Monday, April 17, 2017

" एक थी तरू " पुस्तक आदरणीया माँ जी श्रीमती सरस्वती प्रसाद जी ' की स्मृति में


" एक थी तरू  " पुस्तक आदरणीया माँ जी 
श्रीमती सरस्वती  प्रसाद जी ' की स्मृति में मातृ तर्पण  रूपी पुस्तक, माँ जी की पुत्री लेखिका रश्मि प्रभा जी ने छपवाई है। 

सौ. रश्मि प्रभा जी ने जब मुझे  भूमिका लिखने का आग्रह किया तब मैंने यह आलेख लिखा। 
" आज , मैं , लावण्या , परम आदरणीया माँ जी ' श्रीमती सरस्वती  प्रसाद जी ' की स्मृतियों की बगिया में सैर करने निकली हूँ। अमरीका में दिसंबर का महीना है और बाहर  ६ इंच बर्फ गिरी है।   स्वच्छ , धवल बर्फ की सफेदी चारों ओर  हर वस्तु को अपने में समेटे शांत है। शान्ति बिखरी हुई है। प्रकृति  निस्तब्धता के परों  पर चतुर्दिक फ़ैली हुई है !  
मेरे प्रिय भारत से, मेरी भौगोलिक दूरियाँ मीलों लम्बी हैं और सात समुन्दर पार बैठी हुई मैं, आज माँ जी स्व . सरस्वती  प्रसाद जी के हिंदी ब्लॉग मैं और मेरी सोच...को पढ़ रही हूँ ! 
सच,  आधुनिक युग के आविष्कार www या इंटरनेट के जरीये,यह  सम्पूर्ण विश्व एक घर सा प्रतीत होता है।  विश्व के हर कोने से लिखे जा रहे, ब्लॉग याने  जाल घरों को हम कहीं से भी पढ़ पाते हैं और कितना कुछ जान लेते हैं ! 
एक सजग रचनाकारा, एक भावपूर्ण कवयित्री, सशक्त लेखिका और एक वात्स्ल्यमयी  माँ और गर्विता पत्नी की छवि  माँ जी सरस्वती जी के लेखन से उजागर है। एक के बाद एक उनकी प्रविष्टियों को पढ़ते हुए उनकी भव्य एवं पावन जीवन यात्रा की मनोरम छवि, इंटरनेट के माध्यम से, दूर से ही भले, मैं  देख रही हूँ पढ़ रही हूँ और मन हर्षित है! जब कभी हम कुछ ऐसा पढ़ते हैं जो हमारे अंतर्मन को छू जाता है तब ऐसे ही भाव ह्रदय में हिलोर लेते हैं ! 
      
मेरे सामने खुला है उनका एक रंगीन चित्र ! उनके भावपूर्ण शब्द और उनकी पसंद का गीत लिंक स्वर साम्राज्ञी लता दीदी जी के सुमधुर स्वरों में बज रहा है - ' मेरा छोटा सा देखो ये संसार है ' .... गीत की स्वर लहरियों को  सुन  कर मेरे नयन बार बार, अनायास सजल हो उठते हैं ! मेरे मन में श्रध्धा का भाव उमड़ रहा है !
 परन्तु एक प्रेम की प्रतिमा , एक वात्सल्य की देवी स्वरूपा माँ को कोइ किन शब्दों में याद करते हुए अंजलि दे ? यही सोच रही हूँ ! जब मैं अपनी भावांजलि माँ जी सरस्वती  जी को दे रही हूँ  … 
        
मेरी अनुजा एक सजग, उर्मिशील रचनाकार सौ . रश्मि प्रभा के आग्रह पर उनकी तथा मेरी, परम आदरणीया माता जी सरस्वती सदृश माँ जी की पुस्तक के लिए यह आलेख लिख रही हूँ।
गहन  सोच में लीन हो आखिरकार इस निष्कर्ष पर पहुँची हूँ कि, माँ जी के शब्दों से ही आपको उनका परिचय करवाऊं, यही सबसे अच्छा रहेगा। 

