Wednesday, July 29, 2009

आओ , बरखा बून्दनिया

यह कला कृति श्रीमती सुशीला नरेंद्र शर्मा (मेरी अम्मा ) द्वारा हलदनकर आर्ट इंस्टिट्यूट में , बनाई गयी थी ।
ऐसे बिजली और बरखा का तांडव प्रकृति दिखलाती है तब, सारे जीव, अपने अपने आश्रय खोज कर, साँस रोके, सहम जाते हैं और बरखा का जल, जीवनदायी होता है पर कभी कभार तबाही भी बरपा देता है व उसके खौफ से मनुष्य डरते हैं। जीवनदात्री, स्त्री का शांत स्वरूप भी इसी प्रकृति के  शांत स्वरूप की तरह मंगलदायिनी  सा होता है । कालिका के कोप से , भक्त तो क्या , असुर और देवता तक डरते हैं । यही कालिका जब शांत स्वरूप लेकर, भक्त की मनोकामना पूर्ण करतीं हैं तथा अपने भक्त को  सुफल देतीं हैं तब भक्त स्वयं को मुक्ति के मार्ग पर आगे बढाए या तपस्या करे उस का फल भी माँ भगवती कृपावश देतीं हैं। इसी कारण वे , भगवती कहलातीं हैं । अपनी संतान की भूख शांत करनेवाली, माता अन्नपूर्णा कहलाती है । धन सम्पदा प्रदायिनी , महालक्ष्मी प्रसन्न होते ही, ' भरे भंडार वाली माता ' कहलातीं हैं ।देवी माँ का एक रूप भय और शोक देता है तो दूसरा , सुख और शांति !
जीवन के हरेक पल में , धुप और छाया , सुख और दुःख , क्रोध और शांति , अग्नि और जल का विरोधाभास महसूस करता है इंसान !इन विरोधीभासी  अनुभूतियों में , जो सुखद है वही , प्रिय होता है । जिसे याद करने को मन करता है ।यही मनुष्य का स्वभाव है । 
यहाँ अमेरिका में आज दिनभर बरखा की रिम - झिम होती रही । कुछ समाचार भी सुने जिन में से एक यह था कि २ सुंदर स्त्रियों का  देहांत हो गया। जिस के बारे में सुन कर मन उदास हो गया ।इस क्षणभंगुर जीवन और विरोधाभास का पुन: ध्यान हो आया । आपने भी सुना होगा , जयपुर राज्य की महारानी गायत्री देवी का निधन हो गया । दुःख हुआ।  सिने तारिका , लीला नायडू जिन्होंने फ़िल्म अनुराधा में काम किया था वे भी गुजर गयीं ।ईश्वर इन की आत्मा को शांति दे .....
 
नीचे जो तस्वीर है उस में स्व राज कपूर जी की माता जी श्रीमती राम सरणी देवी, पृथ्वी राज कपूर की धर्म पत्नी हैं । हम उन्हें ' चाई जी ' कहकर बुलाते थे और वे भी बड़ी सुंदर और सुशील नारी थीं । वे अपने पति के जाने के १४ दिनों में , चल बसीं थीं । आज इनकी पड़ पोती , मशहूर सिने तारिका है - करीना कपूर , को आज के युवा खूब पहचानते हैं । जीवन चक्र की गतिमानता का यही एक स्वरूप है , जो हम समय के अन्तराल से , अनुभव करते हैं और इस जीवन के बहते प्रवाह को , पहचान पाते हैं । जो आज है वह कल नही रहेगा , जो कल था वह , काल के गाल में , समा जाएगा । इसीलिये, आज को पहचानो और आज जो है, उसी को अपना मानो ।
आज नई सुबह,
रिम झिम बूंदों के संग आयी है
नई सुबह आयी है,
उस का स्वागत है
आओ, नए पैगाम लेकर आओ ,
अपनी सुहानी रुत के नजारे
दिखला  जाओ ,
आओ भी तो तुम ऐसे की खुशियाँ        आओ ~
जमाने के हर दस्तूर को बदल डालो,
अपनी भीनी भीनी कशिश से ,
हर भीगी आंखों को , सहला जाओ ।
आओ ...आओ ..आओ ॥
हे बरखा , बिजली , बादल छाओ ।
हर जलते दिल को ठंडक देते जाओ ।
बरसो, हलके हलके , डूब जाए मन
गिनते हर पल , यादों के मंजर ,
बन बुंदनियाँ मन को भाओ , 
आओ आओ ,
बरखा बून्दनिया , आओ 
मेरे मन पाखी को हर्षाओ ।।
-लावण्या

