शीर्षक :
उसे रेस का घोड़ा बनाना क्या उचित है?
क्या
सिने-संगीत प्रभावशाली नहीं, लोकप्रिय नहीं? क्या सिने-संगीत मनोरंजन नहीं
करता? क्या सिने-संगीत स्तर का नहीं होता? क्या सेंसरबोर्ड की तीक्ष्ण
दृष्टि के आगे से वह नहीं गुज़रता? फिर क्या कारण है कि सेंसर हुए सिने गीत
भी कई बार रेडियो से प्रसारित नहीं होते ? 'विविध भारती' के प्रधान
नियोजक और कवि नरेंद्र शर्मा से ही अपने इन प्रश्नों के उत्तर सुनिए,
विशेष रूप से लिखे लेख में...
रजत-पट
हो या रेडियो पर मनोरंजन के साधनों में सिने-संगीत का स्थान बहुत महत्त्व
का है। सिने-संगीत निस्संदेह लोकप्रिय है। सिने-संगीत में विविधता है।
कार्यकौशल ऊँचे दर्जे का होता है और प्रतिभा तथा परिश्रम का मणि
प्रबाल-संयोग भी दर्शनीय होता है। रजत-पट पर मधुर धुन को सुंदर अक्षर चार
चाँद लगा देते हैं। गायक-गायिका, संगीतकार-गीतकार, वाद्य-यंत्रों के
हुनरमंद कलावंत और यंत्रों से ध्वन्यांकन करने वाले अञ्जयस्त इंजीनियर और
फिर भरपूर आर्थिक साधन सिने-संगीत सचमुच बहुमूल्य बना देते हैं।
सिने-संगीत
हर तरह की रुचि को संतोष देने की क्षमता रखता है। इसकी एक विशेषता यह भी
है कि उत्तर और दक्षिण भारत में एक-सी ही इसकी शैली है। इसकी रचना में
सामूहिक प्रयास और प्रयोग होता है, यानि टीमवर्क। इस प्रकार सिने-संगीत
मध्ययुगीन की अपेक्षा आधुनिक है। अपने देश में ही नहीं, भारतीय संगीत एशिया
और अफ़्रीक़ा के अन्य देशों में भी लोकप्रिय है। रजत-पट की यह ध्वन्यात्मक
उपलद्धि रेडियो पर भी समान रूप से लोकप्रिय है और रेडियो पर लाखों
श्रोताओं के मनोरंजन का साधन है।
अपने ही घर पराये ~
औसत
दर्जे का सिने-संगीत ख़ासा अच्छा होता है। अखरता सिर्फ़ वह है कि ऊँचे
दर्जे की उपज इसमें अपेक्षाकृत कम और अनुकरण की प्रवृत्ति अंधाधुंध बहुत
अधिक होती है। इसलिए शिखर को छू सकने वाली रचनाएँ इनी-गिनी और औसत से नीचे
दर्जे की या घटिया रचनाएँ बहुत अधिक होती है। स्थिति और भी विषम इसलिए हो
जाती है कि सिने-गीतों की पैदावार, फिल्मों की संख्या के अनुपात में,
ज़रूरत से ज़्यादा होती है।
इतनी
अधिक संख्या में सिने-गीतों की रचना करता हँसी-खेल नहीं है। परंपरागत सुगम
शास्त्रीय संगीत, लोक संगीत, रंगमंच-संगीत, रवींद्र संगीत, इत्यादि
नयी-पुरानी शैलियों का तो आधार लिया ही जाता है, अरबी और पाश्चात्य सुगम
संगीत से भी प्रेरणा ग्रहण की जाती है। कभी-कभी तो ऐसा भी देखने में आता है
कि एक ही आधार पर दो-चार संगीतकार कई एक संगीत-रचनाएँ तैयार कर डालते हैं।
नयी रचनाओं के लिए कभी-कभी अपनी निजी सूझ से भी काम लिया जाता है, पर
विदेशी धुनों का अनुकरण बढ़ता ही जाता है।
संगीत
में स्वदेशी और विदेशी का विचार नैतिक और अनैतिक के आधार पर न भी करें, तो
भी इतना तो सोचना ही होगा कि भारतीय श्रोता के रुचि-संस्कार के हिसाब से
कैसा संगीत, कितना अनुकूल पड़ता है। अपने देश के दृश्यों और ध्वनि-वैभव से
कतराकर क्या हम अपने ही घर में पराये नहीं बन रहे हैं? क्या हम अपने ही
दर्शक-श्रोता समाज को अपने ही देश से अपरिचित नहीं बना रहे हैं? अपनी भूमि
के दृश्यों से आँख चुराना और अपने देश की ध्वनियों को अनसुना करना क्या
उचित है? क्या यह अतिपरिचय की प्रतिक्रिया है जो हम अब अवज्ञा और अपरिचय की
