Friday, August 28, 2009

पतझर सावन बसंत बहार (काव्य संग्रह)

अनुराग भाई की कविता पुस्तक और भाई श्री पंकज सुबीर जी की समीक्षा आज ही देख पाई हूँ -

पुस्तक मेरे पास भी पहुँची है, समीक्षा लिखना अभी शेष है --
किन्तु , मेरी सद्भावना हरेक कवि के लिए
प्रेषित करते हुए .....हर्षित हूँ
और शाबाशी मेरे अनुज भ्राता श्री पंकज भाई के लिए ...

श्री गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता " तार सप्तक " में शामिल थीं -
" ब्रह्मराक्षस " कविता प्रसिध्ध हुई मार्क्सवादी, जनवादी विचारधारा लिए अनोखी थी --
ये प्रगतिवादी कविता का दौर था - अज्ञेय जी द्वारा संपादित कृति , विशिष्ट थी --
छायावाद से निकल कर प्रयोगवादी कवितातक का प्रवास यहीं से आरम्भ होता है
एक ही पुस्तक में एक से ज्यादह कवियों की रचना एक साथ पढने का आनंद मिले
ऐसी ही कृति पुस्तकाकार में ' पतझड़ सावन बसंत बहार ' मेरे समक्ष आते ही , सभी कवियों की कवितायेँ पढी और लम्बी समीक्षा लिखने का मन बना लिया -
पारिवारिक कारणों से , यह् काम संपन्न नहीं कर पाई --
और आज ही भाई श्री पंकज सुबीर जी की लिखी समीक्षा , स्वर बध्ध किये लिंक्स सहित मिली --
अत: प्रस्तुत है --
आगामी प्रविष्टी में दुसरे कवियों की रचनाओं पर भी ....

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edited by Ajneya.Published in 2000, Bharatiya Jnanpith (New Delhi)

- लावण्या


http://podcast.hindyugm.com/2009/05/patjhad-sawan-basant-bahar-anuraag.html






पॉडकास्ट पुस्तक समीक्षा
पुस्तक - पतझर सावन बसंत बहार (काव्य संग्रह)
लेखक - अनुराग शर्मा और साथी (वैशाली सरल, विभा दत्‍त, अतुल शर्मा, पंकज गुप्‍ता, प्रदीप मनोरिया)
समीक्षक - पंकज सुबीर


पिट्सबर्ग अमेरिका में रहने वाले भारतीय कवि श्री अनुराग शर्मा का नाम वैसे तो साहित्‍य जगत और नेट जगत में किसी परिचय का मोहताज नहीं है । किन्‍तु फिर भी यदि उनकी कविताओं के माध्‍यम से उनको और जानना हो तो उनके काव्‍य संग्रह पतझड़, सावन, वसंत, बहार को पढ़ना होगा । ये काव्‍य संग्रह छ: कवियों वैशाली सरल, विभा दत्‍त, अतुल शर्मा, पंकज गुप्‍ता, प्रदीप मनोरिया और अनुराग शर्मा की कविताओं का संकलन है । यदि अनुराग जी की कविताओं की बात की जाये तो उन कविताओं में एक स्‍थायी स्‍वर है और वो स्‍वर है सेडनेस का उदासी का । वैसे भी उदासी को कविता का स्‍थायी भाव माना जाता है । अनुराग जी की सारी कविताओं में एक टीस है, ये टीस अलग अलग जगहों पर अलग अलग चेहरे लगा कर कविताओं में से झांकती दिखाई देती है । टीस नाम की उनकी एक कविता भी इस संग्रह में है ’’एक टीस सी उठती है, रात भर नींद मुझसे आंख मिचौली करती है ।‘’

अनुराग जी की कविताओं की एक विशेषता ये है कि उनकी छंदमुक्‍त कविताएं उनकी छंदबद्ध कविताओं की तुलना में अधिक प्रवाहमान हैं । जैसे एक कविता है ‘जब हम साथ चल रहे थे तक एकाकीपन की कल्‍पना भी कर जाती थी उदास’ ये कविता विशुद्ध रूप से एकाकीपन की कविता है, इसमें मन के वीतरागीपन की झलक शब्‍दों में साफ दिखाई दे रही है । विरह एक ऐसी अवस्‍था होती है जो सबसे ज्‍यादा प्रेरक होती है काव्‍य के सृजन के लिये । विशेषकर अनुराग जी के संदर्भ में तो ये और भी सटीक लगता है क्‍योंकि उनकी कविताओं की पंक्तियों में वो ‘तुम’ हर कहीं नजर आता है । ‘तुम’ जो कि हर विरह का कारण होता है । ‘तुम’ जो कि हर बार काव्‍य सृजन का एक मुख्‍य हेतु हो जाता है । ‘घर सारा ही तुम ले गये, कुछ तिनके ही बस फेंक गये, उनको ही चुनता रहता हूं, बीते पल बुनता रहता हूं ‘ स्‍मृतियां, सुधियां, यादें कितने ही नाम दे लो लेकिन बात तो वही है । अनुराग जी की कविताओं जब भी ‘तुम’ आता है तो शब्‍दों में से छलकते हुए आंसुओं के कतरे साफ दिखाई देते हैं । साफ नजर आता है कि शब्‍द उसांसें भर रहे हैं, मानो गर्मियों की एक थमी हुई शाम में बहुत सहमी हुई सी मद्धम हवा चल रही हो । जब हार जाते हैं तो कह उठते हैं अपने ‘तुम’ से ‘ कुछेक दिन और यूं ही मुझे अकेले रहने दो’ । अकेले रहने दो से क्‍या अभिप्राय है कवि का । किसके साथ अकेले रहना चाहता है कवि । कुछ नहीं कुछ नहीं बस एक मौन सी उदासी के साथ, जिस उदासी में और कुछ न हो बस नीरवता हो, इतनी नीरवता कि अपनी सांसों की आवाज को भी सुना जा सके और आंखों से गिरते हुए आंसुओं की ध्‍वनि भी सुनाई दे ।