Thursday, July 23, 2009

किसने किया किस का इंतज़ार ?
क्या पेड़ ने फल फूल का ?
फल ने किया क्या बीज का ?
बीज ने फ़िर, किया पेड़ का ?
हर बार, ज़िंदगी जीत गई !
प्रेमी ने पाई परछाईं ,
अपने मस्ताने यौवन की ,
प्रिय की कजरारी आंखों में ,
शिशु मुस्कान चमकती - सी ,
और, उस बार भी ज़िंदगी जीत गई !
हर पल परिवर्तित परिद्रश्यों में,
उगते रवि के फ़िर ढलने में,
चंदा के चंचल चलने में,
भूपाली के उठते स्पंदन में,
रात , यमन तरंगों में ,
हर बार, ज़िंदगी जीत गई !
साधक की विशुध्ध साधना में,
तापस की अटल तपस्या में,
मौनी की मौन अवस्था में ,
नि: सीम की निशब्द क्रियाओं में,
मुखरित, हर बार ज़िंदगी जीत गई !
- लावण्या


सूर्य ग्रहण , आया और चला गया । विश्व में , श्रद्धालु, भक्त जन की भीड़ , नदी , सरोवर , समुद्र तथा ईश्वर आराधना के पवित्र स्थलों पर देखी गयी ।
अभी तक, मनुष्य अपने आसपास हो रही विविध घटनाओं को पूरी तरह समझ नही पाया है ।
हाँ , विज्ञान ने , अवश्य , बहुत प्रगति कर ली है ।
तकनीकी आविष्कारों ने दूर संचार के नित नए आविष्कारों की मदद से , पृथ्वी के निवासी ,
बहुल मानव समुदाय के लिए , समाचार संप्रेषण के जरिए , हर नए सूरज के साथ
नवीन गतिविधियों का नज़ारा पेश करने का , काम , द्रुत गति से परोसना जारी रखा हुआ है ।
वेब पर , कई जगह , सूर्य - ग्रहण के रोमांचकारी चित्र देखे ।
सूर्य देव , हमारे सौर मंडल के प्रमुख शक्ति पुंज , अन्धकार और वलय से ग्रसित दिखे ।
राहू - केतु , शायद , अपना जघन्य कृत्य कर रहे थे !
पता नहीं इस का दूरगामी परिणाम क्या होगा ?
जो भी घटेगा , उसका इतिहास , ही साक्षी रहेगा ।
मनुष्य कर्म और मान्यताएं , समय और युग के साथ साथ बदलतीं हैं ।

हमारी पृथ्वी को गर्म होने से रोकने के लिए , ये भी सुझाव दिया गया है के , हर सड़क , हर घर की छतों को , सुफेद रंग से रंग दिया जाए तब प्रकाश कीरने , पुन: व्योम में , चलीं जाएँगीं और इतनी ऊर्जा का संरक्षण होगा की जिससे कई लाख शहरों को बिजली मिल पायेगी । क्या पता , भविष्य में , ये सुझाव कार्यान्वित भी किया जाए ! क्या पता -
बचपन में , याद है जब भी ग्रहण लगता और ख़त्म होता तब ना जाने कहाँ से, दान मांगने वालों के स्वर ,
गलियों में गूँज उठते ,
" दे दान .... छुट्टे ग्रहण ...."
अम्मा , पुराने वस्त्र, अन्न , फल , रुपया इत्यादी तैयार रखती और उन्हें दे देतीं थीं !
आज वो द्रश्य फ़िर , याद आ गया ।
पापा जी के घर पर , साधू, बाबा , पीर फ़कीर , जोगी , ब्राह्मण , पण्डित लोगों का तांता लगा रहता था ।
सभी को श्रध्धानुसार और जो भी बन पड़ता दिया जाता ।
कई साधू , ऐसे भी होते थे जो कुछ ख़ास चीज , भी माँगा करते थे ।
जैसे एक साधू बाबा ने पापा जी से , एक धोती , माँगी थी ॥
और मुझे याद है, पापा जी ने अपनी सात - आठ धोतियाँ उठाईं और उन्हें पुछा ,
" आपको कौन सी पसंद है ? वही ले लीजिये ! "
मानो साधू बाबा की भी अपनी चोइस हो !!
ऐसी कई बातें , आज भी , फुर्सत के पलों में , याद आ जातीं हैं ।
जीवन धारा , बहती जाती है ।


