Monday, December 19, 2016

आम्रपाली ~ " पारस - स्पर्श " : लेख मालिका :

आम्रपाली
दोहा: " मोरे तुम प्रभु गुरु पितु माता जाऊँ कहाँ तजि पद जल जाता
जेहि के जेहि पर सत्य सनेहु सो तेहि मिलत न कछु सन्देहू "
[RMR-D18.jpg]
आज आम्रपाली का मन उद्विग्न है,  विकल है। लिच्छवी नगर की सुप्रसिध्ध सौँदर्य सामाज्ञी, नगर वधू आम्रपाली अधीर हो रही है। उसे अपने पैरोँ पे बँधे घुँघरू, विषैले बिच्छू की भाँती दृष्टिगोचर हो रहे हैँ।  आम्रपाली के रक्त रंजीत  कोमल पांवों पर दंश देने  मानोँ उतावले हुए हैँ। आम्रपाली के घने काले केशोँ मेँ बँधी वेणी के फूल, गुलाब व मोगरे, इस क्षण उसे मानों फ़ूंफकारते हुए नागों  का आभास दे रहे हैँ।  आम्रपाली, झुंझला  कर, स्वयं पर क्रोधित हो , स्वयं के  केशों  में बंधी वेणी को बलात उतार  फेँकती है।  आम्रपाली की विशाल , निद्रा से शिथिल हुये नयनों मेँ सजा कपूर मिश्रित काजल  सूख चला है। आज अपने ही पैरों पे बंधे  चिरपरिचित कँकणों की ध्वनि से आम्रपाली के कान असहय  वेदना का अनुभव कर रहे हैँ। नर्तकी की लम्बी छरहरी  उँगलियोँ मेँ फँसा , गले का रत्नजटित कँठहार , वह बार बार मध्यमा पर लपेट कर अन्यमस्क सी होकर बारम्बार आवेष्टित कर रही  है। इस उद्विग्नता से दोहराये क्रिया कलाप से आखिरकार कंठहार की  मणियोँ टूट जातीं है।  अब हार थक कर वह चँदन की पीठिका पर बैठ जाती है। मन ही मन बुदबुदाते हुए कहे जा रही है 
आम्रपाली : " मैँ, लिच्छवी साम्राज्य की कुलवधू, आम्रपाली !
" मैँ, अजात शत्रु की प्रेमिका आम्रपाली !"
" मैँ, स्वर्ण व रजत से तौली जानेवाली आम्रपाली !
मैँ, जीवन को भरे हुए, मादक प्याले की तरह पीनेवाली, आम्रपाली ! आज, यह क्या मनोमंथन मेरे मन की शान्ति को भांग किये हुए है ?  मैँ, आम्रपाली,  इतनी उग्विग्न क्यों हूँ ? क्या है  जीवन ?
 क्योँ है है ये जीवन ? मेरा अस्तित्त्व क्या है ? ' आम्रपाली  ' कौन है ?  एक रुपजीविका ? रुप, मोह, प्रेम, लालसा, वासना, सुख और दु:ख ,  क्या है ? यह भावनाएँ क्यूँ उभरतीं  हैँ जीवन मेँ ? 
मैँ आज इनका उत्तर चाहती हूँ।  "
तभी एक चेरी ( दासी ) आकर प्रणाम करती है। 
मँजरी : " देवी की जय हो ! नगर के बाहर, आम्रवन मेँ तथागत का आगमन हुआ है। " चेरी सविनय प्रश्न करती है , " क्या मेरी देवी को  प्रभु  दर्शन की इच्छा है  ? "
आम्रपाली: " कौन ? गौतम बुध्ध पधारे हैं ? ओह ! तथागत के आगमन से वैशाली ग्राम धन्य हुआ ! मेरे अहोभाग्य जो प्रभु पधारे ! "
 स्वत: ' क्या मैँ  अज्ञात सँकेत की प्रतीक्षा मे थी ?  ' 
अपनी दासी की ओर आमुख हो आम्रपाली ने अपना मन खोला और कहा , 
' इतने वर्ष व्यतीत हुए।  इस राज नर्तकी आम्रपाली ने सुनो मँजरी, कई राज पुरुषोँ को देखा है।  
किन्तु किसी वीर पुरुष में मैंने , सत्व को उजागर होते इस क्षण पर्यन्त नहीं देखा। "
फिर आगे कुछ याद करते हुए कहा ' 
" लोग कहते है ' प्रभु बुद्ध ' अवर्णनीय आलोक से व्याप्त हैं। चलो मंजरी,  दिव्यत्मा,  तथागत के दर्शन अवश्य करना चाहूँगी !  चल मँजरी, इसी क्षण चल ! "
आम्रपाली एवं मंजरी दोनोँ उसी दिशा मेँ चल पडे जहाँ एक पेड के नीचे, नेत्र मूँदे, भगवान बुध्ध समाधिस्थ  हैँ। आम्रपाली ने समीप जाकर भगवान के चरण छूए।  भगवान के दर्शन करते ही असीम शान्ति का प्रसार आम्रपाली के मुरझाये तन पर हुआ और अनिमेष नयन से आम्रपाली ' बुद्ध भगवान ' को एकटक देखती रही। उसे भान भी न रहा कि कब उसके नयनों से अश्रुधारा झरने लगी ! अरे क्या वह  रो रही है ?  
वह एकटक बुध्ध भगवान की शाँत सौम्य, सरल मूर्ति को देखती रही। चरण वंदना कर आम्रपाली ने अनुनय भरे स्निग्ध स्वरों से कहा ,
आम्रपाली: " प्रभु  ! प्रभु ! नेत्र खोलिये - प्रभु ! "
बुध्ध : ( आँखेँ खोलते हैँ - मुस्कुराते हैँ ) " देवी ! स्वस्थ हो ! "
आम्रपाली : " प्रभु, आपकी वाणी का सम्मोहन असँख्य राग रागिनियोँ से अधिक मधुर है। आपका आर्जव, नेत्रोँ की करुणा, तथा उन्नत ललाट का तेज अपार है! मैँ आम्रपाली, आज पाप की नगरी को छोडती हूँ, मैं आपकी शरण हूँ "
बुध्ध: " देवी ! प्रथम अपने मन का समाधान करो ! " इतना कहते  हुए बुध्ध ने  समक्ष झुके हुए आम्रपाली के मस्तक को सहलाया। मानों माता अपने शिशु को सांत्वना दे रही हो ऐसे भाव उठे।  
आम्रपाली उस पल , फुट फुट कर क्रंदन करने लगी। 
आम्रपाली : " हे थथागत ! अपके नयनोँ की कोर मेँ, वात्स्लय के अश्रु कैद हैँ ! हे दीव्यात्मा ! आपकी अथाह करुणा ने मेरे मन के मैल को धो दीया "
बुध्ध: " जीवन भटकाव का नाम नहीँ है देवी , जीवन ठहराव है ! उसी से परम शाँति की उत्पत्ति होती है।  उस परम शान्ति का उपाय करो। सारे संताप पिघल जायेंगें। "
बुध्ध के भिक्खु बोलते हैँ। आम्रपाली बौद्ध भिख्खू के संग चैत विहार की ओर चल देती है। 
" बुध्धँ शरणँ गच्छामि, धम्मम शरणँ गच्छामि, सँघम शरणँ गच्छामि, " की ध्वनि से संध्या का केसरिया गगन गूंजायमान हो उठता है। आम्रपाली हाथ जोड कर, झुक कर दुहराती है। 
" बुध्धँ शरणँ गच्छामि, धम्मम शरणँ गच्छामि, सँघम शरणँ गच्छामि, " 
प्रभु ने पतिता को उबार लिया उसे धर्म से नाता जोडना सीखालाया। पारस स्पर्श होने से लोहा, लोहा नहीँ रहता, खरा सोना बन जाता है। तभी बाबा तुलसी दास जी ने राम चरित मानस के अँत मेँ ये गाया है कि,
" मैँ जानौउँ निज नाथ सुभाऊ, अपराधिहे पर कोह न काऊ
अब प्रभे परम अनुग्रह मोरे, सहित कोटि कुल मँगल मोरे,
दैहिक दैविक भौतिक तापा , राम राज नहिँ काहुकि ब्यापा
मोरि सुधारिहि सो सब भाँती, जासु कृपा नहिँ कृपा अघाती
जिन्ह कर नाम लेत जग माँही, सकल अमँगल मूल नसाँही !
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 " पारस - स्पर्श " : लेख मालिका : 
रचना : - लावण्या दीपक शाह 