एक कविता में एक नाम भी आया है जो निश्चित रूप से उस ‘तुम’ का नहीं हो सकता क्‍योंकि कोई भी कवि अपनी उस ‘तुम’ को कभी भी सार्वजनिक नहीं करता, उसे वो अपने दिल के किसी कोने में इस प्रकार से छुपा देता है कि आंखों से झांक कर उसका पता न लगाया जा सके । "पतझड़ सावन वसंत बहार" संग्रह में अनुराग जी ने जो उदासी का माहौल रचा है उसे पढ़ कर ही ज्‍यादा समझा जा सकता है । क्‍योंकि उदासी सुनने की चीज नहीं है वो तो महसूसने की चीज है सो इसे पढ़ कर महसूस करें ।

इसी संग्रह से पेश है कुछ कवितायें, पंकज सुबीर और मोनिका हठीला के स्वरों में -
एक टीस सी उठती है...


जब हम चल रहे थे साथ साथ...


मेरे ख़त सब को पढाने से भला क्या होगा...


जब तुम्हे दिया तो अक्षत था...


कुछ एक दिन और...


जिधर देखूं फिजा में रंग मुझको....


साथ तुम्हारा होता तो..


पलक झपकते ही...


कितना खोया कितना पाया....



Monday, August 24, 2009

"फ़ुरसतिया जी " .के पांच साल और हमारे ...कित्ते हुए पूरे ? .

श्री गणेश का आगमन

गौरी कुंड की कुछ मिटटी लेकर हाथों में ,
एक अकेली साँझ को , सोच रहीं माँ पारबती ,
"कब आयेंगे घर , मेरे , शिव ~ सुंदर ? "
केशर मिश्रित उबटन लेकर हाथों में
फिर खूब उसे मल मल कर , उतारा
यूं ही, अपने गोरे अंग से , खेल खेल में ...
बना दी , आकृति एक बालक की और हलके से ,
फूंक दिए प्राण , अपनी सांसों के और कहा ,
" देखो , ये मेरा पुत्र , विनायक है ! "

सूनी साँझ कहाँ फिर रहती सूनी सूनी ?
हुआ आगमन , श्री गणेश का जग में !
पारबती के प्यारे पुत्र अब आये जग में

शिवजी लौट रहे थे , छोड़ कैलाश और तपस्या
द्वार के पहरेदार बन खड़े हो गए बाल गणेश ,
अपनी माता के बन के रक्षक !

" फिर आगे क्या हुआ माँ ? कहो न ...".
पूछने लगी बिटिया मेरी , मुझसे !

एक सूनी साँझ के समय ,
सुन रही थी वोः मुझसे
यह कथा पुरानी और मैं ,
उसे करती जा रही थी , तैयार
रात्रि - भोज के पहले , ये भी , करना था ,
बस , अब , आते ही होंगें , मेहमान ! ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
-- लावण्या
हमारे "फ़ुरसतिया जी ..असली कानपुरिया भाई साहब , जिनकी लेखन शैली के हम भी , ज्ञान भाई साहब ( अजी वही " इलाहाबादी / यूपोरियन ,
मानसिक हलचल चिठ्ठे के गंगा जी के दर्शन करवानेवाले भाई साहब )
ज्ञानदत्त पाण्डेय जी , की तरह " पंखे " मतलब फैन हैं !! .. :).
तो बात , ये कह रही थी के , अनूप सुकुल जी के पांच वर्ष पूरे हुए !!
हमारे ब्लॉग लेखन का आगाज़ ,
सितम्बर की १९ तारीख सन २००६ की पुण्यशाली तिथि के दिवस आरम्भ हुआ था -
-शुरू शुरू में , गुगल महाराज की किरपा से, सारे निर्देश , अंग्रेजी में पढ़कर , अंग्रेजी में ही लेखन आरम्भ किया था -- सोचा था, , हम एक नन्हे से जीव
इस महासागर सद्रश फैले मकडी के जाल से " विश्व व्यापी वेब " में , ना जाने कहाँ गोते लगाते , बहते, गिरते पड़ते , मौजों के थपेडों में , कहाँ कहाँ , बहेंगें ~~~~~~~~~~
पर , आखिरकार, हिन्दी ब्लॉग जगत के
" उड़न तश्तरी " फेम ,
" समीर लाल " समीर " भाई साहब,
आ ही पहुंचे :)
कहा,
" नारायण नारायण !!
दीदी , आप अपना चिठ्ठा , हिन्दी में लिखा करें ....
तब ज्यादा प्रसन्नता होगी ! "

