नित प्रियम भारत भारतम् -
नित प्रियम भारत भारतम्
मुझे, भारत बडा ही प्रिय है इस तथ्य का कारण बडा सीधा है, चूँकि, भारत , भारत है, और मैँ -मैँ हूँ !
भारत वह भूमि है, जहाँ पर मैँने जन्म लिया। वहीँ पर मैँ पल कर बडी हुई।
मेरी आत्मा, मेरा शरीर, मेरा लहू, मेरी हड्डियोँ का ये ढाँचा और मेरा मन, भारत के आकाश तले ही पनपे। भारत, मेरे पूर्वजोँ की पुण्यभूमि है। भारत मेँ मेरे पित्री जन्मे और चल बसे ! भारत ही वह भूमि है, जहाँ मेरे पिता व माता जन्मे और पल कर बडे हुए।
श्री राम ने जब स्वर्णसे दमकती हुई लँकानगरी देखी थी तब उन्हेँ अपनी जन्मभूमि
" अयोध्या" याद आई थी तब अपने अनुज लक्ष्मण से कहा था,
मेरी आत्मा, मेरा शरीर, मेरा लहू, मेरी हड्डियोँ का ये ढाँचा और मेरा मन, भारत के आकाश तले ही पनपे। भारत, मेरे पूर्वजोँ की पुण्यभूमि है। भारत मेँ मेरे पित्री जन्मे और चल बसे ! भारत ही वह भूमि है, जहाँ मेरे पिता व माता जन्मे और पल कर बडे हुए।
श्री राम ने जब स्वर्णसे दमकती हुई लँकानगरी देखी थी तब उन्हेँ अपनी जन्मभूमि
" अयोध्या" याद आई थी तब अपने अनुज लक्ष्मण से कहा था,
" हे लक्ष्मण ! न मे रोचते स्वर्णमयी लँका !
जननी ! जन्मभूमिस्च, स्वर्गादपि गरीयसी !"
भारत ने मुझे यादोँ के भरपूर खजाने दिये हैँ ! मुझे याद आती है उसकी शस्य श्यामला भूमि ! जहाँ घने, लहलहातेवृक्ष, जैसे, विशाल वटवृक्ष, चमकीला कदली वृक्ष,
आमोँ के मधुर भार से दबा, आम्रवृक्ष, आकाशको प्रणाम करता देवदारु, शर्मीला नीम, अमलतास, कनेर, नारिकेल, पलाश तथा और भी न जाने कितने ! ऐसे अनेकानेक वृक्ष प्रत्येक भारतीय को स्नेह छाया दे प्यार से सरसराते, झूमते रहते हैँ !
आमोँ के मधुर भार से दबा, आम्रवृक्ष, आकाशको प्रणाम करता देवदारु, शर्मीला नीम, अमलतास, कनेर, नारिकेल, पलाश तथा और भी न जाने कितने ! ऐसे अनेकानेक वृक्ष प्रत्येक भारतीय को स्नेह छाया दे प्यार से सरसराते, झूमते रहते हैँ !
कभी याद आती है, भारतवर्ष के मनोरम फूलोँ की ! वे सुँदर फूल, जैसे, कदम्ब, पारिजात, कमल, गुलाब, जूही, जाई, चमेली, चम्पा, बकुल और भीनी भीनी, रात की रानी ! और भी कितनी तरह के फूल अपने चित्ताकर्षक छटासे, अपनी भोली मुस्कान से, व मदमस्त सुगँध से हर भारतीय की आत्मा को तृप्त करते रहे हैँ !
मुझे याद हैँ वे रस भरे, मीठे फल जो अपने स्वाद व सुगँध मेँ सर्वथा
बेजोड हैँ ! सीताफल, चीकू, अनार, सेब, आम, अनानास, सँतरा, अँगूर, अमरुद,पपीता, खर्बूजा,जामुन,बेल,नासपाती और भी कई जो मुँहमेँ रखते ही,
मनको तृप्ति और जठराग्नि को शाँत कर देते हैँ।
मनको तृप्ति और जठराग्नि को शाँत कर देते हैँ।
मुझे याद आती है वह भारतीय रसोईघरों से उठती मसालोँ की पोषक सुगँध ! कहीँ माँ, या कहीँ भाभ, तो कहीँ बहन या प्रेयसी के आटे सने हाथोँ पर खनकती वह चूडियोँ की आवाज! साथ, हवा मेँ तैरती, भारतीय घरों की पाकशाला में जीरे, कालिमीर्च, लौँग, दालचीनी, इलायची, लाल व हरी मिर्च, अदरख, हीँग, धनिये, सौँफ, जायफल, जावन्त्री वगैरह से उठती उम्दा गँध! तरकारी व दाल के साथ, फैलकर, स्वागत करती, आरोग्यप्रद, वे सुगँधेँ जिसे हर भारतीय बालक ने जन्म के तुरँत बाद, पहचानना शुरु किया था !