Tuesday, October 4, 2016

माँ दुर्गा नौ शक्तियों का वर्णन /उत्तर अमरीका गणराज्य में भारतीय परंपराएं व त्यौहार

ॐ 
भारत विविधता में एकता समेटे हुए एक महादेश है।भारत के विशाल उपखंड पर अनेक त्यौहार एवं  उत्सव, भारत के प्रत्येक प्रांत में बसे हुए विभिन्न कौम के नागरिकों द्वारा अलग अलग तरीकों से मनाए जाते हैं। भारतीय मूल के लोग अब विश्व के सातों खण्डों में बस गए हैं।वे अपने संग भारतीय परंपराएं , तीज त्यौहार और धार्मिक अनुष्ठानों को भी दैनिक जीवन में खूब मन से सम्पूर्ण आयोजन कर , संपन्न करते हैं। 
        उत्तर अमरीका गणराज्य के ५० प्रांत हैं। इन प्रत्येक प्रान्त में  भारतीय मूल के लोग भारत से आकर बसे हुए हैं। 
गुजरात से अमरीका आकर बसी प्रजा गरबा , डांडिया के लोक नृत्यों का सामूहिक आयोजन कर माँ अम्बिका भवानी की आरती करते हुए श्रद्धा विगलित हुए , प्रसाद धरते हैं और पारंपरिक लोक गीतों को जो मध्यकालीन भारत में प्रत्येक गाँव और छूटे बड़े जनपदों में गाया जाता रहा है उन्हीं गीतों को अब अमरीका में भी सहर्ष , सोल्लास गाते हुए गोलाकार में प्राचीन लोक नृत्य करते हैं। हर्षित होते हैं। 
पंजाब से आये हुए भारतीय लोग नवरात्रि में माता का जगराता आयोजित करते हैं।माँ  को नई चुनरी चढ़ाई जाती है और अखंड भजन पाठ किया जाता है। कई श्रद्धालु ९ दिन उपवास रख कर फलाहार और उपवास के व्यंजन ही खाते हैं। उनकी श्रद्धा और आस्था में कोइ फर्क नहीं आया कि अब यह भारतीय भारत में नहीं रहते बल्कि वे अब अमरीकी नागरिक हो गए हैं ! वही जोश, वही परंपराएं और वही माहौल कायम है ! 
     बंगाल से आये लोग माँ दुर्गा की स्थापना करते हैं और बंगाल में प्रात: काल में जो बंगाली भद्र लोक  माँ दुर्गा की स्तुति सुना करते थे अब वे अमरीका में स्थानांतरित होकर भी यही स्तुति सुनते हैं। 
महादेवी नव रात्रि के पावन ९ दिनों में ९ स्वरूपों में पूजित हैं।जिनके नाम इस प्रकार हैं। 
१ ) शैलपुत्री : सती स्वरूप में शिव पत्नी और प्रजापति की कन्या सती योगाग्नि में भस्म हो गईं और पुनर्जन्म पर्बतराज  हिमालय की बेटी बनकर देवी का जन्म हुआ। शैल या पर्बत की पुत्री शैलपुत्री कहलाईं।उनके अन्य नाम भवानी, हेमावती, पार्वती, सती व परा प्रकृति है।ललाट पर अर्ध चंद्र , दाऐं हस्त में त्रिशूल व बाएं में कमल धरे नंदी बैल पर विराजमान देवी माँ 
मूलाधार चक्र कीअधिष्ठात्री देवी हैं। 

ध्यान

वन्दे वांछितलाभाय चन्द्रार्धकृत शेखराम्।
वृषारूढ़ा शूलधरां शैलपुत्री यशस्वनीम्॥
पूर्णेन्दु निभां गौरी मूलाधार स्थितां प्रथम दुर्गा त्रिनेत्राम्॥
पटाम्बर परिधानां रत्नाकिरीटा नामालंकार भूषिता॥
प्रफुल्ल वंदना पल्लवाधरां कातंकपोलां तुग कुचाम्।
कमनीयां लावण्यां स्नेमुखी क्षीणमध्यां नितम्बनीम्॥

स्तोत्र पाठ

प्रथम दुर्गा त्वंहि भवसागर: तारणीम्।
धन ऐश्वर्य दायिनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यम्॥
त्रिलोजननी त्वंहि परमानंद प्रदीयमान्।
सौभाग्यरोग्य दायनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यहम्॥
चराचरेश्वरी त्वंहि महामोह: विनाशिन।
मुक्ति भुक्ति दायनीं शैलपुत्री प्रमनाम्यहम्॥

कवच

ओमकार: में शिर: पातु मूलाधार निवासिनी।
ह्रींकार: पातु ललाटे बीजरूपा महेश्वरी॥
श्रींकार पातु वदने लावाण्या महेश्वरी ।
हुंकार पातु हदयं तारिणी शक्ति स्वघृत।
फट्कार पात सर्वांंगे सर्व सिद्धि फलप्रदा॥
शैलपुत्री देवी 
मूलाधार चक्र कीअधिष्ठात्री 
Shailaputri Sanghasri 2010 Arnab Dutta.JPG
माँ दुर्गा की नौ ९ शक्तियों का वर्णन २) दूसरा स्वरूप ब्रह्मचारिणी का है।
ब्रह्मचारिणी द्वितीय
ब्रह्मचारिणी देवी
 यहाँ ब्रह्म शब्द का अर्थ तपस्या है। ब्रह्मचारिणी अर्थात तप की चारिणी-तप का आचरण करने वाली। ब्रह्मचारिणी देवी का स्वरूप पूर्ण ज्योतिर्मय एवं अत्यंत भव्य है। इनके दाहिने हाथ में जप की माला एवं बाएँ हाथ में कमण्डल है।


