परिचय :
नाम :जयप्रकाश मानस (मूल नाम जयप्रकाश रथ)
जन्म : २ अक्टूबर, १९६५शिक्षा :एम.ए. (भाषा विज्ञान),एम.एस.सी (आई.टी.)प्रकाशित कृतियाँकविता संग्रह : तभी होती है सुबह,होना ही चाहिए आँगनललित निबन्ध: दोपहर मेँ गाँव (पुरस्कृत)
बाल गीत:
१) चलो चलें अब झील पर२) सब बोले दिन निकला३) एक बनेंगे नेक बनेंगे४) मिलकर दीप जलायेंनव साक्षरोपयोगी:१ : यह बहुत पुरानी बात है२ : छत्तीसगढ़ के सखा३ : लोक साहित्य:४ : लोक वीथी:१ ) छत्तीसगढ़ की लोक कथायें (१० भाग)२) हमारे लोकगीतभाषा एवं मूल्यांकन :१ - छत्तीसगढ़ी: दो करोड़ लोगों की भाषा२ - बगर गया वसंत (बाल कवि श्री वसंत पर एकाग्र)छत्तीसगढ़ी:कलादास के कलाकारी(छत्तीसगढ़ी भाषा में प्रथम व्यंग्य संग्रह)शीघ्र प्रकाश्य:१) हिन्दी ललित निबन्ध२) हिन्दी कविता में घरसंपादन:१) विहंग (२० वीं सदी की हिन्दी कविता में पक्षी)२) महत्व: डॉ. बलदेव (समीक्षक)३ ) महत्व: स्वराज प्रसाद त्रिवेदी (पत्रकार)पत्रिका संपादन एवं सहयोग:१ ) बाल पत्रिका, बाल बोध (मासिक) के १२ अंकों का संपादन२) लघुपत्रिका प्रथम पंक्ति (मासिक) के २ अंकों का संपादन३) लघुपत्रिका पहचान: यात्रा (त्रैमासिक) में संपादन सहयोग४) लघुपत्रिका छत्तीसगढ़: परिक्रमा (त्रैमासिक) में संपादन सहयोग५ ) अनुवाद पत्रिका सद्-भावना दर्पण (त्रैमासिक) में संपादन सहयोग६) लघुपत्रिका सृजन:गाथा (वार्षिक एवं अब त्रैमासिक) संपादनअंतरजाल पत्रिका: १ ) सृजन:सम्मान का सम्पादन
कृषि आधारित पत्रिका काश्तकार को तकनीकी सहयोगसृजनगाथा (मासिक) का प्रकाशन व सम्पादनएलबम:आडियो एलबम :तोला बंदौं (छत्तीसगढ़ी) ,जय माँ चन्द्रसैनी (उड़िया)वीडियो एलबम : घर:घर माँ हावय दुर्गा(छत्तीसगढ़ी) पुरस्कार एवं सम्मान:कादम्बिनी पुरस्कार (टाईम्स ऑफ़ इण्डिया),बिसाहू दास मंहत पुरस्कार,अस्मिता पुरस्कार,अंबेडकर फैलोशिप (दिल्ली),अंबिका प्रसाद दिव्य रजत अलंकरण एवं अन्य तीनसम्मान विशेष:ललित निबन्ध संग्रह 'दोपहर में गाँव' पर रविशंकरवि.वि. रायपुर से लघु शोधदेश में ललित निबन्ध पर केन्द्रित प्रथम अ. भा.संगोष्ठी का आयोजनआकाशवाणी रायपुर से शैक्षिक कार्यक्रम का २वर्ष तक साप्ताहिक प्रसारराष्ट्रीय साक्षरता मिशन, नई दिल्ली के अंतर्राष्ट्रीयलेखन कार्यशाला में
प्रतिभागी राजीव गाँधी शिक्षा मिशन, मध्यप्रदेश में २ वर्ष तक राज्य स्त्रोत पर्सन का कार्य देश की प्रमुख सांस्कृतिक संगठन -
सृजन - सम्मान का संस्थापक महासचिव: १९९५ से
चयन मंडल में संयोजन: एक लाख से अधिक राशि वाले ३० प्रतिष्ठित एव अखिल भारतीय साहित्यिक पुरस्कारों के चयन मंडल का संयोजक - शासकीय चाकरी: परियोजना निदेशक, संपूर्ण साक्षरता अभियान, जिला रायपुर - परियोजना निदेशक, राष्ट्रीय बाल श्रम उन्मूलन, जिला रायपुर - उप संचालक, शिक्षा, जिला रायगढ़ - सचिव, छत्तीसगढ़ संस्कृत बोर्ड, छत्तीसगढ़ - शासन, रायपुर सचिव, छ्त्तीसगढ़ी भाषा परिषद, छत्तीसगढ़ शासन, रायपुर - विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी छ.ग. हिन्दी ग्रंथ अकादमी, रायपुर, अंजोरम - (शिक्षा विभाग की त्रैमासिक पत्रिका) हिन्दी चिट्ठाकारी : जयप्रकाश मानस जी पुरस्कृत हुए हैं।
(श्री जय प्रकाश मानस)
सृजन-गाथा के चिट्ठाकार श्री जयप्रकाश मानस को उनकी हिन्दी चिट्ठाकारिता के लिए माता सुंदरी फ़ाउंडेशन पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। विस्तृत समाचार यहाँ देखें।
श्री जयप्रकाश मानस जी को ढेरों बधाईयाँ व शुभकामनाएँ.
