Sunday, July 26, 2015

“ आमने-सामनेः लावण्या बनाम घुघूती बासुती ”


July 11, 2008 | Tarun

आमने-सामने के एपिसोड ३ में आज सवालों के जवाब देने के लिये आमने सामने हैं - लावण्या जी और घुघूती बासुती जी। आज से एक परिवर्तन ये किया है कि नो मोर वोटिंग, सिर्फ और सिर्फ चिट्ठाकारों के मजेदार जवाबों का लुत्फ।
अगर आप पहली बार इसे पढ़ने आये हैं तो जरूर सोच रहे होंगे ये भला क्या है? तो आपको ये सब इन लिंकों से पता चल जायेगा। आमने-सामने के बार में जानने के लिये यहाँ क्लिक कीजिये
आमने-सामने एपिसोड 1: फुरसतिया बनाम उड़नतश्तरी
आमने-सामने एपिसोड 2: पंगेबाज बनाम दुर्योधन की डायरी
अब शुरू करते हैं सवाल-जवाबों का सिलसिला, जवाब थोड़ा लंबे जरूर हैं, लेकिन हैं मजेदार।
प्रश्न १: आपकी नजर में नारी के सौलह श्रृंगार क्या होने चाहिये?
लावण्याः अब पूरे सोलह गिनवाने पडेँगे क्या !! :-)) अच्छा चलिये, इन्हेँ एक पँक्ति मेँ खडा हुआ देखेँ ..ना कि कौन सा गुण पहले हो और कौन सा बाद मेँ -
१) नारी का सबसे प्रथम आभूषण मृदुता लिये मिठास
२) कोमलता
३) लज्जा
४) शील
५) विनय
६) सौम्यता
७) सादगी
८) शालीनता
९) व्यवहार कुशलता
१०) स्वछता
११) बडा दिल
१२) मुस्कान
१३) खाना बनाने मेँ कुशलता
१४) सँगीत प्रेम
१५) श्रध्धा (अँध श्रध्धा नहीँ! )
१६) सर से पैर तक का सारा बनाव सिँगार :)
घुघूती बासुतीः सोलह ! कुछ अधिक नहीं हैं क्या ? मुझे तो केवल स्नान,बाल एक चुटिया में गूँथना व उन्हें एक जूड़े में खोंस देना,टैल्क,कोई भी वस्त्र पहन लेना, घर से बाहर जाना है तो साड़ी अपने गिर्द घुमाकर उसमें कैसे तो भी समाना, बिन्दी व बहुत हुआ तो लिपस्टिक लगा लेने का पता है। हाँ कानों व गले में कुछ स्थाई या अस्थाई रूप से टाँगा भी जा सकता है। कितने हो गए ? शेष के बारे में तो आप ही मुझे बताएँ।
हाँ, मैं पुरुष के श्रृंगार के बारे में अधिक बता सकती हूँ। तो भाई, नाक, कान में छेद करवाकर कुछ भी पहन डालिए। मैंने सेफ्टीपिन भी पहने देखा है। बाल कुछ चिपकाऊ तत्व से चिपकाकर उन्हें किसी मॉडर्न आर्ट की शक्ल दे डालिए। शेविंग क्रीम, आफ्टर शेव, पावडर, सुगन्धी, (यह पुरुषों के लिए आवश्यक है,cause they sweat and stink easily !deodourant too will do) टाई आदि से सुसज्जित होइए। यदि युवा हैं तो एक बाइक व हैल्मेट को भी बाहर निकलते समय अपने श्रृंगार का हिस्सा बनाइए। हाँ स्नान को मत भूलिए।
प्रश्न २: “साड़ी बिच नारी है कि नारी बिच साड़ी है, साड़ी ही की नारी है कि नारी ही कि साड़ी है”, स्कूल के दौरान हम क्या समझे थे याद नही, आज आप अपने तरीके से समझायें आखिर ये पहेली क्या है?
लावण्याः अरे ये किसीने गीत की तुकबँदी रच डाली है ..बेचारे मर्द क्या जानेँ ६ वार की साडी या कभी ९ वारी साडी को लपेटना क्या होता है!