सो आगे, उन्हीं की वाणी को, मुखर किये देती हूँ। माँ जी के ब्लॉग से चुन चुन कर आप के संग श्रध्धा सुमन बाँट रही हूँ।
छायावाद के सुप्रसिध्ध स्तम्भ कविराज श्री सुमित्रानंदन पंत जी को मैं , ' दादा जी ' पुकारा करती थी।  मेरे पिता जी, स्व. पंडित नरेंद्र शर्मा और पंत जी दादा जी में अपूर्व घनिष्ठता थी। प्रबुध्ध रचनाकारा सुश्री सरस्वती जी के पारिवारिक संबंध भी पंत जी दादा जी के संग वैसे ही मधुर रहे हैं जैसे हमारे परिवार के संग रहे हैं । अत : हम दोनों परिवार  श्रद्धेय ' पंत ' जी की स्नेहाशीष रूपी रश्मि की डोरों से बंधे हुए हैं।
माँ जी सरस्वती जी की बिटिया
 का नामकरण  ' रश्मि प्रभा '  भी पंत जी के वरद मन का दिव्य प्रसाद है ! ये पंत जी जैसे ' हिंदी भाषा के संत कविवर की विलक्षण प्रतिभा की एक झलक मात्र है पंत जी ने कुछ चुने हुए विलक्षण नाम दिए हैं। पहले भी ' रश्मि प्रभा '  जैसा एक काव्यात्मक , अनोखा नाम चुन कर रखा था पंत जी ने याद दिलाऊं ? एक और  नाम पंत जी का दिया हुआ है - ' अमिताभ ' ! 
अब चलें माँ जी के शब्दों में उनके  अंतर्मन की यात्रा की और चलें  ~~~ 
 
पूजनीया  जी के शब्द  :   आप भी सुनें। 

' आरा शहर की एक संकरी सी गली के तिमंजिले मकान में मेरा जन्म २८ अगस्त को हुआ था। समय के चाक पर निर्माण कार्य चलता रहा। किसी ने बुलाया 'तरु' (क्योंकि माता-पिता की इकलौती संतान होने के नाते मैं उनकी आंखों का तारा थी)। स्कूल (पाठशाला) में नामांकन हुआ 'सरस्वती' और मेरी पहचान - सरू,तरु में हुई।  ' 
 कवि पन्त ने मुझे अपनी बेटी माना...और तभी संकलन निकालने का सुझाव दिया, इस आश्वासन के साथ  की भूमिका वे लिखेंगे.. मेरी रचना "नदी पुकारे सागर" हाल में प्रकाशित हुई..

मेरे मान्य पिता श्री. पन्त इसकी भूमिका नहीं लिख सके पर उनकी अप्रकाशित कविता जो उन्होंने मेरे प्रयाग आगमन पर लिखी थी..इस संकलन में हैं जो भूमिका की भूमिका से बढ़कर हैं...'   
वे आगे लिखतीं हैं ~~~ 
' मेरी आँखें बहुत सवेरे पड़ोस में रहनेवाली नानी की 'पराती' से खिलती थी। नानी का क्रमवार भजन मेरे अन्दर अनोखे सुख का संचार करता था । मुंह अंधेरे गलियों में फेरा लगनेवाले फ़कीर की सुमधुर आवाज़ इकतारे पर - 
' कंकड़ चुन-चुन महल बनाया
लोग कहे घर मेरा है जी प्यारी दुनिया
ना घर मेरा ना घर तेरा , 
चिडिया रैन बसेरा जी
प्यारी दुनिया ......' । 
मेरे बाल-मन में किसी अज्ञात चिंतन का बीजारोपण करती गई। फ़कीर की जादुई आवाज़ के पीछे - पीछे मेरा मन दूर तक निकल जाता था।
मुझे लगता था सूरज का रथ मेरी छत पर सबसे पहले उतरता है। चाँद अपनी चांदनी की बारिश मेरे आँगन में करता है। तभी मैं अपने साथियों के साथ 'अंधेरिया-अंजोरिया'का खेल खेलते हुए मुठ्ठी में चांदनी भर-भर कर फ्रॉक की जेब में डालती थी और खेल ख़त्म होने पर उस चांदनी को निकालकर माँ के गद्दे के नीचे छुपा देती थी....' 
आगे 
' उम्र के २५ वे मोड़ पर आकर मेरी कलम ने लिखा -
"शून्य में भी कौन मुझसे बोलता है,
मैं तुम्हारा हूँ, तुम्हारा हूँ
किसकी आँखें मुझको प्रतिपल झांकती हैं
जैसे कि चिरकाल से पहचानती हैं
कौन झंकृत करके मन के तार मुझसे बोलता है
मैं तुम्हारा हूँ,तुम्हारा हूँ.........."