ध्यान

वन्दे वांछित लाभाय चन्द्रार्धकृत शेखराम्।
जपमाला कमण्डलु धरा ब्रह्मचारिणी शुभाम्॥
गौरवर्णा स्वाधिष्ठानस्थिता द्वितीय दुर्गांं त्रिनेत्राम।
धवल परिधाना ब्रह्मरूपा पुष्पालंकार भूषिताम्॥
परम वंदना पल्लवराधरां कांत कपोला पीन।
पयोधराम् कमनीया लावणयं स्मेरमुखी निम्ननाभि नितम्बनीम्॥

स्तोत्र पाठ

तपश्चारिणी त्वंहि तापत्रय निवारणीम्।
ब्रह्मरूपधरा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥
शंकरप्रिया त्वंहि भुक्ति-मुक्ति दायिनी।
शान्तिदा ज्ञानदा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥

कवच

त्रिपुरा में हृदयं पातु ललाटे पातु शंकरभामिनी।
अर्पण सदापातु नेत्रो, अर्धरी च कपोलो॥
पंचदशी कण्ठे पातु मध्यदेशे पातु महेश्वरी॥
षोडशी सदापातु नाभो गृहो च पादयो।
अंग प्रत्यंग सतत पातु ब्रह्मचारिणी।
३) माँ दुर्गा की तृतीय शक्ति का नाम चंद्रघंटा है। 
चंद्रघंटा तृतीय
देवी चंद्रघंटा
 नवरात्रि विग्रह के तीसरे दिन इन का पूजन किया जाता है। माँ का यह स्वरूप शांतिदायक और कल्याणकारी है। इनके माथे पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र है, इसी लिए इन्हें चंद्रघंटा कहा जाता है। इनका शरीर स्वर्ण के समान उज्ज्वल है, इनके दस हाथ हैं। दसों हाथों में खड्ग, बाण आदि शस्त्र सुशोभित रहते हैं। इनका वाहन सिंह है। इनकी मुद्रा युद्ध के लिए उद्यत रहने वाली है। इनके घंटे की भयानक चडंध्वनि से दानव, अत्याचारी, दैत्य, राक्षस डरते रहते हैं।

ध्यान

वन्दे वांछित लाभाय चन्द्रार्धकृत शेखरम्।
सिंहारूढा चंद्रघंटा यशस्वनीम्॥
मणिपुर स्थितां तृतीय दुर्गा त्रिनेत्राम्।
खंग, गदा, त्रिशूल,चापशर,पदम कमण्डलु माला वराभीतकराम्॥
पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्।
मंजीर हार केयूर,किंकिणि, रत्नकुण्डल मण्डिताम॥
प्रफुल्ल वंदना बिबाधारा कांत कपोलां तुगं कुचाम्।
कमनीयां लावाण्यां क्षीणकटि नितम्बनीम्॥

स्तोत्र पाठ

आपदुध्दारिणी त्वंहि आद्या शक्तिः शुभपराम्।
अणिमादि सिध्दिदात्री चंद्रघटा प्रणमाभ्यम्॥
चन्द्रमुखी इष्ट दात्री इष्टं मन्त्र स्वरूपणीम्।
धनदात्री, आनन्ददात्री चन्द्रघंटे प्रणमाभ्यहम्॥
नानारूपधारिणी इच्छानयी ऐश्वर्यदायनीम्।
सौभाग्यारोग्यदायिनी चंद्रघंटप्रणमाभ्यहम्॥

कवच

रहस्यं श्रुणु वक्ष्यामि शैवेशी कमलानने।
श्री चन्द्रघन्टास्य कवचं सर्वसिध्दिदायकम्॥
बिना न्यासं बिना विनियोगं बिना शापोध्दा बिना होमं।
स्नानं शौचादि नास्ति श्रध्दामात्रेण सिध्दिदाम॥
कुशिष्याम कुटिलाय वंचकाय निन्दकाय च न दातव्यं न दातव्यं न दातव्यं कदाचितम्॥
४) माँ दुर्गा के चौथे स्वरूप का नाम कूष्माण्डा है। कूष्माण्डा देवी
अपनी मन्द हंसी से अण्ड अर्थात ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारंण इन्हें कूष्माण्डा देवी के नाम से जाना जाता है। संस्कृत भाषा में कूष्माण्ड कूम्हडे को कहा जाता है, कूम्हडे की बलि इन्हें प्रिय है, इस कारण से भी इन्हें कूष्माण्डा के नाम से जाना जाता है। जब सृष्टि नहीं थी और चारों ओर अंधकार ही अंधकार था तब इन्होंने ईषत हास्य से ब्रह्माण्ड की रचना की थी। यह सृष्टि की आदिस्वरूपा हैं और आदिशक्ति भी। इनका निवाससूर्य मंडल के भीतर के लोक में है। सूर्यलोक में निवास करने की क्षमता और शक्ति केवल इन्हीं में है। 

ध्यान

वन्दे वांछित कामर्थे चन्द्रार्घकृत शेखराम्।
सिंहरूढ़ा अष्टभुजा कूष्माण्डा यशस्वनीम्॥
भास्वर भानु निभां अनाहत स्थितां चतुर्थ दुर्गा त्रिनेत्राम्।
कमण्डलु, चाप, बाण, पदमसुधाकलश, चक्र, गदा, जपवटीधराम्॥
पटाम्बर परिधानां कमनीयां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्।
मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल, मण्डिताम्॥
प्रफुल्ल वदनांचारू चिबुकां कांत कपोलां तुंग कुचाम्।
कोमलांगी स्मेरमुखी श्रीकंटि निम्ननाभि नितम्बनीम्॥

स्तोत्र पाठ

दुर्गतिनाशिनी त्वंहि दरिद्रादि विनाशनीम्।
जयंदा धनदा कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्॥
जगतमाता जगतकत्री जगदाधार रूपणीम्।
चराचरेश्वरी कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्॥
त्रैलोक्यसुन्दरी त्वंहिदुःख शोक निवारिणीम्।
परमानन्दमयी, कूष्माण्डे प्रणमाभ्यहम्॥

कवच

हंसरै में शिर पातु कूष्माण्डे भवनाशिनीम्।
हसलकरीं नेत्रेच, हसरौश्च ललाटकम्॥
कौमारी पातु सर्वगात्रे, वाराही उत्तरे तथा,पूर्वे पातु वैष्णवी इन्द्राणी दक्षिणे मम।
दिगिव्दिक्षु सर्वत्रेव कूं बीजं सर्वदावत
५) पांचवें स्वरूप को स्कन्दमाता के रूप में जाना जाता है। 
स्कन्दमाता पंचम
स्कन्दमाता देवी
न्हें स्कन्द कुमार कार्तिकेय नाम से भी जाना जाता है। यह प्रसिद्ध देवासुर संग्राम में देवताओं के सेनापति बने थे 
ध्यान
वन्दे वांछित कामार्थे चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
सिंहरूढ़ा चतुर्भुजा स्कन्दमाता यशस्वनीम्।।
धवलवर्णा विशुध्द चक्रस्थितों पंचम दुर्गा त्रिनेत्रम्।
अभय पद्म युग्म करां दक्षिण उरू पुत्रधराम् भजेम्॥
पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानांलकार भूषिताम्।
मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल धारिणीम्॥
प्रफुल्ल वंदना पल्ल्वांधरा कांत कपोला पीन पयोधराम्।
कमनीया लावण्या चारू त्रिवली नितम्बनीम्॥

