"तुलसी के बिरवे" श्री तुलसी प्रणाम
वृन्दायी तुलसी -देव्यै
प्रियायाई केसवास्य च
विष्णु -भक्ति -प्रदे देवी
सत्यवात्याई नमो नमः
मैं श्री वृंदा देवी को प्रणाम करती हूँ जो तुलसी देवी हैं , जो भगवान् केशव की अति प्रिय हैं हे देवी आपके प्रसाद स्वरूप , जो उच्चतम सत्य का मूल स्थान है, प्राणी मात्र में भक्ति भाव का उदय होता है
श्री तुलसी प्रदक्षिणा मंत्र :
यानि कानि च पापानि,
जन्मान्तर कृतानि च,
तानि तानि प्रनश्यन्ति,
प्रदक्षिणायाम् पदे पदे ।
आपकी परिक्रमा का एक एक पद समस्त पापों का नाश कर्ता है
तुलसी जी श्री वृंदा जी का नाम रूप हैं -
वृन्दावन उन्हीं के नाम से प्रसिध्ध हुआ
सत्यभामा जी ने अपने समस्त वैभव से श्री कृष्ण को तुलना चाहा पर वे असफल रहीं तब देवी रुक्मिणी जी ने एक तुलसी के पान को दूजे पलड़े में रखा और द्वारिकाधीश श्री कृष्ण को तौल दिया था ऐसी कथा प्रसिध्ध है
श्री तुलसी विवाह : श्री कृष्ण स्वयं जप करते हुए कहते हैं
कृष्ण -जीवनी , नंदिनी , पुस्पसरा ,
तुलसी , विश्व -पावनी , विश्वपुजिता, वृंदा , वृन्दावनी
अत: तुलसी जी के ये नाम प्रसिद्ध हैं
वृन्दावनी : जिनका उद`भव व्रज में हुआ
वृंदा : सभी वनस्पति व वृक्षों की आधि देवी
विश्वपुजिता : समस्त जगत द्वारा पूजित
पुस्पसारा : हर पुष्प का सार
नंदिनी : रूशी मुनियों को आनंद प्रदान करनेवाली
कृष्ण -जीवनी : श्री कृष्ण की प्राण जीवनी .
विश्व -पावनी : त्रिलोकी को पावन करनेवाली
तुलसी : अद्वितीय
कार्तिक के शुक्ल पक्ष में शालिग्राम को गोविन्द जी का स्वर्रूप हैं उन से तुलसी विवाह संपन्न किया जाता है
धात्री फलानी तुलसी ही अन्तकाले भवेद यदि
मुखे चैव सिरास्य अंगे पातकं नास्ति तस्य वाई --
अंत काल के समय , तुलसीदल या आमलकी को मस्तक या देह पर रखने से नरक का द्वार , आत्मा के लिए बंद हो जाता है ऐसा भी कहते हैं -
तुलसी के बिरवे के पास , रखा एक जलता दिया
जल रहा जो अकम्पित, मंद मंद , नित नया
बिरवा जतन से उगा जो तुलसी क्यारे मध्य सजीला
नैवैध्य जल से अभिसिक्त प्रतिदिन , वह मैं हूँ
सांध्य छाया में सुरभित , थमी थमी सी बाट
और घर तक आता वह परिचित सा लघु पथ
जहां विश्राम लेते सभी परींदे , प्राणी , स्वजन
गृह में आराम पाते, वह भी तो मैं ही हूँ न
पदचाप , शांत संयत , निश्वास गहरा बिखरा हुआ
कैद रह गया आँगन में जो, सब के चले जाने के बाद
हल्दी, नमक, धान के कण जो सहजता मौन हो कर
जो उलट्त्ता आंच पर , पकाता रोटियों को , धान को
थपकी दिलाकर जो सुलाता भोले अबोध शिशु को
प्यार से चूमता माथा , हथेली , बारम्बार वो मैं हूँ
रसोई घर दुवारी पास पडौस नाते रिश्तों का पुलिन्दा
जो बांधती , पोसती प्रतिदिन वह , बस मैं एक माँ हूँ !
-- लावण्या