Wednesday, May 25, 2022

अमर युगल दुष्यंत ~ शकुंतला की प्रणय गाथा ~


चंद्रवंश एक प्रमुख प्राचीन भारतीय क्षत्रियकुल आर्यों के प्रथम शासक (राजा) वैवस्वत मनु हुए। मनु की एक कन्या भी थी - इला जिस का विवाह बुध से हुआ जो चंद्रमा का पुत्र था। उन से पुरुरवस्‌ की उत्पत्ति हुई।  ईला के पुत्र "ऐल " कहलाए  वे, चंद्रवंशियों के प्रथम शासक हुए ।
पुरुरवा के छ: पुत्रों में आयु और अमावसु प्रसिद्ध हुए। महाराज आयु प्रतिष्ठान नगर के शासक हुए तो महाराज अमावसु कान्यकुब्ज नगर में एक नए राजवंश की स्थापना की। आगे कान्यकुब्ज के राजाओं में, जह्वु प्रसिद्ध हुए जिनके नाम पर गंगा का नाम ' जाह्नवी ' पड़ा।  महाराज आयु के राज्य शासन के उपरांत उन का ज्येष्ठ  पुत्र, नहुष प्रतिष्ठान का शासक हुआ।  नहुष के छह पुत्रों में ययाति को राजगद्दी प्राप्त हुई। महाराज ययाति के पाँच पुत्र हुए - यदु, तुर्वसु, द्रुह्यु, अनु व  पुरु। आगे चलकर यही पुरु वंश -- यादव, तुर्वसु, द्रुह्यु, आनव व  पौरव कहलाए। ऋग्वेद में इन को पंचकृष्टय: कहा गया है। पौरवों ने मध्यदेश में अनेक राज्य स्थापित किए। गंगा व यमुना- नदियों के भूभाग पर शासन करनेवाले हस्तिनापुर नरेश दुष्यंत का जन्म इसी पुरू कुल में हुआ तथा दुष्यंत अत्यंत सुप्रसिद्ध हुए। 

शकुंतला : शकुंतला व दुष्यंत की अमर युगल कथा महाभारत के आदिपर्व में
कथा का आरम्भ है। अत्यंत तेजस्वी ऋषि विश्वामित्र से होता है। यूं तो विश्वामित्र राजा थे किन्तु अपनी प्रखर तपस्या एवं तपोबल के कारण वे राजर्षि कहलाये। उन्हें कौशिक भी कहा जाता था। विश्वामित्र  गायत्री महामंत्र के द्रष्टा व परम उपासक थे। भूलोक में विश्वामित्र जैसे तपस्वी माँ गायत्री की आराधना कर रहे थे किन्तु स्वर्गलोक में देवराज इंद्र की राजधानी अमरावती स्वर्गलोक में  इंद्र घबड़ा रहे थे कि प्रखर तपस्या के बल से राजर्षि विश्वामित्र कहीं उनका इन्द्रत्व न हथिया लें । इंद्र के पास प्राचुत बैभव विलास उपलब्ध था। श्वेत हाथी ऐरावत भी था इंद्रसभा में अत्यंत रूपवती अप्सराएँ उर्वशी रम्भा, मेनका, तिलोत्तमा इत्यादि भी थीं । इंद्र ने तपस्यारत महर्षि विश्वामित्र की प्रबल तपस्या  भंग करने के हेतु से इंद्रलोक की सर्वांङ्ग सुंदरी अप्सरा मेनका को विश्वामित्र के समीप तत्क्षण प्रकट होने का आदेश दे दिया अतः अप्सरा मेनका ऋषि विश्वामित्र के समक्ष आ पहुँची।
  मेनका की सुंदरता से मोहित विश्वामित्र की तपस्या भंग हुई व इंद्र की युक्ति सफल हुई। अप्सरा मेनका गर्भवती हुई ! उसने  एक अत्यंत रूपवती कन्या को जन्म  दिया किन्तु अप्सरा मेनका  उसे जन्म दे उस अबोध बालिका को मालिनी नदी के तट पर छोड़, बालिका का परित्याग कर, पुनः इंद्रलोक चलीं गईं ।
