Friday, October 24, 2008

परोपकारी मित्र की कथा -- गतांक से आगे ....

सियार और हिरन
कौवा

कौवा बोला --

" मित्र, अनायास आए हुए के साथ मित्रता नहीं करनी चाहिये।
अज्ञातकुलशीलस्य वासो देयो न कस्यचित्। मार्जारस्य हि दोषेण हतो गृध्रो जरद्रवः।।
कहा भी गया है कि -- जिसका कुल और स्वभाव नहीं जाना है, उसको घर में कभी न ठहराना चाहिए, क्योंकि बिलाव के अपराध में एक बूढ़ा गिद्ध मारा गया।

यह सुनकर सियार झुंझलाकर बोला-- "मृग से पहले ही मिलने के दिन तुम्हारी भी तो कुल और स्वभाव नहीं जाना गया था। फिर कैसे तुम्हारे साथ इसकी गाढ़ी मित्रता हो गई ? "
यत्र विद्वज्जनो नास्ति श्रलाघ्यस्तत्राल्पधीरपि। निरस्तपादपे देशे एरण्डोsपि द्रुमायते।।

जहाँ पंडित नहीं होता है, वहाँ थोड़े पढ़े की भी बड़ाई होती है। जैसे कि जिस देश में पेड़ नहीं होता है, वहाँ अरण्डाका वृक्ष ही पेड़ गिना जाता है।और दूसरे यह अपना है या पराया है, यह अल्पबुद्धियों की गिनती है। उदारचरित वालों को तो सब पृथ्वी ही कुटुंब है।जैसा यह मृग मेरा बंधु है, वैसे ही तुम भी हो। मृग बोला --

" इस उत्तर- प्रत्युत्तर से क्या है ? सब एक स्थान में विश्वास की बातचीत कर सुख से रहो।क्योंकि न तो कोई किसी का मित्र है, न कोई किसी का शत्रु है। व्यवहार से मित्र और शत्रु बन जाते हैं। "

कौवे ने कहा-- " ठीक है। फिर प्रातःकाल सब अपने अपने मनमाने देश को गये।एक दिन एकांत में सियार ने कहा -- मित्र मृग, इस वन में एक दूसरे स्थान में अनाज से भरा हुआ खेत है, सो चल कर तुझे दिखाऊँ। "

वैसा करने पर मृग वहाँ जा कर नित्य अनाज खाता रहा। एक दिन उसे खेत वाले ने देख कर फँदा लगाया।

इसके बाद जब वहाँ मृग फिर चरने को आया सो ही जाल में फँस गया और सोचने लगा-- " मुझे इस काल की फाँसी के समान व्याध के फंदे से मित्र को छोड़कर कौन बचा सकता है ? "

इस बीच में सियार वहाँ आकर उपस्थित हुआ और सोचने लगा--

" मेरे छल की चाल से मेरा मनोरथ सिद्ध हुआ और इस उभड़े हुए माँस और लहू लगी हुई हड्डियाँ मुझे अवश्य मिलेंगी और वे मनमानी खाने के लिए होंगी। "
मृग उसे देख प्रसन्न होकर बोला --

" हो मित्र मेरा बंधन काटो और मुझे शीघ्र बचाओ। "

आपत्सु मित्रं जानीयाद्युध्दे शूरमृणे शुचिम्।भार्यो क्षीणेषु वित्तेषु व्यसनेषु च बांधवान्।।

में मित्र, युद्ध में शूर, उधार में सच्चा व्यवहार, निर्धनता में स्री और दु:ख में भाई (या कुटुंबी) परखे जाते हैं। और दूसरे विवाहादि उत्सव में, आपत्ति में, अकाल में, राज्य के पलटने में, राजद्वार में तथा श्मशान में, जो साथ रहता है, वह बांधव है।

सियार जाल को बार- बार देख सोचने लगा --

" यह बड़ा कड़ा बंध है और बोला-- ""मित्र, ये फँदे तांत के बने हुए हैं, इसलिए आज रविवार के दिन इन्हें दाँतों से कैसे छुऊँ मित्र जो बुरा न मानो तो प्रातः काल जो कहोगे, सो कर्रूँगा''। "

ऐसा कह कर उसके पास ही वह अपने को छिपा कर बैठ गया।

पीछे वह कौवा सांझ होने पर मृग को नहीं आया देख कर इधर- उधर ढ़ूढ़ते- ढ़ूंढ़ते उस प्रकार उसे (बंधन में) देख कर बोला --

"मित्र, यह क्या है ?''

