Tuesday, October 21, 2008

मित्रता किससे करें!


मित्रता किससे करें!

विष्णु शर्मा रचित हितोपदेश की कथा, अनुवाद: पंडित नरेन्द्र शर्मा

बहुत पहले की बात है। एक घने जंगल में एक कौआ और मृग दो मित्र रहते थे. उनकी मित्रता इतनी गहरी थी कि जंगल के दूसरे जानवर भी उनकी मित्रता की मिसालें दिया करते थे. जबकि जंगल के कुछ जानवरों का मत था कि दोस्ती केवल अपनी जाति में करनी चाहिए. किसी गैर जाति में दोस्ती का परिणाम कभी अच्छा नहीं निकलता. मगर कौआ और मृग सुनते तो सबकी थे मगर करते अपने मन की थे. कौआ एक घने वृक्ष पर रहता था. कौए के साथ-साथ उस वृक्ष पर और भी बहुत से जानवर रहते थे. कौए की पत्नी और उसके दो बच्चों से मृग बहुत प्यार करता था. एक बार पड़ोस के जंगल में रहने वाला एक गीदड़ उस वन में आ गया. उसने मोटे-ताजे मृग को नदी किनारे घास चरते देखा तो उसके मुंह में पानी आ गया. उसने सोचा, इस मृग का मांस कितना स्वादिष्ट होगा. इसका शरीर तो मांस से भरा पडा है. एक दफा ऐसा मांस खाने को मिल जाए तो आनंद आ जाए - परन्तु दूसरे ही क्षण उसे ध्यान आया कि मैं इसका मांस कैसे खा सकता हूँ. एक मृग का शिकार करने की शक्ति तो मुझमें है ही नहीं. मैं ठहरा गीदड़ - इतने बड़े मृग का शिकार तो मुझसे हो ही नहीं सकेगा। गीदड़ का शैतानी दिमाग बहुत तेज़ी से काम करता है. जब कोई काम उसके वश का नहीं होता तो वह दूसरों के कंधे पर बन्दूक रखकर चलाना अच्छी तरह जानता है॥
चालाकी और हेराफेरी तो उसकी रग-रग में बसी हुई थी॥
उस गीदड़ ने एक योजना बनाई कि छल कपट से ही वह इस शिकार तक पहुँच सकता है, अतः पहले इस मृग से मित्रता करो, तभी इसका शिकार करना उचित होगा. भले ही लोग इसे धोखे का नाम दें, परन्तु मैं तो इसे अपनी राजनीति ही कहूँगा. किसी चीज़ को पाने की शक्ति यदि प्राणी में नहीं हो तो अपनी बुद्धि से किसी दूसरे का सहारा लेकर उसे प्राप्त करने में कोई बुराई नहीं होती. यही सोचकर गीदड़ उस मृग के पास गया और और बड़ी ही मीठी वाणी में बोला –
"भैयाजी नमस्कार..." मृग ने नज़रें उठाकर गीदड़ को देखा और सोच में पड़ गया. उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि यह गीदड़ कौन है और उसे कैसे जानता है?
"भाई, राम-राम तो हमने कर ली..." हिरन ने कहा -
"परन्तु मैं तो तुम्हें जानता ही नहीं कि तुम कौन हो?"
"भाई, यदि आप मुझे नहीं जानते तो क्या हुआ, मैं तो आपको जानता हूँ. असल बात यह है कि मैं बहुत वर्षों बाद इस जंगल में वापस आया हूँ. मेरे माता- पिता, कई वर्ष पूर्व इस जंगल को छोड़कर चले गए थे, अब जब उनकी मृत्यु हो गयी तो मैं पूरी तरह से अकेला पड़ गया था. मेरा कोई भी मित्र उस जंगल में नहीं था. ऐसे में मैंने यह फैसला लिया कि चलो अपने देश में ही वापस चलते हैं, शायद वहाँ पर ही कोई मित्र मिल जाए, बस यही सोचकर इधर आया तो आपकी भोली-भाली और प्रेमभरी सूरत को देखते ही मेरा मन उछलकर कहने लगा, " वाह...वाह...प्यारे...अब तो तुम्हें एक अच्छा मित्र मिल ही गया ! देखो न, कैसा सीधा प्राणी है, जो कभी किसी का बुरा नहीं सोचता. ऐसे ही किसी प्राणी से मित्रता करनी चाहिए, बोलो मित्र! क्या आप एक दुखी गीदड़ की मित्रता स्वीकार करोगे?"

