Thursday, September 14, 2017

संवरण-तपती : अमर युगल पात्र

अमर युगल पात्र – संवरण-तपती : 

महाभारत, आदिपर्व

गंधर्वराज चित्ररथ ने अर्जुन को तपतीनंदन कहकर संबोधित किया। अर्जुन ने उनसे पूछा कि वे तो कुन्ती के पुत्र हैं, फिर तपतीनंदन कैसे हुए। इस पर गंधर्वराज ने सूर्यपुत्री तपती की कथा सुनाई।
आकाश में सर्वश्रेष्ठ ज्योति भगवान सूर्य हैं। उनकी प्रभा स्वर्ग तक व्याप्त है।
उन्हीं सूर्यदेव की पुत्री का नाम था ‘तपती’ !
 तपती अपने पिता  सूर्य के समान ज्योति से परिपूर्ण थी। अपनी तपस्या के कारण वह तीनों लोकों में तपती के नाम से पहचानी जाती थी। तपती सावित्री की छोटी बहन थी। तपती के जैसी सुंदर, सुशील कन्या, असुर योनि, नाग वंश,यक्ष समुदाय, या गंधर्व प्रजा - किसी में भी नहीं थी। उसके योग्य पुरुष पति ढूँढना, सूर्यदेव को भी भारी पड़ रहा था। सो वे हमेशा चिंतित रहते थे कि अब ऐसी रूपवती कन्या का विवाह करें भी तो किससे करें?
      उस समय पृथ्वी पर, पुरुवंश के राजा ऋक्ष के पुत्र ‘संवरण’ राज कर रहे थे। गवान सूर्य के परम् भक्त थे। वे बड़े ही बलवान थे। वे प्रतिदिन सूर्योदय के समय अर्ध्य, पाद्य, पुष्प, उपहार, सुगंध, लेकर , अत्यंत पवित्र ह्रदय से, सूर्य देवता की पूजा किया करते थे। नियम, उपवास तथा तपस्या से सूर्यदेव को संतुष्ट करते और बिना अहंकार के पूजा करते। संवरण की भक्ति देख धीरे-धीरे सूर्यदेवता के मन में यह बात आई कि, यही राजपुरुष मेरी पुत्री ‘तपती’ के योग्य पति हैं।
        एक दिन की बात है – संवरण अपना उम्दा  घोड़ा लेकर जंगल की तराइयों में शिकार खेलने निकल पड़े। बहुत देर तक घुड़सवारी करने पर उनका घोड़ा भूख, प्यास के कारण, वहीं जमीन पर गिरकर मर गया। अचानक उनकी दृष्टि निर्जन वन में निर्भय होकर विचरण करती, एक अकेली कन्या पर पड़ी।  वे उसकी ओर अनिमेष नयनों से निहारने लगे। उन्हें ऐसा लगा मानो साक्षात सूर्य की प्रभा ही पृथ्वी पर विचरण कर रही हो ! 

