मानहिं न जग्गु मनि अन्न भूप। "
अर्थात
~ हम जयचंद के राज्य को मुख्य नहीं मानते। हम तो योगिनीपुर के पृथ्वीराज
को आदर्श मानते हैं। क्या पृथ्वी पर कोइ चौहाण शेष नहीं रहा ? सभी हमारे
पृथ्वीराज को सिंघ के समान रूप से देखते हैं। किसी अन्य को हम जगत्पति राजा
नहीं मानते। वयोवृद्ध गोविंदराज के इस वीरोचित्त उद्गार सुनकर जयचंद के
दूत त्वरित गति से निकल भागे।
कनौज पहुंचकर दूतों ने अपने महाराज जयचंद के समक्ष हाथ जोड़ कर पृथ्वीराज
की सभा में जो कुछ घटित हुआ सो वह सब डरते डरते कह सुनाया। जयचंद दूतों के
मुख से पृथ्वीराज की बिरदावली सामान गोविंदराज का कथन सुनकर आग बबूला हो
उठा। सभा को समाप्त कर शीघ्र अपने अन्तः पुर में चला आया। वहाँ उद्यान में
बैठे अपना क्रोध शाँत कर रहे महाराज जयचंद ने उसी उद्यान में अपनी पुत्री
संयोगिता की दो सेविकाओं के मुख से, अपनी चहेती पुत्री राजकुँवरी संयोगिता
ने पृथ्वीराज से विवाह करने का जो प्रण लिया था, उस के बारे में सारा
वृतांत सुना। दासियाँ हाथ मटका मटका कर बार बार दुहरा रहीं थीं ~" संयोगि जोग वर तुम्ह आज ब्रत लिअउ वरण प्रथीराज राज "
दासियों की उक्ति सुनते ही अब तो जलते में मानों घी पड़ा! जयचंद
का क्रोध शाँत होने की अपेक्षा महाज्वाला बन कर धधकने लगा। जयचंद के
आमात्यों ने आकर अपने महाराज के क्रोध का शमन करने हेतु समझाया ' हे
महाराज आप अपना राजसूय यज्ञ का शुभ व्रत पूर्ण कीजिए।उस चौहाण से हम बाद
में निपट लेंगें। ' जयचंद ने उनके कथन को योग्य माना। किन्तु मन में
पृथ्वीराज चौहाण के प्रति जो कटुता एवं वैमनस्य था उस के प्रतिरूप समान,
पृथ्वीराज के कद काठी की एक सुवर्ण प्रतिमा बनाने का आदेश, अपने
स्वर्णकारों दिया। पृथ्वीराज को छोटा दर्शाने के लिए एक मंत्री को आदेश
दिया ' इस सुवर्ण प्रतिमा को, द्वारपाल के स्थान पर रखा जाए। '
कनौज
के राजमहल के प्रतोली द्वार पर तैयार हुई स्वर्ण प्रतिमा को द्वारपाल के
स्थान पे रख दिया गया। राजसूय यज्ञ के साथ साथ अपनी पुत्री राजकन्या
संयोगिता का स्वयंवर भी घोषित कर दिया। राजमहल के प्रवेश द्वार
पर पृथ्वीराज की प्रतिमा को रखवाया गया।
यज्ञ का शुभ दिवस देव पंचमी के दिन सूर्य के पुष्य नक्षत्र में प्रवेश करनेवाले थे
तथा
चन्द्रमा के तीसरे गृह में स्थिर होने के शुभ अवसर को पण्डितों ने चुना
था। पृथ्वीराज को कनौज के राजसूय यज्ञ तथा संयुक्ता - संयोगिता के स्वयंवर
की सारी जानकारियां उसके गुप्तचरों ने आकर बतलाईं थीं। जयचंद ने अपनी
पुत्री के पृथ्वीराज से विवाह के प्रण व हठ के कारण, संयुक्ता को, गंगा नदी
के किनारे एक ऊंचे आवास में रहने के लिए भेज दिया था। पृथ्वीराज के चुनिंदा सामंतो ने कहा ,
' तिहि पुतिय सुनी गन इतउ, टाट वचन तजि काज
कइ वहि गंगहि संचरहुँ , कइ पानि गहऊँ प्रथीराज। '
अर्थात