मृग बहुत देर तक गीदड़ के उदास चेहरे को देखता रहा. उस बेचारे मृग को क्या पता था कि यह दिल का खोटा चतुर गीदड़ उसे अपनी मित्रता के जाल में फंसा रहा है, उसने तो अपने जीवन में कभी किसी की बुराई सोची ही नहीं थी. इसलिए उस गीदड़ की बात सुनकर उसने कहा -
"भैया गीदड़! यदि तुम्हारा कोई दोस्त नहीं तो मैं ही आज से तुम्हारा दोस्त हूँ. तुम मेरे होते किसी प्रकार की चिंता मत करो."
गीदड़ ने मृग के मुख से यह शब्द सुने तो बहुत प्रसन्न हुआ और मृग के पास ही हरी-हरी घास पर बैठकर बड़ी मीठी-मीठी बातें करने लगा.
और फ़िर धीरे-धीरे शाम होने लगी. जंगल के सभी जानवर अपने-अपने घरों की और लौटने लगे. मृग ने भी घास चरना छोड़ दिया और गीदड़ से बोला -
"अच्छा भाई गीदड़ - अब तुम भी अपने घर को जाओ और मैं भी -
शाम हो रही है."
"मेरा तो यहाँ कोई ठिकाना ही नहीं है भइया," गीदड़ ने बड़ी मासूमियत से कहा - "क्यों न मैं आज तुम्हारे साथ ही चलूँ - तुम्हारे घर के आसपास ही मैं भी कहीं सर छुपा लूंगा."

"भाई गीदड़! सोचा तो तुमने ठीक है, किंतु इस बात पर भी तो विचार करो कि इस प्रकार किसी अनजान प्राणी को कौन अपने आस-पास टिकने देगा - आजकल का माहौल इतना दूषित हो चुका है कि हर प्राणी, दूसरे प्राणी को संदिग्ध नज़रों से देखता है. फ़िर किसी अनजान प्राणी पर कोई कैसे विश्वास करेगा - न मालूम उसके मन में क्या है."
"भाई मृग! तुम यह कैसी बातें कर रहे हो?" चालाक गीदड़ अपनी वाणी में प्यार और अपनत्व का रस घोलकर बोला - "एक और मित्र मान रहे हो और दूसरी और अनजान कह रहे हो. अरे भाई, जब मैं तुम्हारा मित्र बन गया, तो अनजान कहाँ रहा. यदि कोई पूछे, तो तुम इतना तो कह ही सकते हो ना कि मैं तुम्हारा मित्र हूँ. बस, मेरे लिए इतना ही काफी है. बाकी मैं स्वयम संभाल लूंगा."
" ठीक है भइया - चलो - मेरा इसमें क्या जाता है." सहज भाव से हिरन ने कहा.
जिस समय हिरन कौए के वृक्ष के पास पहुंचा तो उसके साथ आए गीदड़ को देखकर कौए ने हैरानी से पूछा -
"अरे मित्र हिरन! तुम्हारे साथ यह कौन है?"
"एक परदेसी, जिसका इस संसार में कोई नहीं है." हिरन ने कहा.
"और लगता है तुमने इसे मित्र बना लिया है"
"क्या करता मित्र - इसकी करूँ दास्ताँ सुनकर मुझे दया आ गयी."