” सारी इज़ अन आर्ट , व्हेर अ फीमेल बीकम्ज़ एन आर्ट व्हेन शी वेयरज़ साडी ! ”
पर सच कहूँ तो नारी की शोभा सबसे ज्यादा साडी मेँ ही निखरती है ! कहाँ से स्त्री की शारिरीक सुँदरता शुरु होती है और कहाँ साडी उस सौँदर्य को उभारती है उसे पृथक्क करना कठिन है इसिलिये तो आँचल जैसे शब्दोँ का अन्य भाषाओँ मेँ पर्याय ही नहीँ मिलता !
दिये को साडी की ओट मेँ छिपाये ले जाती साँध्य सुँदरी हो या शिशु को आँचल से ढाँपे दूध पिलाती माँ या माँ का आँचल कसके थामे, स्कूल जाते नन्हे बहादुर बच्चे, या दीदी के आँचल से भोजन के बाद हाथ पोँछता भैया या बीमार देवर को अपने आँचल से पँखा झलती भाभी …है किसी अन्य तहजीब मेँ ऐसे द्रश्य ?
ये तो बस भारतीय स्त्री गरिमा की जीती जागती यशोगाथा है और समाज का इतिहास भी…. जहाँ किसी द्रौपदी के चीर हरण को सिर्फ श्री कृष्ण ही रोक पाते हैँ और बची रहती है नारी की अस्मिता अक्षुण्ण् .. और ..तब, बस गीत याद रह जाते हैँ ….
घुघूती बासुतीः यह भी क्या स्कूल में पढ़ाया जाता था? हमें तो सस्ते में निपटा दिया हमारे अध्यापकों,अध्यापिकाओं ने!किसी ने यह पढ़ाया ही नहीं। मैं स्कूल से फीस वापिस करने को कहूँगी।
वैसे यह साड़ी और नारी की समस्या में कौन किससे अधिक परेशान है, नारी साड़ी से या साड़ी नारी से पता नहीं। अपनी कहूँ तो मैं साड़ियों से व साड़ियाँ मुझसे परेशान हैं और हम दोनों से परेशान है हमारा धोबी। उसे ६ मीटर को इस्तरी करना पड़ता है, मुझे उसे लपेटना पड़ता है और उन्हें मुझे अपने में लपेटना पड़ता है। सो सभी इस साड़ी की लपेट में आ जाते हैं। हाँ मुझ जैसी गृहणी के साड़ी पुराण के लपेटे में पति भी आ जाते हैं, उन्हें साड़ियाँ खरीदनी व उपहार देनी पड़ती हैं। यदि आप यह अंग्रेजी वाली बिच की बात कर रहे हैं तो साफ बता दूँ कि हमारी अंग्रेजी वाली बिच को साड़ी से कोई प्यार नहीं था। प्यार तो मुझे भी नहीं है। यह तो एक बिनसिला कपड़ा उस जमाने की निशानी है जब सिलाई मशीन का आविष्कार नहीं हुआ था और न ही जिम का। उस जिम नामक पुरुष की बात नहीं कर रही मैं। वह वजन घटाकर साड़ी के अलावा भी किसी भी सिले वस्त्र में समाने में सहायता करने वाला जिम। सो साड़ी का सबसे बड़ा लाभ यह है कि ४० किलो से कम वजन वाली बिटिया या प्रियतमा के लिए खरीदो और वह ७० किलो की होकर भी पहनकर इतरा सकती है। क्या धोती (जो साड़ी का ही गरीब चचेरा भाई है)के सिवाय कोई और वस्त्र आप ३० या ४० किलो वजन बढ़ाकर भी पहन सकते हैं?