- जयचंद की पुत्री संयोगिता के बारे में सुना है वह यहां तक कहने लगीं है
कि,' पिता के वचन व स्वयंवर के कार्य का त्याग कर या तो मैं गंगा में बह
लूंगी या पृथ्वीराज को वरूंगी '
यह
सुनते पृथ्वीराज को अपार आश्चर्य हुआ। वही भाव, अनुराग बना। मन ही मन
सोचा, ' दम्भी जयचंद ने भले ही जो सोचा हो दैव ( भावि ) में अवश्य कुछ
भिन्न संजोग है '
जयचंद ने संयोगिता के मन से पृथ्वीराज की छवि हटाने के अनेकों प्रयास किये।
संयोगिता
मानिनी थीं। साम, दाम दण्ड भेद के प्रयोग से, पृथ्वीराज के प्रति संयोगिता के
सम्मोहन से हाथ छुड़ाने के प्रयत्नों में सेविकाएं, दासियाँ जुट गईं ।
किन्तु संयोगिता की दृढ हठ के आगे सारे उपाय विफल हुए।
पृथ्वीराज
अपने संग से चुनिंदा शूरवीर राजपूत सूरमाओं को लेकर, इक्कीस योजन की दूरी
तीन दिन व तीन रात्रि में पार करते हुए कनौज आ पहुंचे।
कनौज शहर के
समीप बहते गँगा मैया के दर्शन हुए तो पृथ्वीराज ने प्रणाम किया। वहीं चमकते
हुए घड़ों में, गँगा जी का जल भरती हुई स्त्रियाँ दिखलाई दीं। नगर नारियों के
वस्त्र लाल, पीले व नीले रंगों के थे जो प्रातः काल के स्वच्छ प्रकाश
में आभा बिखेर रहे थे। चंदरबरदाई कवि मित्र भी महाराज पृथ्वीराज के संग,
यह मनोरम दृश्य देख रहे थे। कवि ह्रदय चितेरा होता है, सो सहसा चंद बोले,
' इन सुंदरियों की पीठ पर झूलती वेणी ऐसे प्रतीत हो
रहीं हैं मानों उनका शरीर स्वर्ण से निर्मित हुआ हो तथा उनके स्वर्णिम
स्तम्भ पर सूर्यदेव चढ़ कर महाराज आपके विजयश्री की घोषणा कर रहे हैं ' पृथ्वीराज अपने कवि सखा के उपमाओं पर ठठाकर हंस पड़े उत्तर दिया, '
अरे मित्र चंद रहने भी दो ! अभी तो तुमने कनौज की यशस्विनी नारियों को
देखा ही नहीं! मात्र इस प्रदेश की पनिहारियाँ ही देखीं हैं ! ' चंदबरदाई अपने मित्र के कटाक्ष पर मुस्कुराने लगे। कहा,' आज्ञा दो, मित्र ! राजपरिवार की टोह लेकर आता हूँ '
अपने
सखा से आज्ञा लेकर चंदबरदाई जयचंद के राजदरबार में छद्म नाम से पहुंचे।
दरबार में भिन्न नाम से बरदाई ने पृथ्वीराज की वीरता तथा महाराज जयचंद की
वीरता के गीत गाये। अपनी प्रशंसा सुनकर तो जयचंद प्रसन्न हुआ किन्तु
पृथ्वीराज का बखान अनसुना कर दिया। चारण की प्रशंसा सुन कर जयचंद, चंदबरदाई
की कवितावली से प्रभावित हुआ था अतः पूछने लगा,
'
चारण आप किस स्थान पर ठहरे हैं ? ' चंदबरदाई ने ठिकाना बतलाया तो अगली
प्रातः जयचंद चंदबरदाई की छावनी में आ पधारे ! छावनी में उपस्थित पृथ्वीराज
के गठीले शरीर तथा रौबदार राजपूती बड़ी बड़ी मूंछों को देखकर जयचंद का माथा
ठनका ! उसने प्रश्न किया, ' यह सैनिक कौन है ? '
चंदबरदाई
ने मन के भावों को भली प्रकार छिपाते हुए कहा, ' महाराज जयचंद ! यह मेरा
अनुचर है। मैं, अपनी सुरक्षा के लिए इसे अपने संग लिए भ्रमण करता रहता हूँ !