ये शक्ति और ऊर्जा का महासागर है , मंथर गति से , बहता अनेकानेक जीव को अपने ,
जलधारा में समेटे , अबाध गति से बहता रहेगा ।
आना - जाना , जीव - माया का खेल , यूँ ही चलता रहेगा ।
एक लक्षण जो उजागर है वह , सातत्य और जीव का होना है ।
जिसे हम , मनुष्य , हमारी " ज़िंदगी " कहते हैं और जब तलक साँसें चलतीं रहतीं हैं ,
ज़िंदगी के संग हमारा रिश्ता , बंधा रहता है ।

यही धर्म है, यही विज्ञान है और यही है सबसे बड़ा सच !

बाकी जो भी , है, सब डोर हैं इस के संग बंधी हुई ...............
विशाल व्योम के खुले , पट पर, उडती हुई , एक पतंग ...
जिसका साँसों के तार से बंधना और समय के किसी मोड़ पर टूट कर , विलीन हो जाना ..............
अपने रंग की चमक को , एक नन्हे बिन्दु में , समाकर , लोप हो जाना , यही जीवन है ।
जीत सदा से होती है, "ज़िंदगी " की !!
इसी लिए मैंने लिखा --
" हर बार, ज़िंदगी, जीत गई ! "
- लावण्या
























Saturday, July 18, 2009

रचना से रचियेता तक : क्या ब्लॉग लेखन , साहित्य है ?

" उड़न तश्तरी " के मशहूर समीर लाल " समीर " जी
श्री ज्ञानदत्त पाण्डेय जी Gyandutt Pandey जी
ज्ञानदत्त पाण्डेय की मानसिक हलचल
http://halchal.gyandutt.com/
नत्तु पांडे के साथ , झूले पर झूलिए
नेट पर फैला साइबरित्य :
ये आलेख इन्होने लिखा और साहित्य और ब्लॉग पर लिखा जानेवाला आजके युग का जितना भी लिखा जा रहा है उसके लिए
ये नया शब्द सुझाया - " साइबरित्य "
" शहर बने। जब गांव शहर की ओर चले तो सबर्ब (Urban>Suburban) बने। अब लोग सबर्ब से साइबर्ब (Suburb>Cyburb) की ओर बढ़ रहे हैं। की-बोर्ड और माउस से सम्प्रेषण हो जा रहा है। नई विधा पुख्ता हो रही है। बन्धुवर, यह गांव/शहर या सबर्ब का युग नहीं, साइबर्ब ..."


टिप्पणियां [25] पसंद[5] बार पढ़ा गया[49]
http://udantashtari.blogspot.com/

" उड़न तश्तरी " के मशहूर समीर लाल " समीर " जी
हिन्दी ब्लॉग से
जो कोई भी इतेफाक रखता है ,
उनके लिए ये नाम अपरिचित नहीं ! :)
ऐसा कहना शायद अंडर स्टेटमेंट हो !
उन्होंने भी प्रश्न किया था, के
" ब्लॉग और साहित्य में क्या फर्क है
कोई बताये "
आज पुराने कागजात सहेजते हुए,
एक पुरानी हस्त लिखित प्रति मिली है ।
षड लिँग व्याख्या :
(वही आप के समक्ष प्रस्तुत कर रही हूँ ! )

उपक्रमोपसँहाराव्भ्यासो पूर्वता फलम्`
अथर्वादोपपती च लिँग तात्पर्यनिर्णये

रचनाकार को अपने आलेख / कृति के विषय मेँ
६ मुख्य नियमोँ का पालन करना होता है ।
इसे षडलिँग व्याख्या कहते हैँ ।
इन छ: आयामोँ का विधिवत निरुपण होने से "कृति" सम्पूर्ण बनती है ।