          उनके मन में विचार आया, ‘‘ओहो। इस युवती कन्या का स्वरूप दैवी है। ऐसा रूप मैंने नहीं देखा।’’ 
     राजा के नयन और मन कन्या में गड़ गए। वे सारी सुधबुध भूल गए। हिलना-डुलना भी भूल गए। जब वह कन्या एक वृक्ष के पीछे ओझल हुई तब उन्हें  चेतना आई। उन्होंने मन-ही-मन निश्चय किया कि ब्रह्माजी ने त्रिलोक के सौंदर्य को एकत्र करके इस मूर्ति को बनाया है। उन्होंने उस कन्या  के पीछे जाकर कहा,
‘‘हे त्रिलोक सुंदरि, तुम कौन हो ? किसकी पुत्री हो? इस निर्जन वन प्रांत में अकेले क्यों भ्रमण कर रही हो? तुम्हारी अनुपम काँति से, ये स्वर्णाभूषण  और भी अधिक  देदीप्यमान हो रहे हैं। तुम्हारे केशों में गूँथे लाल कमल की सुरभि से वातावरण सुगं‌धित हो उठा है। तुम अवश्य कोई अप्सरा या देवी हो। कहो तुम कौन हो? मैं तुम पर मेरा मन हार चुका हूँ। मैं, तुम्हारे प्रेम-पाश में बंध गया हूँ। कृपया, मेरा प्रणय-प्रस्ताव स्वीकार करो।’’
       कन्या सूर्यकुमारी ‘तपती’ राजा संवरण के ऐसे बोल सुनते ही लजा गईं।  वह कुछ बोली ही नहीं और बिजली कड़क उठे उसी तरह तत्क्षण अंतर्धान हो गई।
       अब ‘संवरण’ अत्यंत व्याकुल हो उठे  और असफल रह जाने पर विलाप करते-करते, बेहोश हो गए। जब ‘तपती’ ने व्योम से देखा कि राजा निश्चेष्ट हैं तब वह दयावश पुनः  प्रकट हुई और मीठी वाणी से कहने लगी,
‘‘राजन् उठिए। आप तो सत्पुरुष हैं, फिर इस तरह दयनीय स्थिति में क्यों जमीन पर लोट रहे हैं ?’’
तपती की अमृतमयी वाणी सुनकर संवरण की चेतना लौट आई। उन्होंने बड़े अनुनय से कहा, ‘‘अब मेरे प्राण तुम्हारे हाथों में हैं। मैं इस क्षण के पश्चात् तुम्‍हारे बगैर जी नहीं सकता। हे सुंदरी ! तुम मेरी इस अवस्था से व्यथित होकर यहाँ आई हो। अब मुझे छोड़कर कभी मत जाना। मुझ पर दया करो और मेरे साथ विवाह कर मुझे  स्वीकार करो।’’तपती ने कहा,
‘‘मेरे पिता जीवित हैं। आप उन्हीं से मेरे बारे में पूछें, यही योग्य है। आप जैसे धर्मज्ञ तथा विश्वविदित पुरुवंशीय सम्राट को पति रूप में पाने से मुझे कोई आपत्ति नहीं है। मैं भगवान् सूर्य की कन्या हूँ। विश्ववन्ध्य ‘सावित्री देवी’ की छोटी बहन हूँ।’’ इतना कहकर तपती आकाशमार्ग से अंतर्धान हो गई और संवरण फिर मूर्छित हो गए।
        उसी बीच राजा संवरण के बहुत सारे सैनिक उन्हें ढूँढते-ढ़ूँढते वहीं आ पहुँचे। उन्‍होंने राजा को फिर जाग्रत किया। राजा ने पूरे सैन्य को लौटा दिया और वे स्वयं अपने कुलगुरु वशिष्ठजी को याद करके मन को पवित्र करके एकाग्रता के साथ सूर्य देव की उपासना करने में जुट गए।
          ठीक बारह दिनों के पश्‍चात् महर्षि वशिष्ठ  वहाँ पधारे। उन्होंने संवरण को आश्वासन दिया, ढाँढस बँधाया और फिर सूर्यदेव के सम्मुख जाकर अपना परिचय दिया। प्रणामपूर्वक उन्होंने कहा कि, " आपकी पुत्री यशस्विनी तपती के लिए, मैं  अपने राजा संवरण को पति होने का सौभाग्य चाहता हूँ। हमारी प्रार्थना स्वीकारिए।’’ 
          सूर्य देव ने प्रार्थना सुन ली और गुरु वशिष्ठ के साथ अपनी सर्वांग सुंदरी कन्या को भेज दिया। गुरु वशिष्ठ के साथ आती हुई तपती को देखकर राजा संवरण अपने आनंद का संवरण न कर सके। इस प्रकार सूर्य की अटल आराधना तथा अपने गुरु की शक्ति के प्रभाव से, राजा संवरण ने, तपती जैसी नारी रत्न को प्राप्त किया।
       विधिपूर्वक उनका पाणिग्रहण संपन्न हुआ।

तद्पश्चात  कुछ काल तक उसी शैल शिखर पर राजा ने विहार किया। बारह वर्ष पर्यंत वे वहीं रहे। राजकाज मंत्रियों के द्वारा चलने लगा। तब इंद्र देव ने जो वर्षा ऋतु के स्वामी हैं, उनके राज्य में पानी बरसाना बंद कर दिया। सर्वत्र सूखा-अकाल पड़ गया। लोग मरने लगे। इतना कि ओस तक न पड़ी। प्रजा मर्यादाहीन होकर एक दूसरे को लूटने लगी। तब वशिष्ठ मुनि ने अपनी तपस्या के प्रभाव से वर्षा करवाई।
       तपती-संवरण प्रजा पालन हेतु अपनी राजधानी लौटे। फिर से पैदावार शुरू हो गई। राज दंपत्ति ने सहस्रों वर्षों तक सुख भोगा। इसी तपती के गर्भ से राजा ‘कुरु’ का जन्म हुआ और इसी से कुरु वंश का प्रारंभ हुआ।
- लावण्‍या शाह 

3 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (16-09-2017) को
"हिन्दी से है प्यार" (चर्चा अंक 2729)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

गगन शर्मा, कुछ अलग सा said...

नई तथा रोचक जानकारी

Doanh Doanh said...
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