Friday, February 27, 2009

हम और हमारा धर्म

क्रौंच पक्षी का आर्तनाद , काव्य की सरिता बहा गया
लता दीदी गणेश पूजन करते हुए
शादी: जीवन का एक मध्य मार्ग पर आनेवाला मकाम है
हम और हमारा धर्म जिसे वैदिक धर्म कहें या सनातन धर्म कहें , कई विभिन्न संस्कारों, हमारे रीति रिवाज, परम्परा और धार्मिक नियमों का एक संगम है - जिसे जो मन भाया, वही अपना लिया -
हमारे देवता कृष्ण हमारे शास्त्रों की रचना भी करते हैं और मनुष्य जीवन जीते हुए, नित्य कर्म भी करते हैं जैसा महाभारत के युध्ध के दौरान इस प्रसंग में है कि, अर्जुन के रथ में जुटे अश्व , थक गए थे तब श्री कृष्ण ने उन्हें बानों के मध्य , सुरक्षित भूमि पर एक क्षेत्र बना कर, जल से, अपने हाथों से नहला कर स्वस्थ किया था ~~
आज समन्वय का ऐसा अद्भुत चित्र भी आप कलाकार की कल्पना को साकार करता हुआ देखते हैं .......
भारत आधुनिक होते हुए भी अपने इतिहास को अपने दर्शन को साथ लिए २१ वी सदी तक आ पहुंचा है -


भारत का "जय हो " स्वर आज विश्व चौंक कर सुन रहा है विस्मय से, इसकी आशावादिता से चकित होकर जहां कीचड में कमल खिलने कि अद्भुत क्षमता है ...


हमारे रुषियों ने तपस्या और नित्य कर्म के मध्य भी हर प्राकृतिक जीव से प्रेम किया और करुना विगलित होकर , ईश्वर की अनुकम्पा को वाणी दी -

" रामायण " जैसे अमर महाकाव्य रचे गए जब एक व्याघ्र के तीर से घायल हो, क्रौंच पक्षी का आर्तनाद , काव्य कि सरिता बहा गया .....



इस भारतीय दर्शन को , साहित्य को और धर्म को दकियानूसी या पुरातनपंथी ना कहें , शेष , विशेष ऐसा अवश्य बचा है अभी इस में ,
जो आज भी , विश्व की अन्य प्रजा को , भारत की ओर देखने के लिए
विवश कर रहा है ....
अब बारी है, भारतीय अस्मिता के जागने की !
गरिमा के स्थापन की और ईश्वर का प्रसाद रुपी निर्मल जल , वितरित करने की ..... ऐसी ही अमूल्य नन्ही नन्ही बातों से !
माला के मनके हैं ये ...........
हर धर्म के अनुरूप , तसबी के दाने, मोती - मानिक के हार , जो एक नाम का जाप कर हमें अविनाशी से जोड़ कर अमर करने की क्षमता रखते हैं --

फरवरी माह भी बीत चला ...मार्च , मार्चिंग करता आ रहा है ॥

फिर मिलेंगे । --
लावण्या

Tuesday, February 24, 2009

आया है मुझे फ़िर याद वो जालिम, गुजरा ज़माना, बचपन का ..

