Tuesday, September 25, 2018

सँस्मरण : भारतीय हिंदी और अमरीका

सँस्मरण : भारतीय हिंदी और  अमरीका :

प्रश्न : भारतीय जन - उत्तर अमरीका कब पहुंचे ? 
उत्तर : सं. १७९० मेँ, सबसे पहले, काला सागर पार कर के, भारतवर्ष के दक्षिण पूर्व में बसे मद्रास शहर  जिसे आज चेन्नई नाम से पहचाना जाता है वहाँ  से चले के एक अनाम व्यक्ति, उत्तर अमरीकी धरा के उत्तर पूर्वीय दिशा में स्थित अटलांटिक महासागर किनारे पर बसे मेसेच्य्सेट्स प्रांत के सेलम शहर की गलियोँ मेँ पहली बार पहुँचे थे।  
      
समय की धारा आगे बढती रही  और सं. १८२० से १८९८ तक ५२३ और भारतीय लोग अमरीका तक आये। सं. १९१३ तक ७००० और भारतीय भी अमरीका आ पहुंचे। 
सं. १९७१ मेँ, अमरीका में स्थापित केंद्र सरकार जिसे ' कोन्ग्रेस ' कहते हैं  इस कॉंग्रेस समिति ने भारतीयों के अमरीका आगमन पर रोक लगाई ।  
       
समय आगे बढ़ा।  सं. १९४३ मेँ जब चीन के अमरीका में आये अप्रवासीयोँ पर से रोक हटाई गई तब प्रेसीडेन्ट रुज़वेल्ट के बाद प्रेसीडेंट ट्रूमेन का  शासन काल था। 
३ जुलाई १९४६ मेँ " एशियन अमेरीकन सिटीज़नशीप एक्ट " पारित किया गया। भारतभूमि पर सं. १९४३ में,  ब्रिटिश हुकूमत की पकड़ इस समय कायम थी। विश्व युद्ध से सम्पूर्ण विश्व में अशाँति का वातावरण फैला हुआ था। 
                           
उत्तर अमरीका के पश्चिमी छोर पर, उस वक्त  "हिन्दी असोशीयेन फ पसेफिक कोस्ट " सँस्था की स्थापना हो चुकी थी। इस सँस्था  ने तारीख १ नवम्बर १९१३ में अपनी मुख पत्रिका "गदर"  मेँ निम्न घोषणा प्रकाशित की थी ~ 
" हम आज विदेशी भूमि पर अपनी भाषा मेँ, 
ब्रिटीश सरकार के विरुध्ध युध्ध की घोषणा करते हैँ "  इस सँस्था से सँबध्ध रखनेवाले भारतीय व्यक्ति थे ~ लाला हरदयाल, दलित श्रमिक मँगूराम और १७ वर्षीय इँजीनीयर करतार सिँह सरापा जैसे साहसी  कार्यकर्ता । 
'स्वातंत्र्यवीर  सरापा ' का नाम इतिहास की विशाल पोथी में कहीं खो गया है किन्तु आज हम श्रद्धा से नमन करते हुए, वीर सरापा को कर बद्ध श्रद्धांजलि देते हैं। 
 १६ नवम्बर १९१५ के अपयशी दिन, ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ अपने स्वतन्त्र विचार प्रकट करने के जुर्म में - १९ वर्षीय सरापा को भारत मेँ, फाँसी की सज़ा देते हुए मौत की सज़ा हुई । शहीद भगत सिँह -वीर  सरापा को अपना गुरु मानते थे । 
 वीर सरापा का अँतिम गीत था,  
" यही पागे, मशहर मेँ जबाँ मेरी बयाँ मेरा,
मैँ बँदा हिन्दीवालोँ का हूँ खून हिन्दी, जात हिन्दी,
यही मज़हब, यही फिरका,यही है, खानदाँ मेरा !
मैँ इस उजडे हुए भारत के खँडहर का ही ज़र्रा हूँ 
यही बस पता मेरा, यही बस नामोनिशाँ मेरा !"

ना जाने सरापा की अस्थियाँ गँगा मेँ मिलीँ या नहीँ ?? :-((
     सँत विनोबा भावे जी का कहना है कि " हिन्दी भाषा भारती, सँस्कृत की ज्येष्ठ पुत्री है ! आज हिन्दी भाषा की भागीरथी ~ विश्व के हर भूखँड मेँ बह रही है !जहाँ कहीँ एक भारतीय बसता है। हिँदी बोलनेवाला जहां कहीं भी रहता है, हिंदी भाषा वहां आबाद है। मेरी कविता ने कहा है, हम भारतीय जन मन मेँ कहीँ गँगा छिपी हुई है 
गँगा आये कहाँ से रे गँगा जाये कहाँ रे, लहराये पानी मेँ जैसे धूप ~ छाँव रे "
गायक श्री हेमँत दा की सौम्य स्वर लहरी जब भी सुनतीँ हूँ तब हिन्दी भाषा का मनोमुग्धकारी विन्यास, मन को ठीठका देता है, स्तँभित कर देता है !
यादें ~~ 
केलेन्डर के पन्ने सरसर्राते हुए, सालोँ की समँदर सी फैली धारा को पार करते 
सं. २००७ मई माह के समापन पर रुकी है। जून माह के बाद जुलाई मेँ, अँतराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन न्यु -योर्क शहर मेँ सम्पन्न हुआ था । 
यह हिन्दी का " परदेस " की भूमि पर हो रहा "महायज्ञ "ही  था। पिछले कई इसी तरह के सम्मेलनोँ मेँ-  हिन्दी की महान कवियत्री आदरणीया श्री महादेवी वर्मा जी ने भी समापन भाषण दिया था। 

 भाषा - भारती "हिन्दी" को युनाइटेड नेशन्स मेँ स्थान मिले ये कई सारे भारतीय मूल के भारतीयोँ की एक महती इच्छा है। यह  स्वप्न सत्य हो यह  आशा आज बलवती हुई जा रही है।  इस दिशा मेँ बहुयामी प्रयास यथासँभव  जारी हैँ। देखना यह  है कि उत्तर अमरीका के न्यु -योर्क शहर मेँ स्थित -  अन्तर्राष्ट्रीय सँस्था U.N.O. = ( यु.एन्.. )कितनी शीघ्रता बरतता है "हिन्दी" को स्वीकार करने मेँ ! 


