Friday, February 14, 2014

मन मीत

हमारे शहर के बाहर एक स्वच्छ , सुन्दर नदी बहती है। गाँव का पनघट और धोबीघाट जहां है , उसके  बस दो पग आगे, वेणु नदी, पथरीले इलाके से समतल भूमि पर उतरती है। कुंवारी कन्या का रूप तज कर, नई सुहागिन बनी सकुचाती, शरमाती, अपनी धारा को मंथर करती हुई, दोनों किनारों को हरीतिमा से पूरित करती हुई, गाँव पार करते हुए, आगे कसबे की घनी बस्ती के मध्य, सेतु रचे बहती है। वहीं पर किसी पुरखे ने एक पुलिया बनवायी थी। जिस पर चल कर पास के गाँवों से सौदा खरीदने, बेचने, कई सारे लोग, पुलिया पार कर, कसबे के बाज़ार तक पहुँचते हैं। मैं भी इस पुलिया से, करीब, रोज ही गुजरा हूँ।

मुझे यह पुलिया बहुत पसंद है। शायद इसी कारण, के मैंने, यहीं पर सबसे पहली बार, तुम्हें देखा था।अपने जीवन से हताश, मैं, वहां रोज ही खडा रहता। नदी की तेज घुमावदार धारा को, अपना वेग संतुलित कर आगे बढ़ता हुआ देखता रहता और पुलिया के नीचे जल गहर ~ बहर करता, गुजरता रहता! उसे देख मुझे ये  आभास होता कि, यूं ही  मेरी ज़िन्दगी भी  भागी जा रही है। मेरी ज़िन्दगी ऊपर से शांत दिखलायी देते हुए भी, बेकली और उदासी को छिपाये, गुजर रही थी।
किसी संध्या को मैं वहीं ठिठक कर खडा रहता जब तक रात का अन्धकार, हर दिशा को, ओढ़ लेता और वेणु नदी की जलधारा, चिकने काले तरल आकार में, तब्दील हो जाती। जिसे देख मेरे मन को अजीब सा सुकून मिलता। फिर मैं सोचता , ' अब मेरे लिए और रह क्या गया है करने को  ?  
घर के बड़े - बुजुर्ग , दूर के रिश्तेदार की भाभी की लाडली छोटी बहन ' मधुरिमा ' से मेरा लगन तय करने लगे थे और मैं, जिसकी शादी होनी थी उसे किसीने पूछा तक नहीं ! मेरी क्या मरजी है ? ये क्या बात हुई भला ? क्या मैं अब भी कोइ दूध पिता अबोध बालक हूँ ! वो लडकी भी अजीब है ! क्या उसकी अपनी इच्छा न होगी ? उसे किसी ने न पूछा होगा के ,
' बिट्टू, तुझे करनी है शादी ? '
ऐसा भी नहीं के वो मुझे पसंद नहीं ! उसकी सूरत बड़ी भोली - सी है। प्यार से बड़ी हो गयी पुतलियों में, लहराता आत्म विशवास और प्यार उस रोज़ मैंने देखा था  
जब वह मुझे घूर घूर कर देख रही थी और भाभी भी मुख पे पल्ला लिए हँसे जा रही थी। न जाने सब रिश्तेदार क्या सोच रहे थे उसी दिन जब हम, एक विवाह के अवसर पर, आमने - सामने, हो गये थे।
मैंने मधुरिमा के चेहरे को, ध्यान से देखा था। मधुरिमा की त्वचा पहाडी लड़कियों की तरह कोमल और साफ़ थी। स्वच्छ, सुफेद ब्लाऊज और गुलाबी साड़ी में उसका चेहरा, गुलाब की तरह खिल रहा था और एक आभा उसके चेहरे पर फ़ैली हुयी थी माथे पर, स्वागत की रोली का तिलक, केसर से बना हुआ था और नन्ही नन्ही आँखों में, उत्साह उमड़ पडा था।
माँ ने मुस्कुराकर भाभी का हाथ थाम लिया और जब मधुरिमा वहां से चल दी तब उसकी आश्वस्त सी चाल देखकर बड़ी बुढीयाँएं कहने लगीं, ' बड़ी सुन्दर बहु मिली है हमारे मोहन को ! क्या जोड़ी रहेगी मोहन की मैया ! अब आप तो खुशी खुशी ब्याह की तैयारी करो ! " मैं इतना सुनते ही वहां से चल दिया था।
आज भी, मैं पुलिया पर आ खडा हुआ हूँ। न जाने अनगिनत विचारों से मेरा मन मथा हुआ है और मैं लोगों की सुव्यवस्थित जिंदगानी का चलचित्र देख रहा हूँ। बस उसी वक्त, सामने से पुलिया के उस पार से, तुम तेजी से चलतीं हुईं आयीं।  
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पुलिया के उस पार से, तुमने मेरी ओर देखा था। मार्ग में आने जाने वाले लोगों के कन्धों के बीच से हमारी नज़रें टकरायीं थीं और तुमने बड़ी सरलता से एक खुला हुआ स्मित मेरी और उछाल दिया था। तुम्हारी उस मनोहरी मुस्कान में कोई परदा न था ना ही था कोई अलगाव! मुझे उस एक पल में यूं लगा मानों तुम मेरी चिर परिचित हो ! आत्मीय हो ! मेरी स्वजन ! जिसे मैं बरसों से पहचानता था , जानता हूँ और सदा जानूंगा। उस एक सहज मुस्कान से यूं प्रतीत हुआ मानों हम और तुम रोजाना मिलते रहें हों ~ और मैं, आगे कुछ सोच पाऊँ, उससे पहले, तुमने अपना मुख मोड़ लिया था। पर मैं तो एकटक तुम्हीं को ताके जा रहा था। अब तुम बिलकुल मेरे करीब तक आ पहुँचीं थीं। तुम्हारी चाल की गति में कोई बदलाव न आया। तुम उसी तरह चलतीं रहीं।  तुम्हारे बदन पर छिडके इतर की मादक गंध वह महक, हल्की सी तरल खुशबु, मानो एक क्षण के लिए मुझे अपने आलिंगन में समेटती  हुई आई और दूर हो गयी। मुझे झकझोर गई। तुम मेरी और देखे बिना अपनी ऊंची सेंडिल की खट - खट से रास्ता तय करती हुईं चल दीं ! तुम्हारा गोरा, सुडौल कसा हुआ बदन, नपे तुले डग भरता आगे और आगे बढ़ता गया।
अब तुम पुलिया के दुसरे सिरे तक पहुँच चुकीं थीं और तुमने एक बार मुड़कर, मेरी और देखा ! मैं, अपनी जगह पर ठगा सा, जडवत, तुम्हीं को निहार रहा था। क्या किसी नितांत अपरिचित से भी कोई, इतना प्रभावित हो सकता है ? तब तुम मेरी और देख कर हलके से मुस्करायीं तो मैं वह कर बैठा जो मैंने अपने जीवन में इससे पहले कभी सोचा तक नहीं था ! तब करता तो भला कैसे, ही ? पर मैंने, अपना हाथ उठाकर, तुम्हें रूकने को कहा !
अब तो तुम खुलकर हंस पडीं थीं और मैं, अज्ञात  वशीकरण  से सम्मोहित - सा , तुम्हारे पीछे चल पडा था। लोगों की भीड़ , हमारे आस पास, ऐसे ही चलती रही। तुम जितना तेजी से चलतीं, मैं भी अपनी गति तेज कर उतनी ही त्वरा से तुम्हारे पीछे चल दिया। रास्ता कट रहा था और मैं सोच रहा था, ' क्या करतीं हैं मैडम ? योगासन या कसरत ? क्या मालूम कराटे चैम्पियन हों ! ' अब मैं हांफने लगा था और सोच रहा था, इतना तेज मैं , कभी नहीं चला 'मेरा मुंह सूख रहा था अपने स्वभाव के विपरीत, मेरा बर्ताव, मेरे होशो हवास उड़ाकर, मुझे एक जादूई क्षण के हवाले कीये जा रहा था मानों मेरा अस्तित्त्व, तुम्हारे साथ जुड़ गया हो !
अचानक, कसबे की और जाती सड़क के ठीक सामने बड़े चौराहे को पार कर एक विशाल भवन के फाटक को खोल कर तुम उस से भीतर दाखिल हो गयीं।  
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एक भारी जालीदार फाटक तुमने, रोज की आदतानुसार, आसानी से खोला। बस ज़रा सा ही और अपने आपको भीतर सरका लिया था। पर, फाटक को तुमने खुला ही छोड़ दिया और आगे बढ़ गयीं थीं। पूरे पांच मिनट बाद, मैं भी उसी जालीदार फाटक को ठेलता हुआ भीतर दाखिल हो गया था जहां मैंने फूलों से भरी एक सुन्दर बगिया देखी। सामने जमीन पर मखमल सी हरी घास बिछी थी और उस हरी घास के दरिया के बीचोंबीच , हलके बादामी राग से पुती हुयी, एक छोटी सी कुटिया थी। सामने एक बड़ा लकड़ी की नक्क्काशी से सजा प्रवेश द्वार था जिसके सामने, लता मंडप पर एक तरफ सुफेद और दूसरी तरफ लाल गुलाब के पौधे फूलों से भरे स्वागत में खिले हुए झूम रहे थे और उन्हीं के पीछे, रात रानी और जूही की लताएं लहरा रहीं थीं और गले मिल रहीं थीं।
तुम अपनी पर्स से झुक कर चाबी निकालकर सीधी हुईं और दरवाज़ा खोलने लगीं और मैं सुगंध सागर में अनिमेष वहीं खड़ा हुआ एक आनंद के सागर में गोते लगा रहा था कि दरवाज़ा खुल गया और तुम भीतर दाखिल  हो गयीं। 
मैं दरवाजे के पास पहुंचा। मेरे उस द्वार पर हाथ रखते ही वह भीतर की तरफ खुल गया। तुम उसे खुला ही छोड़कर भीतर चलीं गयीं थीं शायद ! मन भी कांप रहा था मेरा और तन भी ! पर उस वक्त होश किसे था ? मैं भी हिम्मत कर भीतर प्रविष्ट हो गया।बाहर की तेज धूप से अभ्यस्त आँखें भीतर के धुंधलके में, कुछ पल के लिए कुछ भी देख न पायीं। कमरे में फ़ैली मध्धम रोशनी में, मैं अपनी आँखों को , अभ्यस्त कर रहा था। जब कमरा साफ़ दीखलाई देने लगा तो मैंने देखा, दो बड़े आरामदेह सोफा सेट को और लम्बी खिडकियों पे महीन, सुफेद लेस से बने लम्बे जमीन तक लहराते परदे हवा से झूल रहे थे। शोख मरूंन रंग की कारपेट के इर्द -गिर्द , ग्रे रंग के सोफे, कमरे को भव्यता के साथ, सुन्दरता भी प्रदान कर रहे थे। दीवारों पर वही सौम्य - ग्रे रंग, हल्के आसमानी या भूरे रंग जैसा ~ पुता हुआ था। रेकोर्ड प्लेयर पर हल्की हल्की संगीत की धुन बज रही थी। कोइ घुड़सवार अकेला सीटी बजाता हुआ मानों सुनसान रेगिस्तान पार कर रहा हो और अपनी मस्ती में कोइ धुन सीटी से बजाता हुआ बियाबान को रंगीन बनाता हुआ गुजर रहा हो और उस धुन की कशिश मेरे दिल को मोह गई।
ऐसा ही कुछ मुझे उस वक्त लगा था। मैं आँखें फाड़े, आस पास देख रहा था। कभी दीवार पर लगे बड़े से आईने को देखता जिसमे बाहर के पेड़ की छाया दीखलायी दे रही थी तो कभी ऊपर, सुफेद छत पर, एक मोटी सुनहरी ज़ंजीर से लटके बेशकीमती झाडफानूस से मेरी नज़रें टकराईं !
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तुम तभी भीतर के कमरे से बाहर आयीं। तुम्हारे हाथ में चांदी की  ट्रे थी जिस पे चांदी के २ गिलास भी थे।