आगे ,
मैं घर गृहस्थी के साथ १९६१ में कॉलेज की छात्रा बनी । हिन्दी प्रतिष्ठा की छात्रा होने के बाद कविवर पन्त की रचनाएं मेरा प्रिय विषय बनीं । ६२ में साथियों ने ग्रीष्मावकाश के पहले सबको टाइटिल दिया ।कॉमन रूम में पहुँची तो सबों ने समवेत स्वर में कहा ' लो, पन्त की बेटी आ गई'...... अब ना मेरी माँ थी और ना बाबूजी । साथियों ने मुझे पन्त की बेटी बनाकर मेरी भावनाओं को पिता के समीप पहुँचा दिया। उस दिन कॉलेज से घर जाते हुए उड़ते पत्तों को देखकर होठों पर ये पंक्तियाँ आई ," कभी उड़ते पत्तों के संग,मुझे मिलते मेरे सुकुमार"......
"उठा तब लहरों से कर मौन
निमंत्रण देता मुझको कौन"..........
अगले ही दिन मैंने पन्त जी को पत्र लिखा , पत्रोत्तर इतनी जल्दी मिलेगा-इसकी उम्मीद नहीं थी। कल्पना ऐसे साकार होगी,ये तो सोचा भी नहीं था.....'बेटी' संबोधन के साथ उनका स्नेह भरा शब्द मुझे जैसे सपनों की दुनिया में ले गया। अब मैं कुछ लिखती तो उनको भेजती थी,वे मेरी प्रेरणा बन गए । वे कभी अल्मोडा भी जाते तो वहां से मुझे लिखते.......हमारा पत्र-व्यवहार चलता रहा। पिता के प्यार पर उस दिन मुझे गर्व हुआ , जिस दिन प्रेस से आने पर 'लोकायतन' की पहली प्रति मेरे पास भेजी,जिस पर लिखा था 'बेटी सरस्वती को प्यार के साथ'
फिर , और आगे , 
M.A में नामांकन के बाद ही मेरे साथ बहुत बड़ी दुर्घटना हो गई,अचानक ही हम भंवर में डूब गए - इसके बाद ही हम इलाहबाद गए थे। पिता पन्त जब सामने आए तो मुझे यही लगा , जैसे हम किसी स्वर्ग से उतरे देवदूत को देख रहे हैं। उनका हमें आश्वासित करना,एक-एक मृदु व्यवहार घर आए कुछ साहित्यकारों से मुझे परिचित करवाना,मेरी बेटी को रश्मि नाम देना, और बच्चों के नाम सुंदर पंक्तियाँ लिखना और मेरे नाम एक पूरी कविता....
जिसके नीचे लिखा है 'बेटी सरस्वती के प्रयाग आगमन पर' यह सबकुछ मेरे लिए अमूल्य धरोहर है। उन्होंने मुझे काव्य-संग्रह निकालने की सलाह भी दी,भूमिका वे स्वयं लिखते,पर यह नहीं हो पाया। ' 
 सरस्वती  जी के काव्योद्गार : 
' डूबते चाँद का पता पूछो
 एक मुसाफिर यहीं पे सोया है
 नभ की खिड़की से सर टिका करके
 जाने कौन सारी रात रोया है! '


यह मैं हूँ...