न्यु योर्क शहर का इलाका जो मुख्य है उसे "मेनहेट्टन " कहा जाता है। 

इस का बृहद प्रदेश " न्यु -योर्क " कहा जाता है। 
न्यु -योर्क  का चहेता नाम है,  'बीग ऐपल" या फिर "गोथम सीटी '
 
 भौगोलिक स्तर पर यह  भूभाग पाँच खँडो मेँ बँटा हुआ है। जिन्हें  "बरोज़" कह्ते हैँ  नाम हैँ ~ ब्रोन्क्स, ब्रूकलीन,मनहट्टन, क्वीन्स और स्टेटन आइलेन्ड। 
इस भूभाग को ' डच ' मूल के लोगोँ ने सं. १६२५ मेँ बसाया। कुल  ३२२ क्षेत्रफल या ८३० किलोमीटर मेँ फैला यह विश्व का बृहदतम शहरी इलाका है जिसकी आबादी 
१८ .८ कोटि जन से अधिक है। यहाँ विश्व के हर देश व भूखंड से आये  लोग आपको दिखाई देंगें।
       ऐसे महानगर मेँ भारतीय दूतावास के सौजन्य से व भारतीय विध्या भवन के सँयोजन से (जिसके कर्णधार श्रध्धेय डो.जयरामन जी हैँ ), 
हिन्दी भाषा अंतर राष्ट्रीय सम्मेलन  होने जा रहा है। इस सम्मेलन मेँ कई सारे लोग, कमिटी मेँ काम कर रहे हैँ। स्वेच्छा से कार्य भार उठाये अपने रोजमर्रा के बहुयामी, व्यस्त जीवन से समय प्रदान करते हुए सहर्ष - सारी गतिविधियोँ मेँ हिस्सा ले रहे हैँ। 
जाहिर है कि जो सारे हिन्दीवाले न्यु योर्क शहर के आस पास रहते हैँ वे श्रमदान देने मेँ सक्षम हैँ। मेरी तरह हज़ारोँ मील दूरी के शहर मेँ रहनेवाले हिन्दी प्रेमीयोँ को इस समय बेसब्री से इँतज़ार करना ही नसीब है और सोचना कि, ' कब हम इस भव्य कार्यक्रम मेँ शामिल होंगें ! 'उत्साह इस बात का भी है और एक तरह की उत्कँठा भी है कि, " क्या होगा वहाँ पर ?"
आयोजन की सफलता पर सँदेह नहीं। परँतु यह  आशँका है कि, इस सम्मेलन के बाद अँतराष्ट्रीय स्तर पर  क्या हिन्दी को सम्मानित दर्जा, मिल सकेगा ?? या सिर्फ बुध्धीजीवी वर्ग की चेतना से जुडी हिन्दी भाषा -महज  सीमित दायरोँ मेँ बध्ध होकर प्रबुद्ध या ईलीट वर्ग की भाषा ही रह जायेगी? 
             हिन्दी के उत्थान मेँ कार्यरत अनेक हिन्दी प्रेमीयोँ से वहाँ मुलाकात होगी ये तथ्य उत्साह दे रहा है। "अभिव्यक्ति " व अनुभूति " की सँपादीक कवियत्री श्रीमती पूर्णिमा बर्मन जी सुना है शारजाह ( यु.ए.ई.) से पधार रहीँ हैँ। जिन से मेरी मुलाकात "काव्यालय" जाल घर के सौजन्य से करीब सं. १९९३ के करीब हुई थी। जब मैँने उन के लिखे कुछ दोहे उनकी वेब - पत्रिका पर  पढे और "ई- मेल"  से सम्पर्क किया था। जालघर ' काव्यालय ' = जिसे वाणी मुरारका जी ने स्थापित किया है और  वे कलकत्ता से संचालित  करतीँ हैँ काव्यालय पर  कई सारी हिन्दी काव्य रचनाओं का अनूठा  सँग्रह उपस्थित है।सुश्री वाणी मुरारका ने प्रोध्योगिकी विषय का सफ़ल उपयोग करते हुए व विश्वजाल मेँ हिन्दी के बढते कदम की नीँव रखी है और अपने जालघर पर अथक परिश्रम किया है। वे खुद भी अच्छी कविताएँ लिखतीँ हैँ और अपने वेब -मगेज़ीन मेँ निश्पक्षता से कई हिन्दी लिखनेवालोँ को स्थान देतीँ आयीँ हैँ और हिन्दी के लिये गहरी सँवेदना रखतीँ हैँ। 
        ख्यातनामा हास्य रस के सम्राट श्रीमान अशोक चक्रधर जी का आगमन भी सँभाव्य है ! अनुमान है कि, वे कवि सम्मेलन मेँ हमेशा की तरह छा जायेँगे और एक बार फिर, अपना लोहा मनवाते हुए सुननेवालोँ को हँसाते हुए लोट पोट करेँगे। 
 उनकी हास्य कविता मे समाज की विषम परिस्थितीयोँ को परखने की तीव्र द्र्ष्टि है जो हल्के से बात कह जाती है और बाद मेँ श्रोतागण देर तक सोचते रह जाते हैँ !
" सृजनगाथा " के भीष्म पितामह श्रीमान जयप्रकाश मानस  जी के आगमन से हिन्दी के कार्य को बल मिलेगा।  उनकी पैनी निगाह से विश्वजाल की कोई भी प्रगति, दिशा या आविष्कार अछूता नहीँ ! वे बहुआयामी पत्रिका के सफल सँपादक ही नही है, अपितु बडे धैर्य से छत्तीसगढ जैसे भारत के एक ग्रामीण व शहरी अँचलोँ की दोहरी सँस्कृति को समेटे, अपने निबँधो मेँ सँयत भाषा प्रयोग करते हुए, कम शब्दोँ मेँ बहुत कुछ कह जाते हैँ। 
 हिन्दी के इस महायज्ञ मेँ इन सारे महानुभावोँ की " आहुति", " यज्ञ ज्वाला "  को परिमार्जित करते हुए यशस्वी बनायेगी ये मेरा विश्वास है। 
      यहाँ अमरीका मेँ बसे, श्री अनूप भार्गव जी, डो. अँजना सँधीर जी,रससिध्ध कवि श्रीमान राकेश जी खँडेलवाल, कनाडा से कवियत्री श्रीमती मानोशी चटर्जी,श्री समीर लाल जी इत्यादी कई सारे लोगोँ के आने की सँभावना है। 
भारत सरकार के बाहरी गतिविधियोँ के मँत्री मँडल ने ( External Affairs Ministry ) यह आँठवा -८वाँ विश्व हिन्दी सम्मेलन, १३, १४ और १५ जुलाई के तीन दिनोँ मेँ न्यु योर्क शहर मेँ आयोजित करना तय किया तब उस स्थल का भी चुनाव हुआ जहां सभागार होगा। 
" फेशन इन्स्टीट्य्ट फ टेक्नोलोज़ी "  (जो कि २७ वीँ गली - ७ वेँ एवेन्यु पर स्थित है ), वहाँ सम्पन्न होना निस्चित्त किया गया है। 
उत्तर अमेरीका के प्रमुख सँघ जैसे कि,  " अँतराष्ट्रीय हिन्दी समिती" "विश्व हिन्दी न्यास " - "विश्व हिन्दी समिती "  इत्यादी को भारतीय विध्या भवन के अँतर्गत, इस कार्यक्रम को सफल बनाने की जिम्मेदारी सौँपी गयी है। 
       हर हिन्दी भाषा के चाहनेवालोँ की दुआएँ, प्रार्थनाएँ  इस अंतर राष्ट्रीय सम्मेलन से साथ सँलग्न हैँ। सभी की इच्छा यही है कि आगे, हिन्दी का मार्ग प्रशस्त हो !
सँभावनाएँ कई हैँ ! किन्तु
, आगे, मार्ग सर्वथा अनदेखा व अन्चिन्हा है ! परँतु हिंदी भाषा के प्रति प्रेम उत्साह व समर्पण एक निस्वार्थ परिश्रम से जुड़ा हुआ है व हिन्दी प्रेम के सम्बल में  लिपटा हुआ है।  
     यदि हिन्दी भाषा जीवित रहेगी, फूलेगी - फलेगी तभी तो हमारी भारतीय सँस्कृति, हमारा वाङमय, हमारी धरोहर इत्यादि भी सुरक्षित रह पाएंगें व् आगामी पाढ़ी तक आगे जायेंगें  !
      जीवन यापन की आपाधपी मेँ, भारतमाता के बालक, दुनिया के सात सँमँदर पार कर के, विभिन्न प्रेदेशोँ मेँ जा बसे हैँ ! परन्तु भारतीय जन जहां कहीं भी रहें हों  
अपने त्योहारोँ को मनाते समय, वे भारत भूमि से सीधा सँबँध स्थापित कर लेते हैँ। 