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कुछ समय पश्चात कण्व ऋषि उस निर्जन स्थान पे आ पहंचे तो आश्चर्यचकित हो देखते रह गए कि शकुन पक्षियों द्वारा रक्षित एवं पालित एक अबोध नवजात शिशु  अति सुँदर नन्ही बालिका, धरा पर अपनी नन्ही नन्ही हथेलियों को भींचे कीलक रही है। ऋषि कण्व का ह्रदय उस अबोध शिशु की असहाय अवस्था देख पसीज गया। ऋषिवर ने  बालिका को भूमि से उठा लिया। शकुन पक्षी द्वारा जल पिला कर, बालिका की  प्राण - रक्षा करने के कारण, महर्षि कण्व ने उस कन्या को "शकुन्तला " नाम से पुकारा।  अतः यही नाम उस कन्या को मिला ! निर्जन वन से मिली इस कन्या शकुन्तला को ऋषि कण्व ने, अपनी पुत्री के रूप में  लालन-पालन करना आरम्भ किया ।
दुष्यंत का अर्थ के लिए इमेज परिणाम
शकुंतला कण्व ऋषि को पिता के स्थान पर अपनी श्रद्धा  एवं आदर दिया करती। आश्रम के पेड़ पौधों को वह नियमित जल पिलाती। आश्रम के आसपास वन प्राणी निर्भय होकर शकुंतला का स्नेह पाने आया करते। हिरणों को वह स्नेह सहित पुचकारती तो वे समीप आकर शकुंतला की कोमल हथेली से हरी नरम घास खाते
          एक दिन की बात है, हस्तिनापुर नरेश दुष्यंत उसी वन में, आखेट करते हुए आ पहुंचे। दुष्यंत का अश्व तेज दौड़ता रहा तो महाराज दुष्यंत साथ के घुड़सवार पीछे छूट गए।अश्व दौड़ता रहा महाराज दुष्यंत वन प्रांतर की मनोहर सुषमा को निहारते हुए कण्व आश्रम के पास आ पहुंचे। सूर्य नारायण मध्याह्न आकाश में प्रदीप्त थे। अब महाराज दुष्यंत को प्यास लगी। अश्व को रोक कर वे उतरे।
आसपास दृष्टि दौड़ाई तो देखते क्या हैं कि एक अपूर्व सुंदरी कन्या मृग छौने के पास बैठी है। वे ये दृश्य ठगे से देखते ही रह गए। कितने ही क्षण ध्यान समाधिवत बीत गए। दुष्यंत समीप आए तथा मधुर व शाँत स्वर से प्रश्न किया।
दुष्यंत : " हे वन कन्या क्या तुम इंद्र सभा की अप्सरि हो ? "
शकुंतला अपरिचित किन्तु राजसी वस्त्र धारण किये हुए सुशोभन पुरुष को एकटक देखने लगी तथा लज्जावश शकुंतला के मुखमंडल पर अरुणिम आभा नैसर्गिक प्रतिक्रिया वश फ़ैल गयी। अब तो शकुंतला के कँवल सदृश्य गुलाबी मुख को लज्जा मिश्रित मंद मुस्कान कन्या को दिव्य आभा से दीपित करने लगी इस से सौंदर्य श्री में अभिवृद्धि हुई।
अब तो महाराज दुष्यंत इस अद्भुत वन कन्या के सौंदर्य को निहारते हुए कामदेवता अनंग के पुष्प बाण से मानों बिजली गिरी हो यूं बींध से गए। वे शकुंतला के समीप आये तथा अपने बलिष्ठ भुजा से उस अपूर्व सुंदरी की हथेली थामते हुए बोले, ' मैं दुष्यंत हूँ वन कन्या ! अब तुम अपना परिचय दो ' स्पर्श से रोमांचित हुई शकुंतला धरा पे दृष्टि गड़ाए लजाती हुई अपनी स्वर्ण किंकिणि सामान स्वर  मधुर वाणी से बोली,  " कण्व आश्रम में आपका स्वागत है. .... मेरे पिताश्री उपस्थित नहीं हैं मैं शकुंतला हूँ। .."