स्तोत्र पाठ

नमामि स्कन्दमाता स्कन्दधारिणीम्।
समग्रतत्वसागररमपारपार गहराम्॥
शिवाप्रभा समुज्वलां स्फुच्छशागशेखराम्।
ललाटरत्नभास्करां जगत्प्रीन्तिभास्कराम्॥
महेन्द्रकश्यपार्चिता सनंतकुमाररसस्तुताम्।
सुरासुरेन्द्रवन्दिता यथार्थनिर्मलादभुताम्॥
अतर्क्यरोचिरूविजां विकार दोषवर्जिताम्।
मुमुक्षुभिर्विचिन्तता विशेषतत्वमुचिताम्॥
नानालंकार भूषितां मृगेन्द्रवाहनाग्रजाम्।
सुशुध्दतत्वतोषणां त्रिवेन्दमारभुषताम्॥
सुधार्मिकौपकारिणी सुरेन्द्रकौरिघातिनीम्।
शुभां पुष्पमालिनी सुकर्णकल्पशाखिनीम्॥
तमोन्धकारयामिनी शिवस्वभाव कामिनीम्।
सहस्त्र्सूर्यराजिका धनज्ज्योगकारिकाम्॥
सुशुध्द काल कन्दला सुभडवृन्दमजुल्लाम्।
प्रजायिनी प्रजावति नमामि मातरं सतीम्॥
स्वकर्मकारिणी गति हरिप्रयाच पार्वतीम्।
अनन्तशक्ति कान्तिदां यशोअर्थभुक्तिमुक्तिदाम्॥
पुनःपुनर्जगद्वितां नमाम्यहं सुरार्चिताम्।
जयेश्वरि त्रिलोचने प्रसीद देवीपाहिमाम्॥

६) कात्यायनी षष्टम : 

६) कात्यायनी षष्टम
कात्यायनी देवी

ध्यान

ऐं बीजालिंका देवी पदयुग्मघरापरा।कवच

हृदयं पातु सा देवी कार्तिकेययुता॥
श्री हीं हुं देवी पर्वस्या पातु सर्वदा।
सर्वांग में सदा पातु स्कन्धमाता पुत्रप्रदा॥
वाणंवपणमृते हुं फट्‌ बीज समन्विता।
उत्तरस्या तथाग्नेव वारुणे नैॠतेअवतु॥
इन्द्राणां भैरवी चैवासितांगी च संहारिणी।
सर्वदा पातु मां देवी चान्यान्यासु हि दिक्षु वै॥
शास्त्रों में कहा गया है कि इस चक्र में अवस्थित साधक के मन में समस्त बाह्य क्रियाओं और चित्तवृत्तियों का लोप हो जाता है और उसका ध्यान चैतन्य स्वरूप की ओर होता है, समस्त लौकिक, सांसारिक, मायाविक बन्धनों को त्याग कर वह पद्मासन माँ स्कन्दमाता के रूप में पूर्णतः समाहित होता है। साधक को मन को एकाग्र रखते हुए साधना के पथ पर आगे बढ़ना चाहिए।

ध्यान

वन्दे वांछित मनोरथार्थ चन्द्रार्घकृत शेखराम्।
सिंहरूढ़ा चतुर्भुजा कात्यायनी यशस्वनीम्॥
स्वर्णाआज्ञा चक्र स्थितां षष्टम दुर्गा त्रिनेत्राम्।
वराभीत करां षगपदधरां कात्यायनसुतां भजामि॥
पटाम्बर परिधानां स्मेरमुखी नानालंकार भूषिताम्।
मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल मण्डिताम्॥
प्रसन्नवदना पञ्वाधरां कांतकपोला तुंग कुचाम्।
कमनीयां लावण्यां त्रिवलीविभूषित निम्न नाभिम॥

स्तोत्र पाठ

कंचनाभा वराभयं पद्मधरा मुकटोज्जवलां।
स्मेरमुखीं शिवपत्नी कात्यायनेसुते नमोअस्तुते॥
पटाम्बर परिधानां नानालंकार भूषितां।
सिंहस्थितां पदमहस्तां कात्यायनसुते नमोअस्तुते॥
परमांवदमयी देवि परब्रह्म परमात्मा।
परमशक्ति, परमभक्ति,कात्यायनसुते नमोअस्तुते॥

कवच

कात्यायनी मुखं पातु कां स्वाहास्वरूपिणी।
ललाटे विजया पातु मालिनी नित्य सुन्दरी॥
कल्याणी हृदयं पातु जया भगमालिनी॥

कालरात्रि सप्तम
कालरात्रि देवी
विवरणनवरात्र के सातवें दिन माँ दुर्गा के सातवें स्वरूप 'कालरात्रि' की पूजा होती है।
स्वरूप वर्णनइनके शरीर का रंग काला, बाल बिखरे हुए, गले में विद्युत की भाँति चमकने वाली माला है। इनके तीन नेत्र हैं जोब्रह्माण्ड की तरह गोल हैं, जिनमें से बिजली की तरह चमकीली किरणें निकलती रहती हैं। इनका वाहन 'गर्दभ' (गधा) है। दाहिने ऊपर का हाथ वरद मुद्रा में सबको वरदान देती हैं, दाहिना नीचे वाला हाथ अभयमुद्रा में है। बायीं ओर के ऊपर वाले हाथ में लोहे का कांटा और निचले हाथ में खड्ग है।
पूजन समयचैत्र शुक्ल सप्तमी को प्रात: काल
धार्मिक मान्यताभगवती कालरात्रि का ध्यान, कवच, स्तोत्र का जाप करने से 'भानुचक्र' जागृत होता है। इनकी कृपा से अग्नि भय, आकाश भय, भूत पिशाच स्मरण मात्र से ही भाग जाते हैं।
संबंधित लेखकाली देवी
अन्य जानकारीइस दिन साधक का मन सहस्त्रारचक्र में अवस्थित होता है। साधक के लिए सभी सिद्धियों का द्वार खुलने लगता है।
७) दुर्गा की सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती है। इनके शरीर का रंग घने अंधकार की भाँति काला है, बाल बिखरे हुए, गले में विद्युत की भाँति चमकने वाली माला है। इनके तीन नेत्र हैं जो ब्रह्माण्ड की तरह गोल हैं, जिनमें से बिजली की तरह चमकीली किरणें निकलती रहती हैं। इनकी नासिका से श्वास, निःश्वास से अग्नि की भयंकर ज्वालायें निकलती रहती हैं। इनका वाहन 'गर्दभ' (गधा) है। दाहिने ऊपर का हाथ वरद मुद्रा में सबको वरदान देती हैं, दाहिना नीचे वाला हाथ अभयमुद्रा में है। बायीं ओर के ऊपर वाले हाथ में लोहे का कांटा और निचले हाथ में खड्ग है। माँ का यह स्वरूप देखने में अत्यन्त भयानक है किन्तु सदैव शुभ फलदायक है। 

