Saturday, June 2, 2007

ईश्वर सत्य है ! आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन पर ...



ईश्वर सत्य है !
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१७९० मेँ प्रथम काला सागर पार कर के मद्रास के एक अनाम व्यक्ति , मेसेच्य्सेट्स के सेलम की गलियोँ मेँ पहली बार पहुँचे थे - १८२० से १८९८ तक ५२३ और लोग आ पाये. १९१३ तक ७००० और आये. १९७१ मेँ, कोन्ग्रेस ने इस पर रोक लगा दी. १९४३ मेँ जब चीन के अप्रवासीयोँ पर से रोक उठाई गई तब प्रेसीडेन्ट रुज़वेल्ट के बाद आये ट्रूमेन के शासन काल मेँ ३ जुलाई १९४६ मेँ " एशियन अमेरीकन सिटीज़नशीप एक्ट " पारित किया था. "हिन्दी असोशीयेन ओफ पसेफिक कोस्ट " ने १ नवम्बर १९१३ मेँ "गदर" पत्रिका मेँ घोषणा की ," हम आज विदेशी भूमि पर अपनी भाषा मेँ ब्रिटीश सरकार के विरुध्ध युध्ध की घोषणा करते हैँ " --- इससे सँबध्ध लाला हरदयाल, दलित श्रमिक मँगूराम और १७ वर्षीय इँजीनीयर करतार सिँह सरापा जैसे हिम्म्ती कार्यकर्ता थे --
१६ नवम्बर १९१५ के अपयशी दिवस , १९ वर्षीय सरापा को भारत मेँ, फाँसी पर चढाया गया था. शहीद भगत सिँह ने सरापा को अपना गुरु माना था. सरापा का अँतिम गीत था," यही पाओगे, मशहर मेँ जबाँ मेरी बयाँ मेरा,मैँ बँदा हिन्दीवालोँ का हूँ खून हिन्दी, जात हिन्दी,यही मज़हब, यही फिरका,यही है, खानदाँ मेरा !मैँ इस उजडे हुए भारत के खँडहर का ही ज़र्रा हूँ यही बस पता मेरा, यही बस नामोनिशाँ मेरा !"ना जाने सरापा की अस्थियाँ गँगा मेँ मिलीँ या नहीँ ?? :-((
पर, हिन्दी भाषा भारती , तो ,सँस्कृत की ज्येष्ठ पुत्री है !
ऐसा सँत विनोबा भावे जी का कहना है और आज यह हिन्दी की भागीरथी विश्व के हर भूखँड मेँ बहती है जहाँ कहीँ एक भारतीय बसता है ...मेरी कविता मेँ मैँने कहा है,
" हम भारतीय जन मन मेँ कहीँ गँगा छिपी हुई है "
" गँगा आये कहाँ से रे गँगा जाये कहाँ रे,
लहराये पानी मेँ जैसे धूप ~ छाँव रे "
सौम्य स्वर लहरी हेमँत दा की सुनतीँ हूँ तब हिन्दी भाषा का मनोमुग्धकारी विन्यास मन को ठीठका कर , स्तँभित कर देता है ..
आज हिन्दी भाषा से मेरे सँबँध की ओर एक विहँगम द्र्ष्टिपात करते हुए स्मृति मेँ एक शब्द बार बार आ रहा है
-- "नमकीन " !
मेरे पूज्य पापाजी हम चारोँ भाई बहनोँ के साथ हमेशा हिन्दी मेँ ही बतचीत किया करते थे. इस प्रकार हिन्दी मेरे शैशव से मिली, विरासत है. हाँ अम्मा गुजराती भाषा का ही उपयोग किया करतीँ थीँ चूँकि वे गुजरात से थीँ. इस तरह गँगा जमनी भाषा का प्रभाव मुझ पर बना रहा है जो आज तक कायम है. तो हाँ ,जैसे मैँ आपसे कह रही थी ना कि, "नमकीन " शब्द आज क्यूँ याद आ रहा है ? तो कारण था, कि पापा बँबई से देहली जा रहे थे और हर बच्चे से वे पूछ रहे थे कि,
"बताओ तुम्हारे लिय देहली से क्या लाऊँ ? "
मुझे पापा जी के जाने का बहुत दुख था परँतु आँसुओँ के बीच अचानक बोली," मेरे लिये "नमकीन " लाना पापा ! "
पापा जी प्रसन्न हो गये ये सुनकर और मुस्कुराते हुए अम्मा से कहा," सुन रही हो, लावण्या को नमकीन चाहिये !" ~`
खैर ! जब वे लौटे तब बडे चाव से उन्होँने एक दालमोँठ का पेकेट मेरी तरफ , बढाते हुए कहा ,"ये लो तुम्हारा नमकीन !" और मैँ फूट फूट कर रोने लगी !
अम्मा , पापाजी दोनोँ घबडा गये कि ऐसा क्यूँ हुआ? ये लडकी रोने क्यूँ लगी ? अम्मा ने गोद मेँ भरकर जब प्यार से सहलाते हुए पूछा कि "रो क्योँ रही है हम्म लावण्या ?
यही तो माँगा था न तुमने - "नमकीन " ?
तो रोते हुए मैँने कहा " ये नमकीन नहीँ है ! "
तब अम्म समझ गईँ कि, मुझे भारी भरकम, या नये नये हिन्दी या अन्य भाषाओँ के शब्द , सुनते ही याद हो जाते थे और उनका प्रयोग मैँ अक्सर मेरी हर बातचीत मेँ डाल दिया करती थी. आज भी जिसका नतीजा ये निकला था कि बिना समझे हुए कि "नमकीन " किसे कहते हैँ,
मैँने उस की फरमाइश कर दी थी ! :-)
केलेन्डर के पन्ने सरसर्राते हुए, सालोँ की समँदर सी फैली धारा को पार करते आज २००७ मई माह के समापन पर रुकी है ~~
और जून माह के बाद जुलाई मेँ, अँतराष्ट्रीय हिन्दी दिवस सम्मेलन न्यु -योर्क शहर मेँ सम्पन्न होने जा रहा है.
य़े हिन्दी का " परदेस " की भूमि पर हो रहा "महायज्ञ "ही तो है. पिछले कई इसी तरह के सम्मेलनोँ मेँ हिन्दी की महान कवियत्री आदरणीया श्री महादेवी वर्मा जी ने भी समापन भाषण दिया था. भाषा - भारती "हिन्दी" को युनाइटेड नेशन्स मेँ स्थान मिले ये कई सारे भारतीय मूल के भारतीयोँ की एक महती इच्छा है. ये स्वप्न सत्य हो ये आशा आज बलवती हुई जा रही है. इस दिशा मेँ बहुयामी प्रयास यथासँभव जारी हैँ.देखते हैँ कि न्यु -योर्क शहर मेँ स्थित ये अन्तर्राष्ट्रीय सँस्था U.N.O. = ( यु.एन्.ओ. ) कितनी शीघ्रता बरतता है "हिन्दी" को स्वीकार करने मेँ ! न्यु योर्क शहर का इलाका जो मुख्य है उसे "मेनहेट्टन " कहा जाता है -- देखिये ये लिन्क
-- http://en.wikipedia.org/wiki/Manhattan
इस का बृहद प्रदेश " न्यु -योर्क " कहा जाता है --
या उसका चहेता नाम है, 'बीग ऐपल" या फिर "गोथम सीटी '--
http://en.wikipedia.org/wiki/New_york_city --