यह तथ्य स्पष्ट है कि श्री जयप्रकाश मानस जी, हिंदी साहित्य के सफल व सशक्त हस्ताक्षर हैं और एक लोकप्रिय व सफल सम्पादक हैं। अंतरजालीय, साहित्यिक व सांस्कृतिक इत्यादि गतिविधियों पर बराबर उनकी आँख रहती है।अपनी पारखी नज़रों से, भाई जयप्रकाश जी, कई कार्यक्षेत्रों के बारे में, सुरुचिपूर्ण पत्रिका के माध्यम से, एक विशाल हिन्दी भाषीय क्षेत्र को साहित्य विषयक समाचार से, अवगत करवाते रहे हैं।
मुझे जयप्रकाश जी के निबंधों ने, उस में प्रयुक्त भाषा लालित्य ने तथा उनके लेखन में जो स्पष्टवादिता है साथ साथ जो एक सुलझी हुई परिपक्वता है उस लेखकीय ऊर्जा ने मेरा ध्यान उनके लेखन पर केंद्रित किया था।भारतीय माटी की सौंधी सुगंध उनकी रचनाओं का श्रृंगार है। भारतीय जीवन शैली से जो व्यक्ति जुड़ा रहता है वही अपनी रचनाओं में भारतीय समाज को प्रस्तुत कर पाता है।दैनिक जीवन हो या कि परिवेश जब उस पर लेखक की द्रष्टि रहती है तब वह रचनाओं को विशेष बना देती है। इसी प्रकार की प्रामाणिकता ने सूक्ष्म सूझ - बुझ ने जयप्रकाश जी की प्रत्येक रचनात्मक विधा को, सरस एवं पठनीय बनाया है।श्री जयप्रकाश मानस जी के लेखन में इन सारे लेखकीय गुणों का समावेश है। रचनाकार के लेखन के इन गुणों की सराहना लोक में और अन्य साहित्यकारों ने स्वागत करते हुए हिंदी साहित्य के उनके अवदान पर प्रशंशा की है।" चिठ्ठियाँ गायब हुई " नाम से लिखे, कुछ ८ - १० कुछ मुक्तक पढ़े थे। मैंने यह रचनाकार श्री जयप्रकाश मानस जी का लिखा हुआ शायद नेट पर पहली बार कुछ पढ़ा था और हाँ शायद लेखक के पास आज भी वे सुरक्षित हों ! अब इस बात को कई बरस बीत चुके हैं।तदुपरांत उनके लिखे निबंध भी पढ़े। बेहद सधे हुए, संतुलित विचारों का निरूपण करते और भारतीय वांग्मय व साहित्य के उद्धरणों सहित लिखे निबंध, विद्व्त्तापूर्ण थे पर बोझिल कहीं भी न थे। भाषाई गठन, साहित्यक गुणवत्ता लिए, निबंध रसप्रद लगे और वे पाठकों को बांधे रखने की क्षमता लिए हुए भी थे। तो सोचा यह इस व्यक्ति विशेष की माने एक प्रबुद्ध रचनाकार की विशेषता ही है जो रचनाकर्म के प्रति लेखक का समर्पण और परिश्रम इंगित कर रहा है। हिंदी व भारत की अन्य भाषाओं में लिखते हुए,जयप्रकाश जी ने, हिंदी साहित्य समृद्धि में श्रीवर्धन किया है।
