Friday, February 27, 2009

हम और हमारा धर्म

क्रौंच पक्षी का आर्तनाद , काव्य की सरिता बहा गया
लता दीदी गणेश पूजन करते हुए
शादी: जीवन का एक मध्य मार्ग पर आनेवाला मकाम है
हम और हमारा धर्म जिसे वैदिक धर्म कहें या सनातन धर्म कहें , कई विभिन्न संस्कारों, हमारे रीति रिवाज, परम्परा और धार्मिक नियमों का एक संगम है - जिसे जो मन भाया, वही अपना लिया -
हमारे देवता कृष्ण हमारे शास्त्रों की रचना भी करते हैं और मनुष्य जीवन जीते हुए, नित्य कर्म भी करते हैं जैसा महाभारत के युध्ध के दौरान इस प्रसंग में है कि, अर्जुन के रथ में जुटे अश्व , थक गए थे तब श्री कृष्ण ने उन्हें बानों के मध्य , सुरक्षित भूमि पर एक क्षेत्र बना कर, जल से, अपने हाथों से नहला कर स्वस्थ किया था ~~
आज समन्वय का ऐसा अद्भुत चित्र भी आप कलाकार की कल्पना को साकार करता हुआ देखते हैं .......
भारत आधुनिक होते हुए भी अपने इतिहास को अपने दर्शन को साथ लिए २१ वी सदी तक आ पहुंचा है -


भारत का "जय हो " स्वर आज विश्व चौंक कर सुन रहा है विस्मय से, इसकी आशावादिता से चकित होकर जहां कीचड में कमल खिलने कि अद्भुत क्षमता है ...


हमारे रुषियों ने तपस्या और नित्य कर्म के मध्य भी हर प्राकृतिक जीव से प्रेम किया और करुना विगलित होकर , ईश्वर की अनुकम्पा को वाणी दी -

" रामायण " जैसे अमर महाकाव्य रचे गए जब एक व्याघ्र के तीर से घायल हो, क्रौंच पक्षी का आर्तनाद , काव्य कि सरिता बहा गया .....



इस भारतीय दर्शन को , साहित्य को और धर्म को दकियानूसी या पुरातनपंथी ना कहें , शेष , विशेष ऐसा अवश्य बचा है अभी इस में ,
जो आज भी , विश्व की अन्य प्रजा को , भारत की ओर देखने के लिए
विवश कर रहा है ....
अब बारी है, भारतीय अस्मिता के जागने की !
गरिमा के स्थापन की और ईश्वर का प्रसाद रुपी निर्मल जल , वितरित करने की ..... ऐसी ही अमूल्य नन्ही नन्ही बातों से !
माला के मनके हैं ये ...........
हर धर्म के अनुरूप , तसबी के दाने, मोती - मानिक के हार , जो एक नाम का जाप कर हमें अविनाशी से जोड़ कर अमर करने की क्षमता रखते हैं --

फरवरी माह भी बीत चला ...मार्च , मार्चिंग करता आ रहा है ॥

फिर मिलेंगे । --
लावण्या

18 comments:

Arvind Mishra said...

बिलकुल सही कह रहीं लावण्या जी आप ! भारतीय चिंतन और जीवन दर्शन वैश्विक मनीषा को बहुत कुछ दे सकता है -दरअसल जीवन के गूढ़ रहस्यों ,जटिल सवालों को हमारी ऋषि प्रज्ञा बहुत पहले ही हल कर चुकी है !

Alpana Verma said...

-भारत आधुनिक होते हुए भी अपने इतिहास को अपने दर्शन को साथ लिए २१ वी सदी तक आ पहुंचा है -परम्परा और धार्मिक नियमों का एक संगम है
-इसकी आशावादिता -जहां कीचड में कमल खिलने कि अद्भुत क्षमता है ...
आप की हर बात से पूरी तरह सहमत हूँ.
यह हमारे भारतीय संस्कृति ही है जो आज भी हम सभी को जोड़े हुए है और जीवन के हर मोड़ पर आगे कैसे बढ़ें -वे रास्ते दिखाती है.बहुत ही सुन्दर चित्र!स्वयं बहुत कुछ कहते हुए चित्र हैं.
सभी के सभी लेख को सार्थक और 'और भी अर्थपूर्ण बना रहे हैं.
इतने सुन्दर लेख हेतु धन्यवाद.

दिनेशराय द्विवेदी said...

दार्शनिक चिंतन में भारत अग्रणी रहा उस पर गर्व है और होना चाहिए। किंतु बाद में करीब डेढ हजार साल पहले से वह इस में पिछड़ा। फिर शंकर और उन के बाद विवेकानंद ने दर्शन का यह ध्वज उठाया। लेकिन आज?

आज जब दुनिया को दार्शनिक मार्गदर्शन की आवश्यकता है। वैज्ञानिक कह रहे हैं कि पहले जो दर्शन उन्हें मार्ग दिखाता था आज पिछड़ गया है। तब? तब एक बार फिर आवश्यकता है भारत अपने अतीत से सीखे। एक नए दर्शन को दुनिया के सामने रख फिर से मानवता के पथ को आलोकित करे।

प्रदीप मानोरिया said...