प्लेन की छोटी सी खिडकी से दीखता आसमान सुफेद रूई के फाहोँ जैसे नर्म बादलोँ से अटा पडा ऐसा दीखता रहा ....
जब हम आँखोँ मेँ हमारी यात्रा को सँजोये, मन मेँ अनेक रीश्तेदारोँ और मित्रोँ से मिलने की स्मृतियाँ संजोए, अपने शहर की ओर लौट रहे थे और गुनगुना रहे थे ,
" आया है मुझे फ़िर याद वो जालिम, गुजरा ज़माना, बचपन का ... वो खेल वो साथी, वो झूले, वो दौड़ के कहना, आ छु ले ....हम आज तलक भी ना भूले, ....वो खेल पुराना बचपन का ...आया है मुझे फ़िर याद वो जालिम " ..........
चलेंगें क्या आप भी मेरे साथ ? उन पुरानी यादों की गलियों में ? ....
आपको फ्लैशबेक मेँ ले जाने से पहले, फिल्म आखिरी सीन से शुरु करुँ ? :)
क्या कहा ...हाँ ?
ये देखिये केलीफोर्नीया प्रांत, यु। एस। ऐ। के ...हवाई अड्डे पर खड़ी , उड़न तश्तरी जैसी ये इमारत , जो लोस -अन्जिलिस शहर का एक प्रतीक है ।
सबसे पहली बार इसे देखा था १९७४ , दीसंबर में !
मेरी प्रथम विमान यात्रा , बंबई से स्वीस एअर विमान से जीनीवा होते हुए , न्यू यार्क और फ़िर ' ऐल - ए ' !!
यही कहते हैँ लोस -एन्जिलिस को !
उस समय भी इसी ने स्वागत किया था और आज , उसे , बाय - बाय कह कर , घर की तरफ़ चल दीये थे ... मरम्मत हो रही थी ...इस की ...जैसा यहाँ दीख रहा है ...
और लोस - एंजिलिस में , शाम के सुरमई उजाले में , एक पेड़ उजालों को कैद करने की कोशिश में अपने में , सूर्य को समाने की असफल ,
चेष्टा करता हुआ दीख पडा था ।
जैसे हम अनेक मधुर यादों के सहारे, नन्हे से ह्रदय में , ना जाने कितने अपने और परायों को समाने की नाकामयाब - सी कोशिश करते हैं ...अन्तःतः रह जाता है, "स्वः " ...
शहर की घुमावदार पहाडी से नीचे जाते रास्ते, ऊपर और नीचे बसे घरों को जोड़ते हुए ... जहाँ यातायात , अनवरत बहता रहता है ..अमीर बस्तियां , अनजाने से लोग , पर सड़क सभी के लिए खुली , सदा आपके लिए , बिछी हुई , राह तकती ...जहाँ से, हम भी गुजरे थे कभी ....और आज भी वही मंजर है, वही रास्ते हैं और वही हम हैं !
फ्री - वे पर हमारी कार गुजरी ...देखा कार बेचनेवाले ग्राहकों को लुभाने के लिए ऐसे गरुड़ आकार के गुब्बारे "अमेरीकन ईगिल " स्वतँत्रता का प्रतीक, सजाये राह देख रहे थे - जब के , आजकल गाडियोँ की बिक्री कम हो कर घट गई है !
" लोस -एन्जोलिस " शहर मोशन पिक्चर्स इन्डस्ट्री का शहर भी कहलाता है - जगह जगह इसकी याद आती रहती है जब भी आप किसी ऐसे मकान के नज़दीक से गुजरते हो ..जहाँ उनकी ऑफिस हैं --
हाँ , ऐसे कई स्थल पहले भी देखे थे टूरिस्ट स्पोटज़ जैसे युनिवर्सल स्टुडीयो, डीज़नी वर्ल्ड, नोट्स बेरी फार्म, साँटा ~ मोनिका बीच , ( पेसेफिक महासागर पर स्थित एक )बीच ,जहाँ असँख्य पर्यटक और शहर के लोग रोज सैर करने, खेलने, व्यायाम करने सागर के जल मेँ स्कूबा डाइवीँग करने और फूटबोल खेलने रेत पर आ पहुँचते हैँ । और ये नज़ारा देखने लायक होता है ...मगर,
इस यात्रा का मकसद रीश्तेदारोँ और मित्रोँ से मुलाकात करने का था ...
और पोमोना की पहाडीयोँ पर मिलीँ डाक्टर उमी आँटी !
तकरीबन ३३ वर्षोँ के बाद !