हिन्दी भाषा से सम्बंधित ब्लॉग, पत्रिका, वेब मेगेज़ीन पर जयप्रकाश जी का प्रचुर लेखन उपस्थित है।
श्री जय प्रकाशजी का
लिखा, यह" शब्द - चित्र "मन को छू गया ! ~
"दादीमाँ भीड़ को चीरती हुई मेरे सम्मुख आ खड़ी हुई। उसके हाथ में थाल है।थाल में एक दीपक, कुछ दूर्वा, कुछ सुपाड़ी, कुछ हल्दी गाँठें, सिंदूर, चंदन, पाँच हरे-हरे पान के पत्र और एक बीड़ा पान।मुझे लगा, जैसे दादी के काँपते हाथों में समूची संस्कृति सँभली हुई है। "
तद्पश्चात जय प्रकाश जी ने ई मेल से संपर्क किया।प्रस्तुत है उनका लिखा पत्र ~" आदरणीय लावण्या दीदी,पर यथासमय हमें किसी तरह आपके ई-मेल से उत्तर प्राप्त हो जाये तो यह एक ऐतिहासिक कदम होगा ।
चरण स्पर्श
हम " सृजनगाथा´´ में एक नये स्तंभ – 'प्रवासी कलम ' की शुभ शुरूआत आपसे करना चाहते हैं। आपसे इसीलिए कि विदेश में बसे प्रवासियों में आप सबसे वरिष्ठ हैं। साथ ही भारत के प्रतीक पुरुष
पं. नरेन्द्र शर्मा की पुत्री भी। भारतीयता का तकाजा है कि श्रीगणेश सदैव बुजुर्गों से ही हो।
यह प्रवासी भारतीय साहित्यकारों से एक तरह की बातचीत के बहाने भारतीय समाज, साहित्य, संस्कृति का सम्यक मूल्यांकन भी होगा जो http://www.srijangatha.com/ के1 जुलाई 2006 के अंक में प्रकाशित होगा।
साथ ही हिन्दी के कुछ महत्वपूर्ण लघुपत्रिकाओं में। हम जानते हैं कि उम्र के इस मुकाम में आपको लिखने-पढ़ने में कठिनाई होती होगी।दीदी जी, इसके साथ यदि आपकी कोई तस्वीर अपने पिताजी के साथ वाला मिल जाये तो उसे भी स्केन कर अवश्य ई-मेल से भेज दें । आशा है आप हमारा हौसला बढा़येगीं । हम आपका सदैव आभारी रहेंगे। '
मैंने सहर्ष उत्तर लिख भेजे थे जिन में से कुछ प्रश्नोत्तर प्रस्तुत हैं।
प्रश्न- आप मूलतः गीतकार हैं । आपका प्रिय गीतकार (या रचनाकार) कौन ? क्यों ? वह दूसरे से भिन्न क्यों है ?