मृग ने कहा -- ""मित्र का वचन नहीं मानने का फल है''।

हितकामानां यः श्रृणोति न भाषितम्। विपत्संनिहिता तस्य स नरः शत्रुनंदन।।

कहा गया है कि जो मनुष्य अपने हितकारी मित्रों का वचन नहीं सुनता है, उसके पास ही विपत्ति है और अपने शत्रुओं को प्रसन्न करने वाला है।

कौवा बोला -- "वह ठग कहाँ है ?" मृग ने कहा -

-"मेरे मांस का लोभी यहाँ ही कहाँ बैठा होगा ? "

कौवा बोला -- " मैंने पहले ही कहा था। मेरा कुछ अपराध नहीं है, अर्थात मैंने इसका कुछ नहीं बिगाड़ा है, अतएव यह भी मेरे संग विश्वासघात न करेगा, यह बात कुछ विश्वास का कारण नहीं है, क्योंकि गुण और दोष को बिना सोचे शत्रुता करने वाले नीचों से सज्जनों को अवश्य भय होता ही है।और जिनकी मृत्यु पास आ गयी है, ऐसे मनुष्य न तो बुझे हुए दिये की चिरांद सूंघ सकते हैं, न मित्रता का वचन सुनते हैं और न अर्रूंधती के तारे को देख सकते हैं। "

प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्। वर्जयेत्तादृशं मित्र विषकुम्भं पयोमुखम्।

पीछे काम बिगाड़ने वाले और मुख पर मीठी- मीठी बातें करने वाले मित्र को, मुख पर दूध वाले विष के घड़े के समान छोड़ देना चाहिए।

कौवे ने लंबी सांस भर कर कहा कि --

" अरे ठग, तुझ पापी ने यह क्या किया ?''

क्योंकि अच्छे प्रकार से बोलने वालों को, मीठे- मीठे वचनों तथा कपट से वश में किये हुओं को, आशा करने वालों को, भरोसा रखने वालों को और धन के याचकों को, ठगना क्या बड़ी बात है ? और हे पृथ्वी, जो मनुष्य उपकारी, विश्वासी तथा भोले- भाले मनुष्य के साथ छल करता है उस ठग पुरुष को हे भगवति पृथ्वी, तू कैसे धारण करती है
दुर्जनेन समं सख्यं प्रीतिं चापि न कारयेत्।

उष्णो दहति चाड्गारः शीतः कृष्णायते करम्।

के साथ मित्रता और प्रीति नहीं करनी चाहिये ! क्योंकि गरम अंगारा हाथ को जलाता है और ठंढ़ा हाथ को काला कर देता है। दुर्जनों का यही आचरण है। मच्छर दुष्ट के समान सब चरित्र करता है, अर्थात् जैसे दुष्ट पहले पैरों पर गिरता है, वैसे ही यह भी गिरता है। जैसे दुष्ट पीठ पीछे बुराई करता है, वैसे ही यह भी पीठ में काटता है। जैसे दुष्ट कान के पास मीठी मीठी बात करता है, वैसे ही यह भी कान के पास मधुर विचित्र शब्द करता है और जैसे दुष्ट आपत्ति को देखकर निडर हो बुराई करता है, वैसे ही मच्छर भी छिद्र अर्थात् रोम के छेद में प्रवेश कर काटता है।