   गहरे महासागर के जल के ठीक बीचोँबीच एक शाँत, द्वीप की भाँति हमारी सभ्यता का दीप प्रज्वलित है।भारतीय अस्मिता का  प्रतीक " भारतीय सभ्यता स्वरूप माटी का एक नन्हा दीप " भारत वर्ष की अखँड महा ज्योति का प्रकाश फैलाता, विश्व के कोने कोने में अहर्निश ~ अकँपित जलता रहा है। इस दीप की ज्योति, भारतीय मानस की ज्योति है। हमारे पुरखोँ के पुण्यबल की आस्था  का प्रतीक है यह माटी का दीपक !
         परमात्मा श्री कृष्ण से यही माँगती हूँ कि इस " दिये " का तेल कभी ना घटे !
सं. २००७ से इस दीप का प्रकाश और भी प्रखर होकर विश्व की पीडित, दमित, थकी हुई प्रजा को भौगोलिक परिस्थितीयोँ से परे ले जाकर, आत्म विश्लेक्षण का अवसर दे भारत वर्ष के तपः पूत ऋषियों के उदगार ॐ शान्तिः शान्तिः का चिर शाँति  पाठ पुनः दोहराया जाये।  जिस से "विश्व - शाँति " का बीज, पल्लवित हो ! 
         भारत के विशाल वटवृक्ष - बरगद की तरह  भारतीय सभ्यता विश्व में बसे प्रत्येक प्राणी को छाँव देने की क्षमता पुनः स्थापित करे और विश्व शाँति चिर स्थायी हो ! अस्तु .........आइये, हम और आप, हर प्रकार की पूर्व ग्रँथि को खोलकर, एक जुट हों। हम यथासँभव योगदान करेँ ताकि भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का परचम विश्व पर माँ के आँचल की सी सुखद छाया बन कर फहराए और भारत भारती - अँतराष्ट्रीय स्तर पर अपना गौरवपूर्ण स्थान ग्रहण कर सके। 
हिन्दी भाषा की गरिमा फिर एक बार, भारतेन्दु हरिस्चन्द्र जी के शब्दोँ को चरितार्थ करे " निज भाषा उन्नति ही उन्नति का मूल है "
, प्रण करेँ हिन्दी सेवा का, हिन्दी प्रेम का !
" जननी जन्मभूमिस्च स्वर्गादपि गरीयसी".
...........सत्यमेव जयते !