( उत्तर - ४ ) अगर मैँ कहूँ की, मेरे प्रिय गीतकार मेरे अपने पापा, स्व. पॅँ नरेन्द्र शर्माजी के गीत मुझे सबसे ज्यादा प्रिय हैँ तो अतिशयोक्ति ना होगी ! हाँ, स्व. श्रेध्धेय पँतजी दादाजी, स्व. क्राँतिकारी कवि ऋषि तुल्य निरालाजी, रसपूर्ण कवि श्री बच्चनजी, अपरामेय श्री प्रसादजी, महान कवियत्री सुश्री महादेवी वर्मा जी, श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान जैसी विभूतियाँ हिँदी साहित्य गगनके जगमगाते नक्षत्र हैँ जिनकी काँति अजर अमर है।
( क्यों ?? ) इन सभी के गीतोँ मेँ माँ सरस्वती की वैखरी वाणी उदभासित है और सिर्फ मेरे लिये ही नहीँ, सभी के लिये उनकी कृतियाँ प्रणम्य हैँ।
( वह दूसरे से भिन्न क्यों है ? ) भिन्न तो न कहूँगी अभिव्यक्त्ति की गुणवत्ता, ह्रदयग्राही उद्वेलन, ह्रदयगँम भीँज देनेवाली, आडँबरहीन कल्याणकारी वाणी, सजीव भाव निरुपण, नयनाभिराम द्र्श्य दीखलाने की क्षमता, भावोत्तेजना, अहम्` को परम्` से मिलवानेकी वायवी शक्त्ति , शस्यानुभूति, रसानुभूति की चरम सीमा तक प्राणोँको, सुकुमार पँछी के, कोमल डैनोँ के सहारे ले जाने की ललक और, और भी कुछ अतिरिक्त जो वाणी विलास के परे है। वह सब इन कृतियोँ मेँ विध्यमान है।जैसा काव्य सँग्रह " प्यासा ~ निर्झर " की शीर्ष कविता मेँ
कवि नरेँद्र कहते हैँ,
" मेरे सिवा और भी कुछ है ,
जिस पर मैँ निर्भर हूँ ~मेरी प्यास हो ना हो जग को,मैँ, प्यासा निर्झर हूँ "
~~ पं नर्रेंद्र शर्मा
प्रश्न- लंबे समय तक हिन्दी-गीतों को नई कविता वालों के कारण काफी संघर्ष करना पड़ा था । आप इसे कैसे देखती हैं । गीत के भविष्य के बारे में क्या कहना चाहेंगी ?उत्तर - नई कविता भी तो हिँदी की सँतान है और हिँदी के आँचल मेँ उसके हर बालक के लिये स्थान है। क्योँकि, मानव मात्र को, अपनी अपनी अनुभूति को पहले अनुभव मेँ रच बस कर, रमने का जन्मसिध्ध अधिकार है। उतना ही कि जितना खुली हवा मेँ साँस लेने का ! ये कैसा प्रश्न है की किसी की भावानुभूति अन्य के सृजन मे आडे आये ?नई कविता लिखनेवालोँ से ना ही चुनौती मिली गीत लिखनेवालोँको नाही कोई सँघर्ष रहा !" किसी की बीन, किसी की ढफली,किसी के छँद कीसी के फँद ! "
~~ ये तो गतिशील जीवन प्रवाह है ,हमेँ उसमेँ सभी के लिये, एक सा ढाँचा नहीँ खोजना चाहीये। हर प्राणी को स्वतँत्रता है कि, वह, अपने जीवन और मनन को अपनाये।यही सच्चा " व्यक्ति स्वातँत्रय " है। बँधन तो निषक्रीयता का ध्योतक है और जब तक खानाबदोश व बँजारे गीत गाते हुए, वादियोँ मेँ घूमते रहेँगेँ, प्रेमी और प्रेमिका मिलते या बिछुडते रहेँगेँ, माँ बच्चोँ को लोरीयाँ गा कर सुलाया करेँगीँऔर बहने, सावन के झूलोँ पर अपने वीराँ के लिये सावनकी कजली गाती रहेँगीँ ...या, पूजारी मँदिरमेँ साँध्य आरती का थाल धरे, स्तुति भजन गायेँगेँ,या गाँव मुहल्लेह भर की महिलाएं .....बेटीयोँ की बिदाई पर " हीर " गायेँगीँ, "गीत " गूँजते रहेँगेँ !ग़ीत प्रकृति से जुडे हैं और मानस के मोती की तरह मानव समुदाय के लिए पवित्रताम भेँट हैँ। उनसे कौन विलग हो पायेगा ?कृपया सम्पूर्ण कथोपकथन यहां पढ़ें ~ : http://antarman-antarman.blogspot.com/2007/03/blog-post_ 16.html चित्र : पंडित नरेंद्र शर्मा पंडित एवं जवाहर लाल नेहरू जी