भारत की याद आती है तब और क्या क्या याद आता है बतलाऊँ ?
हाँ, काश्मीर की फलो और फूलोँसे लदी वादियाँ और झेलम नदी का शाँत बहता जल जिसे शिकारे पर सवार नाविक अपने चप्पू से काटता हुआ, सपनोँ पे तैरता सा गुजर जाता है ! कभी यादोँ मेँ पीली सरसोँ से सजे पँजाब के खेत हवा मेँ उछलकर
मौजोँ की तरँगोँ से हिल हिल जाते हैँ।
उत्तराखँड के पहाडी मँदिरोँ मेँ, कोई सुहागिन प्राचीन मँत्रोँ के उच्चार के साथ शाम का दीया जलाती दीख जाती है। तो गँगा आरती के समय, साँध्य गगन की नीलिमा दीप्तीमान होकर, बाबा विश्वनाथ के मँदिर मेँ बजते घँटनाद के साथ होड लेने लगती है। - मानोँ कह रही है," हे नीलकँठ महादेव! आपकी ग्रीवा की नीलवर्णी छाया,
आकाश तक व्याप्त है!"
कभी राजस्थान व कच्छ के सूनसान रेगिस्तान लू के थपेडोँ से गर्मा जाते हैँ और गुलाबी, केसरिया साफा बाँधे नरवीर, ओढणी ओढे, लाजवँती ललना के संग,
गर्म रेत पर उघाडे पग, मस्ती से चल देता है !
गर्म रेत पर उघाडे पग, मस्ती से चल देता है !
कभी गोदावरी, कृश्णा, कावेरी मेँ स्नान करते ब्राह्मण, सरयू, नर्मदा या गँगा- यमुना मेँ गायत्री वँदना के पाठ सुनाई दे जाते हैँ।
कालिँदी तट पर कान्हा की वेणु का नाद आज भी सुनाई पडता है। यमुना के लहराते जल के साथ, भक्तों की न जाने कितनी ही अनगिनत प्रार्थनाएँ घुलमिल जातीँ हैँ।
आसाम, मेघालय, मणिपुर, अरुणाँचल की दुर्गम पहाडीयोँ से लोक -नृत्योँ की लय ताल, सुनाई पड़ती है और वन्य जँतुओँ व वनस्पतियोँ के साथ ब्रह्मपुत्र के यशस्वी घोष से ताल मिलातीं हुईं घरी भरी घाटियों को गुँजायमान करती हैँ !
सागर सँगम पर बँगाल की खाडी का खारा पानी, गँगामेँ मिलकर, मीठा हो जाता है।
दक्षिण भारत के दोनोँ किनारोँ पर नारिकेल के पेड, लहराते, हरे भरे खेतोँ को झाँककर हँसते हुए प्रतीत होते हैँ।
भारत का मध्यदेश, उसका पठार, ह्र्दय की भाँति पल पल, धडकता है.
भारत के आकाश का वह भूरा रँग, संध्या को जामुनी हो उठता है, गुलाबी, लाल, फिर स्वर्ण मिश्रित केसर का रँग लिये, उषाकाश सँध्या के रँगोँ मेँ फिर नीलाभ हो उठता है। हर रात्रि, काली, मखमली चादर ओढ लेती है जिसके सीने मेँ असँख्य चमकते सितारे मुस्कुरा उठते हैँ और रात गहरा जाती है !
कौन है वह चितेरा, जो मेरे प्यारे भारत को इतने, विविध रँगोँ मेँ भीगोता रहता है ?
कौन है वह चितेरा, जो मेरे प्यारे भारत को इतने, विविध रँगोँ मेँ भीगोता रहता है ?
२१ वीँ सदी के प्रथम चरण के द्वार पर खडा भारत, आज विश्व का सिरमौर देश बनने की राह पर अग्रसर है। उसके पैरोँ मेँ आशा की नई पदचाप सुनाई दे रही है। भारत के उज्ज्वल भविष्य के सपने, प्रत्येक भारतीय की आँखोँ मेँ कैद हैँ ! आशा की नव किरण हर भारतीय बालक की मुस्कान मेँ छिपी हुई है।
भारत की हर समस्या, हर मुश्किल मेरा दिल दहला जातीँ हैँ।
भारत से दूर रहकर भी मुझे उसकी माटी का चाव है ! मेरा मन लोहा है और भारत, सदा से लौहचुम्बक ही रहा !