तभी कौए ने धीरे से मृग से कहा - "देखो मित्र, राह चलते किसी भी अनजान प्राणी से मित्रता नहीं करनी चाहिए, बुद्धिमान लोग भी यही कहते हैं कि जिस प्राणी के बारे में आप कुछ जानते नहीं, जिसके वंश का कुछ पता न हो, उसे कभी भी अपना मित्र मत बनाओ. इसी भूल के कारण तो एक बिलाव के अपराध की सज़ा बेचारे एक बूढे गिद्ध को भुगतनी पडी थी. उस निर्दोष को मौत की नींद सोना पडा था."
"यह तुम क्या कह रहे हो दोस्त?"
"मैं जो कुछ भी कह रहा हूँ, वह केवल तुम्हारी भलाई के लिए ही कह रहा हूँ, क्योंकि इस संसार में मीठी-मीठी बातें करने वाले बड़े ठग भी होते हैं।"

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( इस कथा के साथ का रोचक इतिहास भी बतला दूँ ....ये कहानी मुझे गुगल करने पे मिली - पापाजी की लिखी हुई और एक वेब साईट पे देखी ..और सेव कर ली !
जब कट / पेस्ट करने गयी तब ये सम्भव न था ..तब इस बात के बारे में , मैंने
भाई श्री अनुराग शर्माजी को बतलाया ...आप को ये बतला दूँ की अभी अभी, उन्होंने , पूरी कथा , टाइप कर के मुझे भेज दी :-) ...और मेरी खुशी ठिकाना न रहा !

शायद , कथा अधूरी है ...अब पता करना होगा की आगे कथा क्या हो सकती है .....
अभी इस समय अनुराग भाई ने इतना परिश्रम किया है आप सब के सामने , इस कथा को आने के लिए जो अपने व्यस्त समय में से , मेरे लिए ये कहानी को टाइप किया है उसका जितनी बार धन्यवाद करू , कम रहेगा ...ऐसे लोग आज भी दुनिया में होते हैं क्या ? :)

जी हाँ , आप ही देख लीजिये ..उनकी भलमनसाहत को !! और शामिल हो जाइए,

मेरे संग शुक्रिया कहने में !!

और ....दुसरे गूगल महाराज का भी आभार जो , ये कहानी ...समय के सागर से निकले रत्न की तरह ..आज , हम सब के सामने है !!

आशा करती हूँ , आपको ये किस्सा पसंद आया होगा ....

अब , आप भी बतलायेँ " मित्रता किससे करेँ ?"

स्नेह सहित,

- लावण्या

19 comments:

Gyan Dutt Pandey said...

वाह! पण्डितजी ने यह भी लिखा था!
पता नहीं मृग के चालबाजी से कैसे बचाया होगा। गीदड का तार्किक एण्ड कैसे किया होगा?
मुझे तो कौव्वे का ही सहारा लगता है!

राज भाटिय़ा said...

लावण्यम् जी आप ने बिलकुल सही लिखाअ है, हमै मित्रता बिना सोचे समझे नही करनी चाहिये, मेने भी इस मृग की तरह से भावुकता मै बह कर दो तीन बार अपना काफ़ी नुक्सान करवाया है, आप की यह कहानी पढ कर मुझे अपना कल याद आ गया. कभी लिखूगा.
धन्यवाद कहनी बिलकुल सही है ओर इस से शिक्षा लेनी चाहिये

संगीता पुरी said...

इस तरह की सभी कहानियों से हमें शिक्षा लेनी चाहिए।

दिनेशराय द्विवेदी said...

कहानी पसंद आई। अनुराग जी का अनुराग भी। अनुराग जी को मेरी ओर से भी धन्यवाद इसे हम तक पहुँचाने का।

art said...

schha mitra bahut bhagya se milta hai...apna bachpan yaad aa gaya

betuki@bloger.com said...