भारतीय संस्कृति का सम्बन्ध धर्म से बहुत गहरा है

ताऊ रामपुरिया said...

हमेशा की तरह सार्थक और अत्यंत ही प्रभावशाली पोस्ट है. यहां पढ कर लगता है कि हमारी संसकृति ने हमें बहुत कुछ विशेष दिया है. और हमारी सच्ची खुशी और शांति उसीको अपनाने में है. आपको बहुत धन्यवाद.

रामराम.

डॉ .अनुराग said...

आध्यात्मिक पोस्ट .....

दिगम्बर नासवा said...

भारतीय संस्कृति की विशालता, इसकी गहराई को बहुत चिंतन शील तरीके से बताया है आपने. सलग्न चित्र जैसे समय को बोलते हुवे हैं, क्रिसन यीशु का चित्र बहुत ही सुन्दर है. अपने धर्म ग्रंथों के छोटे छोटे प्रसंग भी कितनी करुना, कितना कुछ बोलते हैं. इतने सुन्दर और स्वस्थ लेखन की लिए धन्यवाद

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

लावण्या जी, आपने बिल्कुल सही लिखा. स्वामी विवेकानन्द जी के शब्दों में कहूं कि आध्यात्मिकता और जीवन दर्शन के सिवाय विश्व को देने के लिये भारत के पास अन्य कुछ भी नहीं. भारत न तो राजनैतिक ना ही वैज्ञानिक क्षेत्र में औरों की सहायता कर सकता है.और यदि इसकी उन्नति को बढावा देने में हम लोग असफल हुए तो केवल भारतीय संस्कृति को ही नहीं बल्कि सारे विश्व को इसकी बहुत भारी कीमत चुकानी पडेगी.

Smart Indian said...

इसीलिये भारतीय दर्शन एक "दर्शन" (vision) है कोरा फलसफा (philosophy) नहीं. इस दर्शन में सत्य वह है जिसे सांसारिक गृहस्थ भी पूर्णतया अपना सकते हैं. इस दर्शन से भयातुर दल कल तक मूर्ती-भंजन करते थे, आज योगाभ्यास पर प्रतिबन्ध लगा रहे हैं, हो सकता है कल कुछ कोनों से अहिंसा और शाकाहार को भी असामाजिक बताया जाए. मगर भारतीय दर्शन के शब्दों में कहूं तो अंततः "सत्यमेव जयते नानृतम्"
बहुत सुन्दर आलेख, धन्यवाद!

राज भाटिय़ा said...

बहुत ही सुंदर लिखा आप ने, आज इस बात का गर्व है कि मै उस देश मै जन्मा, जहां की संस्कृति को आज दुनिया प्रणाम करती है.
धन्यवद

hem pandey said...

'इस भारतीय दर्शन को , साहित्य को और धर्म को दकियानूसी या पुरातनपंथी ना कहें , शेष , विशेष ऐसा अवश्य बचा है अभी इस में ,
जो आज भी , विश्व की अन्य प्रजा को , भारत की ओर देखने के लिए
विवश कर रहा है ....'
- यही तथ्य आशा जगाता है.

अमिताभ श्रीवास्तव said...

sahitya, sanskruti, sanskaar, darshan aour vo bhi nipat bhartiya..jeene ka yahna hi mazaa he, itihaas jivant hokar jnha khada he dilo me ese logo ka desh...waah...
achcha laga blog par aakar..

कंचन सिंह चौहान said...

अंतिम चित्र सबसे सुंदर..! क्या परिकल्पना है..!

kumar Dheeraj said...

पूरी रचना बेजोड़ है । आपने धमॆ से लेकर तमाम जो बाते लिखी है वह शानदार है । जीवन के सत्य के बारे में आपने जो कहा है वह बेमिसाल है । चित्र सहित पूरी रचना शानदार है । शुक्रिया

Shastri JC Philip said...

"अब बारी है, भारतीय अस्मिता के जागने की !"

मैं हजार बार आपका अनुमोदन करता हूँ!

सस्नेह -- शास्त्री

-- हर वैचारिक क्राति की नीव है लेखन, विचारों का आदानप्रदान, एवं सोचने के लिये प्रोत्साहन. हिन्दीजगत में एक सकारात्मक वैचारिक क्राति की जरूरत है.

महज 10 साल में हिन्दी चिट्ठे यह कार्य कर सकते हैं. अत: नियमित रूप से लिखते रहें, एवं टिपिया कर साथियों को प्रोत्साहित करते रहें. (सारथी: http://www.Sarathi.info)

P.N. Subramanian said...

लावण्या जी आपने सुब्दर चित्रन्ब किया है. कुछ एक बार हमें कहा गया कीअपने अतीत पर गौरव है. सीखने को बहुत कुछ है. हमारा भविष्य भी इसी बात पर निर्भर है कि हम कितना ग्रहण कर पाते हैं. आभार.

के सी said...

आपका ब्लॉग अति सुन्दर है, भारतीय संस्कृति के भिन्न रंग रूपों में नए प्राण फूंकता. नयी सदी से नए सवाल पूछता.

अभिषेक मिश्र said...

वास्तव में अब बारी है, भारतीय अस्मिता के जागने की.