भारत की रमणीयता, एक स्वछ प्रकाश है और मेरा मन, एक बैचेन पतँगा है ! भारत ही मेरी यात्रा का, अँतिम पडाव है। भारत भूमि के प्रति मेरी लालसा , मेरी हर आती जाती, साँसोँ से और ज्यादा भडक उठती है। इसी पावन देवभूमि पर, भारत भूमि पर ही, मेरा ईश्वर से साक्षात्कार हुआ। ईश्वर प्रदत्त, इन्द्रीयोँ से ही मैँने, "पँचमहाभूत" का परिचय पाया और अँत मेँ यह स्थूल शरीर सूक्ष्म मेँ विलीन हो जायेगा ! लय की गति, ताल मेँ मिल जायेगी रह जायेँगेँ बस सप्त स्वर!
भारतभूमि मेरी, माता है और मैँ एक बालक हूँ जो बिछूड गया है।
भारत, हरे बाँस की बाँसुरी है और मेरे श्वास, उसमेँ समा कर, स्वर बनना चाहते हैँ !
मेरी आत्मा का निर्वाण, भारता ही तो है !
मेरी आत्मा का निर्वाण, भारता ही तो है !
प्रेम व आदर से भरे मेरे यह शब्द, उसका बखान, उसकी प्रशस्ती, मेरे तुच्छ विचार ये सभी मिलकर भी अपने मेँ असमर्थ हैँ जो मैँ, बात सिर्फ इतनी ही कहना चाहती हूँ कि, मुझे, भारत क्योँ प्रिय है ?
कितना गर्व है, मुझे, भारत के महान व्यक्तियोँ पर ! अनँत दीपशिखा की तरह उनकी लौ, अबाध व अटूट है ! श्री राम, श्री कृष्ण, बुध्ध, महावीर, कबीर, मीराँ, नानक, तुलसीदास, चैतन्य,रामकृष्ण, विवेकानँद, और अन्य कईयोँ की ज्योति,
भारत माता की महाज्वाला को, आज भी प्रकाशित किये हुए है।
भारत के बहादुर, सूरमा , शूरवीर पुत्रोँ की यशो गाथाओँ से आज भी सीना गर्वसे तन जाता है ! चँद्रगुप्त मौर्य, समुद्रगुप्त, चाणक्य, हर्षवर्धन, पृथ्वीराज, प्रताप, शिवाजी, लक्ष्मीबाई, सुभाषचँद्र बोज़, भगत सिँह की देशभक्ति आज भी गद्`गद्` किये देती है। भविष्य में कई " महाप्राण "भारत क मँच पर, प्रकट होने के लिये तैयार खडे हैँ! भारत, तपस्वीयोँ, शूरवीरोँ, योगियोँ की पुण्यशीला भूमि थी,
है, और रहेगी। - अमर आत्माएँ शृँखला मेँ बँधी हैँ और भविष्य भी बँधा है भारत के गौरव के संग एक अटूट डोर से !
भारत के ऋषि मुनियोँ ने, "ॐ" शब्द की " महाध्वनि" प्रथम बार अनुभव सिध्ध की थी। महाशिव ने, "प्रणव मँत्र " की दीक्षा दे कर, ऋक्`- साम्` - यजुर व अथर्व वेदोँ को, वसुँधरा पे अवतीर्ण किया था।
ब्रह्माँड, ईश्वर का सृजन है। इस विशाल ब्रह्माँड मेँ, अनेकोँ नक्षत्र, सौर मँडल, आकाश गँगाएँ, निहारीकाएँ, व ग्रह मॅँडल हैँ। इन अगणित तारकोँ के मध्य मेँ पृथ्वी पर, भारत ही तो मेरा उद्`भव स्थान है !
इस समय के पट पर " समय" आदि व अँतहीन है। इस विशाल उथलपुथल के बीच, जो कि, एक महासागर है जिसका न ओर है न छोर, मैँ एक नन्ही बूँद हूँ जिस बूँद को भारत के किनारे की प्यास है, उसी की तलाश है।
मुझे, भारत हमेशा से प्रिय है और रहेगा ! समय के अँतिम छोर तक! भारत मुझे प्रिय रहेगा ! मेरी अँतिम श्वास तक, भारत मुझे प्रिय रहेगा, नित्` प्रिय रहेगा !
" नित प्रियम भारत भारतम ...
स्वागतम्, शुभ स्वागतम्, आनँद मँगल मँगलम्`,
नित प्रियम भारत भारतम , नित प्रियम्, भारत्, भारतम "
( यह गीत एशियाड खेल के समय, भारत गणराज्य की राजधानी दिल्ली मेँ बजाया गया था। शब्द : मेरे स्वर्गीय पिता पँडित नरेन्द्र शर्माजी के
जिन्हें स्वर बध्ध किया था पँडित रविशँकर जी ने !
इसी गीत के अँग्रेजी अनुवाद को पढा था श्री अमिताभ बच्चन जी ने )
जिन्हें स्वर बध्ध किया था पँडित रविशँकर जी ने !
इसी गीत के अँग्रेजी अनुवाद को पढा था श्री अमिताभ बच्चन जी ने )
lavanya