प्रस्तुत हैं श्री जयप्रकाश मानस जी के काव्य१ : वनदेवता
घर लौटते थके मांदे पैरों पर डंक मार रहे हैं बिच्छू
कुछ डस लिए गए साँपों से
पिछले दरवाज़े के पास चुपके से जा छुपा लकड़बग्घा
बाज़ों ने अपने डैने फड़फड़ाने शुरू कर दिए हैं
कोयल के सारे अंडे कौओं के कब्ज़े में
कबूतर की हत्या की साज़िश रच रही है बिल्ली
आप में से जिस किसी सज्जन को
मिल जाएँ वनदेवता तो
उनसे पूछना ज़रूर
कैसे रह लेते हैं इनके बीच !२ : शहर यहाँ भी -
सूरज उगता है पर नगरनिगम के मलबे के ढेर से
चिड़िया गाती है पर मोबाईल के रिंगटोन्स में
घास की नोक पर थिरकता हुआ ओस भी दिखता है पर वीडियो क्लिप्स में
अल्पना से आँगन सजता है पर प्लास्टिक स्टीकरों वाली
थाली में परोसी जाती है चटनी, अचार पर आयातित बंद डिब्बों से
बड़े-बडे हाट भरते हैं पर कोई किसी को नहीं भेंटता
लोग-बाग मिलते हैं एक दूसरे से पर बात हाय-हैलो से आगे नहीं बढ़ती
चिट्ठियाँ खूब आती हैं पर ई-मेल में मन का रंग ढूँढे नही मिलता
खूब सजती हैं पंडालें पंडों की पर वहाँ राम नहीं होते
उठजाने की ख़बर सभी तक पहुँचाती हैं अखबारें पर काठी में कोई नहीं आता
इस पर भी शहर जाना चाहते हो जाओ
पर तुम्हें साफ-साफ पहचाना जा सके
जब भी लौट कर आओ।फेसबुक जैसे मनोविनोद के पोर्टल पर जयप्रकाश मानस जैसा सृजनशील रचनाकार, अपनी अलग उपस्थिति लिए अपनी पोस्ट से अलग दिखता है। अतुल्य भारत शीर्षक से भारतीय जनजीवन के मार्मिक चित्र हों या आप फेसबुक पर क्यों हैं जैसे उनके प्रश्न जिनके उत्तर अनेक साहित्यकारों ने लिख भेजे ये नई तरह की पठनीय सामग्री एक निरंतर सृजनशील सम्पादक, लेखक ही परोस सकता है। श्री जयप्रकाश मानस जी ने
रचनाकारों से ' मैं और मेरी पसंद ' - फेसबुक के लिए श्रृंखला का क्रम रचकर , फेसबुक ' जैसे माध्यम के द्वारा एक पठनीय पृष्ठ का श्रीगणेश किया है। फिर एक बार यह प्रश्न भी पूछा गया।
प्रश्न : १ . २०१४ में आपने किन-किन रचनाकारों की, किस-किस विधा की कौन-सी किताब पढ़ी ?उत्तर :
पंडित नरेंद्र शर्मा : सम्पूर्ण रचनावली - १६ खण्डइस वर्ष पढ़ी हुईं दुसरी पुस्तक अंग्रेज़ी भाषा से हैं। भारत का भौगोलिक मानचित्र दर्शनीय ही नहीं सनातन धर्म का जीता जागता साक्षी है।इस पर शिकागो की एक विदुषी प्रोफ़ेसर ने बृहत् पुस्तक लिखी है। वह भी साथ साथ पढ़ रही हूँ।एक और है प्रातः स्मरणीय रमण महर्षि जी की' ऋभु गीता ' के छठे अंश का अंग्रेज़ी में रूपांतर और व्याख्या। लेखिका ज़ुम्पा लाहिड़ी की पुस्तक -
Unaccustomed Earth -लघु कथाएँन्यू यॉर्क टाइम्स बुक रिव्यू ने इसे सर्वश्रेष्ठ कृति कहा है।आपकी फसबूक पोस्टों के जरिये भी अत्यंत रोचक, ज्ञानवर्धक
जानकारियां, लघुकथाएँ वगैरह पढ़ने को मिलतीं रहतीं हैं।
प्रश्न - इस किताब का कितना असर पाठक, समाज, भाषा और
साहित्यिक दुनिया में हो सकता है ?