साथ थी मेरे स्कुल की सहपाठी मेरी सहेली, 'निली ' !
हम साथ पढे, साथ -साथ स्कुल पास करके मीठीबाई, जुहु कोलिज मेँ दाखिला लिया और रोज ही एक साथ बम्बई की लोकल बस पे सवार होकर आते जाते ...
स्कुल जाते समय उसके पापा उसे मरुन रँग की मर्सीडीज़ कार मेँ छोडने जाया करते और वो रास्ते मेँ उतर जाती जब हमें , पैदल चलते देख लेती और उतरकर साथ चलती !
हम उससे कहते, " अरे बडी पागल है तू ! हमेँ भी काहे नहीँ बिठाल लेती अपने पापा से कह कर मर्सीडीज़ मेँ ? तू क्यूँ पैदल चल कर हमारे साथ स्कुल जाती है रे ? " और नीली मुस्कुराके रह जाती !
आज भी मेरी निली की मुस्कान वैसी ही सौम्य है जैसी ३३ साल पहले थी !
( चित्र में , नीली , डाक्टर उमी आंटी और मैं )
निली की छोटी बहन गीतु की २ बेटियाँ और बेटा श्याम और हम दोनोँ सहेलियाँ / मौसियाँ
निली के बापुजी :
बापुजी ने हैद्राबाद-सिँकदराबाद शहर के सीमावर्ती इलाके मेँ १६ एकड जमीन खरीदकर अँगूर के बाग भी लगाये थे जहाँ हमने एक गर्मी की छुट्टीयाँ बिताईँ थीँ - और बडे बडे पानी के कुँड मेँ तैरना सीखा था !! ;-) एक बहुत भव्य पुरानी हवेलीनुमा मकान था जहाँ हम रहे थे और खूब रँग पक्का करके बम्बई लौटे थे उसकी यादेँ भी ताज़ा हो गईँ !
( चित्र में : बापुजी : और हम दोनोँ सहेलियाँ )मेरे पति , दीपक जी भी हमारी स्कुल में सहपाठी थे और हम सभी में मित्रता थी -- हम लोग ३३ वर्षों बाद फ़िर एक साथ मुस्कुरा रहे हैं - चूंके निली , शादी के बाद न्यू जीलैंड चली गयी थी ...उसके पति वहीं जन्मे थे और ऐसे लोगों को ' किवी ' कहते हैं ..मतलब नेटिव !! (those who are native born in New Zealand ) सच , बहुत यादगार मिलन था हम लोगों का !!
लोस - एन्जिलिस पहुँचने से पहले हम फीनीक्स शहर मेँ रुके जहाँ हमारे समधी जी का घर है और वहीँ मुझसे मिलने आये रेल्वे के रीटायर्ड अधिकारी रह चुके
श्री प्रकाश शर्मा जी जिनकी ऊम्र ८५ वर्ष है उनका धेवता रवि नानाजी को लेकर आया ! वे मेरी बडी दीदी गायत्री जी की ननदके देवर हैँ !
वे, कविता भी लिखते हैँ --
हमारी बहुरानी मोनिका के नानाजी व नानी जी भी देहली से आये हुए थे उन सभी के साथ - चित्र में, श्री प्रकाश जी, दीपक जी, नानाजी काली टोपी पहने हुए, काला चश्मा लगाए हमारे समधी श्री करण भाई साहब , आगे मैं, नन्ही माया, नानी जी और श्रीमती अनीता जी ... हमें , हमारे इस बृहद परिवार से मिलना बहुत सुखद लगा !
इस बार हम फीनीक्स शहर में और भी कई मित्र व रिश्तेदारों से मिले ....
यात्रा के दिन पंख लगाए उड़ गए और हम भी उड़ते हुए मानो पलक झपकते , फ़िर घर आ गए !
मन में यादों को बसाए और वादा करके की ..फ़िर मिलेंगे ... जल्दी ही हम , दुबारा मिलेंगे ....
समय का चक्र , ऐसे ही घूमता रहता है ...
और फ़िर ये गीत याद आ गया ,
" काल का पहिया घूमे भैया , राम कृष्ण हरी ...राम कृष्ण हरी ....."
यात्रा पर चलने के लिए, आपका शुक्रिया ....
क्या पता वक्त के किसी मोड़ पर , हम मिल जाएँ ?
आशा है, आप को राम कृष्ण हरी , सुख शांति से रखें ॥
तब तक, खुदा हाफिज़ ...........
-- लावण्या