तुम्हारी , झीनी , पिघली हुई चांदी सी आवाज़ उसी वक्त मैंने पहली बार सुनी ! तुमने बड़ी बेतकल्लुफी से मुझसे कहा ,
' अब भीतर आ ही गये हो तो, बैठ भी जाओ ...' 
क्या अजीब बात कह दी थी तुमने !! एक अजनबी के यूं अपने घर में घुस आने से तुम्हें ना कोई शिकायत थी, ना कोइ आश्चर्य हुआ था ! ना कोइ उलाहना - ना हि कोई डर था तुहारे चेहरे पर !! मुझे तो यूं महसूस हुआ मानों तुम ना जाने कितनी देर से मेरी ही बाट जोह रहीं थीं। अब तो घबडाकर धडाम से, मैं सोफे पर बैठ गया ! तुमने मेरे कांपते हाथों मे एक ग्लास थमा दिया तो ठंडी सिहरन मेरे पूरे बदन पे  दौड़ गयी। मैंने चांदी के गिलास से उठते झाग को नासमझी और शंका सहित देखा , हडबडा कर बोला' मैं बीयर नहीं पीता ! "
तुमने तिपैये वाला पीतल का एक स्टूल उठाया, उसे मेरे नजदीक लाकर रखा और आराम से उस पर बैठते हुए बड़े इत्मीनान से कहा,
' अरे ...मैं भी नहीं पीती बीयर ..ये तो ' थम्स - अप '  है पी लो ! मैं क्यों देने लगी आपको बीयर - शीयर ! " फिर तुम्हारी चांदी और सोने की घंटियां मानों एक साथ बज उठें वैसी मधुर हंसी,  पार्श्व मे बज रहे सीटी की धुन का साथ देती हुई, कमरे मे  गूँज उठी !
        मैंने अपनी झेंप मिटाने की कोशिश करते हुए गिलास ओंठों से लगा लिया और गट गट कर सारा प्रवाही पेय, एक सांस मे, मैं,  पी गया। कुछ बूँदें मेरे कांपते हाथों की ओर इशारा करतीं हुईं उछलकर मेरे कपड़ों पे गिर पडीं। तुमने उस वक्त, बड़े आराम से एक नेपकीन  बढा दिया था और तब तुम खुलकर मुस्कुराने लगीं। अब तो मेरे पूरे होशो हवास उड़ गये। मैंने अपने सूख रहे ओंठों पे जीभ फेरी और कहा ,' ए जी ' देखिये, मैं इस तरह,  कभी किसी अजनबी के घर, आजतक गया नहीं। पता नहीं आज क्या हुआ कि मैं इस तरह आपका पीछा करता हुए, आपके घर तक चला आया। '      
     मैंने अपनी सफाई पेश करते हुए ये कहा तब तुम फिर हंस पडीं और मेरी ओर गौर से देखने लगीं। उसी वक्त मैंने भी तुम्हारी ओर नज़रें घुमा कर तुम्हें पूरी नज़र देखा था। खिड़की से, धूप की एक किरण फ़ैल कर ठीक तुम्हारी आँखों को छू रही थी।  
' बाप रे ! ये क्या ! कितने ही रंगों की आँखें मैंने देखीं थीं और न जाने कितनों के बारे मे पढ़ रखा था, सुना था पर तुम्हारी वह पैनी आँखें, जो तीर की तरह मेरे दिल को चीर कर, आर पार होकर,  मेरे मन के भीतर तक पहुँच रहीं थीं  जहां मेरे मन के सारे रहस्यमय भाव, सुषुप्त निद्रा से जकड़े हुए सदीयों से कैद थे। 
पर आज उन्हें मैं तुमसे छिपा नहीं पा रहा था। मैं बेबस था तुम्हारी उन मर्मभेदी आँखों के सामने ! वैसी आँखें मैंने आज से पहले कभी न देखीं थीं।
तुम्हारी पुतलियाँ अब फैलकर बड़ी हो गयीं थीं और उनकी घनी छाया नारंगी रंग की पुतलियों तक फ़ैल गईं थीं। क्या किसी की आँखें केसरी रंग की भी हो सकतीं हैं ? कत्थे के रंग सी ? बिलौरी कांच सी ? पारदर्शी तुम्हारीं आँखें, ऐसी ही थीं और तुम्हारीं पैनी नज़रें मुझे ऊपर से नीचे तक जांच रहीं थीं। मैंने, गिलास  रख दिया।
     कुछ देर के बाद अपनी गोद मे रखे अपने हाथों की ओर देखा तो वे अपने मे ही उलझ कर बन्ध रहे थे, खुल रहे थे ! तुम्हें पता था कि मैं कितने पेशोपश मे उलझा हुआ हूँ।
        मैंने फिर चेष्टा से ऊपर देखा। तुम अब भी अनिमेष नयनों से मुझे निहार रहीं थीं। अच्छा हुआ तुम उस दिन कुछ बोलीं नहीं थीं। बस मेरे पास बैठी हुईं मुझीको निहार रहीं थीं और आज एक राज़  की बात बतलाते हुए मैं बिलकुल नहीं डरता कि , उस जादुभारे पल मे, अगर तुम मुझसे पूछतीं कि, “ क्या तुम मुझसे विवाह करोगे ? " तब अपनी उस बदहवासी में, मैं यही सुनता कि तुम कह रही हो,
" चलो प्रिये हम इसी क्षण, विवाह कर लेते हैं “ या इसी आशय का कुछ  ! ऐसा ही अनायास - सा तो मेरा उत्तर भी यही सुनतीं ~“ हम एक दूजे के हो जायेंगें...सदा सदा के लिए , मैं , तुम्हारा हूँ ..”  और शायद
मैं, “ हां  “ कह देता। पर तुम खामोश थीं।
     मेरे मन मे उठते गिरते भावों के बादलों को मनोकाश मे घिरते, छंटते, तुम देखतीं रहीं। मेरे चेहरे पर भावों के इन्द्रधनुष को खिला देखकर भी तुम मौन रहीं थीं। ना जाने ऐसे ही कितना समय बीत गया। ना जाने कितनी  बरखा, झरने, नदियाँ, जल से भरीं हुईं, सागर मे समा गयीं।      
 दीवार पर टंगी घड़ी ने जब डंका बजाया तभी हम दोनों की मौन समाधि टूटी ! तुम गहरी तंद्रा से जागते हुए बोलीं , “ ओह , घड़ी ! "  
तुम उस वक्त वहां से न उठतीं तो शायद मैं भी न उठ पाता !
अपने को सम्हालकर , खडा करते हुए मैंने कहा ' चलता हूँ …’ 
और मैं दरवाज़े की ओर लपका तुमने फिर आवाज़ दी  
' इसे तो लेते जाओ ...'मैं भौंचक्का सा देखने लगा , मेरा बेग , तुम्हारे हाथों मे था ..‘ अरे इसे लाया भी था क्या मैं ? ‘ मैं सबकुछ भूल गया था। तुमने मुझे बेग लौटाया तो तुम्हारी नाज़ुक ऊंगलियों की वो हल्की सी छुअन ने मुझे कंपकपी से झकझोर दिया। बस इतना ही पूछ पाया था, ' नाम तो बतला दो ! '
' मालती ' तुमने धीमे से कहा।
     