'
जयचंद
को चंदबरदाई के कथन पर अविश्वास हुआ। किन्तु अगले दिवस राजसूय यज्ञ था।
अतः जयचंद ने सोचा, ' आज नहीं ! कल यज्ञ, पूर्ण हो जाए, पश्चात मैं इस
छावणी के सभी जन पर, धावा बोल कर, इन्हें बंदी बना लूंगा। कल की पूजा
निर्विघ्न समाप्त कर, तद्पश्चात इन्हें बंदी बना लूँगा ' इतना सोचकर जयचंद
छावणी से प्रस्थान कर गया ! संध्या होने लगी। जयचंद के लौट जाने पर,
पृथ्वीराज अपने मित्र चंदबरदाई को गले लगाकर खूब हँसे।
रात्रि का एक प्रहर बीत चुका था। संयोगिता के नयनों से निद्रा ओझल
थी। वह अपनी सखी से कहने लगी, ' हे आली, मेरे मन के गुप्त भाव गुरुजनों से
कह नहीं पाती। हाँ एक मात्र तुम्हें कह सकती हूँ। जिसने मेरे पिता के
चमकीले खडग के भय से आत्म समर्पण नहीं किया उसी नर - वीर को मैं चाहती हूँ !
'
सखी मुँहलगी थी कहने लगी, ' हे बुध्धिहीना अबोध राज कुंवरी ! कहाँ वह
लघु कुल का वंशज तथा कहाँ आप ! आप कनौज नरेश की पुत्री हैं, हमारी
राजदुलारी हैं। हमारी राजेश्वरी हैं ! ' तब तड़प कर संयोगिता बोली, ' अरी
दुष्टा, रहने दे ! उसी सूरमा नर वीर ने, अजमेर राज्य में धूम मचा रखी है !
मंडोवर राज्य को उन्हीं ने पराजित किया। मोरी के राजा से कर वसूल किया!
रणथम्भोर के रण मैदान में विजयश्री प्राप्त की ! कालिंजर को जल निमग्न
किया ! अरे, उस शूरवीर चौहाण की कृपाण तो राजाओं के खेत रुपी राज्यों को
काटनेवाली ' हँसिया ' बनी हुई है। ' अपनी राजकुमारी से पृथ्वीराज चौहाण की
प्रसंशा सुनकर वही सखी मुस्कुराने लगी। बोली, ' कुँवरी आपके मन के भाव आज
शब्दों में आ ही गए ! जिस प्रकार चंद्र्मा के खिलने पर पावन गँगा जी में
कमलिनीयाँ आतुरता से खिल उठतीं हैं तथा मुग्ध भाव से इन्दु ( चंद्र ) की
शीतल किरणों का पान कर, चंद्र देव का ध्यान करतीं हैं, उसी प्रकार हे
कुँवरी, आपकी समस्त बुद्धिमता, चतुरता तथा वाणी बस एकमात्र पृथ्वीराज का
बखान करतीं रहतीं हैं ! हे सखी, आप के इन सुँदर अंग प्रत्यंग पर, मदन -
ज्वर व्याप्त है। यह उसी प्रेम रोग का प्रताप है '
रात्रि बीत चली। उसी समय गँगा जी की पावन जलधारा पर प्रतिध्वनित होता हुआ सैनिक वाद्य बजने लगा। संयोगिता शर्वरी ( रात्रि ) में उठ रही इस वीर ध्वनि से प्रभावित होकर अपने झरोखे पर आ खड़ी हुईं व गँगा धारा पर दृष्टिपात किया। संयोगिता
आश्चर्चकित हो, निहारतीं रहीं ~ गँगा जी की पवित्र जल ~ धारा के मध्य
खड़े, कामदेव के समान सुँदर, हर ( शिवजी ) के सामान बलिष्ठ, एक नर को, जो गँगा जी की उत्ताल तरंगों को, अपने हाथों से उछाल रहा था तथा अपने हाथों से एक,
एक मोती, जलधारा में बह रहीं मछलियों के मुख में डाले जा रहा था। इस
प्रयास में कुछ मोती जल धारा में डूबे जा रहे थे। चंद्रमा की चांदनी में
ऐसा अलौकिक दृश्य देख कर संयोगिता, ठगी सी रह गईं ! संयोगिता के संग अन्य
दासियाँ भी यह दृश्य देख रहीं थीं।
