंत कुपित हुई ! कहा,
' हे असुर कन्या , तेरी यह धृष्टता !  मेरे वस्त्र क्यों धारण किये ? ' शर्मिष्ठा गर्व सहित बोली ' रहने दो जीजी, क्यों अकारण क्रोध कर रही हो ! भूल से तुम्हारे वस्त्र धारण कर  लिए हैं। आप जानती हैं, मैं असुर नृपति वृषपर्वा की कन्या शर्मिष्ठा हूँ। वैसे, ध्यान रहे कि, आपके पिता, मेरे पिता के समक्ष, हाथ बांधे, उपस्थित रहते हैं। ' 
शर्मिष्ठा की ऐसी मन को चुभा देनेवाली वाणी से, देवयानी के क्रोध भरे ह्रदय में, जलते में मानों घी पड़ा ! दोनों क्रोधित थीं। सहसा शर्मिष्ठा, ने देवयानी के समीप आ कर देवयानी को खदेड़ कर, एक कुंए में धकेल कर शर्मिष्ठा, अपनी दासीयों सहित प्रस्थान कर गयी।  
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 शोकमग्न देवयानी उस अन्धकार भरी रात्रि में कुंएं में रहीं। बाहर न निकल पाईं। 
संयोगवश कुछ समय पश्चात नहुष पुत्र ययाति वहां से जा रहे थे। एक स्त्री के रुदन का स्वर सुन वे कुंएं के समीप आये।ययाति ने स्त्री की बाँह पकड़ कर उसे बाहर निकाला शर्मिष्ठा और देवयानी के लिए इमेज परिणाम
 तदुपरांत अपना परिचय देते हुए पूछा, ' देवी , आप कौन हैं ? इस विपत्ति में कैसे घिरीं ?  कृपया बतलाएं।'  देवयानी ने सविस्तार अपनी व्यथा - कथा कह सुनाई।
तब ययाति, देवयानी को ससम्मान गुरु शुक्राचार्य के आश्रम ले गए। 
देवयानी ने अपने पिता से क्रंदन करते हुए अपना सारा वृतान्त कह सुनाया।
 तब सक्रोध बोली, ' हे पिता, अब हम यहाँ कदापि न रहेंगें। चलिए हम कहीं अन्य स्थान को चलें ' इतने में असुरगण भी वहाँ आकर  पिता पुत्री से प्रार्थना करने लगे 
' हे गुरु पुत्री, कृपा कर आप शाँत हो जाएं । ' पिताने अपनी पुत्री को सांत्वना देते हुए कहा, ' पुत्री, क्रोध त्याग दो।शाँत चित्त से, विचार कर मुझे बतलाओ कि तुम, किस तरह, यहां रहने के लिए सहमत होगी ? मैं वचन देता हूँ, हम वही उपाय करेंगें।तुम बतलाओ तो सही, तुम किस प्रकार प्रसन्न रहोगी ? '  
कुछ समय विचार कर देवयानी बोली, ' हे परम् ज्ञानी पिता! आप सर्व समर्थ हैं।आप, उस अहंकारी असुर नरेश से कहें कि, राजपुत्री शर्मिष्ठा, अपनी एक सहस्त्र दासियों सहित, मेरी सेवा में, उपस्थित हो।' 
असुर नरेश तथा असुर समुदाय को गुरु शुक्राचार्य के आदेश का पालन करना ही था।    ताकि, संजीवनी विद्याधारी परम सशक्त गुरू शुक्राचार्य, वहीं उन लोगों के साथ बने रहें।  अतः देवयानी के प्रस्ताव को सर्वमान्य करते हुए इसे स्वीकारना पड़ा। 