Tuesday, February 17, 2009

जन्मकथा


रवि बाबू का श्वेत श्याम छाया चित्र यहाँ वे अपनी डेस्कपर लिखते हुए दीखाई दे रहे हैँये कविता, जिसका शीर्षक है ~~ "जन्मकथा ", बँगाल के कवि रत्न, साहित्य के लिये, नोबल इनाम से सुशोभित, ख्याति प्राप्त, श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने लिखी है । मेरा मानना है कि ये कविता, मूल बाँग्ला मेँ शायद इतनी मधुर व सारगर्भित होगी कि, इसे, हिन्दी अनुवाद मेँ ढालना, एक प्रकार की धृष्टता ही कहलायेगी । पर, वही काम, आज मैंने किया है !
      परँतु, इस कविता को, कई बार पढा है और हमेशा भारतीय मनोविज्ञान तथा दर्शन का पुट लिये, एक अलौकिक दिव्यता लिए, इस कविता की शुचिता तथा माँ के शिशु के प्रति अगाढ ममत्त्व के दर्शन से हमेँ जोडने की क्षमता रखती ये कविता मुझे अभिभूत करती रही है !
इसीलिये आज इसका हिन्दी अनुवाद आप सभी के सामने प्रस्तुत कर रही हूँ ...
एक बात और अभी अभी मैं, एक सुखद यात्रा से घर लौट कर आ गयी हूँ
यात्रा तथा उसकी सारी बातें, आगे लिखूंगी ...आज आपके सामने कविता का अन्ग्रेजी अनुवाद भी यहाँ दे रही हूँ -जो बडी दक्षता से किया गया है। 
आप श्री कुमुद बिस्वास जी के नाम पर अवश्य क्लिक करेँ - जो गहरे नीले रँगोँ के अक्षर मेँ अँग्रेज़ी कविता के उपर देख पायेँगे -

जन्मकथा :
" बच्चे ने पूछा माँ से , मैं कहाँ से आया माँ ? "
माँ ने कहा, " तुम मेरे जीवन के हर पल के संगी साथी हो !"
जब मैं स्वयं शिशु थी, खेलती थी गुडिया के संग , तब भी,
और जब शिवजी की पूजा किया करती थी तब भी,
आँसू  और मुस्कान के बीच बालक को,
कसकर, छाती से लिपटाए हुए, माँ ने कहा,
" जब मैंने देवता पूजे, उस वेदिका पर तुम्ही आसीन थे ,
मेरे प्रेम , इच्छा और आशाओं में भी तुम्ही तो थे !
और नानी माँ और अम्मा की भावनाओं में भी, तुम्ही थे !
ना जाने कितने समय से तुम छिपे रहे !
हमारी कुलदेवी की पवित्र मूर्ति में ,
हमारे पुरखो की पुरानी हवेली मेँ तुम छिपे रहे !
जब मेरा यौवन पूर्ण पुष्प सा खिल उठा था,
तुम उसकी मदहोश करनेवाली मधु गँध थे !
मेरे हर अंग प्रत्यंग में तुम बसे हुए थे
तुम्ही में हरेक देवता बिराजे हुए थे
तुम, सर्वथा नवीन व प्राचीन हो !
उगते रवि की उम्र है तुम्हारी भी,
आनंद के महासिंधु की लहर पे सवार,
ब्रह्माण्ड के चिरंतन स्वप्न से ,
तुम अवतरित होकर आए थे।
अनिमेष द्रष्टि से देखकर भी
एक अद्भुत रहस्य रहे तुम !
जो मेरे होकर भी समस्त के हो,
एक आलिंगन में बध्ध, सम्बन्ध,
मेरे अपने शिशु , आए इस जग में,
इसी कारण मैं , व्यग्र हो, रो पड़ती हूँ,
जब, तुम मुझ से, दूर हो जाते हो...
कि कहीँ, जो समष्टि का है
उसे खो ना दूँ कहीँ !
कैसे सहेज बाँध रखूँ उसे ?
किस तिलिस्मी धागे से ?
अनुवाद :
- लावण्या
Birth Story Original in Bengali –

'Janmkatha ' by Rabindranath Tagore ~
Transcreation by : Kumud Biswas :
kid asks his mum,‘From where did I come,
Me where did you find?’
Holding him tight in an embrace
In tears and laughter
The mum replies,‘You were in my mind
As my deepest wish।
You were with me When I was a childA
nd played with my dolls।
When worshiping Shiva in the morning
I made and unmade you every moment।
You were with my deity on the altar
And with him I worshiped you too।
You were in my hopes and desires,
You were in my love,
And in the hearts of my mum and grand mum।
I don’t know how long You kept yourself hiding
In our age old home
In the lap of the goddess of our family
When I bloomed like a flower in my youth
You were in me like its sweet smell
With your softness and sweetness
You were in my every limb।
You are the darling of all gods
You are eternal yet new
You are of the same age as the morning Sun
From a universal dream
To me you came floating On the floods of joy
That eternally flows in this world।
Staring at you in wonder
I fail to unfold your mystery
How could one come only to me Who belongs to all?
Embracing your body with my body You have come
to this world as my kid
So I clasp you tightly in my breast
And cry when you are away for a moment
I always remain in fear I may loose
One who is the darling of the world।
I don’t know how shall I keep you
Binding in what magic bond।’
(नवम्बर , २७ , २००५)