किसी ने कहा,' यह तो कोइ सिद्ध मुनि
लगते हैं। किसी ने कहा,' दानव हैं या स्वर्ग से उतरे कोइ देवता हैं ? '
परन्तु एक चतुर दासी ने कहा, ' यह नरेंद्र पृथ्वीराज हैं ! ' यह सुनते ही
संयोगिता शर्मा कर भय से थर थर काँपने लगी। अपने नेत्रों को अपने कोमल करों
से मूँद लिया। क्षणार्ध पश्चात राजकुँवरी संयुक्ता ने अपनी एक दासी के
हाथों, मोतीयों से भरा थाल, वहीं भिजवाया जहां पृथ्वीराज जल धारा में अब
भी खड़े थे। दासी चुपचाप पृथ्वीराज के निकट जाकर खड़ी हो गयी। पृथ्वीराज भी
मस्त हो, मोती लुटाता रहा। जब
थाल के सारे मोती चूक गए तब दासी ने अपनी मोती माला उतार कर थमा दी।
अब
पृथ्वीराज ने मुड़कर पूछा, ' तुम कौन हो ? ' दासी ने अपना परिचय दिया सादर
प्रणाम किया तथा कहा ' महाराज मैं कनौज राजकुमारी संयोगिता की दासी हूँ '
पृथ्वीराज बोले ' आपकी कुँवरी से मिलने ही तो कनौज आया हूँ चलो वहीं ले चलो
राजकुमारी के पास '
सँयोगिता
के भवन में पृथ्वीराज ने साधिकार प्रवेश किया। दासी पीछे पीछे चल रही
थी।सँयोगिता अब पृथ्वीराज के समक्ष उपस्थित थीं। पृथ्वीराज ने उसे
आलिंगनबद्ध किया। मानों दर्द को रिध्धि प्राप्त हुई। दोनों के मिलन पर
मानों पवित्र पाणिग्रहण संस्कार पूर्ण हुआ। सँयोगिता ने बिदाई के ताम्बूल
अर्पित किये।
" पायातु पंग पुत्रीय जयति जयति योगिनी पुरेस
सर्व विधि निषेधस्य यः तम्बोलस्य समादायं। "
अर्थात
~ पंगपुत्री ( सँयोगिता ) की रक्षा करें।
हे योगिनीपुर ( दिल्ली ) के
स्वामी ! आपकी जय हो, जय हो ! सभी प्रकार से आपको रोक रही हूँ उसके प्रतीक
इस ताम्बूल को स्वीकार कीजिए ! " इतना कहते हुए, सँयोगिता ने विवाह कंकण, पृथ्वीराज के सशक्त हाथों पर बाँध दिया।
पृथ्वीराज
अपनी छावणी पर आ कर अपने सामंतों से जा मिले। उन में से एक कान्ह ने पूछा,'
महाराज यह क्या है ? " तब पृथ्वीराज ने बतलाया की, ' मैंने जयचंद की बाला
का वरण किया। उस का प्रण पूरा किया। अभी मैं उसे विलाप करते हुए उसे छोड़
कर यहां आया हूँ। ' तब वीर कान्हा उत्तेजित होकर बोलै,
' महाराज हम सौ
सुरमा राजपूतों के रहते हमारी भाभीसा रोवें ! यह कैसे हो सकता है ? क्या हम
ने यूं ही दिखावे की तलवारें बाँध रखीं हैं? महाराज चलें जयचंद की सेना
से युद्ध तो हम करते रहेंगें किन्तु पहले आपकी ब्याहता, हमारी भभीसा को
छुड़ाते हैं ! '
सँयोगिता ने वीर राजपूतों की टोली को आते देखा तो भय कातर होकर सखियों से कहने लगी ' सखियों मेरे
प्रिय पर लोग ऊँगली ना उठावें ! लोग ये ना कहें की युद्ध के भय से
इन्होंने मेरे आवास की शरण ली ! ' किन्तु वहां पधारे वीर योद्धा
कान्ह
ने समीप आ कर कहे वक्तव्य , ' हे भाभीमाँ आप कहें तो कनौज को योगिनीपुर
बना दूँ ! आप योगिनिपुर पति के संग सिंहासन पर आसीन हों ! मैं तथा मेरे
साथी निर्भय हैं। हम युद्ध से कदापि भयभीत नहीं होते । हम तो आपको हमारे