ज़िंदगी के मेले में - " अपनी खुशी न आए थे " पर आए।  किसी ने बुलाया ' सरु ' , किसी ने ' तरु ' और इसी के साथ माता - पिता के इकलौती बेटी की एक पहचान बन गई। अपना खेल , कौतुक , कौतुहल ... मैं वह छोटी चिडिया बन जाती थी जो अपनी क्षमता से अनभिज्ञ नभ के अछोर विस्तार को माप लेना चाहती हैं।  


मेरा एक प्यारा सा खेल था कुछ एक खाली कमरों में दौड़ लगते मैं ज़ोर से आवाज़ देती थी - माँ sssssssssssssssssssssssssss............. उसकी गूँज मुझे रोमांचित और विस्मृत करती थी।  बाद में माँ ने मेरे प्रश्न पर बताया - मेरे साथ वह बोलती हैं। हर्षातिरेक से भर कर मैं उससे लिपट गई थी। आगे चल कर मेरी यही सोच मेरे शब्दों में उतरी - 

एक और भक्ति भाव से पूरित कविता - जिसका शीर्षक है ~~ ' दाता  '

लकी नींद के आगोश से रात १२.१५ में उठकर लिखने पर विवश सी हो गई.......
शायद मैंने हाथ बढाये थे-
दर्द का दान देकर तुमने मुझे विदा कर दिया !
यह दर्द, निर्धूम दीपशिखा के लौ की तरह
तुम्हारे मन्दिर में अहर्निश जलता है।
कौन जाने, कल की सुबह मिले ना मिले
अक्सर तुमसे कुछ कहने की तीव्रता होती है
पर.......... सोचते ही सोचते,
वृंत से टूटे सुमन की तरह
तुम्हारे चरणों में अर्पित हो जाती हूँ ! '


जो स्नेह करता हैं,
वही दुःख पाता हैं,
उसकी ही साँसें गिनती हैं घड़ियाँ,
वही चुना करता हैं,
आँसुओं के फूल,
छेड़ दिल के तारों को,
दर्द भरा गीत वही गाता हैं,
जो स्नेह करता हैं,
वही दुःख पाता हैं!
माना कि तुम-कोई कवि नहीं हो,
पर स्नेहसिक्त अनुभूतियों से अजनबी नहीं हो-
इस बात को तुम कैसे झुठलाओगे?
-नदी के उस पार ,
जब विश्वास का दिया जलता हैं,
तो सुना हैं मैंने-
"टूटा हुआ आदमी भी चलता हैं!"

"बेटी सरस्वती (यानी मैं) के प्रयाग आगमन पर!"