ध्यान

करालवंदना धोरां मुक्तकेशी चतुर्भुजाम्।
कालरात्रिं करालिंका दिव्यां विद्युतमाला विभूषिताम॥
दिव्यं लौहवज्र खड्ग वामोघोर्ध्व कराम्बुजाम्।
अभयं वरदां चैव दक्षिणोध्वाघः पार्णिकाम् मम॥
महामेघ प्रभां श्यामां तक्षा चैव गर्दभारूढ़ा।
घोरदंश कारालास्यां पीनोन्नत पयोधराम्॥
सुख पप्रसन्न वदना स्मेरान्न सरोरूहाम्।
एवं सचियन्तयेत् कालरात्रिं सर्वकाम् समृध्दिदाम्॥

स्तोत्र पाठ

ह्रीं कालरात्रि श्रींं कराली च क्लीं कल्याणी कलावती।
कालमाता कलिदर्पध्नी कमदीश कुपान्विता॥
कामबीजजपान्दा कामबीजस्वरूपिणी।
कुमतिघ्नी कुलीनर्तिनाशिनी कुल कामिनी॥
क्लीं ह्रीं श्रीं मन्त्र्वर्णेन कालकण्टकघातिनी।
कृपामयी कृपाधारा कृपापारा कृपागमा॥

कवच

ऊँ क्लीं मे हृदयं पातु पादौ श्रीकालरात्रि।
ललाटे सततं पातु तुष्टग्रह निवारिणी॥
रसनां पातु कौमारी, भैरवी चक्षुषोर्भम।
कटौ पृष्ठे महेशानी, कर्णोशंकरभामिनी॥
वर्जितानी तु स्थानाभि यानि च कवचेन हि।
तानि सर्वाणि मे देवीसततंपातु स्तम्भिनी॥
८) महागौरी 

महागौरी देवी

ध्यान

वन्दे वांछित कामार्थे चन्द्रार्घकृत शेखराम्।
सिंहरूढ़ा चतुर्भुजा महागौरी यशस्वनीम्॥
पूर्णन्दु निभां गौरी सोमचक्रस्थितां अष्टमं महागौरी त्रिनेत्राम्।
वराभीतिकरां त्रिशूल डमरूधरां महागौरी भजेम्॥
पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्।
मंजीर, हार, केयूर किंकिणी रत्नकुण्डल मण्डिताम्॥
प्रफुल्ल वंदना पल्ल्वाधरां कातं कपोलां त्रैलोक्य मोहनम्।
कमनीया लावण्यां मृणांल चंदनगंधलिप्ताम्॥

स्तोत्र पाठ

सर्वसंकट हंत्री त्वंहि धन ऐश्वर्य प्रदायनीम्।
ज्ञानदा चतुर्वेदमयी महागौरी प्रणमाभ्यहम्॥
सुख शान्तिदात्री धन धान्य प्रदीयनीम्।
डमरूवाद्य प्रिया अद्या महागौरी प्रणमाभ्यहम्॥
त्रैलोक्यमंगल त्वंहि तापत्रय हारिणीम्।
वददं चैतन्यमयी महागौरी प्रणमाम्यहम्॥

कवच

ओंकारः पातु शीर्षो मां, हीं बीजं मां, हृदयो।
क्लीं बीजं सदापातु नभो गृहो च पादयो॥
ललाटं कर्णो हुं बीजं पातु महागौरी मां नेत्रं घ्राणो।
कपोत चिबुको फट् पातु स्वाहा मा सर्ववदनो॥
९ ) सिद्धिदात्री नवम
सिद्धिदात्री देवी
   
९) दुर्गा की नवम शक्ति का नाम सिद्धिदात्री है। सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली माता इन्हीं को माना गया है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्रकाम्य, ईशित्व और वशित्व ये आठ सिद्धियां होती हैं। देवी पुराण के अनुसार भगवान शिव ने इन्हीं की कृपा से सिद्धियों को प्राप्त किया था। इन्हीं की अनुकम्पा से भगवान शिव का आधा शरीर देवी का हुआ था। इसी कारण वह संसार में अर्द्धनारीश्वर नाम से प्रसिद्ध हुए। माता सिद्धिदात्री चार भुजाओं वाली हैं। इनका वाहन सिंह है। ये कमल पुष्प पर आसीन होती हैं। इनकी दाहिनी नीचे वाली भुजा में चक्र, ऊपर वाली भुजा में गदा और बांयी तरफ नीचे वाले हाथ में शंख और ऊपर वाले हाथ में कमल पुष्पहै। नवरात्रि पूजन के नवें दिन इनकी पूजा की जाती है। भगवती सिद्धिदात्री का ध्यान, स्तोत्र व कवच का पाठ करने से 'निर्वाण चक्र' जाग्रत हो जाता है।

ध्यान

वन्दे वांछित मनोरथार्थ चन्द्रार्घकृत शेखराम्।
कमलस्थितां चतुर्भुजा सिद्धीदात्री यशस्वनीम्॥
स्वर्णावर्णा निर्वाणचक्रस्थितां नवम् दुर्गा त्रिनेत्राम्।
शख, चक्र, गदा, पदम, धरां सिद्धीदात्री भजेम्॥
पटाम्बर, परिधानां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्।
मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल मण्डिताम्॥
प्रफुल्ल वदना पल्लवाधरां कातं कपोला पीनपयोधराम्।
कमनीयां लावण्यां श्रीणकटि निम्ननाभि नितम्बनीम्॥

स्तोत्र पाठ

कंचनाभा शखचक्रगदापद्मधरा मुकुटोज्वलो।
स्मेरमुखी शिवपत्नी सिद्धिदात्री नमोअस्तुते॥
पटाम्बर परिधानां नानालंकारं भूषिता।
नलिस्थितां नलनार्क्षी सिद्धीदात्री नमोअस्तुते॥
परमानंदमयी देवी परब्रह्म परमात्मा।
परमशक्ति, परमभक्ति, सिद्धिदात्री नमोअस्तुते॥
विश्वकर्ती, विश्वभती, विश्वहर्ती, विश्वप्रीता।
विश्व वार्चिता विश्वातीता सिद्धिदात्री नमोअस्तुते॥
भुक्तिमुक्तिकारिणी भक्तकष्टनिवारिणी।
भव सागर तारिणी सिद्धिदात्री नमोअस्तुते॥
धर्मार्थकाम प्रदायिनी महामोह विनाशिनी।
मोक्षदायिनी सिद्धीदायिनी सिद्धिदात्री नमोअस्तुते॥

