Wednesday, August 15, 2012

नियति के खेल निराले

नियति के खेल निराले

ब भारत में परदेसी गोरे सैलानी आते हैं और ग़रीबी के दृश्य कैमरे में क़ैद करते हैं तब उन्हें ऐसा करते हुए अगर हम देख लें तो स्वाभाविक है किहमें उनकी इस हरक़त पर गुस्सा आता है । मुझे भी कई बार आया है । पहले जबमैं मुम्बई में रहती थी तब वहाँ अकसर गोरे सैलानियों को, पाँच सितारा होटल के स्वीमिंग पूल के सामने पैर फैलाए तैराकी के छोटे कपड़ों में धूप सेंकते हुए देखती थी और विशुद्ध साड़ी में अपने आपको कुछ असहज पाती थी। तब मेरी उम्र भी कम थी, समझ भी कम ही थी। दुनिया कैसी होती है, कितनी बड़ी होती है और कितनी अजीबोग़रीब वस्तुओं से भरी पडी है उस सत्य से तब साक्षात्कार हो ही रहा था समझ तो थी परंतु व परिपक्व नहीं हुई थी। अनुभवी लोगों ने सच कहा है, जब तक आप विश्व भ्रमण न करो तब तक आपको दूर देशों के बारे में सही-सही बातों का पता नहीं होता। जब तक आप दूर देश के मुसाफ़िर न बनो तब तक आप जीते हैं अपनी एक नियत परिधि के बीच । भारतीय संस्कृति यूँ भी प्राचीन है और अति समृद्ध भी है फिर आप दुनिया के अन्य देशों के बारे में कोई धारणा वैसी ही बनाते हैं जैसी आपको भारत में रहते हुए प्राप्त ख़बरों से अपने आप बन जाती है यह धारणा। आप उसी भारतीय मनीषा के केंद्र के इर्द गिर्द घूमतेरहते हैं । वैसा ही कुछ मेरे साथ भी था ।

उसके बाद अमरीकी और यूरोप के देशों के प्रवास हुए । अमेरीका में 3 वर्ष रहने के बाद हम पुन: मुम्बई जो अब बंबई से मुम्बई कहलाने लगा था लौटे। कुछ वर्ष रहे। और नियति के खेल निराले होते हैं के संकेत पर अज्ञात डोर से बंधे हुए तन और मन को सहेजे पुन: अमरीकी वास के लिए आ गये। घटना चक्र तेज़ी से घुमते रहे हैं और आज 2010, अक्टूबर का महीना सामने है।

खैर ! बात जहाँ से चली थी वहीं लौटते हैं। आज एक बेघर अमरीकी को प्रशांत महासागर से सटे उत्तर अमरीका के सबसे विशाल महानगर लोस-एंजिलिस जो केलेफ़ोर्निया प्रांत में है, वहाँ हरी घास पर निद्रा मग्न सोता हुआ देखकर अचानक मुम्बई महानगर में देखे हुए ग़रीब और बेघर इंसान याद आ गये।

मैंने भी सैलानी की तरह फ़ोटो खींच ली ! पता नहीं इस बेचारी की क्या कहानी होगी ? बेघर होने तक का जीवन सफ़र तो नहीं पता, पर जो आपके सामने चित्र है उसे देखिये बेफ़िक्री और निराशा की जीती जागती मूरत साफ़ है।

अब कई बातें और भी याद आने लगीं और मन इसी निष्कर्ष पर आ पहुँचा है कि, अच्छे और बुरे इंसान हर मुल्क में हर कौम में और हर जगह होते हैं ! राजकारण, सामाजिक व्यवस्था, व्यक्ति का स्वयं का बर्ताव और उसकी सोच और परिवेश ये सब मिलाकर उसकी परिस्थिति तय करते हैं पर इन सारी चीज़ों के साथ "नियति के खेल निराले "यह वाक्य भी एक बहुत बड़ा सच है जो एक अज्ञात पहलू, ज्ञात या उजागर पहलू के साथ हर परिस्थिति को त्रिकोण का तीसरा कोण प्रदान करता है।

आम धारणा यही है कि, अमरीका में भारतीयों की तरह संस्कृति का अभाव है। या ऐसा भी समझा जाता है कि अकसर आम अमरीकी व्यक्ति आत्म केन्द्रित और स्वार्थरत होते हैं। उसके विपरीत ये धारणा भी प्रचलित है कि भारतीय लोगों में, समाज की तथा अपनी स्वयं की शालीनता की चिंता ज़्यादा होती है पर कुछ अपवाद हर मामले में देखे जाते हैं।

एक दिन अचानक ऐसी पूर्व धारणाओं से विपरीत-सी एक घटना से मेरा सामना हुआ जो एक कथा के रूप में, काल्पनिक नामों के साथ कह रही हूँ ..