Friday, August 31, 2018

माँ धरती प्यारी

कितनी सुँदर अहा, कितनी प्यारी,
ओ सुकुमारी, मैँ जाऊँ बलिहारी
नभचर, थलचर,जलचर सारे,
जीव अनेक से शोभित है सारी,
करेँ क्रीडा कल्लोल, नित आँगन मेँ,
माँ धरती तू हरएक से न्यारी !
अगर सुनूँ मैँ ध्यान लगाकर,
भूल ही जाऊँ विपदा,हर भारी,
तू ही मात, पिता भी तू हे,
भ्राता बँधु, परम सखा हमारी !
 [Frangipani+Flowers.jpg]

दिवा -स्वप्न
~~~~~~~~~~~~
बचपन कोमल फूलोँ जैसा,
परीयोँ के सँग जैसे हो सैर,
नर्म धूप से बाग बगीचे खिलेँ
क्यारीयोँ मेँ लता पुष्पोँ की बेल
मधुमय हो सपनोँ से जगना,
नीड भरे पँछीयोँ के कलरव से
जल क्रीडा करते खगवृँद उडेँ
कँवल पुष्पोँ,पे मकरँद के ढेर!
जीवन हो मधुबन, कुँजन हो,
गुल्म लता, फल से बोझल होँ
आम्रमँजरी पे शुक पीक उडे,
घर बाहर सब, आनँद कानन हो!
कितना सुखमय लगता जीवन,
अगर स्वप्न सत्य मेँ परिणत हो!

तुहीन और तारे 
~~~~~ ~~~~~~ ~~~~ 
आसमाँ पे टिमटिमाते अनगिनत 
क्षितिज के एक छोर से दूजी ओर 
छोटे बड़े मंद या उद्दीप्त तारे !
जमीन पर हरी दूब पे बिछे हुए,
हरे हरे पत्तों पर जो हैं सजीं हुईं 
भोर के धुंधलके में अवतरित धरा 
पर चुपचाप बिखरते तुहीन  कण !
देख, उनको सोचती हूँ मैं मन ही मन 
क्यों इनका अस्त्तित्त्व, वसुंधरा पर ?
मनुज भी बिखरे हुए, जहां चहुँ ओर 
माँ धरती के पट पर, विपुल विविधता 
दिखलाती प्रकृति, अपना दिव्य रूप !
तृण पर, कण कण पर जलधि जल में !
हर लहर उठती, मिटती संग भाटा या 
ज्वार के संग कहत , श श ... ना कर शोर !
-- लावण्या दीपक शाह 

Monday, August 27, 2018

सत चित्त आनंद = सच्चिदानंद

ॐ 
सत~ चित्त~ आनंद = सच्चिदानंद 
ईश्वर का स्वरूप क्या है ? क्या हो सकता है ? जब ऐसा प्रश्न अंतर्मन में रमण करे तब जानिये कि, आप पर परम कृपालु ईश्वर की महती कृपा है। 
ईश्वर क्या है ? इस प्रश्न  को हमारे भारत वर्ष के पुरातन युग से आधुनिक युग पर्यन्त, हर सदी में मनीषियों ने, धर्म पिपासु जन ने, धर्म पथ पर चले वाले हर जीव ने, हरेक मुमुक्षु व संत जनों ने, अपनी प्रखर साधना से, अपने ही अंत:करण में देखा ! यह विस्मयकारी सत्य को  माना कि, जीव भी परब्रह्म का अंश है  ! 
        परंतु जो सर्वत्र व्याप्त है, जो सर्व शक्तिमान है, अनंत है  व कल्पनातीत है, हर व्याख्या से परे है जिसे परमात्मा कहते हैं उन्हें हम मनुष्य, साधारण इन्द्रियों द्वारा पूर्णतया जान नहीं पाते ! यह सत्य,  ज्ञानी व मुमुक्षु ही जान पाए !  कुछ विरले, परमहंस, स्वानुभूति से उस परम पिता ईश्वर  के
 ' सच्चिदान्द स्वरूप को पहचान पाए और उन्होंने कहा कि, 
यही ' ईश्वर ' हैं, परमात्मा हैं - आनंदघन ' हैं ! 
     ॐ नमो भगवते वासुदेवाय :
Picture
सच्चिदानंद रुपाय  विश्वोतपत्यादि हेतवे
तापत्रय विनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नमः
भावार्थ : वह जो संपूर्ण जगत की उत्पति, पालन एवं प्रलय के हेतु हैं, जो तीनो प्रकार के ताप (भौतिक, दैविक एवं आध्यात्मिक) को मिटाने वाले हैं उन सच्चिदानंद परमात्मा श्री कृष्ण को नमन है|
 
अत: ईश्वर  का सामीप्य व सायुज्य प्राप्त  करने के लिए जीव के लिए आवश्यक हो जाता है कि, सदैव सजग रहने के साथ साथ हम तन धारी जीव, मनुष्य,अपनी आत्मा के भले के लिए सदैव उस पूर्ण आनन्दघन स्वरूप
 
' सच्चिदान्द विग्रह ' परमात्मा को प्राप्त करने की क्रिया में प्रयासरत रहें। 
 जीवात्मा को  ध्यान ये रखना है कि, सच्चा आनंद, विषय सुख या विषय प्राप्ति या  विषयों के उपभोग से नहीं किन्तु सद्गुणों के निरंतर विकास से ही संभव है। जितने भी सद्गुण हैं वे परम कृपालु ईश्वर कृपा से संभाव्य हैं। 
उन्हीं की कृपा से दीप्त हैं और उन्हीं के अंश से  उजागर हैं। अब ये भी जानना आवश्यक है कि, सद्गुण कौन, कौन से हैं ?
 