विजयादशमी का दिन था वह। पितृवत पन्त के पास बैठी थी मैं , कितनी कवितायेँ गा-गा कर उन्होने सुनाई।मेरे आग्रह पर - यह सुप्रसिद्ध रचना भी सुनाई "यह धरती कितना देती हैं" मेरी छोटी बेटी मिन्नी को नाम दिया - रश्मि। हमारी उपस्थिति में वहाँ प्रेमचंद जी के सुपुत्र अमृतराय जी आये तो पन्त जी ने परिचय दिया - "आओ अमृत,इनसे मिलो ,यह मेरी बेटी सरस्वती हैं.मुझसे मिलने सपरिवार आई हैं." महादेवी जी से फ़ोन पर उनकी बातें हुई.कभी-कभी यथार्थ भी स्वप्नवत लगता है-हम वहाँ हो कर भी जैसे किसी स्वप्नलोक में विचरण कर रहे थे...उनके आग्रह पर खाया,साथ-साथ चाय पी। "भरतमिलाप" देखने चलने को उन्होने कहा पर हमें लौटना था और...!हमें विदा करने आये तो अपनी गेट पे तब तक खड़े रहे जब तक हम आँखों से ओझल न हुए । "लोकायतन" की पहली प्रति मुझे उपहार स्वरूप भेजी । "चिदाम्बरा" पर जब पुरस्कार मिला तो मुझे लिख भेजा - "कुछ मांगो"।
दिल के दौरे के बाद जब डॉक्टर ने उन्हें लिखने को मना किया तो उनके पत्रों का आना कम हो गया और फिर... वे रहे नहीं। दाता की अनुपम देन है यह कि मेरी ज़िन्दगी की पुस्तक में इतने मधुरतम क्षण अंकित हैं। ' 
आदरणीया माँ जी सरस्वती  जी की यह , भावपूर्ण  कविता जो उनके जीवन का दर्पण है , 
 सुनाते हुए आपसे सादर स स्नेह विदा लेती हूँ 
 ' मैंने बहुत प्यार किया हैं
 अपनी माँ को , अपने दोस्तों को , पास - पड़ोस को ,
 परिवार को …..
बिना सोचे समझे ख़ुद को न्योछावर किया हैं !!!
हर बार
मन की छोटी चिडिया फुर्र्र्र्र से उड़कर वहाँ पहुच जाती हैं
जहाँ बचपन बीता था
कोई पकड़ लेगा , इस बात का
डर नही लगता !
तुम मानो या न मानो
हमारे पास तितलियों के पंखो जैसे
कुछ मोहक सपने थे
सपने , जो पराये नही अपने थे .
आज हम जहाँ से गुजर रहे हैं
जिधर से गुजर रहे हैं
बेशुमार भीड़ हैं , शोर हैं , भागम भाग हैं
सभी के पास समय का आभाव हैं
किसी के पास पल दो पल ठहरना
किसी के मन की बात सुनना
इतना अवकाश हैं कहाँ ???
संबंधो के रेशमी ताने - बाने
जो भटकते मन को एक ठहराव देते थे
माथे की शिकन को
अपने स्नेहिल स्पर्श से मिटा देते थे वो अपनी अलग पहचान बनाने को
मुखौटों में जीने लगे हैं !
यहाँ हर चीज़ मुँह मांगी कीमत देकर
खरीदी जा सकती हैं
सिर्फ़ चाहने भर की बात हैं !
तुम शायद सोचते हो ,
इन सहज उपलब्धियों को देख कर
मुझे ईर्ष्या हैं , इसलिए दुःख हैं ...
किसी का सच ,
कौन पढ़ पाता हैं भला ?
और वह सच
धड़कते दिल के भीतर
बस , एक धड़कन बन कर रह जाता हैं !
इश्वर न करे , ऐसी नियति
कभी किसी को मिले
इसका दर्द मैंने सहा हैं ,
अकेलेपन को भूलने के लिए 
यादों को साथी बनाया हैं
कलम से दोस्ती की हैं
अगर यह भी नही होता
तो मैं क्या करती ?
मन की दशा भरे भरे मेघों सी हैं
यह कहीं खुल कर बरस जाना चाहता हैं
छोटी चिडिया तिल्लियों को तोड़ कर
उड़ जाना चाहती हैं !
माँ जी सरस्वती  जी की यह ,भावपूर्ण  कविता जो उनके जीवन का दर्पण है , 
 सुनाते हुए आपसे सादर स स्नेह विदा लेती हूँ  ~~ 
तुम यहाँ जब भी आओ
आज या कल या बरसों बाद
पाओगे दरवाज़े पर बैठी दो प्रतीक्षित आँखें
खारे पानी में तिरती
दो बेचैन पुतलियाँ एक माँ की...
जिसका बेटा कह कर गया
"ठहरो माँ मैं अभी आया"
चाहे तुम जब भी आओ..
आज या कल या बरसों बाद....
कलरव में डूबी भोर हो...
या अंगारे उगलती दोपहर...
बरसती हुई शाम हो या ठिठुरती हुई रात...
ये प्रतीक्षारत आँखें
कभी हटती नहीं, थकती नहीं, झिपती नहीं...
ध्यानावस्थित बैठी रहती हैं...
निराश नहीं होती...
ये दो आँखें,माँ की हैं न...
जिसका बेटा कह कर गया...
"ठहरो माँ मैं अभी आया"
तुम यहाँ जब भी आओ
आज या कल या बरसों बाद
पाओगे किसी बेसहारा टूटे सितारे सी एक भटकती आत्मा...
घर के इर्द गिर्द,पास पड़ोस पिछवाडे..
रूंधे कंठ से घर लौट आने वाले को आवाज़ देती हुई
दरवाज़े पर बैठी दो प्रतीक्षित आँखें...
खारे पानी में तिरती दो बेचैन पुतलियाँ' 
एक माँ की...
जिसका बेटा कह कर गया
"ठहरो माँ मैं अभी आया"
- सरस्वती प्रसाद
(प्रकाशित "नदी पुकारे सागर" में)











संकलन - सुश्री रश्मि प्रभा जी के सौजन्य से 
आलेख संरचना : श्रीमती लावण्या दीपक शाह 
 सम्प्रति : ओहायो , यु .एस .ए  से 
ई मेल : Lavnis@gmail.com 

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