संग लिवाने के लिए ही यहां आये हैं। ' यह वीरोचित राजपूत की वाणी सुनकर
राजकुँवरी से राजरानी पद पर आसीन हुईं सँयोगिता के नयनों से हर्ष के अश्रु
बहने लगे। पृथ्वीराज से कर - बद्ध प्रार्थना करते हुए वे बोलीं,
' हे नाथ
! कनौज के जन समाज से भरे दरबार के समक्ष, आपकी प्रतिमा के गले में मेरी
विजय माला से आपका अभिनंदन कर, आपको पति रूप में वरूँगी। प्रतिज्ञा है, कल
सँयोगिता स्वयंवर का यह दृश्य सभी देख लें। ' पृथ्वी राज ने संयोगिता का
स्वीकार किया।
अगले
दिवस सँयोगिता के राजसी स्वयंवर में जो पृथ्वीराज को अपमानित करने की
भावना से उनकी स्वर्ण प्रतिमा निर्मित की गयी थी उसे द्वारपाल के स्थान पर
रखा गया था उसी स्थान पर, पृथ्वीराज स्वयं आ कर खड़े हुए। संयोगिता ने
राजसभा में उपस्थित सभी राजाओं को अनदेखा करते हुए, द्वारपाल की प्रतिमा
की दिशा में चरण बढाए तथा अपने कोमल करों में थामी सुगन्धित जयमाला
महाराज पृथ्वीराज के गले में पहना दी । अब असली पृथ्वीराज ने अपनी पत्नी
सँयोगिता का हाथ थाम कर उसे अपने संग लिया। इस भाँति पृथ्वीराज - सँयोगिता
का विवाह भरी सभा के मध्य हुआ। पृथ्वीराज ने सँयोगिता का हरण कर, उसे अपने प्रिय अश्व नाटरामभश्व
पर बैठाल लिया। स्वामीभक्त अश्व, योगिनीपुर की दिशा में स्वतः अपनी
स्वामिनी तथा स्वामी को लिए हुए मुड़कर तेज गति से दौड़ पड़ा।
पृथ्वीराज
ने अपने श्वसुर जयचंद के लिए सँदेसा भिजवाया ~ ' दहेज़ के रूप में तुमसे
युद्ध की आकांक्षा है ! मेरी स्वर्ण प्रतिमा द्वारपाल के स्थान पर रखकर
मुझे अपमानित करने की यही सजा है ! '
पृथ्वीराज के सँयोगिता को
हर कर अपने संग ले जाने से जयचंद की सेना उनके पीछे दौड़ पडी। पृथ्वीराज के
वीर सामंतों ने कहा , ' हे हमारे साम्भर राज, हम सेना को रोकेंगे। आप
महारानी को लेकर शीघ्र हमारे नगर पहुंचें ' !
गुहलौत, नागौर का दाहिमा, चंद्रपुण्डीर सोलंकी का सूरमा सारंग, कूरंभ,
राज पालन देव, यह वीर योद्धा प्रथम दिवस के युद्ध में, वीरगति को प्राप्त कर गए ।
अन्य साथी सामंतों वीरों की तलवारें झनझनाने लगीं। दूसरे दिन के युद्ध
में गुर्जर का माल चंदेल, थट्टा का भूपाल भाण भट्टी, सामळा शूर, अच्छ
परमार व धार का निरवान वीर, देहत्याग कर युद्ध स्थल में गिरे। पृथ्वीराज
के अनेक वीर सामंतों ने वीरता से युद्ध क्षेत्र में, हँसते हुए अपने प्राण
खोये किन्तु इस युद्ध के होते हुए महाराज पृथ्वीराज महारानी संयोगिता के संग अपनी राजधानी योगिनीपुर सकुशल पहुँच गए। निराश होकर सीने में प्रतिशोध भाव से धधकती ज्वाला लिए जयचंद कनौज खाली हाथ लौट आया।
विवाह पश्चात पृथ्वीराज, राजकार्य भूल गए। भोग विलास में रात्रि दिवस बीतने
लगे। छः ऋतुएँ वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत, शिशिर आ आ कर लौट गईं
परन्तु पृथ्वीराज सँयोगिता की भोग - विलास समाधि ना टूटी !