तो वह हर जीव को सदैव ' प्रियकर ' लगते हैं वही सद्गुण कहलाते हैं। जो हमें स्वयम के लिए रुचिकर लगता है वही अन्य जीव को भी लगता है। जैसे हर जीवात्मा को मुक्त रहना सहज लगता है। बंधन कदापि सुखद नहीं लगता ! ठीक वैसे ही प्रत्येक जीवांश को मुक्त रहना पसंद है ! अन्य सद्गुण भी हैं  जैसे दया, करूणा, ममता, आत्मीयता, मानवता, स्वछता, वात्सल्य, अक्रोध, अशोच्य, सहिष्णुता इत्यादि। सर्व जीवों के प्रति आत्मीय भाव होना, बहुत बड़ा सद्गुण है। यह आत्मीयता का बोध, ईश्वर के अंश से ही दीप्तिमान है। जब उपरोक्त  सद्गुण से मनुष्य, या जीवात्मा, प्रत्येक जीव के प्रति आत्मीयता का भाव साध लेता है तब वह परब्रह्म को जानने के दुर्गम मार्ग पर अपने पग बढाने लगा है यह भी प्रकट हो जाता है। इस कारण, त्याज्य दुर्गुणों से सदा सजग रहें जो जीवात्मा के उत्त्थान में बाधक हैं। 
         जीवात्मा को यथासंभव, आत्मा का जहां निवास है उस शरीर का जतन करते हुए, अर्जुन की तरह लक्ष्य संधान कर, अपना सारा ध्यान परम कृपालु परमात्मा, सच्चिदानंद, परब्रह्म, ईश्वर की ओर सूरजमुखी के पुष्प की भाँति अनिमेष, अहर्निश, द्रष्टि को बांधे हुए, चित्त को एकाग्र भाव से अपने  दैनिक कर्म करते रहना चाहीये। तब आप विषयों के प्रति आसक्ति से मुक्त होकर, तटस्थता प्राप्त करने में सफल हो पायेंगें हर जीव के लिए अनेकानेक व्यवधान व बाधाएं उत्पन्न होकर, आत्मा के उत्सर्ग में बाधक बनतीं हैं।उन बाधाओं से आँखें मिलाकर, चुनौती स्वीकार कर, आत्म उत्थान के लिए प्रयत्नशील रहना सच्ची  वीरता है। 
गुजरात भूमि के संत कवि नरसिंह मेहता  ने गाया है, 
' हरी नो मारग छे शूरा नो, ( आत्म उन्नति = प्रभु भक्ति, वीरों का मार्ग है )
  नहीं कायर नू काम जोने,( यह - कायरों के बस की बात नहीं ! )
  परथम पहलु मस्तक मुकी ( ओखली में मस्तक रख दो )
 वलती न लेवून नाम जोने "~  उसके पश्चात किसी बात की चिंता न करना अर्थात : हरी का मारग दुर्गम है, जो  कायरों के लिए दुष्कर है। 
 प्रथम अपना मस्तक प्रभु चरणों में रखते हुए, पीछे मुड कर देखना नहीं ।  
दृढ प्रतिज्ञ, दृढ निश्चय, कृत संकल्प, जीव को हर पग, आगे बढ़ना है। 
       
अत: मेरी प्रार्थना ना सिर्फ मेरे आत्म हित के लिए है अपितु संसार के हर भूले भटके, जीव को ईश्वर और संत योगी व गुरू कृपा प्राप्त हो।सच्चे गुरुजन की सीख, प्रत्येक जीव को  सन्मार्ग पर चलते रहने के लिए प्रेरित करे। 
प्राणी आत्म उत्थान के पथ पे अग्रसर हों ये प्रार्थना है। 
आप सभी का आभार प्रकट करते हुए, इस महा - यात्रा में, आनंद प्राप्ति का सच्चिदानंद ईश्वर के प्रेम का सायुज्य प्राप्त हो यही शुभकामना शेष है। 
ओ मेरे साथी व सहयात्री ...इस सच्ची व मौन प्रार्थना स्वीकार करें !  
सविनय, 

- लावण्या के नमन       

Friday, May 11, 2018

[ मेरी अम्मा स्व. श्रीमती सुशीला नरेन्द्र शर्मा व मेरे पापा जी प्रसिध्ध गीतकार नरेंद्र शर्मा जी के गृहस्थ जीवन के सँस्मरण ।]

ॐ 
 मेरी अम्मा स्व. श्रीमती सुशीला नरेन्द्र शर्मा व मेरे पापा जी प्रसिध्ध गीतकार नरेंद्र शर्मा जी के गृहस्थ जीवन के  सँस्मरण~ 
 
सं. १९४७ में  भारत आज़ाद हुआ। उसी वर्ष की १२ मई को, कुमारी  सुशीला से  कवि नरेंद्र शर्मा का विवाह हुआ था।
दक्षिण भारत की सुप्रसिद्ध गायिका गान कोकिला
सुश्री सुब्बुलक्षमीजी व उनके पति श्रीमान सदाशिवम जी के आग्रह से उन की 
नई गहरे नीले रंग की नई
शेवरोलेट ब्रांड की कार  में, जिसे, उस विवाह के अवसर के लिए सुन्दर सुफेद फूलों से सजाया गया था, नव दम्पति नरेंद्र शर्मा  एवं सुशीला को विवाह पश्चात बिठलाया गया तथा   कन्या के घर से बिदा किया गया।

उसी कार  में बैठ कर दुल्हा - दुल्हन, सुशीला नरेंद्र   शर्मा जी के मुम्बई के माटुंगा उपनगर स्थित अपने घर पहुंचे थे। मशहूर गायिका एवं अदाकारा 
 सुरैयाजी ,दिलीप कुमारअशोक कुमारअमृतलाल नागर व श्रीमती प्रतिभा नागरजीभगवती चरण वर्मा व श्रीमती वर्मा , संगीत जगत की मशहूर हस्ती श्री अनिल बिश्वासजी, कलाकार गुरुदत्त जी, निर्माता , निर्देशक श्रे चेतनानँदजी, एक्टर देवानँदजी इत्यादी सभी इस विलक्षण विवाह मेँ शामिल हुए थे।

नई दुल्हन घर की दहलीज पर आ पहुँची तो सुशीला को कुमकुम से भरे हुए
एक बड़े थाल पर खड़ा किया गया। लाल रंगों के पद चिह्न दहलीज से घर के भीतर तक पड़े और गृह - प्रवेश हुआ।

उस समय सुरैया जी तथा सुब्बुलक्ष्मी जी ने नववधु के स्वागत में मँगल गीत गाये । ऐसी कथा कहानियों सी मेरी अम्मा सुशीला और पूज्य पापा जी के विवाह की बातें हमने अम्मा से सुनीं हैं। जिसे आज साझा कर रही हूँ। 
सन १९४८ के आते मुझसे बडी बहन वासवी का जन्म हो गया था। मुझे याद पड़ता है कि  वासवी और अम्मा को युसूफ खान याने मशहूर स्टार दिलीप कुमार जी उनकी कार में  अस्पताल  से पापा जी के घर, लाये थे। 
 उस वक्त  पापा जी और अम्मा सुशीला की गृहस्थी माटुँगा नामक उपनगर में  तैकलवाडी के २ कमरे के एक फ्लैट मेँ आबाद थी। छायावाद के प्रसिध्ध कवि पंतजी भी उनके संग वहीं पर २ वर्ष रहे।  