१ ) उपक्रम : उपसँहार - यह प्रथम चरण है जहाँ विषय,
विवेचन सँबँधी कथ्य स्पष्ट हो जाने चाहीये ।
जिससे पाठक को विषय के बारे मेँ प्रथम " सत्य " ज्ञात हो सके आदि से कृति के अँत तक " एक समता " विषय सँबँधी रहे,
इसकी भी रचनाकार को सावधानी बरतनी होती है ।
२ ) अभ्यास : रचनाकार अपनी कृति के द्वारा विषय के " अभ्यास " का निरुपण करता है अपनी रचना / कृति मेँ, रचनाकार का क्या उद्देश्य रहा
है उस सत्य से कृतिकार पाठक को परिचित करवाता है
" विषय विवरण " क़ृतिकार की विषय के प्रति
समझ और विषय के अध्ययन व मनन से ही
" नव रचना " प्रकाश मेँ आती है ।
३) अपूर्वता : " नवीनता " हर रचनाकार अपनी रचना के माध्यम से
कुछ नई बात कहने का प्रयास करता है।
ईश्वर ने हर प्राणी को "अपूर्वता " प्रदान की है ।
व्यक्ति विशेष है क्योँकि,
हर व्यक्ति अपनी अनूठी प्रतिभा , समझबूझ ,
विचारोँ तथा लाक्षणिकता क स्वामी है ।
रचनाकार भले ही पुराने कथ्योँ को दोहराये ,
पुरानी कहानी भी
हर नये कहानीकार के द्वारा नवीन स्वरुप मेँ
उभर कर सामने आती है ।
४) परिणाम : कृति की रचना के अँत मेँ " फल " होना चाहीये
रचनाकार क्या कहना चाहता है ?
रचनाकार एक स्वतँत्र व सशक्त नया स्वर है ।
उसकी कृति समाज को क्या "सँदेसा " देना चाहती है ?
रचनाकार को समाज के प्रति अपना उत्तरदायित्तव कृति
के "परिणाम " या " फल " द्वारा प्रतिपादित करना होता है ।
५) विस्तार : फल या कृति के विषय की अधिक जानकारी ,
कृतिकार को विस्तार से पाठक के सामने रखनी होती है ।
कृति के विषय - विशेष की प्रशँसा कृति मेँ निहित होनी चाहीये ।-
तभी रचनाकार अपनी कृति के विशय मेँ तथा विषय सामग्री के विषय मेँ ,
पाठक के मन पर गहरी छाप छोड पाता है ।
विस्तार से किया गया वर्णन, पाठक को आकृष्ट करता है ।

६ ) समापन - कृति को समेटते हुए रचनाकार को अपनी बात को पूर्ण करना चाहीये और अनेक प्रश्न या मनोमँथन पाठक के लिये छोडते हुए
"इति " कह्ते हुए
अपनी बात को विराम देना भी उतना ही आवश्यक है
जितना उपसंहार से
कथानक का आरँभ करना होता है ।
एक कुशल रचनाकार इतनी बातोँ पर ध्यान देगा
तब अवश्य एक सर्वथा नवीन तथा उत्कृष्ट कृति की रचना सँभव होगी -
और हाँ समापन करते हुए ,
हम आप सभी को इतना ही कहेंगे ,
मज़े से लिखिए , आपका ब्लॉग है !
साहित्य के विभिन्न मठाधीशोँ तथा रखवालोँ के कोप से डरीयेगा नहीँ ना ...बस्स !
आप अपने मन की तरँगोँ को विश्व जाल पर
सुँदर फूल की तरह आरोपित कर दीजिये ॥
कहीँ दूर तलक इसकी खुश्बु ....जायेगी....
ऐसी हवा चली है ..
- लावण्या

Sunday, July 12, 2009

सुश्री सुब्बालक्ष्मी / कैसे कैसे लोग आए और चले भी गए .............