हमारी टिप्पणीः घुघूती जी, हमारे ख्याल से ये किसी अलंकार का उदाहरण था, उस अलंकार का हिन्दी नाम तो याद नही लेकिन वो कन्फ्यूजन या भ्रम टाईप के लिये होता है। हिन्दी के मास्टर मास्टरनी शायद सही नाम बता पायें, अगर वो इसे पढ़ेंगे तब।
प्रश्न ३: दूसरे एपिसोड के खिलाड़ी पंगेबाज, पंगा लेना चाहते हैं ये पूछकर कि “सिंदूर का रंग लाल कयो होता है हरा क्यो नही?”
लावण्याः शुक्रिया पँगेबाज जी :) ,सिँदुर का रँग लाल होता है क्यूँकि अन्य सारे पुरुष, उसे देखेँ तो सही पर दूर ही रुक जायेँ - वो भी अदब से !:) और सिँदुर बनता है गँधक जो कि स्त्री तत्त्व है , पार्वती का स्वरुप है उसके पारे यानि कि शिव तत्त्व के पौरुषेय से मिलन को सिँदुर कहते हैँ और यही सुहागिन का प्रतीक बना हमारे समझदार ऋषि मुनियोँ का सार — और हर नारी के लिये प्रसाद !आज २१ वीँ सदी मेँ, नारी सिँदुर लगाये या ना लगाना चाहे ये सर्वथा दूसरी बातेँ हैँ ..पर आशीर्वाद , आज नहीँ सदियोँ पहले मिल चुका है
घुघूती बासुतीः अब पंगेबाज हैं तो पंगा तो लेंगे ही ! वैसे आपको हम यह बता दें कि हमने उन्हें नेट पर जहाँ जहाँ नाम बँटते हैं हर उस जगह पर जाकर पंगेबाज नाम को हथिया लेने की बढ़िया सलाह दी थी। शायद उन्हें याद हो। अरे, मुझपर गुस्सा होकर आलू प्याज फेंकने ही हैं तो बड़े साइज के फेंको। मैंने तो केवल नाम हथियाने की सलाह दी थी, पंगे, वह भी हमसे,लेने की सलाह नहीं दी थी।
भाई पंगेबाज,यह सिन्दूर के रंग का रहस्य तो हमें भी पता नहीं। सिन्दूर लाल तो कतई नहीं होना चाहिए। आपने क्या कभी सिन्दूरी रंग नहीं देखा? वह लाल नहीं हनुमान जी के रंग का होता है। बिहार में मैंने बहुत सी स्त्रियों को उस रंग का असली सिन्दूर लगाते देखा है। यह लाल रंग का सिन्दूर तो मुझे बंगालिनों की कोई चाल नज़र आता है। शायद कुछ अधिक ही राजनीति से प्रभावित होकर उन्होंने लाल रंग का सिन्दूर प्रचलित कर दिया। क्या नाम है वह बड़ी बिंदी वाली कम्यूनिस्ट बहन का(वृंदा कारत),उनसे पूछना पड़ेगा।
वैसे यह पुरुषों की कोई गहरी चाल ही मुझे लगती है जो स्त्रियों पर लाल सिंदूर थोप दिया। देखिये ना कितने होशियार है। लाल सिन्दूर देखकर कोई भी भाई किसी विवाहिता पर अपना समय बर्बाद न करे,इसलिए लाल झँडी सा हमारे सिर पर रख दिया। पुरुषों के भाईचारे की इससे बड़ी मिसाल कोई नहीं मिल सकती। अब यदि हरा होता तो सभी सोचते कि हरी बत्ती जल रही है और अपना अमूल्य समय अविवाहिताओं पर ही ना लगाकर विवाहिताओं पर भी बर्बाद करते।
मेरा वश चले तो मैं तो चाहती कि पुरुष भी सिन्दूर से मांग भरें। परन्तु इसमें कुछ प्रैक्टिकल कठिनाइयाँ हैं। विवाह तक तो जैसे तैसे पुरुष अपने बाल किसी तरह दवा आदि खाकर,बत्रा क्लिनिक जाकर, सहेज कर रखते हैं, परन्तु एक बार शादी हुई नहीं कि फिर गंजेपन से कोई परहेज नहीं। सो जिनका सारा सिर ही एक मांग में परिवर्तित हो गया हो वह सिन्दूर भला कहाँ भरेगा?