 इस छोटे से घर में, कई विलक्षण साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गोष्ठियां  हुआ करतीं थीं  जिनमे भारतवर्ष के अनेकों   मूर्धन्य साहित्यकार और  कलाकार मित्र शामिल हुआ करते। 

भारतीय फिल्म संगीत के भीष्म पितामह श्री अनिल बिस्वास जी, चेतन आनंद जी , 
शायर जनाब सफदर आह सीतापुरी जी,सुप्रसिध्ध साहित्यकार अमृतलाल नागर जी,  कविवर श्री सुमित्रानंदन पन्त जी जैसे दिग्गज व्यक्ति इस मित्र मंडली में थे।  फिर, पन्त जी इलाहाबाद चले गये और नरेंद्र शर्मा एवं सुशीलजी की जीवन धारा ने अगला मोड़ लिया। प्रथम संतान वासवी तथा उसके २ वर्ष बाद, मैं लावण्या का जन्म हुआ। चित्र : दांएं ५ वर्षीय वासवी और मैं लावण्या ३ वर्ष 




 
एक दिन की बात है, पापाजी और अम्मा बाज़ार से सौदा लिये किराये की घोडागाडी से घर लौट रहे थे। अम्मा ने बडे चाव से एक बहुत महँगा छाता खरीदा था। जो नन्ही वासवी और साग सब्जी उतारने मेँ अम्मा वहीँ घोडागाडी में भूल गईँ ! ज्यों ही घोडागाडी आँखों से ओझल हुई कि, छाता याद आ गया! अम्मा ने बड़े दुखी स्वर में  कहा  ' नरेन जी ,  मेरा छाता उसी में रह गया !  '
 पापा जी ने समझाते हुए कहा , ' सुशीलातुम वासवी को लेकर घर के भीतर चली जाओ। घोडागाडी दूर नहीं गयी होगी  मैँ अभी तुम्हारा छाता लेकर लौटता हूँ !' 
 अम्मा ने पापा जी की  बात मान ली।  कुछ समय के बाद पापा जी छाता लिये आ पहुँचे। जिसे देख अम्मा अपना सारा दुःख भूल गयी। 
ये बात भी वे भूल ही जातीं किन्तु कई बरसोँ बाद अम्मा पर यह रहस्य प्रकट हुआ कि पापा जी दादर के उसी छातेवाले की दुकान से हुबहु वैसा ही एक और नया छाता खरीद कर ले आये थे ! चूंकि जिस घोडागाडी में  अम्मा का छाता  छूट गया था वह  घोडागाडी तो बहुत दूर जा चुकी थी। 
 अपनी पत्नी का मन इस घटना से दुखी ना हो इसलिए पतिदेव नरेंद्र शर्मा नया छाता ले आये थे ! ऐसे थे पापा !
बेहद
 सँवेदनाशील, संकोची परन्तु दूसरोँ की भावनाओँ की कद्र  करनेवाले इंसान थे मेरे पापा ! अपनी पत्नी के मन को और भावनाओं को  समझनेवाले भावुक कवि ह्र्दय को अपनी पत्नी का दुखी होना भला  कैसे सुहाता ? 
सच्चे और खरे इन्सान थे मेरे पापा जी! 

पापा जी से जुडी हुईं कई सारी ऐसी ही बातें हैं जो उनके प्रेम भरे ह्रदय की साक्षी हैं। आज वे बातें  भूलाये नहीं भूलतीं। 
मैँ जब छोटी बच्ची थी, तब अम्मा व पापा जी का कहना है कि, अक्सर काव्यमय वाणी मेँ माने कविता की भाषा में बोला करती! 
अम्मा कभी कभी कहती कि,
सुना है , मयूर  पक्षी के अँडे, रँगोँ के मोहताज नहीँ होते! 
उसी तरह मेरे बच्चे भी पिता की काव्य सम्पत्ति 
विरासत मेँ लाये हैँ!"
यह एक माँ का गर्व था जो छिपा न रह पाया होगा। या, उनकी ममता का अधिकार, उन्हेँ मुखर कर गया हो कौन जाने ?
यह स्मृतियाँ मेरी अम्मा ने हम लोगों के संग  साझा कीं थीं सो,  आज उसे

दोहरा रही हूँ। 

एक बार मैँ, मेरी बचपन की सहेली लता, बडी दीदी वासवी,  हम तीनोँ खेल रहे थे। 
वसँत ऋतु का आगमन हो चुका था। होली के उत्सव की तैयारी जोर शोरोँ से बँबई शहर के गली मोहल्लोँ मेँ, चल रही थीँ। खेल खेल मेँ लता ने मुझ पर एक गिलास पानी फेँक कर मुझे भिगो दिया! 

मैँ भागे भागे अम्मा पापाजी के पास पहुँची और अपनी गीली फ्रोक को शरीर से दूर खींच बोली,' पापाजी, अम्मा! देखिये ना! मुझे लता ने ऐसे गिला कर दिया है जैसे मछली पानी मेँ होती है !'
  सुनते ही, अम्मा ने मुझे वैसे ही  गिले कपडोँ समेत खीँचकर प्यार से गले लगा लिया। बच्चोँ की तुतली भाषा, सदैव बडोँ का मन मोह लेती है। माता, पिता के मन में  अपने बच्चों  के लिए गहरी ममता भरी रहती है। उन्हेँ अपने बच्चों की हर छोटी बात विद्वत्तापूर्ण और अचरज से भरी लगती है। मानोँ सिर्फ उन की  सँतान ही इस तरह बोलती हो  !
पापा भी प्रेमवश, मुस्कुरा कर पूछने लगे, ' अच्छा तो बेटा, पानी मेँ मछली ऐसे ही गिली रहती है ? क्या तुम जानती हो ?' 
मेरा उत्तर था , ' हाँ पापाएक्वेरीयम (मछलीघर ) मेँ देखा था ना हमने!'