भौगोलिक स्तर पर ये पाँच खँडो मेँ बँटा हुआ है - उन्हेँ "बरोज़" कह्ते हैँ .जिनके नाम हैँ -
ब्रोन्क्स, ब्रूकलीन,मनहट्टन, क्वीन्स और स्टेटन आइलेन्ड.
इसे डच मूल के लोगोँ ने १६२५ मेँ बसाया था और ३२२ क्षेत्रफल या ८३० किलोमीटर मेँ फैला यह विश्व का बृहदतम शहरी इलाका है जिसकी आबादी १८.८ कोटि जन से अधिक है. यहाँ विश्व के हर प्रदेश के लोग आपको दीख जायेँगे.ऐसे महानगर मेँ भारतीय दूतावास के सौजन्य से व भारतीय विध्या भवन के सँयोजन से जिसके कर्णधार श्रध्धेय डो.जयरामन जी हैँ , हिन्दी का समान होने जा रहा है.इस सम्मेलन मेँ कई सारे लोग कमिटी मेँ काम कर रहे हैँ - - स्वेच्छासे कार्य भार उठाये अपने रोजमर्रा के बहुयामी, व्यस्त जीवन से समय प्रदान करते हुए सहर्षसारी गतिविधियोँ मेँ हिस्सा ले रहे हैँ.
जाहिर है कि जो सारे हिन्दीवाले न्यु योर्क शहर के आस पास रहते हैँ वे श्रमदान देने मेँ सक्षम हैँ
मेरी तरह हज़ारोँ मील दूरी के शहर मेँ रहनेवाले हिन्दी प्रेमीयोँ को इस समय बेसब्री से इँतज़ार करना ही नसीब है कि कब हम इस भव्य कार्यक्रम मेँ शामिल होँगे !
उत्साह इस बात का भी है और एक तरह की उत्कँठा भी है कि, " क्या होगा वहाँ पर?"
आयोजन की सफलता पर सँदेह नही है. परँतु ये भी शँका है, कि इस सम्मेलन के बाद क्या हिन्दी को सम्मानित दर्जा , अँतराष्ट्रीय स्तर पर मिल सकेगा ?? कि सिर्फ बुध्धीजीवी वर्ग की चेतना से जुडी हिन्दी भाषा भी सीमित दायरोँ मेँ बध्ध होकर रह जायेगी?
हिन्दी के उत्थान मेँ कार्यरत अनेक हिन्दी प्रेमीयोँ से वहाँ मुलाकात होगी ये तथ्य उत्साह दे रहा है.
"अभिव्यक्ति " व अनुभूति " की सँपादीका मेरी सखा कवियत्री श्रीमती पूर्णिमा बर्मन जी सुना है शारजाह ( यु.ए.ई.) से पधार रहीँ हैँ.
जिनसे मेरी मुलाकात "काव्यालय" जाल घर के सौजन्य से करीब १९९३ के करीब हुई - जब मैँने उनके दोहे वहाँ पढे और "ई- मेल" से सम्पर्क किया था. काव्यालय = वाणी मुरारका जी ने स्थापित किया है. जिसे वे कलकत्ता से प्रेषित करतीँ हैँ और कई सारी हिन्दी काव्य रचनाओँ का सँग्रह काव्यालय पर है.
उन्होँने प्रोध्योगिकी व विश्वजाल मेँ हिन्दी के बढते कदम की नीँव रखते हुए, अथक परिश्रम किया है.वे खुद भी अच्छी कविताएँ लिखतीँ हैँ और अपने वेब -मगेज़ीन मेँ निश्पक्षता से कई हिन्दी लिखनेवालोँ को स्थान देतीँ आयीँ हैँ और हिन्दी के लिये गहरी सँवेदना रखतीँ हैँ.ख्यातनामा हास्य रस के सम्राट श्रीमान अशोक चक्रधर जी का आगमन भी सँभाव्य है ! अनुमान है कि, वे कवि सम्मेलन मेँ हमेशा की तरह छा जायेँगे और एक बार फिर, अपना लोहा मनवाते हुए सुननेवालोँ को हँसाते हुए लोट पोट करेँगे. उनकी हास्य कविता मे समाज की विषम परिस्थितीयोँ को परखने की तीव्र द्र्ष्टि है जो हल्के से बात कह जाती है और बाद मेँ श्रोतागण देर तक सोचते रह जाते हैँ !" सृजनगाथा " के भीष्मपितामह श्रीमान जयप्रकाश मानस जी के आगमन से हिन्दी के कार्य को बल मिलेगा. उनकी पैनी निगाह से विश्वजाल की कोई भी प्रगति, दीशा या आविष्कार अछूता नहीँ ! वे बहुआयामी पत्रिका के सफल सँपादक ही नही है, अपितु बडे धैर्यसे छत्तीसगढ जैसे भारत के एक ग्रामीण व शहरी अँचलोँ की दोहरी सँस्कृति को समेटे, अपने निबँधो मेँ सँयत भाषा प्रयोग करते हुए , कम शब्दोँ मेँ बहुत कुछ कह जाते हैँ . हिन्दी के इस महायज्ञ मेँ इन सारे महानुभावोँ की " आहुति" , " यज्ञ ज्वाला " को परिमार्जित करते हुए यशस्वी बनायेगी ये मेरा विश्वास है.