मैं बेग छीनकर दरवाजे से बाहर निकल आया। अथाह जलराशि जो मुझे डुबो रही थी उस के बीच उठती भंवर मे, वही एक तख़्त था जो मेरे प्राण बचा कर मुझे किसी सुरक्षित थल तक ले पहुंचता। बाहर बगिया मे, फूल, मुस्कुरा रहे थे जिनकी खुशबु और तेज हो गयी थी।
   
मैं लगभग दौड़ता पड़ता हुआ, बस आगे बढ़ता गया। एक बार भी मैंने पीछे मुड़कर देखा नहीं। उस वक्त, मैं , इतना जान गया था कि, आज के बाद मधुरिमा से ब्याह की बातें और उन मे दीलचस्पी लेना, ये मेरे जीवन का सब से बड़ा  झूठ होगा और अपने आप से किया सबसे बड़ा फरेब ! मेरा चैन, मेरा आराम, उसी दिन से हमेशा के लिए दूर हो गया था। वही था अपना प्रथम मिलन !
शायद प्रकृति या नियति को यही मंजूर था कि हम दो अजनबी, उस मिलन के पश्चात, एक अटूट प्रणय पाश मे बन्ध कर एक हो जाएँ - कभी सांझ कभी सवेरे, रोज मिलना , बिछुड़ना। यही क्रम हो गया था जिसमे हम बन्ध गये थे।  
      एक शाम डूबते सूरज को देख तुम गीत गुनगुनाने लगीं थीं तो उस पहाडी गीत का अर्थ पूछ ही लिया था मैंने और तुमने कहा था ,
 ‘ ये एक शिकारी और हिरना हिरनी की कथा है ! एक था हिरण और एक थी हिरणी ! उस प्यारे जोड़े में से,एक दिन उस क्रूर शिकारी ने हिरणी को, अपने विष बुझे, नुकीले तीर से घायल कर, उस के प्राण ले लिए ! फिर उस बेरहम शिकारी ने हिरणी के चमड़े  से एक ढोलक बनायी जिसे वह तन्मयता से थाप दे दे कर बजाता - उसकी प्रेयसी, ऊंची पहाडीयों पर उसे सुनती और मग्न होकर खूब नाचा करती थी। एक दिन बेखयाली मे नाचते हुए वो पहाडी ढलान से फिसलकर, नीचे खाई मे गिर पडी और वो शिकारी की प्रिया, मर गई !
अब तो वह शिकारी दुखी हो गया। अपनी प्रिया के बिछोह में पागल होकर, मारी हुई मृगी की खाल से बनी ढोलक पर थाप देता और अपनी प्रेयसी की धू धू कर जलती चिता को याद कर आंसू बहाता रहता ! जब जब वह ये करता, तब उस हिरनी का प्रेमी हिरना भी वहाँ खिंचा चला आता और डरे बिना शिकारी के सामने आ कर खडा हो जाता। डूबते हुए सूर्यदेव की साक्षी मे हिरना अपनी व्यथा, दुःख से बेहाल हुए शिकारी के संग बांटता। अजीब सा समा उस पहाड़ी ढलान पर दिखलाई पड़ता ! वादी के लोग कहते हैं कि, कुछ पल को पहाड़ों के झरने भी थम जाया करते थे ! 