Madurai Shanmukhavadivu Subbulakshmi (Tamil: மதுரை சண்முகவடிவு சுப்புலட்சுமி, Mathurai Caṇmukavaṭivu Cuppulaṭcumi
सुश्री सुब्बालक्ष्मी !
यही नाम है " भारत रत्न " से सर्व प्रथम विभूषित किए जानेवाली इस महान गायिका का ! इन्होने , तमिल, तेलेगु, संस्कृत , हिन्दी, मलयालम, ,कन्नड़, बंगाली, गुजराती और मराठी भाषाओं में भी गीत गाये थे ।
उस्ताद बड़े गुलाम अली खान साहब उन्हें सदा "सुस्वरलक्ष्मी " कहकर बुलाते थे । सुश्री सुब्बालक्ष्मीजी का जन्म , सितम्बर १९१६ को मदुरै तमिलनाडु में हुआ था ।उनका प्यार से बुलाया जानेवाला नाम था  "कुंजमा " !
सं.१९४७ भारत स्वतन्त्र हुआ और उसी अरसे में "मीरा " राजपूतानी भक्त संत कवियत्री की जीवन गाथा पर आधारित फ़िल्म बनी जिस मे,
सुश्री सुब्बालक्ष्मी जी ने इतना सजीव पात्र निभाया था के लोग उन्हें आधुनिक युग की मीरा जी कहने लगे ।
" वेंकटाचल सुप्रभातम " सुश्री सुब्बालक्ष्मी जी के द्वारा गाया गया है  जो तिरुपति बाला जी की स्तुति स्वरूप आज भी प्रातः काल मन्दिर में, बजता है ।
विष्णु सहस्त्र नाम, भज गोविन्दम, बाला जी पंचरत्न माला ये भी सुब्बालक्ष्मीजी के तपस्विनी के अमृत स्वर पा कर हर श्रोता को आज भी अभिभूत करने में सक्षम हैं ! तमिल भाषी २०० प्रमुख व्यक्ति विशेष की जीवन गाथा में से एक ना सुश्री  सुब्बालक्षमी अम्मा का  भी नाम है ।
( क्लिक करें )
http://www.tamilnation.org/hundredtamils/mssubbulakshmi.htm

पण्डित नरेंद्र शर्मा जी ने कई बरसों पहले, दक्षिण भारत में जन्मी सुश्री सुब्बालक्ष्मी जी की मीरा फ़िल्म के हिन्दी चित्रपट के लिए भी गीत लिखे थे ।
मीरा जी का पात्र, सुब्बालक्ष्मी जी ने , बखूबी निभाया । १८ या १९ गीत से सजी इस फ़िल्म के लिए संगीत दिया  एस. वी. वेंकटरमण जी तथा रमानाथ व श्री नरेश भट्टाचार्य जी ने ! फ़िल्म के दीग्दर्शक थे एलीस आर डंकन !तमिल भाषा में बनी अत्यन्त सफल "मीरा " के गीतों को हिन्दी में बनी "मीरा " के लिए पण्डित नरेंद्र शर्मा ने गीत कथा के अनुरूप लिख दिए थे ।
भजन : बसों मोरे नैनं में नंदलाल :
राधा जी के ह्रदय के भाव मीरा जी के भजनों में मुखरित हुए थे ।
( क्लिक करें )
Narendra Sharma : Meera baso more nainan mein

प्रेम, भक्ति , मुक्ति :
हाँ, यही नाम था उस रिकॉर्ड का जिसमे संगीत दिया था श्री ह्रदयनाथ मंगेशकर जी ने और गीत लिखे थे पण्डित नरेंद्र शर्मा ने और स्वर था
भारत कोकिला सुश्री लता मंगेशकर दीदी का !
http://www.raaga.com/channels/hindi/movie/HD000710.htmlasharan sharane shyaam hare : अशरण शरने श्याम हरे

एक और फ़िल्म थी जीवन ज्योति, सं.१९५४ में इस फ़िल्म का
 गीत के बोल हैं ,
" मन शीतल , नैना सुफल , जोड़ी जुगल सुहाई .....
ओ देखो , देखो , नज़र लग जाए ना "
जिसे संगीत्बध्ध किया था सचिन देव बर्मन जी ने और इस फ़िल्म के दूसरे गीत  साहीर साहब ने लिखे थे ।
नवकेतन बैनर में बनी फ़िल्म "आंधियां " जो स्मृति लोप बन गयी है उसका संगीत दिया था उस्ताद अली अकबर खान साहब ने जो अभी संगीत जगत को सूना कर चल बसे हैं ।
" घनश्याम के हैं, घनश्याम नयन
मन मोरा बना , मन मोर सखी "
ये गीत लिखा था पण्डित नरेंद्र शर्मा जी ने ...
स्वर दिया था श्रीमती लक्ष्मी शंकर जी ने !