एक दिन चंद्रबरदाई अपने मित्र महाराज पृथ्वीराज के महल में राजगुरु को
संग लेकर आये। महाराज के लिए अन्तः पुर में एक सन्देश एक कहला भेजा ~
"
गोरी रत्तउ तुव धरा, तुं गोरी अनुरत्त " अर्थात " गोरी तुझ पर राजी है या
तेरी भूमि पर ? तू गोरी पर मर मिटा ! ' आगे पत्र में लिखा था ~ "
अप्पज वान चहुआन सुनि, प्रान रषिक प्रारम्भ करि - सामंत नहीं सा - मंत
करि, जिनि बोलइ ढिल्लिय जु धरि " अर्थात ~' हे चौहान सुन ! बाण तो अपने
अधीन हैं। उद्योग कर, अपने प्राणों की रक्षा कर ~ संतों से मंत्रणा कर कि
तेरे कारण ये साम्राज्य, ये धरा डूब न जाए ' पत्र सन्देश पढ़ते ही लज्जा वश
पृथ्वीराज भूमि पर गिर पड़े। उठकर अपना तरकश सम्हाला। सोया हुआ पौरुष जागा
मानों सोया हुआ सिंह जाग उठा ! सँयोगिता उसे रोकने की चेष्टा में कहने लगी,
' कहु सु प्रियह पउमिनिय कंत धनु धरउ तउ न धनु
सुष सुषमार आरोहु असर सँसार मरन मन।
दिन दिनिनयर दिन चंदु रयनि दिन दिन हि आवहि।
जंतु जंतु इह रमनि स्रवन लग्गावि समझावहि।
अरधंग धरा अरधंग हम अरधनगी अरधंग भरि।
जस हंस हंस तह हँसिनी सर सुक्कई पंकज न परि '
अर्थात
~ वही धन, धन है जो भोगा जाय। काम सुख सच्चा सुख है। प्रेम रहित जीवन
मृत्यु समान है। मनुष्य जीवन उस क्षण समाप्त हो जाता है। यदि धरा पृथ्वीराज
की पत्नी है, तो सँयोगिता भी पत्नी है। मुझे सार्थक कीजिए नाथ !
हँस ~ हँसिनी का जोड़ा मरने तक साथ रहता है ! '
पृथ्वीराज
ने अपना जी कड़ा कर उत्तर दिया, ' हे वीर पत्नी, तूने मुझे मेरे बाहुबल के
कारण वरण किया। आज युद्ध में जाने से मुझे क्यों रोक रही हो ? हे
क्षत्राणी ! हे वीर राजपूत रमणी ! अब प्रणय की बेला गई ! विजयश्री तिलक
लगाकर प्रस्थान करने दें, यही आप को शोभा देता है, यही उचित है '
अपने
प्राण नाथ के वचन सुन नयनों
से उमड़ते हुए अश्रुधारा में अपने रक्त को मिला कर सँयोगिता ने अपने
स्वामी पृथ्वीराज के प्रशस्त भाल पर विजय तिलक लगा दिया । पृथ्वीराज ने
प्रस्थान किया। पति पत्नी बिछुड़े। चंद्रबरदाई रचित ' पृथ्वीराज रासौ ' में यही इस पवित्र दंपत्ति युगल पात्रों का अंतिम मिलन दर्शाया गया है।
प्रतिशोध की ज्वाला लिए जयचंद ने विश्वासघात किया। जयचंद ने तुर्की
शहाबुद्दीन को पृथ्वीराज के नगर प्रवेश के गुप्त रहस्य बतलाये। जिस
शाहबुद्दीन को अपनी माता महारानी कर्पूर देवी के कहने बार पृथ्वीराज ने
सात, सात बार जीवनदान दिया था उसी दुष्ट ने, अब किले के भेद जान कर,
पृथ्वीराज को युद्ध में परास्त किया। तथा बंदी बनाकर कारागार में डाला।
तद्पश्चात अपने नगर ले चलकर आग में तपती हुई सलाखें गर्म कर, उन से
पृथ्वीराज के दोनों नयनों को निर्ममता से छेद दिया, जिससे पृथ्वीराज
अंध हो गया। अत्याचारी के सीने में तब भी आग बाकी थी । चित्र : चंद्र