सन १९५५ आते बम्बई के खार उपनगर  के
 १९ वे रास्ते पर उनका नया घर बस गया। न्यू योर्क भारतीय भवन के सँचालक श्रीमान डा . जयरामनजी के शब्दोँ मेँ कहूँ तो हिँदी साहित्य का तीर्थ - स्थान " बम्बई  महानगर मेँ एक शीतल सुखद धाम के रूप मेँ परिवर्तित हो गया।   

कुछ सालों के बाद : 
 एक गर्मी की दुपहरी याद आ रही है। हम बच्चे  जब सारे बडे सो रहे थे, खेल रहे थे। हमारे पडौसी  माणिक दादा के घर के बाग़ में आम का पेड़ था। हमने  कुछ कच्चे पक्के आम वहां से तोड लिए ! 
हमारी इस बहादुरी पर हम खुशी से किलकारीयाँ भर रहे थे किअचानक पापाजी वहाँ आ पहुँचे। गरज कर कहा, 'अरे ! यह आम पूछे बिना क्योँ तोडे जाओजाकर माफी माँगो और फल लौटा दो ' उनका आदेश हुआ। हम भीगी बिल्ली बने आमों को लिए चले माफी मांगने ! एक तो चोरी करते पकडे गए और उपर से माफी माँगने जाना पड़ा ! 
स घटना में पापा जी की एक जबरदस्त डांट के मारे हम दूसरों की संपति को अनाधिकार छीन लेना गलत बात है ये बखूबी  समझ गये। उन की डांट ने अपने और पराये के बीच का भेद साफ़ कर दिया।

जिसे हम कभी भूल नही पाए !
 
किसी की कोइ चीज हो, उस पर हमारा अधिकार नहीं होता। उसे पूछे बिना लेना गलत बात है। यही उनकी शिक्षा थी। 
 दूसरों की प्रगति और उन्नति देख , खुश रहना भी उन्होंने  हमे सिखलाया। 

पापा जी ने आत्म संतोष और स्वाभिमान जैसे सद्गुण हमारे स्वभाव में

कब घोल दिये उसका पता भी न चला।
परिवार में उनकी छत्रछाया तले

रहते  हुए यह सब हमने उन्हीं से सिखा।
स्वावलंबन और हर तरह का कार्य करने में संकोच न रखना और हर कौम के लोगों से स्नेह करना ये भी हमने उन्हीं से सिखा। 
दूसरों की  यथा संभव सहायता करना। आत्म निर्भर रहना।  स्वयं पर

सामाजिक शिष्टाचार का आदर्श स्थायी रखते हुए संयम पूर्वक जीवन जीना।

स्वयं को अनुशासित रखना और दूसरों के संग उसी तरह बरतना जैसा तुम

उनसे अपेक्षा करते हो। यह भी उन्हीं से सीखा।  
 सही रास्ते चलते हुए , जीवन जीना ऐसे कठिन पाठ पापा जी ने हमे कब

सिखला दिए उनके बारे में  आज सोचती हूँ तो आश्चर्य होता है!  
उन्हीं से सीखा है कि किस तरह सदा प्रसन्न रहना चाहीये ! 
ऐसा नहीं है कि, जीवन में कोइ विपत्ति या मुश्किलें आयीं नहीं !

परन्तु अपने मन को स्थिर करते हुए, सदैव आशावान बने रहना

यही मनुष्य के जीवन में महत्त्वपूर्ण है यह बड़ा कठिन पाठ भी उन्हीं को देखते

हुए अपने व्यवहार में लाने की कोशिश करती ही हूँ। 
ऐसे कई  सारे दुर्लभ सदगुण  पापा जी के स्वभाव में सदा ही देखती रही। 

उनकी कविता है ~~ 
' फिर महान बन मनुष्य फिर महान बन 
  मन मिला अपार प्रेम से भरा तुझे इसलिए की प्यास जीव मात्र की बुझे 
  बन ना कृपण मनुज , फिर महान बन मनुष्य फिर महान बन  ! ' 
नरेंद्र शर्मा 
मेरे पापाजी  प्रकांड  विद्वान होते हुए भी अत्यंत विनम्र एवं मृदु स्वभाव

के थे। मेरे पापा जी और मेरी यथा नाम तथा गुण वाली अम्मा  सुशीला ने हमे 

उनके स्वयं के आचरण से ही जीवन के कठिनतम स्वाध्यायों को सरलता

से सिखलाया । माता और पिता बच्चों को सही शिक्षा दें, उस से पहले,

उन्हें स्वयं भी उसी सही रास्ते पर चलते हुए बच्चों के सामने सच्चा उदाहरण 

रखना भी आवश्यक होता है।

पापा जी और अम्मा ने यही मुश्किल काम किया था। 
पूज्य पापा जी की १९ कविता पुस्तकें , कहानी , निबन्ध इत्यादी उनके

साहित्य सृजन के अभिनव सोपान नरेंद्र शर्मा ' सम्पूर्ण रचनावली '

में संगृहित हैं। जिन्हें उनके पुत्र परितोष ने मनोयोग एवं अथक परिश्रम से

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Compiled, Edited by Paritosh Narendra Sharma 

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एक और याद है जब मेरी उम्र होगी कोई ८ या ९ साल की ! 
पापाजी ने कवि

शिरोमणि कवि कालिदास की कृति ' 
मेघदूत 'पढने को कहा। सँस्कृत कठिन

थी। पढ़ते समय 
जहाँ कहीँ मैँ लडखडातीवे मेरा उच्चारण शुध्ध कर देते। 

आजपूजा करते समय हर मन्त्र और श्लोक का पाठ करते हुए वे पल याद

आते हैँ। पापा जी ने ही सिखलाया था , किस शब्द का सही और  शुध्ध

उच्चारण क्या होता है।  किस शब्द को किस प्रकार कहना है ये उन्हीं ने

सिखलाया। इस प्रकार स्कूल में  संस्कृत सीखने के साथ साथ घर पर भी उन्हीं

के द्वारा  देवभाषा संस्कृत से मेरा परिचय हुआ।
 
 साल गुजरते रहे। कोलेज की शिक्षा पूरी हुई। मेरा विवाह हुआ।
सन १९७७ में  मेरी बेटी सिँदूर के जन्म के समय मैं अम्मा के घर आराम करने