जानते हो,प्यार क्या है ? प्रश्न पूछ लिया था तुमने और उत्तर भी स्वयं देतीं कहने लगीं ' उमर भर का दर्द है ये कम्बख्त ! कई कई प्रेमियों की जन्मों जन्म की पीड़ा बसी है सच्चे प्यार मे !'
   इतना कहकर तुमने मुंह फेर लिया था और मैं तुम्हें आगोश मे भर कर अपने आंसू को बहते हुए देखता रहा जो तुम्हारी कांच सी आँखों मे प्रतिबिंबित हो कर हमारे गालों को भिगो रहीं थीं। 
मैंने कहा था, ' मालती, पहाड़ की बेटियाँ जादूगरनी होतीं हैं ! तुम भी अवश्य काला जादू जानती हो ! ' तुम एक फीकी हंसी बिखेर कर बोलीं ,
" ये  कैसा जादू है मोहना ? जो जादू करे उसीको पीड़ा से बींध दे ! " 
 इस बात का मेरे पास कोइ उत्तर न था। मैं तुम्हारे और करीब आकर गले में बाँहें डाले पूछ बैठा ,“ क्या हमीं ने दुबारा जन्म लिया है ? इन पर्बतों की कंदराओं मे अपना खोया प्यार फिर एक बार महसूस करने के लिए ? प्रकृति मैया ने हमे इस जनम मे मानुष भेस दिया है - है न मालती ? “
तुमने एक चुटकी काटते हुए मुझ से कहा,"  ये आज का सच है ! अब भुगतो ! "
और हम, उस पहाडी ढलान पर बैठे, वेणु नदी की धारा को, मुड़कर बहते हुए, कसबे को ग्राम प्रांत से जोड़े हुए, सदा की भांति अविरल बहता हुआ तब तक देखते रहे, जब तक संध्या की लालिमा पहले शुक्र तारक के साथ, गहरे नीले होते आकाश को अपनी आभा से जगमग करने लगी थी और रात्रि की पदचाप सुनायी देने लगे थी तब तुमने कहा था
' चलो अब, घर जाओ ...शाम ढलने लगी है ...'
' मालती, कल मुझसे मिलने आओगी न ? ' मैंने पूछा तो तुमने सर हिला दिया था और हम दोनों अपने अपने नीड़ की ओर अलग अलग दिशा मे चल दिए थे।
मालती :
मालती के बारे में धीरे धीरे यह जान गया था कि वह एक राजसी  परिवार की कन्या थी। माँ साहिबा राजरानी साहिबा थीं इन्द्राणी देवी जी जिन का अरसा हुआ देहांत हो चुका था। विलासी पिता महाराज रुद्रसिंह जी विधुर थे। उनकी दूसरी पत्नी भी थीं। जो एक फिरंगी ~ गोरी महिला ! 
महाराज साहब उस  के संग अधिकतर फ्रांस के बोर्डो, आल्साक, रोह्हन जैसे वाइन उत्पाद के लिए मशहूर इलाकों में  या जर्मनी के ' ब्लैक फोरेस्ट ' इलाके में , अपनी शानदार कोठी को आबाद किये अधिकाँश वहाँ रहा करते थे। 
यह सारा मालती ने ही मुझसे बतलाया था। महाराज साहब कई महीनों, भारत के अपने इस पहाडी इलाके के राजसी ठाठ बाठ को छोड़ छाड़ कर,  यूरोप , जा कर अपना समय बिताया करते थे। अपार धन -दौलत संपत्ति, पैसा  -- पुरखों से मिली जायदाद जागीर उनके भोग विलास की भेंट चढ़ रहे थे ।जेवरों से भरी तिजोरी, उनके, बीते हुए वैभव की साक्षी थीं।
मुझे राजकुमारी मालती देवी ने ही यह बतलाया कि अब पुरखों की हवेली में, वह, साधिकार रहती है । अपनी ऐस्टेट के पीछे बने गेस्ट - हाउस या आउट हाऊस ही मालती को सर्वाधिक प्रिय था यह ज़ाहिर था। वही कुटिया जहां वह अपना अधिकाँश समय बिताया करती थी और जहां हमारी मुलाक़ात हुई थी।
मालती की पुरानी दाई माँ के निधन के बाद मालती कहती कि अपना सारा काम स्वयं करना उसे पसंद था। अक्सर वह मुझे पैदल चलती हुई पहाड़ी ढ़लानों पर सैर करती हुई दीख जाया करती थी। लोगों की भीड़ के साथ चलती तो कोइ ये न जान पाता कि राजकुमारी साहिबा, आम लोगों में शामिल हैं। उसे एकांत ही पसंद था। यह सारा मालती ने ही मुझे बतलाया था।
' महात्मा गांधी के सत्याग्रह से वह प्रभावित थी। अंग्रेजों के कुशाशन से देश को आज़ादी मिल रही है इस की उसे खुशी थी। भारत अपनी पहचान बनाकर दुनिया के अन्य देशों के साथ अपना अस्तित्व बना,आगे बढ़ रहा था उस संभावना पे मालतीको गर्व था। पर उसने यह भी बतलाया था कि उस के पिता जी डिअर फ़ाधर इस से नाराज थे ! भारत सरकार ने राजवंश के साथ हुए प्रीवी पर्स करार को मानने के अपने वादों पे कोइ ख़ास तवज़्ज़ो न दी थी - इस बात का उन्हें क्षोभ था। राजपरिवार, किसी न किसी तरह अपनी अपनी संपदा को पुराने आभूषणों को बेच बाच कर या अपने राज प्रासादों को होटलों में तब्दील कर गुजारा कर रहे थे।
उस पर हमारी बातें हुईं। ' अब ये आम जनता के जहान में क्यों आने लगा भला ? ' मैं कहता और मालती मुस्कुराकर रह जाती।  

' महाराज रूद्रसिंह जी को योरोप ज्यादा सुहाता है और वे लम्बी लम्बी टूर पे निकल पड़ते हैं। योरोप के रमणीय जंगल,उन्हें, अपने पहाडी राज्य की याद दिलाते हैं। वे, वाइन के बेहद शौक़ीन हैं और महाराज सा' और वह परदेसन रोजाना शाम से ही रात होने तक सुफेद वाइन की पूरी शीशी पी ही लेते हैं। ' बड़ी शरारत भरे स्वर में तुमने भेद खोलते हुए बतलाया था ! फिर नकल करते हुए कहा, “  डार्लिंग, योर व्हाईट वाइन अवैट्स यू .. “ [ प्रिये तुम्हारी सुफेद शराब , तुम्हारा इंतज़ार कर रही है ]  " इसी वाक्य से उन कीं शामे शुरू होतीं हैं मोहन ! " तुमने कहा था और वतलाया था कि बेर, सारा सरंजाम लेकर  बालकनी में  उपस्थित हो जाता है ! तुमने अचानक कहा, जानते हो मोहन, उस परदेसन रानी का नाम स्टेला है ! '
स्टेला ~
स्कोट्लैंड के स्कोत्च व्हीस्की उत्पादक की कन्या है स्टेला ! उसने अपने जीवन के १७ वे वर्ष मे प्रवेश किया ही था कि एक शाम बड़ी बड़ी मूंछों वाले प्रभावशाली परसनालिटी वाले विधुर, महाराज रूद्रसिंह जी को स्टेला ने पहली बार अपने पिता के व्हिस्की उत्पादन के कारखाने के साथ लगे, शो रूम नुमा, बड़े होल में देखा था। वहाँ टूर मे आये २० सैलानियों के मध्य, शान से खड़े हुए महाराज रूद्रसिंह को कुमारी स्टेला ने देखा तो स्टेला के गोरे गोरे मुख पर विस्मय गुलाबी आभा को गहराते हुए फ़ैल गया था । अन्य यूरोपीय श्वेत मुखड़ों के बीच में यह लाल पके धेऊँ के धान से रंगवाले, भरे पूरे,  ऊंची कद काठी के, मध्य वय के सुदर्शन भारतीय पुरुष को देख, किशोरी  स्टेला की आँखें, झपक कर, खुलीं की खुलीं रह गयीं थीं और वह एकटक उनकी ओर देखती रह गई !