कवच

ओंकारपातु शीर्षो मां ऐं बीजं मां हृदयो।
हीं बीजं सदापातु नभो, गुहो च पादयो॥
ललाट कर्णो श्रीं बीजपातु क्लीं बीजं मां नेत्र घ्राणो।
कपोल चिबुको हसौ पातु जगत्प्रसूत्यै मां सर्व वदनो॥
महादेवी दुर्गा आश्विन माह की अमावस्या के बाद सप्तमी, अष्टमी और नवमी को अपने भक्तों के पास पृथ्वी पर आती हैं और दशमी को लौट जाती हैं।महालया से नवरात्रि का आरम्भ होता है और भक्तजन सप्तशती के पाठ का आरम्भ कर देवी महाशक्ति के प्राकट्य  व देवी के स्वागत  में सजग हो जाते हैं।
माँ  देवी सद्यः सृजन हैं।  सद्यः विनाश हैं। वे भीमकान्त हैं। वे परम सुन्दरी हैं। वे विकट -विकराल हैं। उनकी काया कान्त है, उनकी काया अस्थिमात्र है। वे भव्य हैं ,अभव्य हैं। वे वस्त्रवेष्टित सुमनोहरा हैं। वे मुक्तकेशी, रौद्रमुखी, महोदरी, अग्निज्वाला हैं। अमेयविक्रमा हैं।  क्रूर हैं, सिंहवाहिनी, सर्वमंत्रमयी हैं ,वे चामुंडा हैं , वाराही हैं, वे देवमाता हैं, सर्वविद्यामयी हैं, सर्वास्त्रधारिणी हैं, पुरुषाकृति हैं, वे असाध्य हैं साध्य हैं वे सर्वस्वरूपा हैं , सर्वेश हैं।
 दुर्गमच्छेदिनी,दुर्गतोद्धारिणी,
दुर्गमध्यानदा,दुर्गमा,दुर्गमार्गप्रदा,
दुर्गमोहादुर्गमांगी,दुर्गभीमा दुर्गा हैं।
जब महादैत्य ने भैसे का विकराल रूप धारण कर समस्त लोकों को विक्षोभित कर दिया तब देबी मधुपान करने लगीं। उनका चेहरा मदप्रभाव से लाल होगया, वाणी लडखडाने लगी और वे जोर -जोर से हँसती  हुई बोलीं-
गर्ज गर्ज क्षणं मूढ मधु यावत्पिवाम्यहम।
मया त्वयि हतेत्रैव गर्जिष्यन्त्याशु देवताः।
ऐ मूढ! जबतक मैं मद्यपान कर रही हूँ ,तबतक क्षणभर तू गरज ले।यहीं मेरे हाथों तुम्हारे वध के पश्चात  देवता गर्जन करेंगे।
दुर्गा सप्तशती महातेजस स्थिति का विस्फूर्जन है।यह शब्दों की सीमा से पार का महानाद है।यह चित्तोत्कर्ष का चरम है । यह महानन्द का अविरल निनाद है ।
 ‘नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्यै नमोनमः’ की पुनः पुन: उच्चारणावृत्ति श्रोता को चरम भावदशा के लोक में प्रक्षेपित कर देती है।
वहाँ वाणी रूपादि से परे अनहद नाद बन जाती है। एक ऐसी गूँज बनकर भीतर प्रतिध्वनित होती है जो हमें जन्मजन्मान्तरों से जोड देती है।शरीर संवेग में परिणत होकर अनुभूति मात्र बन कर रह जाता है।
Durga by TARUNYAM


बीरेन्द्र कृष्ण भद्र महालया के शुभ प्रभात में आकाशवाणी कोलकाता से 'महिषासुर मर्दिनी' का प्रसारण होता रहा है । वीरेन्द्र कृष्ण भद्र जी की सावेश और आरोह - अवरोहपूर्ण वाणी में दुर्गासप्तशती का पाठ सुनना सही अर्थों में एक असाधारण और रोमांचक अनुभव है। 
सुदूर दक्षिण में बसे तमिलनाडु में  नवरात्रि  के नौ दिनों में  दुर्गा माँ की सहायता करने आये असंख्य देवी देवताओं का मानों जमघट लग जाता है जिसकी  झांकी ' गोलू - पूजा ' कहलाती है। गोलू पूजा में अपने घर के कक्ष में देवी देवताओं की मूर्तियों को सजाया जाता है। सजाते हैं और अतिथि गैन को चाय कॉफी नाश्ता जलपान करवाते हैं। आरती - प्रसाद नैवेद्य से ९ दिन माता दुर्गा की आराधना पूजा , व्रत किया जाता है। ७ सीढियां बनाई जातीं हैं जिन पर यह खिलौने सजाए जाते हैं।   खिलौनों की शोभा , आहा देखते ही बनती है। 
इस बार अमरीकी चुनावों की झांकी भी प्रदर्शित की गई ! देखें -- 
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Wednesday, September 28, 2016