बरदाई
कुछ
काल पश्चात चारण चंद्रबरदाई, अपने मित्र पृथ्वीराज की शोध में, अपने
महाराज व प्रिय सखा को खोजता हुआ, तुर्क शहाबुद्दीन के नगर तक आ पहुंचा।
पृथ्वीराज कारागार में है यह जानकार उसे अत्यंत शोक हुआ। किसी प्रकार
बंदीगृह पहुँच कर वह अपने परम मित्र से मिला।
पृथ्वीराज
का मनोबल परास्त हो चुका था व पृथ्वीराज, अत्यंत शोकाकुल था। अपना
सर्वस्व हार चुका था। वह अपने प्राणों के प्रति मोह को भी खो चुका था '
चन्द्रबरदाई ने उसे भड़काया, कहा ' हे बंधे हुए सिँह, तू काल से भी विकराल
काल स्वयं है ! पापी शहाबुद्दीन ने छल से सिँह को कैद कर लिया ! इस छल का
बदला लेना होगा। मैं तेरे साथ हूँ मित्र ! ' अपने मित्र की उत्साहवर्धक
बातें सुनकर पृथ्वीराज का सोया हुआ पौरुष जाग उठा। दोनों ने आपस में
मंत्रणा की। तद्पश्चात चंद्रबरदाई शाहबुद्दीन के समक्ष उपस्थित हुआ। बोलै,
' हे बादशाह ! तुम्हारा कैदी पृथ्वीराज अँधा हो गया तो क्या हुआ ? वह
तुम्हारे सरे सैनिकों से अब भी बेहतर निशाना लगा सकता है। वह अचूक
निशानेबाज है - मेरे वचन को आजमा कर देख लो ! ' चंद्र बरदाई की बात
सुनकर शहाबुद्दीन का कौतुहल जागा। अब चंद्र ने आगे कहा, ' हे बादशाह आपके
शाही फरमान पर ही यह पृथ्वीराज बाण पकड़ने को राजी हुआ है। सो अब आप ही आदेश
दें - आपके स्वर में यह बाण चलाने का आदेश गूंजे, तभी वह अपने अचूक निशाने
का करतब दिख्लायेगा '
शहाबुद्दीन ने पृथ्वीराज के अचूक निशाने को परखने के लिए उसे धनुष्य बाण दिए। आयोजन किया गया। अब कवि मित्र चंद्रबरदाई ने अपना कवित्त बांचा ~ “ चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण, ता ऊपर सुल्तान है मत चुके चौहान”
अर्थात्
~ चार बांस, चैबीस गज व आठ अंगुल जितनी दूरी के ऊपर सुल्तान बैठा है ~
इसलिए चौहान तुम चूकना नहीं ! अपने लक्ष्य को हासिल करो। '
पृथ्वीराज चौहान ने इसी कवित्त के आधार पर निशाना साधकर तीर छोड़ा। जो
सीधे ऊँचाई पर बैठे गौरी के सीने में जा लगा। दरअसल, चंदबरदाई की कविता से
पृथ्वीराज को गौरी की दूरी का तो अंदाज़ा हो गया था, लेकिन वो किस दिशा में
यह पता लगाना अभी बाकी था। तब चंद्रवरदाई ने गौरी से कहा कि, 'पृथ्वीराज
आपके बंदी हैं, सो आप इन्हें आदेश दें ! तभी पृथ्वीराज आपकी आज्ञा प्राप्त
कर अपने शब्द भेदी बाण का प्रदर्शन करेंगे। ' इस पर ज्यों ही घोरी ने
पृथ्वीराज को प्रदर्शन की आज्ञा का आदेश दिया। प्रदर्शन के दौरान घोरी के " शाबास शुरू करो " लफ्ज के उद्घोष से पृथ्वीराज
को घोरी किस दिशा में बैठा है यह मालूम हो गया उन्होंने तुरन्त बिना एक
पल की भी देरी किये, अपने एक ही बाण से मुहम्मद घोरी के अपने एक बाण के
वार से प्राण हर लिए और उसे, मार गिराया !
