Monday, September 8, 2014

छन्द और वैदिक काल

छन्द और वैदिक काल



 श्री गुरुदत्तजी की लिखी एक पुस्तक है  –

” वेद और वैदिक काल ” उसमेँ  छन्द क्या थे ? '

 इस पर उन्होंने प्रकाश डाला है । 

” कासीत्प्रमा प्रतिमा किँ निदानमाज्यँ किमासीत्परिधि: 

क आसीत्` छन्द: किमासीत्प्रौगँ किँमुक्यँ यद्देवा 

देवमजयन्त विश्वे ” 

जब सम्पूर्ण देवता परमात्मा का यजन करते हैं तब उनका  स्वरुप क्या था ?

इस निर्धारण और निर्माण मेँ क्या पदार्थ थे ? उसका घेरा कितना बडा था ? 

वे छन्द क्या थे जो गाये जा रहे थे ? वेद इस पूर्ण जगत का ही वर्णन करते हैँ । 

कहा है कि, जब इस जगत के दिव्य पदार्थ बने तो छन्द उच्चारण करने लगे। 

 वे ” छन्द ” क्या थे?

” अग्नेगार्यत्र्यभवत्सुर्वोविष्णिहया सविता सँ बभूव अनुष्टुभा 

सोम उक्थैर्महस्वान्बृहस्पतयेबृँहती वाचमावत् विराण्मित्रावरुणयोरभिश्रीरिन्द्रस्य 

त्रिष्टुबिह भागो अह्ण्: विश्वान्देवाञगत्या विवेश तेन चाक्लृप्र ऋषयो मनुष्या: “ 

 ऋ: १० -१३० -४, ५
                                       
अर्थात उस समय अग्नि के साथ गायत्री छन्द का सम्बन्ध उत्पन्न हुआ। उष्णिता से 

सविता का और ओजसवी सोम से अनुष्टुप व बृहसपति से बृहती छन्द आये। 

विराट छन्द , मित्र व वरुण से, दिन के समय,

 त्रिष्टुप इन्द्रस्य का विश्वान्देवान से सन्पूर्ण देवताओँ का जगती छन्द व्याप्त हुआ । 

उन छन्दोँ से ऋषि व मनुष्य ज्ञानवान हुए जिन्हे ” यज्ञे जाते” कहा है।  

यह सृष्टि रचना के साथ उत्पन्न होने से उन्हेँ ” अमैथुनीक ” कहा गया है।
                                

इस प्रकार वेद के ७ छन्द हैँ शेष उनके उपछन्द हैँ। 

उच्चारण करनेवाले तो  देवता थे परन्तु वे मात्र सहयोग दे रहे थे।  

तब प्रश्न उठता है सहयोग किसे दे रहे थे  ? उत्तर है,  परमात्मा को ! 
                      
उनके समस्त सृजन को ! 

ठीक उसी तरह जैसे, हमारा मुख व गले के “स्वर  यन्त्र ” आत्मा के कहे शब्द उच्चारते 

हैँ उसी तरह परमात्मा के आदेश पर देवताओँने छन्दोँ का उच्चारण किया।            

जिसे सभी प्राणी भी तद्पश्चात बोलने लगे व हर्षोत्पाद्क अन्न व उर्जा को प्राप्त 

करने लगे। इस वाणी को ” राष्ट्री ” कहा गया। 

 जो शक्ति के समान सब दिशा मेँ , छन्द – रश्मियोँ की तरह तरलता लिये फैल गई । 

राष्ट्री वाणी तक्षती, एकपदी, द्विपदी, चतुष्पदी, अष्टापदी, नवपदी रूप पदोँ मेँ कट 

कट कर आयी।  

अब प्रश्न  है कहाँ से आयी ये दिव्य वाणी  ? 

तो उत्तर है , वे सहस्त्राक्षरा परमे व्योमान् से ही आविर्भूत हुईं।

(साभार – लावण्या दीपक शाह)

3 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

ज्ञानदायिनी पोस्ट।

MANOJ SHARMA said...

सुन्दर लेख ,आभार ,
आपके ब्लॉग पर फीडबर्नर सुविधा नहीं दिखी जिससे की आपके लेख सीधे मेल पर प्राप्त कर सके ,मेरा मेल - manoj.shiva72@gmail.com

सु-मन (Suman Kapoor) said...

बढ़िया