इस परस्पर आकर्षण व परिचय के पश्चात दुष्यंत व शकुंतला प्रणय पाश में बँध गए। दोनों ने गन्धर्व विवाह कर लिया। प्रकृति की मनुष्य पर सदैव विजय होती ही है। निमिष मात्र में जो प्रीत का बँधन बँधा वह क्षण, दिवस - रात्रि, समयावधि की सीमा रेखा से परे,  प्रेम - पंछी युगल अब क्रीड़ा - कल्लोल करते हुए सुख भोग करते रहे इस प्रणय वेला में वे मानों समस्त विश्व को ही भुला बैठे।

महाराज दुष्यंत को ढूंढते हुए उनके सैनिक वृन्द के आने पर भाव - समाधि टूटी। प्रेमी दुष्यंत अपनी प्रेयसी शकुंतला को समझाने लगे कि ' वे दोनों शीघ्र साथ होंगें। अपनी ऊँगली से रत्न जड़ित राज मुद्रिका उतार कर दुष्यंत ने शकुंतला को पहनाते हुए वचन दिया ' आज पश्चात तुम सदा सदा के लिए मेरी हुईं। यह मुद्रिका सम्हाल कर रखना प्रिये , वह  क्षण कितना अलौकिक होगा जब हमारा पुनर्मिलन होगा ! मैं दुष्यंत, हमारे प्रणय की साक्षिणी इस स्वर्ण मुद्रिका को, तुम्हारी कोमल ऊँगली पे पुनः सुशोभन  हुए देखूंगा। अपने पिताश्री ऋषि कण्व की आज्ञा ले कर  तुम मेरे राजभवन को सुशोभित करने आ जाओगी। अधीर हूँ किन्तु मुझे उस क्षण की प्रतीक्षा रहेगी आओगी न प्रिये ?  वचन दो !  "
शकुंतला का नन्हा सा ह्रदय अपने संग घटित हुए इन क्षणों को अभी ठीक से समझ भी नहीं रहा था कि, प्रेम सम्बन्ध परीणय के पश्चात अब बिछुड़ना यह घटनाचक्र तेज गति से शकुंतला के साथ घटने लगे थे।  भाग्य में यही सब लिखा था ! सो वही घटित हो रहा था जो नियति नटी करवाती है !
    शकुंतला एक अबोध किशोरी कन्या से, अब परिणीता हो चुकी थी। अपने स्वामी व सखा दुष्यंत को पुनः मिलने की आशा संजोये, भोली  शकुंतला अपनी आश्रम निवासिनी सखियों के संग मूक हिरनी सी चल दीं। वह बिरहिणी बार बार पीछे मुड़ कर अपने प्रेमी की आकृति मन में लेखती रही ! शकुंतला अब अकेली रह गई । 

राजा रवि वर्मा की कलाकृति
ऋषि कण्व आश्रम लौट कर आये तब शकुंतला की सखियों ने हस्तिनापुर नरेश दुष्यंत के आगमन व प्रस्थान का वृतांत उन्हें विस्तार से कह सुनाया।
ऋषि कण्व ने अपनी पुत्री शकुंतला को गले लगाया तथा पुष्टि करते हुए प्रण किया कि,"वे शकुंतला को अपने पति महाराज दुष्यंत की राजधानी हस्तिनापुर अवश्य भेजने का प्रबंध करेंगें। महर्षि  शकुंतला से बोले ~ ' पुत्री, आश्रम के द्वार सदैव तुम्हारी प्रतीक्षा में विकल रहेंगें जिस भाँती यह मृग छौने रहेंगें। किन्तु पुत्री तुम इनकी चिंता न करना। आश्रम व वन प्रांत के समस्त पशु पक्षी, पेड़ पौधे तुम्हारे बिछोह से व्यथित तो अवश्य होंगें किन्तु तुम्हारे परिणय से संतुष्ट भी होंगें। बेटी, तुम सुख से अपने पति के व स्वगृह के लिए प्रस्थान करना !  मेरा तथा समस्त आश्रमवासियों का आशीर्वाद तुम्हारे संग संग रहेगा। '