यहाँ अमरीका मेँ बसे हुए , श्री अनूप भार्गव जी, डो. अँजना सँधीर जी ,रससिध्ध कवि श्रीमान राकेश जी खँडेलवाल , कनाडा से कवियत्री श्रीमती मानोशी चटर्जी,श्री समीर लाल जी इत्यादी कई सारे लोगोँ के आने की सँभावना है. भारत सरकार के बाहरी गतिविधियोँ के मँत्री मँडल ने ( External Affairs Ministry ) यह आँठवा -८वाँ विश्व हिन्दी सम्मेलन , १३, १४ और १५ जुलाई के दिनोँ मेँ न्यु योर्क मेँ आयोजित करना तय किया तब स्थल का चुनाव हुआ " फेशन इन्स्टीट्य्ट ओफ टेक्नोलोज़ी " ( जो कि २७ वीँ गली ७ वेँ एवेन्यु पर स्थित है ), वहाँ सम्पन्न होना निस्चित्त किया गया है. उत्तर अमेरीका के प्रमुख सँघ जैसे कि, " अँतराष्ट्रीय हिन्दी समिती" "विश्व हिन्दी न्यास " - "विश्व हिन्दी समिती " इत्यादी को भारतीय विध्या भवन के अँतर्गत, इस कार्यक्रम को सफल बनाने की जिम्मेदारी सौँपी गयी है.
हर हिन्दी भाषा के चाहनेवालोँ की दुआएँ, प्रार्थनाएँ सँलग्न हैँ कि आगे भी हिन्दी का मार्ग प्रशस्त होता रहे.सँभावनाएँ कई हैँ !!
मार्ग, आगे, अनदेखा, अन्चिन्हा है !!
परँतु निस्वार्थ परिश्रम व हिन्दी प्रेम के सम्बल से लिपटा हुआ है. अगर हिन्दी भाषा जीवित रहेगी, फूलेगी - फलेगी तभी तो हमारी भारतीय सँस्कृति, हमारा वाङमय, हमारी धरोहर भी सुरक्षित रह पायेगी !जीवन यापन की आपाधपी मेँ, भारतमाता के बालक, दुनिया के सात सँमँदर पार कर के , विभिन्न प्रेदेशोँ मेँ जा बसे हैँ !
अपने त्योहारोँ को मनाते समय, वे भारत भूमि से सीधा सँबँध स्थापित कर लेते हैँ.
गहरे महासागर के जल के ठीक बीचोँबीच एक शाँत, द्वीप की तरह जहाँ भारतीय अस्मिता का "माटी का नन्हा दीप" अखँड ज्योति का प्रकाश फैलाता , अकँपित जलता है --
जिसकी ज्योति, मानस की ज्योति है. हमारे पुरखोँ के पुण्यकी आस्था है !
परमात्मा श्री कृष्ण से यही माँगती हूँ कि इस " दिये " का तेल कभी भी न घटे !
२००७ से इस का प्रकाश और भी प्रखर होकर विश्व की पीडित, दमित , थकी हुई प्रजा को भौगोलिक परिस्थितीयोँ से परे ले जाकर, आत्म विश्लेक्षण का अवसर दे .चिर शाँति का पाठ दोहराया जाये जिस से "विश्व - शाँति " का बीज , पल्लवित हो कर, भारत के बरगद की तरह हर प्राणी को छाँव देने की क्षमता, चिर स्थायी करे !
अस्तु .........आइये,
हम और आप, हर तरह की पूर्व ग्रँथि को खोलकर एक जुट होकर, यथासँभव योगदान करेँ ताकि हिन्दी भाषा की गरिमा फिर एक बार, भारतेन्दु हरिस्चन्द्र जी के शब्दोँ को चरितार्थ करे.
" निज भाषा उन्नति ही उन्नति का मूल है "
आओ, प्रण करेँ हिन्दी सेवा का, हिन्दी प्रेम का !
" जननी जन्मभूमिस्च स्वर्गादपि गरीयसी".
...........सत्यमेव जयते !