अंत में , भाई श्री जयप्रकाश जी के ब्लॉग से, एक पुरानी प्रविष्टी, प्रस्तुत करते, अपार हर्ष हो रहा है।
उत्तर : मैंने गत वर्ष बच्चन जी की रचनावली भी पढ़ी थी। साहित्य का असर तो तभी होगा न जब उसे पढ़ा जाए, समझा जाए और उस मे उद्धृत सही और क्रांतिकारी या सर्वकालिक समाज कल्याण के वरदान रूपी स्नेह सन्देश को जीवन में लाना संभव हो ! जो राजनैतिक उत्थान में सहायक हो। भाषा का विकास, समाज के नागरिक के विकास और भाषा को अपनाने से ही होता है।साहित्यिक विश्व में, जिन में विश्व भर में फैले हिन्दी भाषी भी सम्मिलित हैं उनका योगदान भी महत्त्वपूर्ण है। परन्तु मूल प्रश्न यही रह जाता है कि ' व्यक्तिवाद से ऊपर उठकर हम सम्पूर्ण समाज के हित के लिए क्या कर सकते हैं ?भारत वर्ष में सरकार के सदस्य चुनाव लड़ते हैं केंद्र में सत्ता बदली है और हिन्दी भाषा के पुनरूत्थान के प्रति आज केन्द्रस्थ सरकार सजग एवं समर्पित है। इस बात से से मेरे मन में आशा बलवती हुई है कि अब भारत का सामाजिक उदय काल भी अवश्य होगा। सर्वोदय स्वप्न नहीं रहेगा। वास्विकता की धरा पर उसे हम फूलता फलता पल्ल्वित होता हुआ भी अवश्य देखेंगें।' आधा सोया आधा जागा देख रहा था सपनाविराट के भावि दर्पण पर देखा भारत अपना
गाँधी जिसका ज्योति ~ बीज,
उस विश्व वृक्ष की छाया
सितादर्ष लोहित यथार्थ यह
नही सुरासुर माया !"
- पँ. नरेन्द्र शर्मा
आशा है आप सभी को, भाई श्री जयप्रकाश जी जैसे, प्रबुध्ध, साहित्यकर्मी से, उन्हीं के लिखे शब्दों से यहां परिचित होना अच्छा लगेगा। अत: प्रस्तुत है उनके ब्लॉग से साभार ~~" संसार गीतविहीन कभी था ही नहीं । गीत वेदों से भी सयाना है। निराला जी ने कभी कहा था- “गीत मानव की मुक्ति-गाथा का प्रथम प्रणव है”।जो गाने-गुनगुनाने नहीं जानता या तो वह पाषाण है या फिर जीव होकर भीजीवनहीन है ।मेरी माँ बताती है- जब मैं जनमा तो मेरे रोने में उन्हें गाने की अनुभूति हुई ।शायद हर माँ को शिशु का प्रथम रूदन एक शाश्वत गान ही लगता है। जो भी हो, मैं बचपन में मेले-ठेले जाता था तो सबसे अधिक रूचने वाली बात गीत ही होता था। वे लोकगीत होते थे। राउतनाचा के गीत, रथयात्रा के गीत, डंडागीत, सुवागीत और भी न जाने कितने तरह के गीत । उन दिनों लगता था कि मेरा जनपद लोकगीतों का जनपद है ।घर में महाभारत, रामचरित मानस, लक्ष्मीपुराण या फिर सत्यनारायण की कथा होती थी तो पंडित जी या मंडली गीत ही तो गाते थे । माँ जब पवित्र तिथियों में मंगला (दुर्गा देवी) की व्रत रखती थी तो उडिया में जो मंत्रपाठ करती थी वह गीत ही तो था।स्कूल में पढाई की शुरूवात गद्य से नहीं बल्कि पद्य यानी कि गीत से ही हुआ । शायद आप भी जानते हों इस गीत को ।चलिए हम ही बताये देते हैं- ओणा मासी धम्म-धम्म, विद्या आये छम-छम । वह भी गीत ही था जो हमारे प्रायमरी स्कूल के गुरूजी हर नवप्रवेशी बच्चों को पहले दिन पढाते रहे यद्यपि यह गीत जैसा नहीं लगता किन्तु वे उसे ऐसे सिखाते थे कि मैं उसे गीत माने बिना नहीं रह सकता और यह गीत था- एक एक्कम एक, दो एक्कम दो , तीन एक्कम तीन, चार एक्कम चार.............. ।