    शकुंतला ने वृद्ध हो रहे ऋषि कण्व की ममता से गूँथी वाणी सुन कर उनके चरणों पर झुक गई।  अपने पिता समान ऋषिवर के आदर पूर्वक चरण स्पर्श किये तथा प्रसन्न हो कर वह दूर एक पेड़ की छाया में बैठ गयी।
संतुष्ट होकर तब वह अपने प्रियतम महाराज  दुष्यंत को पत्र लिखने लगी।
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मन ही मन आनंदित हो रही शकुंतला, अपने महाराज दुष्यंत से अपने आगमन के समाचार देते हुए आश्रम वासी ऋषि कण्व की सहर्ष अनुमति प्राप्त हुई है यह शुभ सन्देश पात्र द्वारा देना चाह रही थी।  इस आनंदानुभूति के क्षण में शकुंतला बाह्य वातावरण को लगभग भूल चुकी थी। भविष्य के मधुर स्वप्न अपने कोमल मन में संजोये, आशा की बेल को आकाश में फैलते हुए मानों निहारती हुई शकुंतला का ध्यान एकमात्र इस पत्र में केंद्रित हो गया। सम्पूर्ण  विश्व की गतिविधियाँ मानों ओझल हो गईं। अचानक एक कठोर स्वर ने शकुंतला को झकझोर कर भाव समाधि से हठात जगाया। शकुंतला उस कठोर स्वर से मानों जाग कर भयभीत चकित मृगी - सी ऋषि दुर्वासा के  क्रोध से रक्ताभ  हो रहे नयनों को विस्फरित नेत्रों से देखती रह गयी ऋषि दुर्वासा के क्रोधित मुख  से वह आहत होने लगी।

चित्र : शकुंतला द्वारा क्रोधित हुए ऋषि दुर्वासा
ऋषि दुर्वासा : " हे अभिमानी कन्या ! मैं ऋषि दुर्वासा तुम्हारे आश्रम का अतिथि हूँ।  मैं बारम्बार तुम्हें पुकारता रहा किन्तु तुमने तनिक भी ध्यान न किया।
    मेरी अवज्ञा करने वाली हे हठी कन्या। .. जाओ -- मैं तुम्हें श्राप देता हूँ कि जिसके ध्यान में मग्न होकर तुमने मेरी अवहेलना की है,  वही व्यक्ति तुम्हें भूल जाएगा "  कुपित ऋषि दुर्वासा का क्रोध अब भी शांत न हुआ था।  ऋषि कण्व व शकुंतला ने बारम्बार ऋषि दुर्वासा से क्षमा याचना की किन्तु सर्व प्रयास असफल रहे ! कुछ समय पश्चात दुर्वासा ने इतना अवश्य कहा कि, ' यदि किसी परिचित वस्तु को वह व्यक्ति देख लेगा तो उसे शकुंतला का स्मरण हो जाएगा। ' इस आशा की एक किरण से अपने महाराज दुष्यंत से पुनर्मिलन की आशा संजोये
शकुंतला आश्रम से हस्तिनापुर नगर जाने के लिए निकली। कण्व ऋषि शोकाकुल हुए तथा बोले कि, " पुत्री की इस बिदा - बेला के करूण क्षण में,यदि मेरी इस पालित पोषित कन्या के बिछोह से मैं इतना अधिक शोक संतप्त हूँ तब संतानों के बिछोह से अन्य गृहस्थ जन के मन की पीड़ा व संताप कितना अधिक होता होगा