4 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

आप के विचार बहुत प्रशंसनीय है।अच्छा लिखा है।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

परमजीत जी, बहुत बह्त आभार आपकी टिप्पणी के लिये -
आपको मेरा लेख पसँद आया - मुझे खुशी है - ~ स्नेह
लावण्या

Manish Kumar said...

हिन्दी से जुड़ी पुरानी स्मृतियों को बाँटने का शुक्रिया ! विश्व हिदी सम्मेलन भाषा के प्रति अंतरराष्ट्रीय सजगता को बढ़ाते हैं पर ठोस परिवर्तन के लिए अपने देश में इस भाषा के प्रति पूर्ण सम्मान आना जरूरी है।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

मनीष भाई,
आपको पुरानी स्मृतियोँ के बारे मेँ मेरा लिखा पसँद आया जानकर खुशी हुई -
आपके विचार सही हैँ कि भारत मेँ ही हिन्दी के प्रति सजगता नहीँ -- ठोस कदम आज के राजनीति के कुर्सीदारोँ से क्या रखेँ ? :-(
आम जनता की पहल जैसे "ब्लोग लेखन' ने नई दिशा सुझाई है -- और भी उपाय जरुरी हैँ
आपके ब्लोग पर गीतोँ के बारे मेँ पढकर इतना आनन्द आया कि क्या बतायेँ ?
बहुत अच्छ गीतोँ के बारे मेँ लिखा है आपने ~~
शुभकामना सहित,
स स्नेह,
लावण्या