वैश्विक कहानीकार श्री तेजेन्द्र शर्मा

 वैश्विक कहानीकार श्री तेजेन्द्र शर्मा ~ 
 
श्री तेजेन्द्र शर्मा आधुनिक हिंदी साहित्य के सक्षम हस्ताक्षर हैं। वे लेखक तो हैं  ही किन्तु लन्दन निवासी होने के बावजूद, यूरोप  की भौगोलिक सीमा में बंधे हुए न रह कर, एक वैश्विक हिंदी कथाकार की हैसियत से पहचाने जाते हैं। 
     इंसान कहीं भी रहे, भावनाएं तो विश्व के हरेक देश में, मानव मन में, एक सी ही उभरतीं हैं। ऐसी मानवीय संवेदनाओं को अपने लेखन से उजागर करते हुए, तेजेन्द्र शर्मा जी ने  हिंदी साहित्य में, अपनी कथाओं द्वारा अपार ख्याति प्राप्त की है। आधुनिक हिंदी साहित्य के तेजेन्द्र जी, सशक्त शब्द शिल्पी हैं और इसी कारण उन की कहानियाँ जब जब लिखी गईं तब तब एक विशाल पाठक वर्ग ने उसे पढ़ा, सराहा और एक नए  सिरे से, बदलते हुए सामाजिक परिवेश को समझा। उर्दू, पंजाबी और नेपाली भाषी लेखकों ने, अपनी अपनी भाषाओं में तेजेन्द्र जी की कहानियों को अनुदित किया । 
      भारत के जगरांव ग्राम में सन १९५२, अक्टूबर की १२ तारीख  को तेजेन्द्र जी का जन्म, पंजाब प्रांत में हुआ था। शैशव के कुछ वर्ष बीते और परिवार शहर में रहने आ गया । 
     तेजेन्द्र जी ने  देहली विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी विषय में एम. ए. किया और  कम्प्युटर विधा में डिप्लोमा भी लिया। अंग्रेज़ी, हिंदी पंजाबी, उर्दू और गुजराती भाषाओं के वे जानकार हैं। 
   भारत  से लन्दन तक की तेजेन्द्र भाई साहब की जीवन - यात्रा, किसी घुमावदार, अति मानवीय संघर्षों से भरी कहानी से कम नहीं। 
स्वयं उनहोंने कहा है , 
"  जगरांव से लुधियाना जाना,
    ग्रामद्रोह कहलायेगा
     लुधियाने से मुंबई में बसना
       नगरद्रोह बन जायेगा
    मुंबई से लंदन आने में
   सब का ढंग बदल जाता है
     पासपोर्ट का रंग बदल जाता है !" 
एक रचनाकार बनने से पहले तेजेन्द्र जी की बाल्यवस्था में परिवार का अनेकों बार तबादला हुआ था। नीड का निर्माण फिर फिर की सी प्रतीति  और पिता का क्रोधी किन्तु निडर और साहसी स्वभाव, माता का असीम स्नेह, भारतीय रिश्ते नातों की डोर से बंधा शैशव, परिवार से जुड़े  रिश्तों से मिला अपार स्नेह संबल, यह सभी एक बच्चे के मन को मानवीय संवेदनाओं के विविध स्पन्दनों से भरते रहे। 
                   जीवन के किसी मोड़ पर  मिला हरजीत दीदी का निर्मल स्नेह भी भविष्य के लेखक के जहन  में ऐसा बसा कि  कहीं न कहीं, किसी न किसी मोड़ पर, तेजेन्द्र शर्मा के लेखन द्वारा, विश्व में फैले हुए असंख्य पाठकों के मन को छु गया ! 
   अपनी युवावस्था में तेजेन्द्र  जी ने  भारतीय विमान सेवा में २२  वर्ष  गुजारे। उस वक्त  तेजेन्द्र जी को दुनियाभर के लोगों को नज़दीक से देखने समझने का मौका मिला। यह अनुभव, सुफेद बादलों पे उड़ते एरोप्लेन में भी तेजेन्द्र शर्मा के लेखक मन के मौन भावों को, कहानियों का आकार देने से ना चुके। अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में तेजेन्द्र जी कहते हैं , ' मेंरा मुख्य उद्देश्य है पाठक के साथ एक संवाद पैदा करना। जो मैं सोच रहा हूँ, वह पाठक तक पहुँचे, यह मेरा मुख्य उद्देश्य रहता है। ' 
                दिन गुजरते रहे परंतु नियति ने अब बड़ी कठिन परीक्षा ली ! उनके हँसते खेलते परिवार को यकायक सहमा दिया। तेजेन्द्र जी ,धर्मपत्नी इंदु जी, बिटिया दीप्ती और पुत्र मयंक सभी के जीवन में  दारुण, अत्यंत दुखद मोड़ आया! इंदु जी जानलेवा कैंसर से जूझ रहीं थीं। कैंसर सा असाध्य रोग और अपनी पत्नी का वह अंतिम समय, तेजेन्द्र जी न जाने कैसे झेल गए ! 
        इंदु जी के जाने के बाद, कथाकार के जीवन को सर्द  हवाओं ने आ घेरा और फिर ज़िन्दगी में तब्दीलीयां आईं। कहते हैं कि,
' तब्दीलीयां जब भी आती हैं ,मौसम  मे...
   किसी का यूं अचानक  चले जाना, 
    बरसों तलक , बहुत याद आता है ! ' 
उनकी धर्मपत्नी, सहचरी, रचनाकार की प्रेरणा शक्ति, जिसे अंग्रेज़ी में ' muse ' कहते हैं,  उनका चले जाना, असहय दुःख भी अब इस रचनाकार को सहना था। 
     तेजेन्द्र जी की आत्म स्वीकृति है कि हिंदी भाषा के प्रति एक लेखक की हैसियत से उन्हें रुझान बख्शनेवालीं, व्यक्ति , श्रीमती इंदु तेजेन्द्र शर्मा जी हीं थीं। कहानी लेखन की विधा के लिए तेजेन्द्र जी कहते हैं ' कहानी स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा है। ' इंसान की ज़िंदगानी भी तो वैसी ही होती है। 
          सौ. इंदु जी का इस तरह, असमय जीवन पथ पर छोड़ जाना और कैंसर दैत्य से विकट संघर्ष और  इंदु जी से बिछोह का दारुण दंश, कथाकार के मन के इंद्रधनुष को, विषाद के गहरे रंगों से बेध गया। कथाकार की कला, करुण रस  से बिंध कर और निखरती चली गई।
    तेजेन्द्र जी ने यही कहा ' एक कहानीकार के तौर पर मैं अपने आप को मूलतः हारे हुए व्यक्ति के साथ खड़ा पाता हूँ, जीतने वाले के साथ जश्न नहीं मना पाता।' 
        इस दौरान इंदु जी के संग २१ वर्ष का बंबई शहर सहवास और विश्व भ्रमण, जीवन के अनुभवों को परिपक्व करते रहे थे। ये सारे अनुभव  कथाकार  तेजेन्द्र शर्मा के रचनाकार मन को, नीजी संवेदनाओं को, विविध रंगों से तराशते रहे थे । 
       तेजेन्द्र जी की रचनाशीलता हिंदी सिनेमा, रेडियो, स्टेज जैसे संचार माध्यम द्वारा भी अभिव्यक्त हुई और  निरंतर प्रगति करती रही।इसी काण उनकी कहानियों के पात्र सजीव लगते हैं। उनके हाव भाव तक पाठक दृश्यों को पढ़ते वक्त, देख पाते हैं। अपनी कथा पढ़ने की सूझ बुझ तेजेन्द्र जी को विविध कला क्षेत्रों में दक्षता पूर्वक कार्य करने से ही बखूबी आती है।'  शांति '  नामक टीवी सीरियल में भी तेजेन्द्र जी के कार्य को खूब सराहा गया। 
       इंदु जी के जाने के बाद,  इंदु जी की स्मृति में, तेजेन्द्र जी ने ' इंदु कथा सम्मान ' की नींव बंबई में ही रखी। कालान्तर में जब तेजेन्द्र शर्मा जी लन्दन आकर बस गए तब ' इंदु कथा अंतरराष्ट्रीय सम्मान ' स्थानांतरित होकर अन्तरराष्ट्रीय स्तर का पुरस्कार बना।   
तेजेन्द्र जी ने उस दौर के जीवन पर प्रकाश डालते हुए कहा है, ' ११ दिसम्बर १९९८ को मैं लन्दन में बसने के लिए आया। उस समय मेरी आयु ४६ वर्ष थी। मेरे पास कोई नौकरी नहीं थी। और न ही कोई बहुत बड़ा बैंक बैलेन्स था। मैं एअर इण्डिया की शाही नौकरी छोड़ कर आया था जहाँ अमरीकी डॉलर में पगार मिलती थी और भारतीय रुपये में खर्चा करता था। मुझे  अपने परिवार को पालना था। लन्दन शहर ने मुझे पहले बीबीसी में समाचार वाचक की नौकरी दी और फिर ब्रिटिश रेल में ड्राइवर की। यानि कि उस उम्र में मुझे नौकरी नहीं, नौकरियाँ मिलीं – और वो भी एकदम भिन्न क्षेत्रों में। ' 
            लन्दन रेलवे विभाग में कार्यरत तेजेन्द्र जी की कथाओं ने अब देस और परदेस को एक साथ समेट  लिया है। कहानीकार के  कथा शिल्प को अब व्यापक विस्तार मिला। 
          तेजेन्द्र जी की इस दौर की  कहानियाँ  मानव मन और सामाजिक उतार चढावों के तानों बानों से कसी हुईं, बुनी हुईं, सर्वकालिक हो गईं और इसी कारण से  तेजेन्द्र शर्मा जी की कहानियाँ, सार्वभौम विषय वस्तु के कारण, लन्दन तक सीमित न रह कर, भारत में बसे पाठकों को नवीन कथा विषय की इन कहानियों को पढ़ने के लिए उत्सुकता से बाध्य करतीं रहीं। आज तेजेन्द्र जी की कथाएं भारत में पाठ्यक्रम का हिस्सा बन चुकी हैं । 
       एक साक्षात्कार में बेबाकी से उत्तर देते हुए तेजेन्द्र जी कहते हैं कि  ' हम प्रगतिशील लोग धर्म के मामले में बहुत मॉडर्न हैं और परम्पराओं के विरुद्ध हैं। किन्तु जहाँ तक लेखन का सवाल है वही दकियानूसी रवैया रखते हैं। ' 
      ' काला सागर, ढिबरी टाइट, देह की क़ीमत, क़ब्र का मुनाफ़ा, तरकीब, पाप की सज़ा, मुझे मार डाल बेटा, एक बार फिर होली, पासपोर्ट का रंग, बेघर आँखें, कोख का किराया, टेलिफ़ोन लाइन/ जैसी कहानियाँ  लिखनेवाले तेजेन्द्र जी कहते हैं 
'  मैं शायद उन गिने चुने लेखकों में शामिल हूँ जिनके लेखन में आज का समाज जगह पाता है।'
             आधुनिक काल को अपने लेखन से विश्व के पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करनेवाले रचनाकार को आधुनिक हिंदी साहित्य के सक्षम कथाकार तेजेन्द्र भाई को  मैं इसीलिए ' रैनेसान्स मेन ' या '' Renaissance Man ' या ' नवजागरण का कथाकार ' मानती हूँ। 
     आधुनिक इतिहास और मध्य युग को  जिस तरह यूरोप में रेनेसांस युग कहते हैं वह समय काल  १४ वीं से १७ वीं शताब्दी के दौरान  फैला हुआ है। यह कालखंड यूरोप में कई बदलाव लाया। इसी प्रकार भारतीय चेतना को वैश्विक फलक तक लाने का साहस तेजेन्द्र शर्मा जैसे रचनाकार, अपने लेखन द्वारा  आज के मध्य युगीन भारतेंदु युग के पश्चात के साहित्य को आधुनिक २१ वीं सदी के हिंदी साहित्य को जोड़ने का काम करते हुए मानों एक सेतु रच कर पूरा कर रहे हैं। 
        तेजेन्द्र जी के अभिप्राय,  ' कहानी ' और ' लेखक '  के लिए गौर तलब है।  वे कहते हैं कि, " कोई कहानी सच नहीं होती और कहानी से बड़ा सच कोई नहीं होता। एक कवि और कहानीकार के सच में भी अन्तर होता है। कवि का एक अपना सच होता है जो कि आवश्यक नहीं की शाश्वत सत्य ही हो। कवि अपनी रचनाओं के माध्यम से अपने भीतर का सत्य़ खोज सकता है।
' प्रतिबिम्ब ' तेजेन्द्र जी की लिखी हुई पहली कथा है। ' रेत का घरौंदा ' ईंटों का जंगल ' कड़ियाँ ' काला सागर, ' ढिबरी टाइट ' ,पासपोर्ट का रंग ' जिस पर कविता भी लिखे गई उसी से चाँद पंक्तियाँ 
 ' भावनाओं का समुद्र उछाल भरता है
   आइकैरेस सूरज के निकट हुआ जाता है
  पंख गलने में कितना समय लगेगा?
    धडाम! धरती की खुरदरी सतह
     लहु लुहान आकाश हो गया!
    रंग आकाश का कैसे जल जाता है?
     पासपोर्ट का रंग कैसे बदल जाता है? ' 
बेघर आँखें ' सीधी रेखा की परतें ', ' ये क्या हो गया ', '  कब्र का मुनाफ़ा ' ,' देह की कीमत ' , ' दीवार में रास्ता ' इत्यादी  अनेक कथाएं, आधुनिक युगबोध की कहानियां हैं। 
     इसी कारण तेजेन्द्र जी के भीतर का इंसान लेखक बना तो उन के जमीर ने यही कहा ' हारा हुआ आदमी भारत में है तो ब्रिटेन में भी है और अमरीका में भी है। जिस आदमी को सद्दाम ने दबा रखा था वो भी हारा हुआ आदमी था। जिस किसी की साथ अन्याय होता है – मेरा हारा हुआ आदमी वह है। और मैं बेझिझक उसके साथ सदा खड़ा रहूँगा। ' 
' ये घर तुम्हारा है ' तेजेन्द्र जी का  कविता ग़ज़ल संग्रह हैं जिसकी  शीर्ष कविता में तेजेन्द्र जी कहते हैं 
नदी की धार बहे आगे,मुड क़े न देखे
न समझो इसको भंवर अब यही किनारा है " 
       तेजेन्द्र जी को उनके लेखन एवं सम्पादन के लिए एवं हिंदी सेवा के लिए असंख्य पुरस्कारो से नवाजा गया है। सुपथगा सम्मान-१९८७ में मिला। ढिबरी टाइट के लिये महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी पुरस्कार-१९९५ प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के हाथों प्रदान किया गया। सहयोग फ़ाउंडेशन का युवा साहित्यकार पुरस्कार-१९९८ में दिया गया। यू.पी. हिन्दी संस्थान का प्रवासी भारतीय साहित्य भूषण सम्मान-२००३, प्रथम संकल्प साहित्य सम्मान- दिल्ली २००७ में प्राप्त हुआ। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा का डॉ॰ मोटूरि सत्यनारायण सम्मान-२०११ में और अंतरराष्ट्रीय स्पंदन कथा सम्मान २०१४ में मिला। 
    लन्दन में रहकर हिंदी रचनाकारों को अंतरराष्ट्र्रीय स्तर पर सम्मानित करती हुई  संस्था को हाऊस ऑफ लॉर्ड्ज़ ' में स्थापित करने का श्रेय श्री तेजेन्द्र जी का है। विश्व के विभिन्न देशों में बसे अन्य रचनाकारों को संस्था द्वारा पुरस्कृत किया जाता है। हिंदी भाषा के प्रति यही सच्चा समर्पण है। 