कहानी आज के परिप्रेक्ष्य में बिल्कुल सटीक है। इसी किसी भी तरह से सोच लें। राजनीति की बात पर साफ संकेत है वोट के लिए नेता किसी को भी मित्र बना सकते हैं। अब इन नेताओं का सीजन आ गया है रोजाना नये मित्र बनेंगे और पुराने बिछुड़ेंगे। हां, कौओ की तरह कुछ चालाक मित्र कभी-कभी अच्छी सलाह दे देते हैं। कहानी पढ़कर बहुत अच्छा लगा। इसके अंत का इंतजार रहेगा।

डॉ .अनुराग said...

हमारी बोध कथाये ...अपने आप में इतनी सीख छिपाए हुए है की ....बच्चो को ढेरो संस्कार ओर सीख दे सकती है .सच में

कुश said...

बचपन याद दिला दिया आपने.. पहले हितोपदेश पढ़ता था.. आजकल हिट उपदेश पढ़ रहा हू

कंचन सिंह चौहान said...

ham dhnyavaad me shamil ho gaye DI...!

रंजना said...

हितोपदेश की कथाएँ इतनी मनोहर और शिक्षाप्रद हैं कि ये सर्वकालिक प्रासंगिक हैं.यहाँ जिस कथा का आपने उल्लेख किया वह सचमुच अधूरी है,पूरी कथा तो अभी मुझे पूर्णतः स्मरण नही.किताब में मिल गया तो बाकी अंश आपको भेज दूंगी.

aap mujhe apna mail id mere mail me bhej den.mera mail id hai ranjurathour@gmail.com

Abhishek Ojha said...

कहानी पसंद आई... आपको और अनुरागजी को भी शुक्रिया. वैसे आगे क्या हुआ उत्सुकता तो बाद ही गई है.

RADHIKA said...

कहानी तो बहुत अच्छी लगी ,आप ऐसी शिक्षाप्रद कहानियाँ पढ़वा रही हैं ,बहुत धन्यवाद . कहानी का अंत जानने की बहुत इच्छा हैं .सच बचपन के दिन याद आगये ,तब ऐसी कहानियाँ बहुत पढ़ते थे . और बड़ा मजा आता था ,धन्यवाद . अब पढ़ ली हैं तो आरोही को सुनाउंगी.

Smart Indian said...

लावण्या जी,

खुशी हुई कि एक खोई हुई कहानी वापस मिली, भले ही अंशों में. आपने तो इतनी तारीफ़ कर दी कि मुझे कहीं छिपने को दिल कर रहा है. खैर, ज़र्रा-नवाजी का शुक्रिया.

कहानी के अंत के बारे में सभी को उत्सुकता है. मैं तो सिर्फ़ इतना कह सकता हूँ कि सभी पात्र अपनी स्वभावगत गति को प्राप्त हुए.

ताऊ रामपुरिया said...

कहानी अत्यन्त ही शिक्षादायक है और इसके लिए आपको अनुराग जी को कोटिश: धन्यवाद !

पारुल "पुखराज" said...
This comment has been removed by the author.
पारुल "पुखराज" said...

anurag ji ko dhanyawaad..ho sakey to puri kathaa padhvaayiye DI

Arvind Mishra said...

बिलाव और बेचारे एक बूढे गिद्ध की कथा भी तो सुनाईये प्लीज -कहीं से तो ढूँढिये अपने पिता जी की इस अद्भुत विरासत को !
ऐसे पात्र तो आज की दुनिया में भी है -भोले भाले भी ,धूर्त और कौए की माफिक तारणहार भी !

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

आप सभी की अनमोल टीप्पणियोँ के लिये बहुत बहुत आभार !
परिवार के सभी के सँग दीपावली का त्योहार सेलीब्रेट कीजिये
यही शुभकाँक्षा है
स्नेह सहित -
- लावण्या

ikbal said...

Mitra Kerna Aasan Hai Lakin Sacha Mitr Dundana Bahut Muskil hai