प्रियवादी च नैतद्विश्वासकारणम्।मधु तिष्ठति जिह्मवाग्रे हृदि हालाहलं विषम्।

दुष्ट मनुष्य का प्रियवादी होना यह विश्वास का कारण नहीं है। उसकी जीभ के आगे मिठास और हृदय में हालाहल विष भरा है।

प्रातःकाल कौवे ने उस खेत वाले को लकड़ी हाथ में लिये उस स्थान पर आता हुआ देखा, उसे देख कर कौवे ने मृग से कहा --"

"मित्र हरिण, तू अपने शरीर को मरे के समान दिखा कर पेट को हवा से फुला कर और पैरों को ठिठिया कर बैठ जा। जब मैं शब्द कर्रूँ तब तू झट उठ कर जल्दी भाग जाना। "

मृग उसी प्रकार कौवे के वचन से पड़ गया।

फिर खेत वाले ने प्रसन्नता से आँख खोल कर उस मृग को इस प्रकार देखा,
" आहा, यह तो आप ही मर गया। "

ऐसा कह कर मृग की फाँसी को खोल कर जाल को समेटने का प्रयत्न करने लगा, पीछे कौवे का शब्द सुन कर मृग तुरंत उठ कर भाग गया।

इसको देख उस खेत वाले ने ऐसी फेंक कर लकड़ी मारी कि उससे सियार मारा गया।
त्रिभिर्वषैंस्रिभिर्मासैस्रिभि: पक्षैस्रिभिर्दिनै:अत्युत्कटै: पापपुण्यैरिहैव फलमश्रुते।।
जैसा कहा गया है कि प्राणी तीन वर्ष, तीन मास, तीन पक्ष और तीन दिन में, अधिक पाप और पुण्य का फल यहाँ ही भोगता है।
लेखक : M. Rehman

http://tdil.mit.gov.in/CoilNet/IGNCA/hitop103.htm




से साभार

16 comments:

राज भाटिय़ा said...

बहुत ही सुन्दर कहानी.
धन्यवाद

ghughutibasuti said...

बहुत अच्छी कहानी !
घुघूती बासूती

Smart Indian said...

आखिरकार भोला मृग धोखा खाने से बच गया और धोखा देकर बुरा चाहने वाले कौवे का ही बुरा हुआ. बहुत शिक्षाप्रद कहानी रही. और हाँ, चित्रकला भी गज़ब की है. धन्यवाद!

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

बहुत अच्छा िलखा है आपने । prerak prasang hai.

http://www.ashokvichar.blogspot.com

Arvind Mishra said...

यह महज कहानी ही नही है पूरा नीति तंत्र ही है ! आभार !१

Udan Tashtari said...

बहुत बेहतरीन प्रेरक प्रसंग है.

आपको एवं आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.

दिनेशराय द्विवेदी said...

बहुत सीख देने वाली कथा।

Vivek Gupta said...

बहुत शिक्षाप्रद कहानी

Gyan Dutt Pandey said...

हमारा खरहा बच गया। गीदड़ मारा गया। जय हो सरलता और अच्छाई की!

ताऊ रामपुरिया said...

सुंदर और शिक्षाप्रद कहानी , सुंदर चित्रों से सजी हुई पोस्ट ! बहुत २ शुभकामनाएं !

रंजू भाटिया said...

प्रेरणा दायक सुंदर कहानी ..दीपावली की बधाई

राज भाटिय़ा said...

आपको को स्वपरिवार दीपावली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.

Abhishek Ojha said...

बूढे बाघ और उसके हाथ में कंगन वाली कथा जैसी लगी पर सुखांत हुआ... धन्यवाद !

डॉ .अनुराग said...

बहुत ही सुन्दर कहानी.

संगीता-जीवन सफ़र said...

शिक्षाप्रद कहानी! इस कहानी को पढ़कर लगा जैसे फ़िर से बचपन लौट आया हो/आपको एवं आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं

महेन्द्र मिश्र said...

सुन्दर अच्छी कहानी.धन्यवाद.