आज इन महान कलाकारों को याद करते हुए ,
यही सोच रही हूँ, कैसे कैसे लोग आए और चले भी गए .............
जो आज हमारे साथ हैं, जैसे दीदी ( लतादी ) और ह्रदयनाथ भाई ,
और कई सारे ऐसे ही अविस्मरणीय  नाम धारी कलाकार !
उन्हें हम , ना भूलें ...

क्यूंकि ये एक बहुत प्राचीन परम्परा और कला के प्रतिनिधि हैं ।

मेरी इससे पहले लिखी प्रविष्टी पर कई नए और पुराने
हिन्दी ब्लॉग जगत के साथी पधारे और कमेन्ट कर
मुझे अनुग्रहित किया उन सभी की आभारी हूँ ।
आते रहियेगा .........
आज कल ज़रा व्यस्तता बढ़ गयी है ,
कई नए आलेखों को देख नही पाई !
उसके लिए , माफी चाहती हूँ ..........
समय मिलते ही फ़िर आप सभी के साथ ,
फ़िर उसी तरह नियमित रहने की कोशिश करूंगी ।
तब तक ...........
आप सभी के लिए शुभकामना प्रेषित हैं ।
स स्नेह,
- लावण्या

Saturday, July 4, 2009

कल ४ जुलाई थी .आप सोच रहे हैं ....हाँ ..तो ...? क्या महत्त्व है इस दिन का ?

ये तस्वीर रोजा पारकर , नामक महिला की है जिसने , श्वेत प्रजा के लिए सुरक्षित रखी बस की सीट पर बैठ कर, अश्वेतों के लिए , ऐसे क़ानून को मानने से इनकार कर दिया था
ऐसे क़ानून से , उसके अपने,
निजी मानवाधिकार का हनन हो रहा था ।
तभी से, रोजा पारकर , एक मिसाल बन गयीं थीं !
आज़ादी या स्वतंत्रता की लड़ाई इसी तरह,
निजी और सार्वजनिक स्तर पर लडी जाती है ।
डेमोक्रेसी में सर्व जन हिताय,
बहु जन सुखाय का विशेष ध्यान रखा जाता है ।
हरेक स्वतन्त्र देश में इस , बात का ख्याल रखा जाता है के
व्यक्ति और देश की स्वतंत्रता को आंच ना आने पाये ।
फ़िर भी, इस प्रयास में
कई रूकावटे और मुश्किलें भी आती ही हैं ।

स्वतंत्रता क्या है ? स्वातंत्र्य - दिवस क्या है ?

अजी , भारत के लिए २६ जनवरी और १५ अगस्त का जो महत्व है वही दुनिया के अन्य देशों के लिए,
साल के अलग दिवस पे रहता है ।
मेक्सिको का स्वतँत्रता दिवस है सेप्टेम्बर १६


हंगरी के लिए , अगस्त २० !
जिसे ...संत स्टीफन दिवस कहा जाता है और बुडापेस्ट में बहुत धूमधाम से मनाया जाता है !
दान्युब नदी के किनारे पटाखोँ को रात्रिके काले आकाश मेँ छोडकर, प्रकाश से जगमगा दिया जाता है !
फ्रांस जुलाई १४ को आज़ादी का पर्व मनाता है !
१४ जुलाई को , पेरिस शहर जो फ्रांस की राजधानी है
वहां लोग खुशी से घूमते दीखलाई देते हैं ।
इंग्लैंड और समस्त यु के में गाय फॉक्स दिवस नवंबर ७ को मनाया जाता है ।

आयरलैण्ड और स्कॉट्लैंड तथा इंग्लैंड , मिलकर , यु के कहलाते हैं
ये सारे भूभाग , शामिल होते हैं और स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं ।

उत्तर अमरीका माने यु एस ऐ --
४ जुलाई को स्वाधीनता दिवस मनाता है और पूरे उत्तर अमरीकी राज्य में , इस दिन , बहुत बड़े पैमाने पे स्वाधीनता का पर्व मनाया जाता है । कल सभी को छुट्टी थी !