Friday, February 6, 2009

मुक्ति

श्री राम कृष्ण परम हंस भगवान् :
बंगाल की आत्मा थे और देवी महाकाली के परम भक्त।
मुक्ति सनातन धर्म के सन्दर्भ में उसी को कहते हैं
जो जन्म , मरण के फेर का अंत करे !
उसे निर्वाण या मोक्ष भी कहते हैं। जीव मुक्त तभी होता है जब आत्मा , सदा के लिए परमात्मा में विलीन हो जाए ।
अद्वैत , जैनी , बुध्ध धर्म , सीख जैसे भारतीय मूल के धर्म भी मोक्ष या मुक्ति को समय, काल और कर्मानुबंध का लोप होकर, आत्मा की मुक्ति को मानते हैं। विश्व के दुसरे धर्मों में, आत्मा का लम्बी अवधि तक, एक शांत , स्वर्गीय लोक में वास होता है ऐसा मानते हैं। उस अवस्था में , व्यक्ति का परिचय या नाम तथा रूप का अंत हो जाता है और कर्म की अच्छी या बुरी पकड़ से पर की अवस्था ही मुक्ति कहलाती है। जहाँ व्यक्ति के अहम् का नाश हो जाता है। वही अहम् से परम की यात्रा है ।
यूँ , सभी को स्वतंत्रता प्रिय है। फ़िर भी , आत्मा को कर्म के बंधन से मुक्त करना ये कार्य दुसाध्य लगता है - इस ग्रंथि को तोड़ना और विलग होकर, मुक्त होना यही प्रथम , कदम है ।

माँ सरस्वती :

मनुष्य की बुध्धि , प्रज्ञा, कविता , गीत संगीत तथा वाचा की अधिष्ठात्री देवी हैं ।

सुनिए गीत : सत्यम शिवं सुंदरम: शब्द : पण्डित नरेंद्र शर्मा : स्वर: लातादी

http://www.videogeet.com/view_video.php?viewkey=5be01a996dc560274708&page=16&viewtype=&category=mr
अपने आपको स्थिर करके, मन , बुध्धि तथा विचार को मौन करने के बाद, अपने में स्थित आत्मा की पहचान होती है। तथा प्रणव नाद का स्वर प्रखर होता है और समस्त सृष्टि से, व्योम के आर पार से , प्रकाश , प्रवाहित होकर, आत्मा के साथ ऐक्य स्थापित करता है और भेद नही रहता , अहम् का तथा परब्रह्म का और उस क्षण आत्मा स्थिर हो जाती है।