कुछ काल बीतने पर एक दिवस ययाति पुनः शुक्राचार्य आश्रम में  पधारे। देवयानी, शर्मिष्ठा तथा असंख्य दसियों को वन में विहार करते देख, ययाति ने अभिवादन करते हुए प्रश्न किया, ' हे देवियों,  दासियों के मध्य, जैसे रात्रि आकाश में, तारिकाओं के मध्य चन्द्रमा के सदृश्य सुशोभित, आप दो चन्द्रिका सम कौन हैं ? कृपया, परिचय दें ' ~ देवयानी, मंद स्मित सहित उत्तर देने लगी, ' हे राजन आप इतनी शीघ्र भूल गए ? मैं वही देवयानी हूँ, जिसका आप ने उद्धार किया था। मेरे पीछे खड़ी है, वह मेरी सेविका, असुर नरेश पुत्री शर्मिष्ठा मेरी दासी है। '
तद्पश्चात देवयानी ने ययाति का परिचय, पिता शुक्राचार्य से करवाया।  गुरु शुक्राचार्य के आश्रम में ययाति का भव्य आदर सत्कार हुआ।  देवयानी ने उस रात्रि को एकांत में अपने पिता से अपने मन के भाव कह दिए। उसने कहा कि, ' हे  परम दयालु पिता ! मैं अपने मनोभाव आप से छिपाना योग्य नहीं समझती।आप को ज्ञात है कि, महाराज  ययाति ने मेरी प्राण रक्षा कर, मेरा उद्धार किया। मैं, उन्हीं को अपना जीवन साथी बनाना चाहती हूँ। ' 
गुरु शुक्राचार्य ने अपनी पुत्री के वचन सुन, उनके विवाह की सहर्ष स्वीकृति दे दी। 
महाराज ययाति से गुरु शुक्राचार्य ने अपनी पुत्री देवयानी का विवाह संपन्न करवाया।  गुरु ने बेटी को विदा किया।
देवयानी का महाराज ययाति के राजमहल में भव्य स्वागत हुआ। अन्तः पुर में देवयानी महारानी की भाँति प्रतिष्ठित हुईं। शर्मिष्ठा तथा दासियाँ के रहने का प्रबंध देवयानी के राजमहल के समीप जो अशोक वाटिका में करवाया गया। 
 कालांतर में ययाति के देवयानी से दो पुत्र हुए। यदु व तुर्वसु। अन्तःपुर में, विलासिता के मध्य अपने दिन रैन व्यतीत कर रही देवयानी को इस बात का आभास भी न हुआ कि, ययाति ने शर्मिष्ठा से गन्धर्व विवाह कर लिया था !शर्मिष्ठा से ययाति को तीन पुत्रों की प्राप्ति हुई।जिनके नाम थे, द्रह्यु , अनु व पुरू ! 
      
एक दिवस देवयानी के संग ययाति राजमहल के उद्यान में टहल रहे थे।
 अचानक तीन सुँदर बालक आकर महाराज के चरणों से लिपट गए। देवयानी को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने कुतूहलवश पूछा, ' बालकों तुम कौन हो ? '  भोले  शिशुओँ ने महाराज ययाति की ओर ऊँगली उठाकर उन्हें ' पिताजी ' कहकर सम्बोधित किया तब देवयानी अत्यंत विस्मित हुई।  उसने बालकों से पूछा ," कहो तुम्हारी माता कहाँ हैं ? मुझे इसी क्षण उन के पास ले चलो। '  तीनों पुत्र दौड़कर, उसी उद्यान की एक शिला पर बैठीं, अपनी माँ शर्मिष्ठा के पास पहुंचे। 
देवयानी ने शर्मिष्ठा को देखते ही क्रोधित स्वर से प्रश्न किया,
 ' हे शर्मिष्ठे ! तुमने मेरा अप्रिय क्यों किया ? क्या तुम्हें मेरा भय नहीं ?