के लिए रही। 
जब भी मैं रात को उठतीपापा, भी उठ जाते और पास

आकर मुझे 
सहारा देते। मेरा सीझेरीयन ओपरेशन हुआ था और मैं बहोत

ज्यादह कमजोर हो गयी थी।

वे 
मुझसे कहते, ' बेटामैँ हूँयहाँ ' उन्हें मेरी कितनी फिकर और चिंता थी

यह उनके रात को मेरे संग मेरे हर बार जागने पे +, उन के भी जाग जाने से

और मुझे मेरी कमजोर हालत में सहारा देने से मैं पापा जी का मेरे प्रति

जो अपार प्रेम था उसे समझ रही थी। 
आज मेरी अपनी बिटिया सिंदुर  माँ बन चुकी है और मैं नानी !

सौ.सिंदुर के बेटे नॉआ के जन्म के समय , जो प्रेम पापा जी से मुझे मिला

बिलकुल वैसा ही प्रेम और 
वात्सल्य मैं ने भी महसूस किया। 

जब जब अपनी बिटिया को आराम देते हुए छूती , तब तब मुझे पापाजी की

निश्छल 
प्रेम मय वाणी और उनके कोमल स्पर्श का अनुभव हो जाता । 
 हम बच्चे, सब से बडी वासवी, मैँ मँझली लावण्या, छोटी बाँधवी व भाई

परितोष 
अम्मा पापा की सुखी, गृहस्थी के छोटे, छोटे स्तँभ थे!

हम 
उनकी प्रेम से सीँची फुलवारी के महकते हुए फूल थे!
जीवन अतित के गर्भ से उदय हो, भविष्य को सँजोता आगे बढता रहा । 
मेरा परम सौभाग्य है कि मैं पापाजी जैसे महान पुरुष की संतान हूँ।  
मैँ, लावण्या सचमुच अत्यंत सौभाग्यशाली हूँ कि ऐसे पापा मुझे मिले। 

मुझे बारम्बार यही विचार आता है ! 

कितना सुखद संयोग है जो उन जैसे पुण्यवान, सँत प्रकृति के मनस्वी कवि

ह्रदय पापा जी की मैं संतान हूँ और उन के लहू से सिँचित 
उनके जीवन उपवन

का मैं एक नन्हा सा  फूल हूँ। 
 उन्हीँ के द्वारा मिली शिक्षा व सौरभ सँस्कार मेरे मनोबलको को आज भी

जीवन की कठिन परीक्षा में दृढता से अडीग रखे हुए हैं । 
हर अनुकूल या

विपरित परिस्थिती में शायद इसी कारण अपनी जीवन यात्रा के हर पडाव में

मैं, अपने को 
मजबूत रख पाई हूँ और ईश्वर में अडीग श्रद्धा और मन में अपार

धैर्य सहेजे अपना 
जीवन जीये जा रही हूँ !
पूज्य पापा जी के आचरण से, उनके पवित्र व्यवहार से ही तो ईश्वर तत्व क्या

है उसकी झाँकी हुई !  पापा जी के परम तेजस्वी व्यक्तित्त्व में मुझे  ईश्वरीय

दिव्यता के दर्शन हुए हैं ।
 मेरी कविता ने इस  ईश्वरीय चैतन्य रूपी आभा से

दीप्त व्यक्तित्व के दर्शन किये। मैं धन्य हुई ! 
मेरे पापा जी की विलक्षण प्रतिभा और स्मृति को मैंने मेरी कविता द्वारा सादर

नमन अर्पित किया है।

 
' जिस क्षण से देखा उजियारा 
  
टूट गए रे तिमिर जाल 
  
तार तार अभिलाषा टूटी 
  
विस्मृत गहन तिमिर अन्धकार 
 
निर्गुण बने, सगुण वे उस क्षण 
 
शब्दों के बने सुगन्धित हार 
 
सुमनहार अर्पित चरणों पर 
 
समर्पित जीवन का तार तार ! '
 
~ लावण्या

सच कहा है '
 -' सत्य निर्गुण है। वह जब अहिंसा, प्रेम, करुणा के रूप में

अवतरित होता है तब सदगुण कहलाता है।'  

पुत्र सोपान के जन्म के समय, पापा जी ने २ हफ्ते तक, मेरे व शिशु की सुरक्षा

के लिए बिना नमक का भोजन खाया था।  

ऐसे वात्सल्य मूर्ति  
पिता को, किन शब्दों में, मैं, उनकी बिटिया,

अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करूँ ? 

कहने को बहुत सा  है - परन्तु समयावधि के बंधे हैं न हम ! 

हमारा मन कुछ मुखर और बहुत सा मौन लेकर ही इस भाव समाधि 
से, 

जो मेरे लिए पवित्रतम तीर्थयात्रा से भी अधिक पावन है, वही महसूस करें।  

वीर, निडर , साहसी , देशभक्त , दार्शनिक , कवि और एक संत मेरे पापा की

छवि मेरे लिए एक आदर्श पिता की छवि तो है ही परन्तु उससे अधिक '

महामानव ' की छवि का स्वरूप हैं वे ! पेट के बल लेट कर, सरस्वती देवी के

प्रिय पापा की लेखनी से उभरती, कालजयी कविताएँ मेरे लिए प्रसाद रूप हैं।  

' हे पिता , परम योगी अविचल , 
 
क्यों कर हो गए मौन ? 
 
क्या अंत यही है जग जीवन का 
 
मेरी सुधि लेगा कौन ? ' 

बारम्बार शत शत प्रणाम ! 
 
~ लावण्या