इस बीच कुछ-कुछ लिखने लगा।लघुकथायें लिखीं।कविता भी और आलेख भी।पर सच कहता हूँ मन तो गाना चाहता है । कविता, लघुकथा, आलेख, निबंध तो पढने की विधाएँ है । इन्हें थोडे न गाया जा सकता है । जीवन में पहली बार गीत लिखा। लगा मैं स्वर्गीय आनंद से भर उठा हूँ। गाकर सुनाया कवि मित्रों को तो मत पूछिए क्या हुआ । सबने गले से लगा लिया । कंठ तो ईश्वर से मिला ही है । लोग मंचों पर सुनाने का आग्रह करने लगा । तब से अब तक लगातार लिख रहा हूँ। क्या-क्या लिखा।कितना लिखा । कितना नाम कमाया और कितना दाम भी। उसकी चर्चा फिर कभी।आज तो बस मैं अपने उस प्रिय रचनाकार के गीत सुनाना चाहता हूँ जिनके बिना हिन्दी गीत-यात्रा अधूरी रह जाती । मेरे मन मानस मैं पैठे उस गीतकार का नाम है- पं.नरेन्द्र शर्मा। वे छायावाद काल के समापन के समय ही हिन्दी की दुनिया में प्रतिष्ठित हो चुके थे। इनके आरंभिक गीतों के केन्द्र में प्रेम हिलोरें मारता है। बाद के गीतों में लोक और परलोक के भी संदर्भ हैं।संयोग का उल्लास, मिलन की अभिलाषा, रूप की पिपासा, संयोग की विविध मनोदशायें तथा वियोग की पीडा नरेन्द्र शर्मा जी के गीतों का विषय है। वे केवल व्यक्तिवादी नहीं थे, उनमें सामाजिकता भी लबालब है । ऐसा कौन होगा जो हिन्दी का प्रख्यात टी.व्ही.सीरियल देखा हो और पंडित जी को न जानता हो । तो काहे की देरी। लीजिए ना उनके वे गीत जो मुझे बहुत पसन्द हैं।
शायद वे गद्य को पद्य बनाकर नहीं गाते तो शायद जाने कितने बच्चे आज भी अनपढ रह जाते ।स्कूल की ईबारत सीखते-सीखते जाने कब मैं जन-गण-मन से लेकर वंदे मातरम् और युवा होने से पहले-पहले दुलहिन गावहु मंगलाचार या फिर हेरी मैं तो प्रेम दीवानी मेरा दरद न जाणे कोय आदि-आदि आत्मसात कर लिया पता ही नहीं चला । कुछ मन मचला तो किशोर दा के गीत भी मन को अतिशय भाने लगे और मैं भी गुनगुनाने लगा- जिंदगी के सफर में गूजर जाते हैं वे जो पल फिर नहीं आते । उन दिनों, जब प्रेम मन में अंगडाई लेने लगा और कभी तनहाई सताने लगी तो ये गीत भी खुब सुहाने लगे थेः आज पुरानी राहों से कोई मुझे आवाज न दे ~~
एक...
तुम रत्न-दीप की रूप-शिखा
तुम दुबली-पतली दीपक की लौ-सी सुन्दर
मैं अंधकार
मैं दुर्निवार
मैं तुम्हें समेटे हूँ सौ-सौ बाहों में, मेरी ज्योति प्रखर
आपुलक गात में मलय-वात
मैं चिर-मिलनातुर जन्मजात
तुम लज्जाधीर शरीर-प्राण
थर्-थर् कम्पित ज्यों स्वर्ण-पात
कँपती छायावत्,रात,काँपते तम प्रकाश आलिंगन भर
आँखे से ओझल ज्योति-पात्र
तुम गलित स्वर्ण की क्षीण धार
स्वर्गिक विभूति उतरीं भू पर
साकार हुई छवि निराकार
तुम स्वर्गंगा, मैं गंगाधर, उतरो, प्रियतर, सिर आँखों पर
नलकी में झलका अंगारक
बूँदों में गुरू-उसना तारक
शीतल शशि ज्वाला की लपटों से
वसन, दमकती द्युति चम्पक
तुम रत्न-दीप की रूप-शिखा, तन स्वर्ण प्रभा कुसुमित अम्बर
…………………
दो...