उस पुरुष की आँखें,  स्टेला की गुलाबी त्वचा पर और कन्या की आसमानी नीली आँखों में तैर रहीं आश्चर्य और आकर्षण से, बड़ी बड़ी हुईं  पुतलियों को देख कर अपने पौरुषत्व को उभारतीं हुईं अल्हड अदा से, मुस्कुरा उठीं ! किसी भी उम्र के स्त्री या पुरुष क्यों न हों, लैंगिक आकर्षण के चुम्बक को नर और मादा पहचान लेते हैं। 

महाराज रुद्रसिंह ने स्टेला के मनोभावों को बखूबी पहचान लिया फिर भी सरसरी निगाह से , १६, १७ वर्षीय कन्या को देखा,  अनदेखा कर रूद्रसिंह जी, बात करते हुए मुड गये और व्हीस्की के बारे में काफी जानकारी से भरे वार्तालाप को आगे बढ़ाते हुए टूर गाईड की बातें ध्यान से सुनने लगे।
कुमारी  स्टेला ने ही आकर, आहिस्ता से उनकी बांहों को छूआ था - तब वे मुड़े और बड़े औपचारिक तरीके से शुध्ध अंग्रेज़ी में कहा ' मेडामोसेल, ' [ याने ‘ आदरणीया महिला  ‘ ]
स्टेला ने अपना हाथ पाश्चात्य की अभिवादन मुद्रा में बढा दिया तो महाराज ने झुक कर हल्का सा चुम्बन उसकी हथेली को उलटा करते हुए अपने ओठों का स्पर्श किया चूंकि यही योरोपियन प्रथा होती है अभिवादन की !
स्टेला आश्वस्त हुई इस पर और सोचने लगी,' आ हा परदेसी सज्जन को , योरोपियन तौर तरीकों से,  पूर्व परिचय है ....
अब खिले हुए पुष्प सी स्टेला ने मीठे सवर में प्रत्युत्तर दिया 
“  एन्चेंटेड  “  [ खुशी हुई ] अपनी मीठी युवा आवाज़ में उत्तर देते हुए अपनी हथेली अपने सुर्ख हो रहे गालों पर घुमाते हुए उस अनजान परदेसी के स्पर्श को, मानों, स्टेला ने आत्मसात किया। उनकी बड़ी बड़ी, काली काली मूंछों  के स्पर्श  से उसकी हथेली सिहर उठी थी।
स्टेला के केशोर्य को आज एक पुरुष के आकर्षण ने सोते हुए से, मानों एक लम्बे स्वप्न से, झकझोर कर जगा दिया था। परियों के देस मे सो रही स्टेला को एक राजकुमार ने आकर उसकी हथेली को चूम कर मानों नींद से जगा दिया था। यही था कुमारी  स्टेला का प्रथम क्रश ! [ माने अदम्य  आकर्षण ] जिससे वे कभी उभर न पायीं ! उसने अपने पिता के पास जाकर आग्रह किया कि,
' डीयर  फाधर,  इस परदेसी को, वे,  अपने विशाल, आरामदेह आवास पर निमंत्रण दें और उन्हें  रात्रि भोज के लिए , बुलाएं ..'
स्टेला के पिता श्रीमान  केम्रोन मेक ग्रोगर ने अपने पिता  श्रीमान लीओन मेक ग्रोगर सीनीयर से , व्हीस्की उत्पादन का व्यवसाय , वंश परंपरा मे हासिल किया था और पत्नी ईडीठ से विवाह करने के कई वर्ष बाद , ३ बेटों के जन्म बाद स्टेला के पिता होने का सुख प्राप्त किया था। परिवार में सब से छोटी स्टेला, उनके सुखी व संपन्न परिवार मे सभी की लाडली थी। उसका आग्रह भला , कैसे टाला  जाता  ?
श्रीमान  केम्रोन मेक ग्रोगर ने, महाराज रूद्र सिंह जी को बड़े आदर से निमंत्रण भिजवा दिया जिसे महाराज रूद्र सिंह ने, सहर्ष स्वीकार करते हुए शाम को आने का वादा किया और अपने होटल कक्ष में, वे स्नान व आराम के लिए चल दीये।
        उस शाम  आतिथेय, श्रीमान केम्रोन मेक ग्रोगर के विशाल आरामदेह भोजन कक्ष में , उन के व्हीस्की के  व्यापार का सर्वश्रेष्ठ नमूना, ्लेंफिद्दीच व्हीस्की की महंगी शीशी को बड़ी शान से खोला गया और आइरिश क्रिस्टल ग्लास में उंडेल कर रूद्रसिंह जी के सामने सादर पेश किया गया।  
श्रीमान  मेक्ग्रोगर का  परिवार,  महाराज  रूद्रसिंह जी के आगमन से अभिभूत था उसका कारण था महाराज का आगमन ! उनके  पीछे ,  पीछे , ताजे  फूलों का विशाल गुलदस्ता लिए आता हुआ कर्मचारी !! फूलों के गुलदस्ते की भव्यता को  देख , परिवार प्रभावित हो गया था !  निमंत्रण के १ घंटे के भीतर, रूद्रसिंह जी के आदेश से,  होटल के फ्रंट डेस्क के कर्मचारियों ने यह सुन्दर फूलों का गुलदस्ता फोन से ऑर्डर कर, उसे महाराज की आज्ञानुसार प्रस्तुत क दिया था।
' इतनी नन्ही कन्या से उन्हें क्या प्रयोजन हो सकता है ! ' यही सोचते रहे महाराज !
भोजन करते हुए, बातों का सिलसिला चला तो महाराज ने यूं ही बतला दिया के
' अब भारत आज़ाद है पर उनके पुरखे, राजपरिवार का शासन,उत्तर भारत के पहाडी इलाके में स्थित, एक छोटे  प्रांत में , पिछली दो सदीयों से कायम रहा है । '
इस बातको सुनते ही, व्यवसायी मेक ग्रोगर परिवार में , रूद्रसिंह जी के प्रति आकर्षण और अधिक प्रबल हो उठा।  
श्रीमती  ईडीठ मेक ग्रोगर भी महाराज की हम उमर थीं। वे अपने पति केम्रोन से १७ वर्ष छोटीं थीं। शायद रूद्रसिंह उनकी लाडली, सबसे छोटी संतान स्टेला से १७ या २० वर्ष बड़े हों ? पर ऐसे  नाज़ुक सवाल इस वक्त पूछने का समय नहीं था। इस वक्त वे लोग लज़ीज़ भोजन को पूर्ण न्याय देने में मग्न थे।  महाराज ने अपने होस्ट माने आतिथेय की , भूरि - भूरि प्रशंसा की और भोजन को भी समुचित न्याय दिया पर स्टेला के सामने उन्होंने बस कुछ पल के लिए ही देखा था।
' बच्ची है ये तो ‘ ...यही सोचते रहे ...' महाराज श्री रूद्रसिंह जी ने उनकी महारानी इंद्राणी देवी के निधन के पश्चात, अपने मनोरंजन और मन बहलाव के कई तरीके खोज लिए थे। पर विवाह करना , उनके वर्तमान संयोजन में कहीं भी शामिल नहीं था। पर कहते हैं न,  विधि के रचे खेल,खेलते  फिरत मनुज यहां तहां ' अतः कहीं न कहीं विधाता का लिखा, सत्य में परिणीत होकर ही रहता है उस उक्ति को सत्य करते हुए ,  विधुर महाराज रुद्रसिंह जी का विवाह  आगामी ३ महीने में , उनसे, २२ वर्ष छोटी, स्कोट्लैंड की  कुमारी स्टेला मेक ग्रोगर से बाकायदा पारिवारिक सम्मति के साथ बड़ी  शान शौकत से,संपन्न हुआ।
स्कोट्लैंड के सभी प्रमुख अखबारों के मुख्य पृष्ठ पर, वेडींग एनाऊंस किया गया। शहर के अति प्राचीन गिरजाघर में  स्टेला, श्वेत परी से परिधान मे सजी हुई, इस बली पुरुष की ब्याहता धर्मपत्नी बनीं तो  उस विवाह में इस जोड़े को देखने पूरा शहर उमड़ पडा था। इतना रौबीला दुल्हा  !! राजसी, परम्परागत वस्त्रों में सुसज्ज, सतलड़े मोतियों के हार से दीप्त, गहरी नीली स्याही के रंग की बंद गले की नेहरु कोलर वाली ऊनी अचकन और झक्क रेशमी सुफेद तंग शेरवानी में सजे रूद्रसिंह को देख कर लोग, भारतीय राजे महाराजो के वैभव से, प्रभावित हुए बिना न रह पाए। इस अनोखे विवाह में , महाराज के परिवार का कोई भी व्यक्ति शामिल न हुआ था परन्तु इस बात पर किसी ने कोइ ख़ास तवज्जो न दी थी।
कुमारी  स्टेला  महारानी रूद्रसिंह बनीं  सपनों में देखी परिकथा को सच होता हुआ अनुभव कर , खुशी के महासागर में , गोते लगा रही थी !  
बस वहीं से हनीमून के लिए केम्रोन और एडीथ ने, नये बेशकीमती सुन्दर गाऊन से ठसाठस भरे हुए २ बड़े संदूक अपनी पुत्री के लिए दहेज़ की प्रथानुसार खूब सारा सामान भर कर अपनी लाड़ली को विदा किया।
क्वीन एलिजाबेथ विशाल जहाज में, नव दंपत्ति, ३ माह के लिए, रवाना हुए। विश्व के अनेक बंदरगाहों पे, यह लक्झरी लाईनर जहाज, रुकता और रोज ही विलास से पूर्ण खाना पीना होता रहा। जहाज के बोल रूम में धीमी मंथर गति से किया जाता नृत्य, बोल रूम डांस , जिस में रूद्रसिंह की बलशाली भुजाओं में स्टेला के  युवा अरमानों की आग, पिघल पिघल जाती ! दैहिक ताप और शरीर की भूख, संस्पर्श से और प्रज्वलित होकर उद्दाम हो उठती। वे रात्रि के बढ़ते हुए अन्धकार में , भोज से निवृत होकर , डेक पर टहलते। बांहों मे बाँहें डालकर, टहलते, इस नये जोड़े के लिए वह चांदनी में भीगा सुहाना समा, चंद्रमा की शीतल चांदनी का साथ पाकर और सागर से उठती मदभरी मधुर  झकोर से डावांडोल होते हिचकोलों के संग,आल्हाद की नई ऊंचाईयां छूता ! यह जीवन के पागल उन्मादक क्षण थे ! दोनों, नये प्रेमी जो थे  !!