कवि और लेखकों को लोगबाग कभी कभार याद कर लेते हैं बाकि अक्सर यही देखने में आता है कि रचनाकारों को साहित्य + लेखन के साथ जीवन में कड़ा संघर्ष ही अधिकतर झेलना पड़ता है। 
    एक पाठक, सौ मित्रों के समान होता है और जो लेखक की पुस्तक पढ़ने के बाद, उस पर कुछ कहे, वह तो लाखों में कोइ एक होता है। लेखक का हौसला बढ़ानेवाले की बात को मन में रखे हुए, लिखते रहना ही एक रचनाकार की वास्तविक नियति है।
      इस निष्कर्ष पर पहुंचकर अद्भुत कथाकार तेजेन्द्र जी से यही अपेक्षा रहेगी कि वे निरंतर सक्रीय रहें , लिखते रहें। अछूते विषयों पर, कलम चलातें  रहें और मानव संवेदनाओं से सभर कहानियां बुनते रहें जिस से भारत के लेखक और प्रवासी भारतीय लेखक के बीच का कृत्रिम  भेद मिट जाए और विश्व में कटुता और विभाजन की त्रासदी हारे ! जीत हो मानवता की और सच्चे मानवीय मूल्यों की और खेमों या विघटन कारी भावना की करारी हार हो ! अभी तेजेन्द्र शर्मा जी को बहुत कुछ लिखना शेष है और हमें, उनका लिखा हुआ पढ़ना ! मेरी सद्भावनाएँ रचनाकार तेजेन्द्र शर्मा जी के उज्जवल भविष्य के लिए प्रेषित करते हुए अतीव हर्ष हो रहा है। 
शुभमस्तु ! 
- श्रीमती लावण्या दीपक शाह 
 ओहायो प्रांत सीनसीनाटी शहर से