 मैं इसी क्षण तुम्हें मृत्यु - दण्ड दे सकती हूँ ! '  शर्मिष्ठा ने गर्व से ग्रीवा उठाकर, संयत स्वर से उत्तर दिया, ' मैंने जो भी किया, न्याय व धर्म सम्मत कार्य ही किया है। तब मैं क्यों भयभीत होऊँ ? '  शर्मिष्ठा ने, देवयानी द्वारा आरोपित किये हुए अपने दासीत्व बोध के अपमान का शायद इस प्रकार प्रतिकार किया था। देवयानी ने भले असुर नरेश राज - पुत्री शर्मिष्ठा को अपनी सेवा में हठ पूर्वक रख कर उसे अपमानित किया किन्तु शर्मिष्ठा का स्वाभिमान अक्षुण्ण रहा।शर्मिष्ठा ने अपनी मनमानी करते हुए, देवयानी के पति को स्बयं के पतिरूप में चुनकर, पूर्व पत्नी देवयानी को इस प्रकार अपमानित किया था।  

देवयानी क्रोधावेश से काँपती हुई, उसी क्षण अपने पिता गुरु शुक्राचार्य के आश्रम में आयी तथा पिता से, शर्मिष्ठा ययाति के प्रेम - विवाह की घटना सविस्तार कह सुनाई। महाराज ययाति भी देवयानी के पीछे वहीं आन पहुंचे थे।  गुरु शुक्र ने, अपनी लाड़ली पुत्री शोक से व्यथित हो, शाप दिया कहा, ' हे राजन, यौवन व गर्व मद से चूर हो कर तुम  निरंकुश व्यवहार करनेवाले धूर्त हो ! जिस यौवन - मद से  गर्वित होकर तुमने यह धूर्त व्यवहार किया है, तुम्हारा वही  ' यौवन '  जाता रहेगा !  ये मेरा श्राप है ! ' --  गुरु की वाणी अमोघ थी। तत्काल ययाति वृद्धवस्था को प्राप्त हुए। काले भ्रमर से केश, श्वेत कपास से हो गए।  शरीर झुक गया। तेजस्वी मुखमण्डल कुम्हला गया।त्वचा झुर्रियां से वृद्ध हुईं । अब ययाति को ग्लानि हुई। वे गुरु शुक्राचार्य के चरणों में झुक कर क्षमा याचना करने लगे। तब गुरु शुक्र का ह्रदय पसीज गया। उन्होंने कहा, ' तुम चाहो तो किसी को भी अपना यह वृद्धत्त्व  हो। उन से यौवन माँग कर पुनः युवावस्था भोग सकोगे। ' भारी मन से, वृद्ध तन से, शिथिल चाल से, महाराज ययाति अपने राजप्रासाद में लौटे। 
ययाति ने अपने नगरवासियों से , राजमहल में सभी से प्रार्थना की। किन्तु एक भी व्यक्ति, अपना यौवन महाराज को देकर, बदले में उनसे, महाराज की वृद्धावस्था लेने के लिए राजी न हुआ। सभी पुत्रों ने अपनी अपनी असमर्थता प्रकट करते हुई असमर्थता प्रकट की।  उस समय ययाति पुत्र पुरु, पिता के समक्ष हाथ जोड़कर उपस्थित हुए। पुरु, पिता से सविनय बोले,' हे पिता ! मैं शर्मिष्ठा पुत्र पुरु, मेरे पिता महाराज ययाति को अपना यौवन देता हूँ। आपकी वृद्धावस्था को मैं, स्वीकार करता हूँ। '  पुरु के वचन समाप्त होते ही महाराज ययाति, पूर्ण यौवनावस्था से परिपूर्ण हो गए। सामने हाथ जोड़े उपस्थित पुरु अकाल वृद्धत्त्व  को प्राप्त हुआ !  अपने युवा पुत्र को इस प्रकार अकाल वृद्ध हुआ देखकर महाराज ययाति का ह्रदय अत्यंत व्यथित हुआ। पिता अपने पुत्र से लिपट गए। त्याग व उदारता की मूर्ति अपने पुत्र पुरु को महाराज ययाति ने अश्रु अंजलि देते हुए अनेकानेक आशीर्वाद दिए एवं पुरु को वरदान दिए।  यौवन भोगने के पश्चात महाराज ययाति स्वर्ग सिधारे।अपना यौवन पुनः अपने पुत्र पुरु को लौटा दिया। युवावस्था प्राप्ति पश्चात पुरु का राज्याभिषेक संपन्न हुआ। 
इस प्रकार कालान्तर में पुरुवंश की स्थापना हुई। 
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