आप को बतला दूँ, इस दिन , यहाँ क्या क्या होता है !
अकसर, यहाँ , सुबह से ही , बारबेक्यू माने अंगीठी पे ,
बाहर खाना तैयार करके , दोस्तों के साथ और परिवार के साथ मौज मस्ती में , दिन गुजार के मनाया जाता है।
रात को काले होते आकाश को पटाखों से , प्रकाशित होता हुआ देखने सभी पहुँच जाते हैं ।
अमरीकी राष्ट्र गीत की धुन भी बेफीक्री और मौज से भरी हुई है !
उत्तर दिशा के प्रान्तों में रहनेवाले अमरीकी को यांकी कहते हैं गीत उसी पर है ,
Yankee Doodle went to town,
A-Riding on a पोनी
He stuck a feather in his hat,
And called it macaroni। :)
(क्लिक करें सुनिए ये गीत की धुन ) ~~
. Yankee Doodle : (by कैर्री रेह्कोप्फ)
और ये है अमरीका का जन गीत :
"The Star-Spangled Banner"The Star-Spangled Banner :
चित्र देखें :
http://www.rockyou.com/show_my_gallery.php?source=ppsl&instanceid=116813018
ये उत्तर अमरीकी नक्शा है ।
यहाँ के प्रमुख शहरों के नाम भी इस पर लिखे हुए हैं ।

The Statue of LIBERTY माने स्वतंत्रा की देवी !

जिस के सर पर बना मुकुट , आज फ़िर रोशनी से जगमगाने की व्यवस्था की जायेगी। उत्तर अमरीका के , पूर्वी शहर न्यू यार्क के अटलांटिक महासागर में , स्वतंत्रता की देवी की अति विशाल मूर्ति ,
स्वाधीनता का प्रतीक मानी जाती रही है ।

यूरोप से आनेवाले , पहले , प्रवासी - नागरिकों का स्वतंत्रता की देवी ने ही स्वागत किया था । हाँ, अश्वेत प्रजा को जबरन , उत्तर अमरीका के खेत - खलिहान और खदानों में काम करने के लिए, गुलामी के बंधन में कैद करके , लाया गया था उन्हें , स्वतंत्रता , उत्तर और दक्षिण के प्रान्तों में , हुई , सिविल वोर के बाद ही प्राप्त हुई । उसका श्रेय प्रेजिडेंट अब्राहम लिंकन को मिला ।


आख़िरकार , अश्वेतों के प्रतिनिधि , ओबामा , भी राष्ट्र - प्रमुख बने ।
आशा करें , अब , अश्वेतों के लिए भी ,

कई नए मार्ग , प्रशस्त होंगे । अमरीकी गरुड़ को अपनी स्वतंत्रता का प्रतीक मानते हैं और ४ जुलाई को , खेल के मैदान में , गरुड़ को मुक्त आकाश में , उड़ान के लिए , खोल दिया जाता है और दर्शक ये द्रश्य देख खुश होते हैं !


न्यू यार्क शहर में बनी १०२ मंजिला इमारत भी अमरीकी गर्व का प्रतीक है अंपायर स्टेट बिल्डिंग ! ये मकान १०२ मंजिल ऊंचा है। इस मकान को जब बनवाया गया तब इसकी कुल लागत थी
$ ४० ,९४८ ,९०० !
इस मकान में , १ , ८६० सीढीयाँ ,
६ ,५०० खिड़कियाँ बनी हुई हैं और कई प्रेमी
इसकी सबसे ऊपर वाली द्रश्य दीर्घा गेलेरी

पे मिलना पसंद करते हैं ।
२ बार मैं ख़ुद भी इस स्काई स्क्रेपर की
१०२ वीं मंजिल पे पहुँची हूँ ।
जब मैं , पहली बार , गयी थी तब
आकाश से बर्फ झरने लगी थी ...
मानो आकाश कुसुम हमारा नये देश में स्वागत करने लगे ...