पुरुष अपनी शारीरिक सीमा के उच्चतम सोपान पर था तो कन्या युवावस्था की पागल क्रीडाओं से परिचित हो रही थी और उपभोग से रोमांचित हो आल्हाद समेटे, लालायित हुए, असीम सुख भोग रही थी।
" आई लव यू सो मच ..यू मेक मी डीलीरयस ..वीद पेशन ...यू डेविल यू …
 हाउ  वेल , यू नो व्हाट आई वोंट ? [ मैं तुम्हे बहुत प्यार करती हूँ ...तुम मुझे मदहोश कर देते हो ..(भावावेश में )…तुम बड़े दुष्ट हो ! ..तुम्हें  भलीभांति पता है मुझे क्या चाहीये , बताओ कैसे जानते हो ये राज़ ? ] “  रूडी माई प्रेशीयस , माई किंग, आई एम् यौर्स फोरेवर ...मेक मी हैप्पी " [ ' रूडी , मेरे सरताज, मेरे बहुमूल्य जवाहर, मैं तुम्हारी हूँ सदा के लिए , मुझे खुशियाँ दो ' ] वह कहती और आवेश से उठे सैलाब के आगे सारे बाँध टूट कर ढह जाते।
महाराज रुद्रसिंह , भारत  स्टेला को लेकर लौटे थे।