भजन, श्लोक, स्तुति तथा अनेक वाद्यों द्वारा संगीत से भी ईश्वर की आराधना की जाती है । मनुष्य , ईश्वर से जो माँगता है, ईश्वर उसे वही देते हैं । ये उनकी कृपा है। परंतु , जो भक्त , ईश्वर को , अपना सर्वस्व दे देते हैं और शरणागति अपना लेते हैं और ईश्वर में दृढ आस्था और विश्वास स्थापित करते हैं, उन्हें ईश्वर, अपना प्रेम प्रदान करते हैं । भक्ति का स्वीकार और ईश्वर की अनुकम्पा का प्रसाद , तभी प्राप्त होता है। ईश्वर भक्त को सर्वस्व मिल जाता है।
श्री रमन महर्षि : अरुणाचल गिरी पुन्य धाम जिनका प्रिय आवास रहा जिनकी जीवनी आज भी पढ़नेवालों को चकित कर देती है
वे भारत भूमि पर जन्मे , एक उच्च कोटि के संत हैं।
ईश्वर प्राप्ति हेतु किए रमन महर्षि के प्रयास आज के युग में , हमें , उत्सुक करते हैं, ये जानने के लिए के
किस तरह साधारण मनुष्य , आत्मा की मुक्ति प्राप्त करता है।
उसके लिए किन प्रयासों की आवश्यकता होती है ?
किस मार्ग पर चलना होता है ?
ऐसे प्रश्न , उत्तर के रूप , रमन महर्षि, राम कृष्ण परम हंस ठाकुर
जैसों के जीवन से हमें मिलते हैं।
पोँडिचैरी के अरविन्द तथा माता जी ने आध्यात्म के मार्ग पर चल कर ,
स्वतंत्र भारत माता की कल्पना को साकार किया।
आज भी उनका प्रभाव उस क्षेत्र में , स्पष्ट है ।
कई भक्त कवि भारत के मध्य युग में भी हुए।
गुजरात के नरसिंह मेहता भी संत कवि हैं जिन्होंने ये गाया ,
" मुक्ति ना मांगूं , स्वर्ग ना मांगूं, मांगूं , मनुज अवतार रे ....."
बार बार मनुष्य शरीर धारण कर , अपने कृष्ण कनैया को नित भजने की इच्छा , नरसिंह ने प्रकट की थी।
ये भक्ति की पराकाष्टा है ।
जब आत्मा , मुक्ति का त्याग कर, सच्चिदानंद , परमात्मा का नित्य सानिध्य
अधिक सुंदर है, ऐसा कह , भक्ति की सरिता में डूब जाना पसंद करती है।
ये ऐसा ही प्रसंग है ।
नरसिंह का राग "केदार " गायन , स्वयं श्री कृष्ण को बहुत प्रिय रहा -
एक बार नरसिंह जी को बनिए की दूकान से अनाज लाने का
मेहता जी की पत्नी ने आदेश दिया -
क्या करते महतो ? गए ...अब, बनिए ने उनसे कहा,
" कोई माल्यवान वस्तु है क्या , जिसे गिरवी रखोगे ?
ताकि मैं, अनाज दूँ ? "
मेहता ने अश्रु पूरित आंखों से कहा,
" मेरा केदार राग है "
तब वही बंधक बना लिया गया !
नरसिंह ने अन्तिम बार प्रभू के लिए भजन गाया और अनाज लेकर
घर चले गए ...
कई माह बीते परन्तु नरसिंह ने केदार राग ना गाया
तब स्वयं कृष्ण भगवान् अधीर हो गए ॥
एक धनिक सेठ का भेष धर कर , उसी बनिए के पास पहुंचे और कहा,
" नरसिंह मेहता का केदार राग बंधक किए हो, उसे मुक्त करो ॥
..................ये लो तुम्हारा धन "
जब नरसिंह भगत को इस बात का पता चला तब, प्रेमाश्रु बह चले
उनके नेत्रों से और उन्होंने केदार राग गा कर अपने शामालिया ( सांवरिया श्री कृष्ण जी को ) रीझाया ....
ऐसी कई अलौकिक घटनाएँ नरसिंह मेहता के जीवन के साथ जुडी हुई हैं ।
ईश्वर क्या हैं ? वे बाल मुकुंद हैं । एक पर्ण पर , बिराजित, माया का खेल खेलते ,
आनंद में लीन , मुस्कुराते बाल शिशु । वही हर आत्मा का पूर्ण स्वरूप हैं ।
मुकुन्द श्री कृष्न का नाम भी मुक्तिदाता स्वरुप है
अविमुक्त, अविनाशी, असीम, अनंत, वाणी वाक्` से परे जिन्हें शब्दों से दर्शाना कठिन है।
आत्मानुभूति से ही हरेक आत्मा, उस परम तत्त्व पूर्ण ब्रह्म का दर्शन कर पाती है।
(आप से अनुरोध है ,"मुक्ति " क्या है ?
आपके विचार क्या हैँ आपभी कमेन्ट करीये और साझा करेँ ..... )

- लावण्या



Tuesday, February 3, 2009

तत्` त्वम्` असि

!! ॐ !!

एक समय की बात है जब भारत में श्वेतकेतु नामक युवक रहता था । उसके पिता उद्दालक थे। उन्होंने एक दिन प्रश्न किया, " क्या तुम्हे रहस्य ज्ञात है ? जिस प्रकार सुवर्ण के एक कण की पहचान से समस्त वस्तुएं जो सुवर्ण से बनी हों उनका ज्ञान हो जाता है भले ही नाम अलग हों, आकार या रूप रेखा अलग हों .... सुवर्ण फ़िर भी सुवर्ण ही रहता है। यही ज्ञान अन्य धातुओं के बारे में भी प्राप्त होता है। यही ज्ञान है ।