उस की कल्पना भी नहीं कर पा रहा हूँ  "
ऋषि कण्व ने अपनी लाड़ली शकुंतला के संग आश्रम के बटुक विद्यार्थी भी देखभाल के लिए संग बिदा  किये।
    आश्रम से विदा होकर शकुन्तला, अब यात्रा करतीं हुईं नौका  में सवार हुई। उन्हें नदी जो पार करनी थी। नदिया का नीला जल हीलोरें ले रहा था।  जल में स्वर्णिम आभा लिए, चटुल मछलियाँ तैर रहीं थीं। शकुंतला के नयनों के अश्रु अभी सूखे न थे किन्तु दयावश अपने संग लाये अन्न के कण, वह मछलियों को खिलाने के लिए जल में बहाने लगी। मछलियां जल की सतह पे आ आ कर झट से अन्न कण मुंह में भर लेतीं। शकुंतला का ध्यान अब मछलियों के संग इस खेल में लग गया। मन अब यहां आ गया। दुर्वासा ऋषि का श्राप अब घटित होने को था सो अनहोनी घटनी ही थी सो घट ही गई ! भोली  शकुंतला को सुध ही न रही कि किस क्षण, उसकी ऊँगली से, निकल कर दुष्यंत की दी हुईराज मुद्रिका जल में फिसल कर डूब गई । शकुंतला इस दुर्घटना से अनभिज्ञ ही रही।
    महाराज दुष्यंत की राजधानी हस्तिनापुर में शकुंतला का आगमन ~~
हस्तिनापुर के राज प्रासाद में शकुंतला का आगमन हुआ। महाराज दुष्यंत राज सिंहासन पर आरूढ़ थे।
शकुंतला के संग आये आश्रमवासी बटुक ने महाराज को अवगत करवाते हुए आश्रम भगिनी शकुंतला का परिचय देते हुए कहा कि ' हे परम प्रतापी महाराज दुष्यंत,  यह आश्रम निवासिनी कन्या शकुंतला मेरी भगिनी हैं - ऋषि कण्व की पालित पोषिता कन्या हैं एवं यह आपकी भार्या हैं। अतः आप इन्हें स्वीकारें महाराज ' महाराज दुष्यंत ऋषि दुर्वासा के श्राप के कारण अपनी प्रेयसी पत्नी शकुंतला की स्मृति विस्मृत कर चुके थे। अतः महाराज दुष्यंत ने कहा, ' मेरे लिए यह यह सन्नारी सर्वथा अपरिचितता हैं ! यदि आप का कथन है कि मेरा इनसे कोइ पूर्व परिचय है तो  परिचय चिह्न दिखलाया जाए ' शकुंतला को सहसा दुष्यंत की दी हुई राज मुद्रिका का ध्यान हो आया ! " हाँ वही दिखला दूँ " यह सोच कर शकुंतला ने हथेली पे दृष्टि फेरी तो ऊँगली पर वह मुद्रिका न थी !" हा ~ देव यह कैसा दुर्भाग्य ! " असहाय शकुंतला व्यथित हो उठीं ! किन्तु शोक संतप्त शकुंतला के नयन कोर से अश्रु उमड़े तो ह्रदय में क्षोभ भी उमड़ पड़ा !
मानिनी शकुंतला असहाय तो थीं किन्तु क्षणार्ध के लिए भी अब इस राज प्रासाद में वे, रुकी नहीं ! अपना उत्तरीय नेत्रों से लगाए, स्वाभिमानी शकुंतला, महाराज दुष्यंत का राजमहल व महानगर  त्याग कर निर्जन वन की दिशा  में अकेली ही चल दीं !