परन्तु स्टेला का भारत आ कर उस महल में मन न लगा ! भारतीय परिवेश और जीवन उसे अरुचिकर लगा था । हां, जब महाराज, जंगल शिकार के लिए चलते तब वह भी बियाबान बीहड़ में , उनके संग सहर्ष चली जाती। वहां के डाक बंगले में रंगरेलियों का स्वतन्त्र समा बन्ध जाता। तब स्टेला फिर चहकने लगती। उसे, राज प्रसाद में तैनात असंख्य सेवकों और आने जानेवालों की भीड़ से नफरत थी और वह अक्सर मचल कर महाराज रूद्र सिंह जी से आग्रह करती के वे प्रॉमिस करें कि वे लोग शीघ्र स्कॉट्लैंड लौट कर जाएंगे !
स्टेला का परिवार व्हीस्की व्यवसाय से दिन दूना  रात चौगुना,  धन कमा रहा था।  भाईयों के विवाह हो गये थे। एक भाई, अमरीका भी आता जाता रहता। जहां उनकी उत्पाद की व्हिस्की की खपत करोड़ों डॉलरों में होने लगी थी। 
महाराज रुद्रसिंह के लिए, योरोप भ्रमण सहज और स्वाभाविक था। वे भी  भारतीय उमस और गर्मी के मौसम से दूर, स्कॉट्लैंड या इंग्लॅण्ड की हरियाली में साल का अधिक हिस्सा बिताना ज्यादह पसंद करते थे।  
मैं ने अनुमान लगाते सोचा था कि शायद  यही कारण था जो मालती का एक छत्र साम्राज्य पुरखों की हवेली पर स्थापित हो चुका था और उसके संयमित परंतु कठोर अनुशासन में बंधी प्रत्येक क्रिया उस आवास के भीतर घटित होती होगी ! ' हाँ यही सोचता रहता था मैं !  
शायद यही  कारण था के हम, मैं मोहन और मालती बेखटके, एक दूजे के संग समय इतना अधिक , बेफिक्री से बिता पाते थे। लोगों की नज़रें बचाकर एकांत पाना ये हमारे लिए मुश्किल न था। आउट हाउस था , जहाँ किसी  को आने जाने का हक्क न था। ये आदेश भी शायद मालती के हुक्म से दिया गया था जिसे कोइ अनसुना करने का दुस्साहस नहीं कर रहा था।  
हम मिलते रहे। कभी हम उदास होते तो कभी बेइन्तहा खुश ! हम अपनी मस्ती मे नये नये खेल इजाद करते।
एक यह भी हमारा प्रिय खेल था। जिस में मालती  तुम मेरी ब्याहता पत्नी होतीं। हमारा मुन्ना मेले में खो गया होता। मैं तुम्हें झूठ मूठ का डांटता फटकारता
मालती तुम भी झपटकर मुझे धिक्कार कर उलाहना देतीं हुईं कहतीं
' तुम्हीं ने ध्यान नहीं दिया ! मेरा मुन्ना कैसे खो गया तुमसे ?
बताओ~ अरे, मैं मंदिर माँ के दर्शन करने गयी और तुमसे मुन्ना इत्ती देर भी न सम्हला ? "  
हम कभी ये खेल , गाँव के भोले लोगों के सामने भी खेला करते। तुम गाँव  की भोली बाला का भेस धर मेरे संग चलतीं तब तुम्हारी पायल की छन्न छन्न छन्न से माहौल गूँज उठता।
किसी खेत की मुंडेर  के पास,  हम जब आपस में इस तरह उलझते और चलकर कुंए के पास पहुंचते, तब कुछ लोग हमारे इस झगडे में दिलचस्पी लेना शुरू करते और सुझाव देते ,
कि ,’  मुन्ने को कहाँ खोजा जाए ‘ हम , मुन्ने को ढूँढने का स्वांग भरते …जैसे ही वे ग्रामीण बुजुर्ग, मुड़कर चल देते, तुम चुनरी में मुंह छिपाए हँसते हँसते बेहाल हो जातीं ! तब हमारी हंसी, आंसू के सैलाब पे जाकर रुकती।
हाँ हम दोनों का प्यार इतना गहरा था। इतना समर्पित था क्यूंकि हम जानते थे के शायद हम कभी एक दूजे के न हो पायेंगें। 
मैं सोचा करता ' इतना अपनापन, ऐसा समर्पण,विधाता भी मंजूर नहीं  करते । '
हम दोनों मानों एक ही गोलाई के दो हिस्से थे। आदि काल के नर और मादा! हम दोनों अजनबी थे ~ किन्तु थे सब से सभ्य अजनबी ! एक दुसरे की तकलीफों और आराम से पूरी तरह अवगत।
मुझे याद है वो बरखा की मूसलाधार बरसती रात की …
उस दिन सुबह से , लगातार बारीश हो रही थी ..
पहाड़ों पे बिजली, कडाके के साथ कौंध कौंध जा रही थी और बड़े बड़े चीड के पेड़  साफ़ दीखलायी पड़ते थे ~ मैंने उस दिन तुम से मिलने की आशा, छोड़ दी थी …
सोचा ' इतनी घनी वर्षा में भला कोइ बाहर निकलता है क्या ?
यही सोचता हुआ, मैं, बारामदे में, बौछारों से भीगता हुआ, बाहर खडा था और याद कर रहा था तुम्हें ~ कि सामने से अभिसारिका - सी, तुम, वर्षा के तूफ़ान को चीरती हुई, मेरे सामने आ खडी हुईं।
देखा तो तुम पूरी तरह भीग चुकीं थीं।
बिना छाता लिए, पैदल, माटी से पैर उलझाती हुईं, तुम आ पहुँचीं थीं। तुम बरखा में आगे आगे चल रहीं थीं और मैं बरखा की बूंदों को तुम्हारे कपोल पर, गालों पर और बदन पर झरते हुए देख रहा था। मैं तुमसे मिलने दौड़ पडा।
तुम्हारे समीप आकर, तुम्हारी हथेलियों को अपने हाथों मे कस कर थाम लिया मैंने और हमारे आलिंगन ने बरखा को एक कर दिया
तुम्हारे गीले माथे और आँखों को न जाने कितनी बार मैंने चूमा और बडबडाता रहा ' तुम आ गयीं ....तुम आ गयीं ...मैं जानता था , तुम जरूर आओगी ... '
मैं तुम्हे खींचकर अपने से सटाकर  वादी की ओर बढ़ गया था।
वह  बरखा की रात,  मेरे और तुम्हारे संग मिलकर , अविस्मरणीय हो गयी थी।
  
उस दिन के बाद, तुम मेरे घर भी आने - जाने लगीं थीं। माँ को तुम बहुत अच्छी लगीं थीं।
मैं ने तुम्हारे परिवार के बारे में माँ से कोई जिक्र न किया था सिर्फ ,
‘ मेरी सहपाठिन है इतना ही बतलाया था ‘
माँ, बड़ी चालाकी से यह जानने की कोशिश करतीं कि , हमारी घनिष्टता कहाँ तक पहुँची है ? हम एक दुसरे के कितने करीब हैं ? यह कोइ जान न पाता।
क्योंकि तुम सब के सामने बड़ी सभ्यता से पेश आतीं।
किसी को अंदेशा न हो पाता के हम जब अकेले होते हैं तब तुम कैसी बचकानी हरकतें करती हो और मैं, तो तुम्हारे लिए बिलकुल पागल हो चुका था ! पर तुम्हारे संयम के आगे चुप रहना भी मैंने सीख लिया था।
माँ तुम्हारे शालीन औए सुसभ्य व्यवहार से अति प्रसन्न थीं। ना चाहते हुए भी उन्हें कहना पडा था ,
' अरे सुन ये तेरी  सहपाठीन मालती है बड़ी अच्छी मोहन बेटा ..' फ़िर चतुराई से जोड़ दिया था कि 'इसे तेरे और मधुरिमा के ब्याह में बुलाना न भूलना ..समझा ? '

मैं माँ से कैसे कहता कि ,
‘ माँ जिस मन के साम्राज्य पर तुम्हारा एकछत्र  अधिकार था , वहां अब इस सहपाठीन का साम्राज्य फ़ैल चला है ...'
माँ से मुझे अतिशय लगाव था पर मालती अब मेरे नस नस में दौड़ते  रुधिर का प्रवाह बन मुझ में समा चली थी। 
एक दिन माँ के पास बैठे मालती भी चावल के धान बीन रही थी। उसने कभी ये काम किये न थे। पर उसे हमारे सीधे सादे घर पर आकर यह सब करना सुहाता था। वह खुश थी। 
एक दुसरे दिन माँ के हाथों का साग और जीरे के छौंकवाली अरहर की दाल और रोटी खाकर मैं , बाहर आकर बैठा ही था मालती आ गई थी। माँ ने प्रश्न किया
'  मालती , बिटिया , तेरी माँ न रही ..तुने बतलाया था मुझे बड़ा दुःख होवे है …और तू कहे तेरे बापू भी काम से परदेस रहते हैं  ! तो लाडो , तू अकेली कैसे सारी जिम्मेदारी सम्हाले है री ? कोयी मदद न करे है तेरे रिश्तेदार तो होंगें ? '  


‘ हां माजी , हैं न ~ कयी लोग हैं ...आप मेरी फिकर न करें ...'