एक दादाजी अपनी धेवती के साथ अकसर एक सार्वजनिक पाक में दीख जाते थे। मेरे बच्चे भी उस कन्या के साथ खेलते थे। कन्या का नाम था लवली ! दादाजी थे पन्नालाल मेहता। एक दिन उन्होंने बतलाया कि उनकी पत्नी हेमलता जी ने उन्हें तलाक दे दिया था और वे अपनी पत्नी से रुष्ट होते हुए भी आवास की समस्या से तंग आकर उसी फ़्लैट में रहने लगे जहाँ उनकी पत्नी जो अब आज़ाद थीं और अपने एक नये मित्र के साथ नयी गृहस्थी बसाने के चक्कर में थीं और ख़ूब ऊँची तनख़्वाह भी पा रहीं थीं रहने लगे। बेइज्जती से जीते हुए पन्नालाल जी के बारे में उनके पुत्र मुकुंद को भी चिंता रहने लगी और उसने अपनी अमरीकन पत्नी लीसा से सारी बातों को सविस्तार , खुलकर बयाँ कर दिया और यह अमरीकी बहुरानी लीसा का मन ऐसा पसीजा के अपने श्वसुर जी को वह मुम्बई, भारत सन्मान के साथ अपने घर रहने का निमंत्रण देती हुई आ पहुँचीं। लीसा का यह भारत भूमि पर प्रथम बार आना हुआ था

पन्नालाल जी का स्वर घटना सुनाते हुए आँसू से सजल था। उन्होंने कहा, “लोग कहते हैं परदेस में बूढ़े माता-पिता से, कई बच्चे चाकरी करवाते हैं। होता होगा वैसा भी .. सच कहता हूँ कि , मेरी अमरीकी बहु लीसा मेरी सगी पुत्री से बढ़कर है। वो मेरा बहुत मान रखती है और हर बर्ताव में वह बड़ी सहज है। लवली स्कूल जाती है मैं पास के स्टोर में ४ घंटे काम भी करता हूँ और घर पर आराम से रहता हूँ । मेरा बेटा, बहू , धेवती सुखी रहें यही कामना है।” उन्होंने आँसू पोंछते हुए कहा था और जोड़ते हुए बोले, " सच बेटी, नियति के खेल निराले हैं ।"


Thursday, August 9, 2012

प्रीत की अलपनाएं सजी हैं प्रिये

प्रीत की अलपनाएं सजी हैं प्रिये
आ भी जाओ प्रिये आ भी जाओ
मौन हो तुम , कहूंगा तुम्हें बार बार
आ भी जाओ प्रिये आभी जाओ
थे मूंदें नयन में जो सपने पले
वे सपने मैंने औ' तुमने बुने
सजा आरती साँसों की ओ प्रिये
वे पल छीन जो मैंने औ तुमने गिने
सुख हो या दुःख वे हमने पल जिए
अब ना दूरी रहे सफर पूरा ये कटे
आ भी जाओ प्रिये आ भी जाओ
नील नभ तारक सी जगमगाती
हरी दूब सी सिहर लहराती
सिंदूरी संध्या सी हो लजाती
शुक्र चन्द्र युति झिलमिलाती
धानी चुनरिया सरसराती हुई
आ भी जाओ प्रिये आ भी जाओ
नव रंग नव रस नव उमंग लिए
प्रीत की अलपनाएं सजी हैं प्रिये
कल्पना सी सजी अलपनाएं हैं
प्रीत के हर रंग हैं तुम्हारे प्रिये
आ भी जाओ प्रिये आ भी जाओ

- लावण्या