Forsaken Sakuntala painting 
शकुंतला की व्यथा ~ कथा ~ महाराज दुष्यंत ने दुर्वासा ऋषि के श्राप के कारण अपनी प्रिया शकुंतला को पहचाना नहीं तब शकुंतला राज्य सभा का त्याग कर नगर से दूर निर्जन वन की दिशा में चलीं गईं। महाराज दुष्यंत शकुंतला के प्रस्थान के पश्चात राजकरण से उदासीन रहने लगे। मन ही मन वे द्वंद्व में रहने लगे।
ना ही सँगीत भाता नाही नृत्यांगनाओं का सम्मोहन उन्हें बाँध पाता ! मंत्री गण व सभासद सभी अपने महाराज की मनोदशा देख कर खिन्न रहते। कोइ उपाय सूझ न रहा था जो महाराज को प्रसन्न कर सके।
      एक दिवस एक मछुआरा राज सभा में उपस्थित होने की गुहार लगाता हुआ द्वारपालों से ऊँचे स्वरों में  कहने लगा " महारज्ज के समीप ले चलो मुज्हे शीघ्र राजसभा में चलो ! " द्वारपाल उसे महाराज दुष्यंत के समक्ष ले आये।  मछुआरे ने सविनय प्रणाम करते हुए सहर्ष उदगार किया, " महाराज की जय हो ! हे परम प्रतापी अन्नदाता ! आज एक अद्भुत काण्ड हुआ ! मेरे जाल में एक बड़ी मछली फंस गई जिस का मुख खुला था ! मैंने देखा तो स्वर्ण मुद्रिका मत्स्य के मुख में फंसी थी। महाराज ! यह रही वह स्वर्ण - मुद्रिका ! " मछुआरे ने ज्यों ही स्वर्ण मुद्रिका महाराज को सौंपी तो उसे देखते ही महाराज दुष्यंत को शकुंतला की स्मृति पुनः हो आयी। दुष्यंत को पछतावा हुआ। मछुआरे को इनाम दे कर विदा कर दिया गया किन्तु महाराज उद्विग्न हो उठे - अपनी सेना को चारों दिशाओं में दौड़ा दिया आदेश दिया -- ' जाओ महारानी शकुंतला को खोज निकालो ' सेना के सिपाही दसों दिशाओं में फ़ैल कर शकुंतला को खोजने लगे।  देवी शकुंतला ने कश्यप  ऋषि के आश्रम में आश्रय लिया था। गर्भवती शकुंतला ने निर्जन वन प्रांत में निर्भयता से रहते हुए अपने पुत्र भरत को जन्म दिया। बालक भरत अत्यंत बलशाली था। वन के हिंस्र पशु से बालक भरत निर्भय होकर खेला करता था। बाघ व सिंह पे भरत सवारी किया करता था। माता शकुंतला ने भरत के हाथ पे रक्षा के लिए काला डोरा बाँध दिया था जो सदैव भरत की रक्षा किया करता था।
       एक दिन महाराज दुष्यंत वन में घूमते हुए वहीं आ निकले। निर्भय एवं परम पराक्रमी बालक को सिंह सवार देख महाराज दुष्यंत आश्चर्यचकित हुए। अपने रथ से उतर कर महाराज ने बालक का नाम पूछा तो उत्तर मिला
" मेरा नाम भरत है ! " बालक को निहारते हुए दुष्यंत के ह्रदय में वात्सल्य उमडने लगा। सहसा बालक की बांह पर बँधा काला डोरा टूट कर भूमि पे जा गिरा ! इस दृश्य को देखते ही आश्रमवासी स्त्री भागती हुई माता  शक्ति शकुंतला  के समीप आई तथा कहने लगी ' हे माते एक दिव्य पुरुष पधारे हैं जो हमारे भरत के संग क्रीड़ा कर रहे हैं -- आप शीघ्र वहीं चलें ' शकुंतला तथा दुष्यंत कुछ क्षणों में एकदूजे के समक्ष उपस्थित थे।  महाराज दुष्यंत अपनी स्मृति ज्योति शकुंतला को निहार कर अति प्रसन्न हुए तथा अपनी पत्नी व् पुत्र को लिए अपनी राजधानी हस्तिनापुर लौटे वहाँ अमर युगल का आनंद उल्लास सहित स्वागत हुआ।
भारत वर्ष का नामकरण कहते हैं कि इसी बालक भरत के नाम से प्रतिष्ठित हुआ। भरत चक्रवर्तित सम्राट हुए।  चित्र : बाघ व सिंह पे सवार बालक भरत
दुष्यंत शकुंतला के लिए इमेज परिणाम
अमर युगल दुष्यंत ~ शकुंतला की प्रणय गाथा आधुनिक काल में भी जन जन के मन रंजित करती हुई अति प्रिय है तथा सदैव रहेगी। -
~ लावण्या 

1 comment:

Vasumati Chaturvedi said...

ज्ञानवर्धक एवं रोचक कथा