मालती ने माँ को ढाढस बंधाते हुए कहा उर मेरी ओर देखकर मुस्कुराई
....
माँ ने ये देखा तो आगे बोलीं ,

‘ मेरा मोहना बड़े नसीब लेकर पैदा हुआ है ..
तू इसके जनम की कथा सुनेगी बिटिया ? "
अब मालती, माँ के नज़दीक सरक आयी और कहा
' हां माँ कहीये न ...'
उस रोज़ ग्रामीण वेशभूषा पहन कर आयी मालती ने सर पे लगाया टीका सीधा कर माँ के सामने देखा। वह माँ के चेहरे को कौतूहलवश देख रही थी।
मैं, माँ की गोद पे सर रखे लेटे हुए सब सुन रहा था।
मेरी सारी दुनिया उस वक्त सिमट कर उस दालान मे 'समा गयी थी। माँ, मालती और मैं ! … बस तीन प्राणी थे वहां ! ... सच्चे प्यार मे बंधे हुए, हम तीनो थे।        
माँ ने ये अनकही, अनसुनी कथा सुनाना आरम्भ किया।
' मोहन के जनम के वक्त, मैं पीड़ा से कराह रही थी। उस रात जोरों से वर्षा हो रही थी ..मानो आकाश फट पडा हो ..ऐसे पानी थमने का नाम न ले रहा था …आषाढ़ का माह, अमावस्या की  धुप्प अंधेरी रात ! बेटी, हाथ को हाथ न सूझ रहा था ..ऐसे मे , मोहन के बापू, लालटेन उठाये  दाई माँ को लिवाने चल पड़े।
मैं, उन्हें रोकती भी कैसे ? दाई माँ का घर गौरां परबत की ऊपरी ढलान पे जो है । उस दिन, दाई माँ का बच्चा, जो बस कुछ माह का रहा होगा, बहुत बीमार था। 
सुबह से, बेजान सा पडा था।
जैसे ही मोहन के बापू वहां बरखा के आवेग  में गिरते पड़ते, पहुंचे तो किवाड़ बंद !
दाई माँ के घर पहुंचे तो द्वार पे पडी सांकल खटखटाई। पति ने दरवाज़ा खोला।
दाई माँ ने आनेवाले का चेहरा देखे बिना ही अपने पति को आदेश दे दिया,' इनसे कहो लौट  जाएँ ....मैं न जाऊंगी  आज कहीं  भी ..मेरे बीमार नन्हे को छोड़कर आज मैं न जाऊ ...' और वे सुबकने लगीं ...
ऐसी भयंकर बारीश में भला कौन आता या जाता है ? उसके पति के लाख समझाने पर भी दाई माँ ने एक न मानी ! ...तब उसके पति ने गुस्से से आदेश देते हुए कहा
' देख भागवान, तुझे दाई का काम ऊपरवाले ने सिखलाया है
ये तेरे हाथ का हुन्नर है जो तू, नयी आत्मा को इस दुनिया में लाने का नेक काम करती है ! ..अरे ये तो ईश्वर की बंदगी है पगली ! ..यही तेरा सच्चा धरम है। . ....किसी मासूम की ज़िन्दगी को इस जग में आने से रोक मत ...ऐसे पाप को तेरे सर न चढ़ा …उस नई आनेवाली जान की सोच ..चली जा और इस भले मानुष की घरवाली को मुक्ति दिला दे ..तू कोनो फिकर ना कर हमारे मुनवा के पास मैं रहूँगा  न ! सच ! मैं अपने बेटे को छाती से चिपटाए रखूंगा ... तू जल्दी जा और जल्दी लौट के आ …अपना मुन्ना मेरे पास रहेगा ..देख यूं ..' उसके पति ने मुन्ने को छाती से भींच कर दाई माँ को सशक्त हाथों से बाहर ढकेल ही दिया …
अब दाई माँ बार बार पीछे मुड़कर देखती, अपने मुन्ने के  प्यार में, उसकी चिंता करती हुई, आयी तो सही वह विवश माँ ~ एक दूसरी माँ को दर्द से छुटकारा देने अपना फ़र्ज़ निभाने आ पहुँची।
उस रात की भयानक बरखा और आंधी के बीच जन्मे हमारे कृष्ण से बालक का नाम हमने 'मोहन ' रखा ...देख ले .. ये वही मोहन है  बेटी  !
' बेटी, हमें तो बाद में पता चला के जिस वक्त मेरा मोहन जन्म ले रहा था,  दाई माँ का अपना बच्चा जान गँवा रहा था !! ...विधाता की करनी को कोयी बूझ न पाया है री …हाँ उसके पति ने जान लिया था के अब उनका मुन्ना न बचेगा …
उसने तो मरे हुए मुन्ने को दाई  माँ के हाथों से छीन लिया था और दाई माँ को, हमारे घर भेज दिया था ! ..कैसा पत्थर का कलेजा किया होगा उस देवता ने !! जिस ने मेरे मोहन को जीवन दान दिया ....अपनी घरवाली को भेज कर, उसने हम पे जो एहसान किया, उसे मैं मरते दम तक ना भूल पाऊँगी ! जीवन लीला है ये ! अजब है ये जीवन और ये रिश्ते नाते ..'
माँ ने लम्बी सांस भर कर चावल का थाल दूर हटा दिया और आंसू पोंछने लगीं।
फ़िर माँ उठ कर भीतर चली गईं। तो उनके जाते ही तुमने मुझे लपक कर भींच लिया ' अब तो तुम मुझे छोड़कर नहीं न जाओगे न मोहन ? तुम मेरे हो न ? मेरे ही रहोगे न ? '
मैंने पूछा,
' क्यों आती हो यहां ? मेरे पास ? तुम तो दूर न जाओगी न कभी मुझसे ?
मैं तुम्हारे बगैर नहीं रह पाऊंगा ....'
इतना कहकर हम दोनों रो पड़े ....दोनों विवश थे ..दोनों समर्पित थे ...दोनों अबोध और अनजान थे ...भविष्य के सामने अनजान होकर खड़े थे हम और तुम ~

उस शाम के बाद, ना जाने क्या हुआ तुम मुझसे मिलने दुबारा कभी ना आईं 
...ना ही मुझे कहीं दीखलायीं दीं ...ना जाने क्या हुआ ? तुम कहाँ चलीं गयीं थी ?
मैंने तुम्हें खो दिया और मैं तुम्हें ढूँढ़त्ता रहा। 


तुम्हें इस तरह खोने के बाद, सच कह रहा हूँ, मैं किसी व्यक्ति के इतना नज़दीक, अपनी ज़िंदगी में कभी न हो सका।


तुम मुझे सुरीले गीत की मदहोश करती धुन के साथ याद आती हो ...वेणु नदी की बहती धारा के साफ़ जल पर, मैं तुम्हारा चेहरा, आज भी साफ़ साफ़ देख सकता हूँ। ....कभी मेरे जीवन की सांझ यादों के झुरमुटों मे ठिठक कर, ठहर सी जा ती है तब तब एक नन्हा सा दिया, हाथों में थामे, अपनी पायल छनकाती हुईं, तुम दूर से आतीं हुईं, मुझे दीख जाती हो ! .... मेरी यादों को उजागर करतीं हुईं तुम, मौन को तोड़कर, पास चली आती हो …मेरे मन में समा जाती हो।
कभी न चाहते हुए भी मन खाली खाली हो जाता है तब, आहिस्ता आहिस्ता पग धरते हुई, तुम आ कर मेरे मन के कोने से निकली आह की तरह मेरी आँखों से, आंसू बन कर बह जाती हो। तुम मेरे पास नहीं हो पर दिल आज भी तुम्हें महसूस करता है …ना जाने क्यों मैं तुमसे न मिलकर भी क्यों खुश हूँ ?….
क्यों के तुम आज भी अब भी, हर क्षण मेरे साथ हो। पता नहीं,   ज़िन्दगी के किस मोड़ पर, तुम फ़िर मुझ से आ कर मिलोगी और मैं, तुम्हें निहारता हुआ, ठिठक कर, खडा रहूँगा  !  
जिस तरह तुम्हारी उस बड़ी हवेली में, उस दिन प्रवेश कर, मैं ने तुम्हारा वह बड़ा सा चित्र, दीवार पर टँगा हुआ देखा था और तुम्हारे सेवक ने आकर कहा था
 ' साहब ये राजकुमारी रत्ना हैं  ! ..इनके गुजरे २०० वर्ष हो गये ..'
और मैं पागलों की तरह उस पुलिया पर आकर नदी की धारा को एकटक निहारता रहा था जहां हम और तुम, इस जनम में पहली बार मिले थे .....

- लावण्या दीपक शाह
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