आज के बिछुडे न जाने कब मिलेंगेआज से दो प्रेमयोगी अब वियोगी ही रहेगेंआज के बिछुडे न जाने कब मिलेंगे ।आयगा मधुमास फिर भी, आयगी श्यामल घटा घिरआँख बर कर देख लो अब, मैं न आऊँगा कभी फिरप्राण तन से बिछुड कर कैसे मिलेंगेआज के बिछुडे न जाने कब मिलेंगे ।अब न रोना, व्यर्थ होगा हर घडी आँसू बहानाआज से अपने वियोगी हृदय को हँसना सिखानाअब आज के बिछुडे न जाने कब मिलेंगेन हँसने के लिए हम तुम मिलेंगे ।आज से हम तुम गिनेंगे एक ही नभ के सितारेदूर होंगे पर सदा को ज्यों नदी के दो किनारेसिन्धु-तट पर भी न जो दो मिल सकेंगेआज के बिछुडे न जाने कब मिलेंगे ।तट नही के, भग्न उर के दो विभागों के सदृश हैंचीर जिनको विश्व की गति बह रही है, वे विवश हैंएक अथ-इति पर न पथ में मिल सकेंगेआज के बिछुडे न जाने कब मिलेंगे ।यदि मुझे उस पार के भी मिलन का विश्वास होतासत्य कहता हूँ न में असहाय या निरूपाय होताजानता हूँ अब न हम तुम मिल सकेंगेआज के बिछुडे न जाने कब मिलेंगे ।आज तक किसका हुआ सच स्वप्न, जिसने स्वप्न देखाकल्पना के मृदृल कर से मिटी किसकी भाग्य रेखाअब कहां संभव कि हम फिर मिल सकेंगेआज के बिछुडे न जाने कब मिलेंगे ।आह, अंतिम रात वह, बैठी रही तुम पास मेरेशीश कन्धे पर धरे, घन-कुन्तली से गाते घेरेक्षीण स्वर में कहा था, अब कब मिलेंगेआज के बिछुडे न जाने कब मिलेंगे ।कब मिलेंगे ?पूछता जब विस्व से मैं विरह-कातरकब मिलेंग ?गूँजते प्रतिध्वनि-निनादित व्योम-सागरकब मिलेंगे प्रश्न उत्तर कब मिलेंगे ?आज के बिछुडे न जाने कब मिलेंगे ।…………………तीन...हंस माला चल, बुलाता है तुझे फिर मानसर
शुन्य है तेरे लिए मधुमास के नभ की डगर
हिम तले जो खो गयी थीं, शीत के डर सो गयी थीफिर जगी होगी नये अनुराग को लेकर लहरहंस माला चल, बुलाता है तुझे फिर मानसर
बहुत दिन लोहित रहा नभ, बहुत दिन थी अवनि हतप्रभ
शुभ्र-पंखों की छटा भी देख लें अब नारि-नरहंस माला चल, बुलाता है तुझे फिर मानसर
पक्ष अँधियारा जगत का, जब मनुज अघ में निरत था
हो चुका निःशेष, फैला फिर गगन में शुक्ल परहंस माला चल, बुलाता है तुझे फिर मानसर
विविधता के सत विमर्षों में उत्पछता रहा वर्षों
पर थका यह विश्व नव निष्कर्ष में जाये निखरहंस माला चल, बुलाता है तुझे फिर मानसरइन्द्र-धनु नभ-बीच खिल कर,शुभ्र हो सत-रंग मिलकर
गगन में छा जाय विद्युज्ज्योति के उद्दाम शर
हंस माला चल, बुलाता है तुझे फिर मानसरशान्ति की सितपंख भाषा,बन जगत की नयी आशाउड निराशा के गगन में,हंसमाला, तू निडर
हंस माला चल, बुलाता है तुझे फिर मानसर
~ श्रीमती लावण्या दीपक शाह : ओहायो प्रांत, उत्तर अमरीका से
4 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (17-03-2017) को "छोटी लाइन से बड़ी लाइन तक" (चर्चा अंक-2912) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
अदभुत...
Vinay Prajapati
There are a number of} types of additive manufacturing, however the phrases 3D printing and additive manufacturing are sometimes used interchangeably. Here we'll discuss with each as 3D printing for simplicity. Remains our pick for one of the best photo-card printing service. The company Pedicure Kits shipped our 11-by-14 print in a flat envelope sandwiched between skinny sheets of backing board . Because the transport envelope was only marginally bigger than the 11-by-14 photo, the print was dinged within the corner when the package was crushed on its edge throughout transport. RitzPix may have prevented the damage by simply utilizing a bigger envelope, or higher but, a field, as a number of} other shops did.
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