उद्दालक , अरुणा के पुत्र ने ऐसा प्रश्न अपने पुत्र श्वेतकेतु से किया।
उद्दालक : "पुत्र, जब हम निद्रा अवस्था में होते हैं तब हम
उस तत्त्व से जुड़ जाते हैं जो सभी का आधार है !
हम कहते हैं, अमुक व्यक्ति सो रहा है परन्तु उस समय वह व्यक्ति
उस परम तत्त्व के आधीन होता है ।
पालतू पक्षी हर दिशा में पंख फडफडा कर उड़ता है आख़िर थक कर,
पुन: अपने स्थान पर आ कर, बैठता है ।
ठीक इसी तरह, हमारा मन, हर दिशा में भाग लेने के पश्चात्
अपने जीवन रुपी ठिकाने पर आकर पुनः बैठ जाता है।
जीवन ही व्यक्ति का सत्य है।
मधुमखियाँ मध् बनाती हैं। विविध प्रकार के फूलों से वे मधु एकत्रित करतीं हैं जब उनका संचय होता है तब समस्त मधु मिल जाता है और एक रस हो जाता है। इस मधु में अलग अलग फूलों की सुगंध या स्वाद का पहचानना तब कठिन हो जाता है। बिल्कुल इसी प्रकार हर आत्मा जिसका वास व्यक्ति के भीतर सूक्ष्म रूप से रहता है, अंततः परम आत्मा में मिलकर , विलीन हो कर, एक रूप होते हैं ।
शेर , बाघ, भालू, कीट , पतंगा, मच्छर, भृँग, मनुष्य सभी जीव एक में समा जाते हैं !
किसी को इस ज्ञान का सत्य , विदित होता है, अन्यों को नहीं !
वही परमात्मा बीज रूप हैं बाकी सभी उसी के उपजाए विविध भाव हैं !
वही एक सत्य है -
वही आत्मा है -
हे पुत्र श्वेतकेतु, वही सत्य तुम स्वयं हो !
तत्` त्वम्` असि !
तद्पश्चात` उद्दालक ने अपने पुत्र श्वेतकेतु से कहा की वह एक बीज ले कर आए। सघन , हरे भरे , विशालतम पेड़ का बीज , खोज कर लाने का कहने पर, श्वेतकेतु ने , पितु आज्ञा का पालन किया और एक नन्हा बीज लेकर , सामने रखा।
उसे कहा गया,
" इस बीज को तोड़ो " ...
श्वेतकेतु ने आज्ञा का अनुसरण किया।
अब , उद्दालक ने श्वेतकेतु से प्रश्न किया,
" इस भग्न हुए बीज के भीतर, तुम्हे क्या दीखाई देता है, बताओ "
श्वेतकेतु ने, ध्यान से देखकर कहा,
" इसके भीतर , कुछ भी नही है पिताश्री ! "
उद्दालक ने समझाते हुए कहा,
" देख रहे हो पुत्र, जिस विशाल, हरे भरे घने पेड़ का जन्म जिस नन्हे से बीज से हुआ , उसके भीतर कुछ भी नही है जैसा तुम देख कर, स्वयं जांच कर बतला रहे हो, बिल्कुल उसी तरह, हमारी आत्मा भी इस नन्हे बीज की तरह , उसी परमात्मा का ही स्वरूप है, हम उसी से उत्पन्न हुए हैं, उसी का अंश हैं जो , अविनाशी, परम सत्य , आनंद घन , चित स्वरूप है ।

हे पुत्र श्वेतकेतु, तुम वही हो !
तत्` त्वम्` असि !!
( छंदोग्य उपनिषद से : ~~~ )

अनेक गुणों से युक्त परमात्मा को , मनुष्य अपनी श्रध्धा और विश्वास का निरूपण करने के लिए, उसे मन्दिर बना कर , विविध स्वरूप देकर , प्रतिष्ठित कर , पूजा कर , नमन करते हुए , स्वयं अपनी आत्मा की पहचान करने का प्रयास करता है।

निर्गुण तथा सगुण से परे ईश्वर का स्वरूप बिरले ही समझ पाते हैं। परम योगी, अवधूत या महा ज्ञानी विविध प्रयास करते हुए , पर ब्रह्म को समझने के प्रयास करते हैं जब के बहुत कम , इस अलौकिक ज्ञान को प्राप्त करते हैं


सिध्ध, बुध्ध , ग्यानी और भक्त , इस आत्मा की पहचान तथा परमात्मा को समझने की इस यात्रा में , जीवन पूर्ण करते हैं ....
सिर्फ़ एक ही कामना शेष रहती है जो है, मुक्ति का प्रयास !
- लावण्या