प्रश्न ४: अच्छी ही नही बल्कि लंबी लंबी बातें (पोस्ट) बनाने वाले फुरसतिया यानि अनुप जी का सवाल है कि “आपको कैसे पति/आदमी /पसन्द हैं अच्छा खाना बना लेने वाले या अच्छी बातें बना लेने वाले?”
लावण्याः अनुप जी - शुक्रिया, अगर इन दो बातोँ को ध्यान मेँ रखती तब तो दीपक , जो मेरे पति हैँ , उनको कैसे पसँद करती ? :-) ना ही वे खाना बनाते हैँ नाही लँबी बातेँ ही बनाते हैँ :) एक अच्छे पति का, मेरे मत मेँ , सबसे पहले, एक अच्छा और सँवेदनाशील इन्सान होना ज्यादा जरुरी है।
घुघूती बासुतीः अरे,यह भी कोई पूछने की बात है। बिल्कुल अच्छी बातें बना लेने वाले ही पसन्द हैं। खाना बनवाने के लिए तो हम अच्छी बातें बना लेने वाले से अच्छी बातें बनाकर खानसामा भी रखवा सकते हैं परन्तु अच्छा खाना बनाने वाले से अच्छी बात बनाने वाला तो नहीं रखवा सकते न!
प्रश्न ५: उड़नतश्तरी यानि समीर जी को तो अभी तक नही मिला लेकिन ये जानना चाहते हैं, “यदि आपको जिन्न मिल जाये और एक वर (वरदान) मांगना हो, तो क्या मांगियेगा और क्यूँ?”
लावण्याः शुक्रिया समीर भाई - भई व्व्वाह!! …कमसे कम..इस एपिसोड खेलने मेँ ऐसा प्रश्न मिला जिससे कुछ पल के लिये ही सही, ऐसी दुनिया मेँ खो गयी जहाँ कोयी दुखी, भूखा, प्यासा या लाचार नहीँ ..सब तरफ बस खुशियाँ ही खुशियाँ हैँ ..बिलकुल जैसे आप हँसानेवाली पोस्ट लिखते हैँ उसे पढकर खुलकर हँसी आती है वैसे! मैँ जिन्न से ऐसी दुनिया का सच होना माँगूँगी ….” वो सुबहा कभी तो आयेगी ………वो सुबहा कभी तो आयेगी “………………
घुघूती बासुतीः ‘मिल जाए तो’ का क्या मतलब? हमें तो यह जिन्न ३० साल पहले ही मिल गया था। जब हमारा कन्यादान हुआ था तो आप क्या सोचते हैं हम बस दान ही हुए चले जा रहे थे ? अरे भाई मेरे, हमें जब ‘वर’ दान मिला तभी तो हम दान हो गए। अन्यथा क्या ऐसे ही दान में अपना बलिदान कर देते? अब देखिए ना उस जिन्न ने कैसा वर दिया कि आज तक हम मांगे चले जा रहे हैं और ‘वर’ हमें देता ही चले जा रहा है। यह कम्प्यूटर जिसपर हम ठकाठक अक्षरों को टंकणाएँ जा रहे हैं, यह नेट का कनैक्शन, कोई जिन्न थोड़े ही दे गया है, वह तो बस ‘वर’ दे गया था और हम वर माँगते जा रहे हैं उस ‘वर’ से जिससे हमने स्वयंवर रचाया था। अब ऐसे ‘वर’ के होते और क्या वरदान चाहिए?
तो ये था इन दो धुरंधरों महिला चिट्ठाकारों के सवाल जवाब का सिलसिला, आशा है आपको मजा आया होगा।
अब आप भी अगर इसमें हिस्सा लेना चाहते हैं तो टिप्पणी में वही ईमेल छोड़िये जिसे आप रेगुलर चेक करते हैं और उसके बाद हमारी मेल का करिये इंतजार क्या पता अगले एपिसोड में आप का ही नंबर हो।

“आमने-सामनेः लावण्या बनाम घुघूती बासुती”