स्टेट बिल्डींग से आतिशबाजी का द्रश्य देखते हुए है आहा !! क्या नज़ारा है !! ऐसा भाव मन मेँ आता है ।
लिंक पे क्लीक करें : ~~
http://www.panoramas.dk/fullscreen2/full28.html

अब, इस धन संपन्न देश में , मनुष्य के साथ साथ, पालतू प्राणी के लिए भी , ख़ास दुकाने पशुओं के लिए भी , स्वादिष्ट , बिस्कुट तैयार करती है - एक जगह देखी थी कुतों के लिए बेकरी !! कुत्तों और बिल्लियों के लिए, ख़ास स्कूल भी होते हैं जहाँ उन्हें , शिष्ट और सभ्य बनाया जाता है !
;-)
उनके केश संवारने से लेकर, हफ्ते या महीने भर के लिए या एक दिन के लिए स्पा की व्यवस्था भी यहाँ मौजूद है !
कई तरह के बिज़नस हैं जी !
;-)

अमरीकी और भारतीय बच्चों में , एक फर्क ये देखा है , यहाँ अमरीका में बच्चे बहुत जल्दी प्रौढ़ हो जाते हैं । जिम्मेदारी निभाना सीख लेते हैं । काम का बोझा उनपे , १६ , १७ साल तक के होते ही लाद दिया जाता है ताकि वे अपना जिम्मा ख़ुद लें -

अपने खर्च से लेकर, अपनी शिक्षा , रहने, खाने पीने का इंतज़ाम , ख़ुद करें , ऐसा ही अमरीकी परेंट्स चाहते हैं । उसी के अनुरूप , बच्चों को तैयार किया जाता है ।
( परँतु भारतीय माता,
पिता अक्सर बच्चोँ की ज़िम्मेदारी निभाते रहते हैँ )

ये मैं, मध्य और उच्च वर्ग की बात कर रही हूँ -
- जो अनाथ या बहुत गरीब हैं,
उनके लिए सरकारी व्यवस्था होती है ।
एक बार मेरी बिटिया की ४ क्लास की पुस्तक में
ये वाक्य पढा था --
" अपनी खुशी तुम्हारे जीवन का मुख्य ध्येय होना चाहीये ! "
मैंने मेरे बच्चों को कहा, " इसके आगे ये भी जोड़ना जरुरी है,
" अपनी खुशी के लिए, दूसरों के मन को दुख भी ना पहुंचाया जाए
ये भी ध्यान रखना जरुरी है ! "
यहाँ, बच्चे वयस्क होने लगते हैं तब, घर के बाहर अमरीकी सभ्यता और दुसरे बच्चों का व्यवहार और अपने भारतीय घरों में हमारी अपनी सभ्यता से बसे घर का रहन - सहन, अलग लगने लगता है । उस समय, भारतीय सभ्यता की अच्छाईयां और यहाँ की कर्मठता और शिस्त्बध्धता को मिला जुला कर, अपनाई जीवन शैली का पाठ , भारतीय परेंट्स को , अगली पीढी को देनेका मुश्किल काम, करना पड़ता है ।

कई बच्चे बिगड़ते भी हैं । आज भारत में भी तेजी से बदलाव आ रहे हैं । कल की बात है, जब समलैंगिक रिश्तों को , मान्यता दी गयी । समाज व्यवस्था का भविष्य इस बदलते समय में , एक , प्रश्न , बन रहा है !
आगे क्या होगा ? रुढीवादी , परम्परा से लदे भारतीय समाज को अपनाए रखना हितवाह है क्या ?
या, बदलती मान्यताओं को , आगामी पीढी के लिए, हमें स्वीकार कर लेना चाहीये ?
ये प्रश्न अब, सिर्फ़ भारत के लिए नही, इस सिकुड़ कर ,
पास आ गए सम्पूर्ण विश्व के लिए, आवश्यक हो गया है --

समाज अपनी गति और रीति से आगे बढ़ता रहेगा और हमें , अपने लिए क्या हितकारी है ,
किस दिशा में हमारा "मंगल " है,
ये जानकर, आगे कदम रखने होंगे ।
-- लावण्या