शहाबुद्दीन
के प्राण गंवाकर गिरते ही उसका सचिव, तातार खां क्रोध में लपक कर आया। उसने
पृथ्वीराज के प्राण लेने चाहे। किन्तु तब तक चंद्रबरदाई लपक कर अपने मित्र
पृथ्वीराज के पास आ चुके थे।
दोनों ने अपनी अपनी छिपी हुई कृपाण निकाल लीं
तथा तुरंत एक दूसरे के ह्रदय में उन तीक्ष्ण कटार को खोंप दिया। कटार के
तेज प्रहार से दोनों ने एकसाथ, उसी क्षण, ' हर हर महादेव ' का जय घोष
करते हुए अपने अपने प्राण खोये ! दोनों एक साथ स्वर्ग सिधारे।
भारत
वर्ष के गरिमामय इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ में शूरवीरता की ज्वलंत कथा का
एक अध्याय जुड़ गया। लोकोक्ति है कि, " चंद्र से अलग पृथ्वी नहीं !
चंद्रबरदाई से विलग सखा पृथ्वीराज नहीं !"
" पृथ्वीराज रासौ " इसी कथा की
यशस्विनी कीर्तिगाथा है। वीर रस से सभर एक उच्च स्तर की शौर्य गाथा है। नव
रस से निर्मित " पृथ्वीराज रासौ " एक अपूर्व ग्रन्थ ही नहीं है अपितु एक
महाकाव्य है। इस में प्रयुक्त छंदों को चंद्रबरदाई ने अपने रक्त समर्पण
द्वारा अमृतदान दिया है। श्रृंगार, वीर रस से निर्मित,करूण रस से भींजा
हुआ, बीभत्स रस समेटे, भय, अद्भुत एवं शाँत ऱस को काव्य में सिंचित किये '
पृथ्वीराज रासौ ' भारतीय काव्य परम्परा का अद्भुत साहित्यिक आभूषण है। " रासउ असंभु नवरस सरस् छंदु चहुँ किअ अमिअ सम।
श्रृंगार, वीर, करुणा, विभछ , भय , अद्भुतह संत सम। "
पृथ्वीराज संयोगिता की पुत्री ' बेला' के लिए यह प्रसिद्ध है कि, वह कुतुबमीनार पर चढ़ कर, प्रातः गँगा मैया के दर्शन करने के पश्चात अन्न ग्रहण किया करती थी।
आज
के आधुनिक समय में जिसे देहली नगर का ' लाल किल्ला ' कहते हैं उसे
पृथ्वीराज के शासन काल में, ' लालकोट ' के नाम से पुकरा जाता था। उसी किले
में, महारानी सँयोगिता तथा उनकी ननद जी पृथ्वीराज की बहन ' पृथा ' को
पृथ्वीराज के प्राण त्याग का अशुभ सन्देश मिला तो दुर्ग में, मृत्यु सा
भयंकर सन्नाटा छा गया। पृथ्वीराज के दुश्मन आततायी आक्रमण करेंगें यह
निश्चित था। अनेकों प्राणों की विनाश लीला, स्त्रियों के शील भंग की
संभावना भी थी। अतः वीरांगना राजपूत रमणियों ने, जौहर कर, अपने अपने
पवित्र शरीरों को,पवित्र अग्नि - स्नान द्वारा अग्नि देव की कोख में समर्पण करने का प्रण लिया।
चिताएँ शरीर पर्यन्त धू धू कर जलतीं रहीं , शेष रहीं भारतीय इतिहास के
ज्वलंत अमर युगल दंपत्ति की वीर गाथा !
शत शत प्रणाम ! " सँयोगिता - पृथ्वीराज की वीर गाथा ! प्रणाम ! चंद्रबरदाई के महानायक - महानायिका अमर रहें !
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- लावण्या ~ : आगामी पुस्तक : अमर युगल पात्र :