उनके आदेश तथा सहकार से ,
" ब्लोग्वानी " चिठ्ठा ~ जगत " " नारद " जैसे ,संस्था - समूह संस्था के पेज पर भी ,
हमारे नन्हे वेब पेज का नाम , दर्ज हो गया !

चलिए ....
कई अन्य साथी वहां दीखे ...
बहुत स नया लेखन देखा , पढा ...
विस्तृत , हिन्दी लेखन भारत के दूर - सुदूर के प्रान्तों से ,
सच्ची और जानकारी पूर्ण बातों को , सचित्र , व अविरल धारा में , हर क्षण , परोस रहा था --
जिस तरह , ब्रेकिंग न्यूज़ , पल पल , अप डेट होतीं हैं,
हमारा , विश्व व्यापी हिन्दी आभासी जगत , ठोस तथ्यों को परोस रहा था ...

भारत से बिछुड़ने का तथा मेरे भारत से, मेरी भौगोलिक दूरी का ये रंज , कुछ हद तक , मिट गया ...
मैंने अपने आप को , भारत के करीब पाया ...
दक्षिण के मंदिर हों या कोइ पहले न सुना हो ऐसा कथानक , अब घर बैठे ही सुन लेती थी जैसे श्री शुभ्रमानियम जी का चिठ्ठा ... " मल्हार " आहा हां ...क्या छानबीन और कैसी कैसी अद्`भुत कथा ये नित नवीन , करते हुए , आसानी से , हमारे लिए , प्रस्तुत कर देते हैं के देखते ही बनता है ...
युवा चिठ्ठाकारों की शैली भी
अकसर होंठों पे मुस्कराहट ला देती है .
साहित्य शिल्पी : .http://www.sahityashilpi.com/
जिनमे अल्पनावर्मा जी, महावीर'
http://mahavirsharma.blogspot.com/
विवेकसिंह भाई ,नीरजजी, डा. अमर कुमार जी,
श्री पंकज भाई,
मानसी बिटिया, कंचन बिटिया , आभा बिटिया, लवली बिटिया शेफ़ालीजी, पूजा जी, , सागर भाई,अभिषेक भाई, मसिजीवी जी,
सुजाता जी , नीलिमा जी , बी एस पाबला जी , सृजन शिल्पी ,
श्री आदरणीय प्राण भाई साहब, जिनकी रचनाएं मन को गहरे तक स्पर्श करतीं है
http://kashivishvavidyalay.wordpress.com के अफलातून भाई
उन्मुक्त,जी, हर्षवर्धन जी,अनीताजी,
पारुल,
अनुराग भाई ,
यूनुस भाई ,

रचना,
शिवजी,

भाई श्री गिरिजेश जी
- जिन्होंने मात्र ४ महीने से ब्लॉग लेखन आरम्भ किया है
और एक आलसी का चिठ्ठा ऐसा धाकड़ लिखा की
फणीश्वर नाथ रेणू जी + प्रेमचंद बाबू की यादें ताज़ा कर दीं
( उन्हें कैसे भूल सकतीं हूँ ? भला ;)
दिनेशराय द्विवेदी जी का अनवरत हो या कानूनी सलाह , या ,

श्री अलबेला खत्री जी , सीमा गुप्ता जी ,

अब जिन सुन्दर और अथक परिश्रम से लिखे जा रहे चिट्ठों के नाम यहां देने से रह गए हैं ,
उन सभी से अग्रिम क्षमा याचना सहित , आगे बढ़ते हुए ,
मेरी प्रथम प्रविष्टी की और उन्मुख हूँ ..

Hello World,
Feels good to be somewhere in between the world of dreams and reality which is the Cyber space !

Democracy, individualism , a passion for achievements of the finest that is within us is self evident within the diapheonous spheres of existance here ........like a surrelists dream ...the WWW ....is alive with billion human thoughts and mine is a petal of a flower , a drop within the infinite Ocean of TIME !
So ..........here I'm , leaving my foot print on the sands of time........for all Eternity !
-- Lavanya