दिशा में अविवेक के साथ आगे बढ़े चले जा रहे हैं।गाँव-देहात को तो हम बिसरा ही चुके हैं, छोटे क़स्बे और प्रादेशिक नगरों पर भी अब हमारे आँख-कान नहीं लगते। बड़े शहर ही दिखाई देते हैं और वे भी ऐसे रूप कि पेरिस, न्यू यार्क और लंदन के उपनगर प्रतीत हों। सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा आज हमारे मन की बात नहीं कहता। आज हिंदुस्तान से बाक़ी जहान अच्छा है, या यों कहिये की वह साम्राज्यवादी संपन्न देश, जो एशिया और अफ़्रीक़ा को दास बनाये हुए थे, वही हमें आकर्षित करते हैं। पहले हम उनके राजनीतिक दास थे, अब हम उनके सांस्कृतिक दास हैं। विदेशी के प्रति मोह इसी तरह से बढ़ता रहा तो अजब नहीं कि हम अपनों के लिए अजनबी बन जाएँ।
संगीत की ध्वनियाँ नाभि से निकलती हैं और प्राणों में समा जाती है। संगीत का असर बहुत ही गहरा होता है। इसलिए आवश्यक है इस संगीत के विषय में खिलवाड़ की अपेक्षा विवेक और विचार से काम लिया जाये। क्यों न हम सिनेमा और रेडियो के प्रभाव-क्षेत्र, लक्ष्य, उद्देश्य और दर्शक और श्रोता की आवश्यकताओं पर विचार करें? सिनेमा देखने वालों और रेडियो सुनने वालों की परिस्थिति और मन:स्थिति में बहुत अंतर होता है। आँख और कान में चार अंगुल का अंतर तो होता ही है।
घर और बाज़ार ~
सिनेमा देखने वाले अपने पूर्व-निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार घर से बाहर निकलकर किसी सिनेमाघर में जाते हैं। मनोरंजन का यह साधन नि:शुल्क नहीं होता। सिनेमाघर में पहले पैसे रखवा लिये जाते हैं। सिनेमाघर के भीतर हम सपरिवार बैठे हुए भी, अपरिचितों की संगत में बैठते हैं। वहाँ आत्मीय और परिचित कम और अजनबी अधिक होते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि वैयक्तिक और पारिवारिक रुचि-संस्कार गौण हो जाते हैं और लज्जा और लिहाज़ के बिना तमाशा देखने की प्रवृत्ति मुख्य हो जाती है। अपरिचितों के बीच, अँधेरे में तमाशा देखने से इस प्रवृत्ति को बल मिलता है। गाँव की अपेक्षा हम शहर में अधिक स्वच्छंद होते हैं, क्योंकि शहर में भी आत्मीय कम और अजनबी ज़्यादा होते हैं। यही बात मेले-ठेले के विषय में भी कही जा सकती है।
सिनेमाघर में हम स्वेच्छा से नज़रबंद रहते हैं। ऐसे दर्शक प्रेक्षक समाज को पाश्चात्य समाजशास्त्री 'कैप्टिव ऑडियेंस' कहते हैं। परायी जगह में पराधीन होकर बैठने वालों का व्यक्तिगत और पारिवारिक दायित्व भाव बहुत कम हो जाता है और सामूहिक निर्वैयक्तिक भाव जादू की तरह सिर पर चढ़कर बोलने लगता है। ऐसी परिस्थिति में बहुत कुछ चल जाता है। मन:स्थिति तमाशबीन की हो जाती है, विवेकी व्यक्ति या गृहस्थ की नहीं।
रेडियो सुनने वालों का समाज इस प्रकार एक साथ नहीं बैठता। वह पारिवारिक एकांशों में बँटा हुआ, अलग-अलग स्थानों में बंट-छंट कर, घरों के भीतर बैठता है। यह घरेलू श्रोता-समाज है। पूरा परिवार या परिवार के कुछेक सदस्य रेडियो-कार्यक्रम सुनते हैं। जो अन्य किसी काम में लगते है, वे भी अपने कानों में रुई नहीं डाल लेते। बड़े छोटों के प्रति उत्तरदायी हैं और छोटों को बड़ों का लिहाज़ है। बहन-भाई, बाप-बेटी, माँ-बेटों, सास-बहू न जाने कितने आत्मीय संबन्धों के तार श्रोता-समाज के हर एकांश के ताने-बाने में सदैव विद्यमान रहते हैं।
यह वह परिस्थिति नहीं है, जो अजनबी-दर्शकों के समूह में बैठे हुए व्यक्ति या छोटे से परिवार की होती है। इसलिए स्वाभाविक है कि रजत-पट के दर्शक से रेडियो के श्रोता की मन: स्थिति भिन्न हो। उत्तान-शृंगार, ज़रूरत से ज़्यादा बेतकल्लुफ़ी की बातें और ज़ूमानी पंक्तियाँ श्रोता-परिवार को अधिक असहनीय हो सकती है। बहुत कुछ है, जो बाहर चलता है, लेकिन घर में नहीं।
सिनेमाघर
नगरों और बड़े-बड़े क़स्बों तक ही सीमित हैं, पर इसके विपरीत, दूर-दूर
विस्तृत जनपदों के ग्रामों और गिरिवन-प्रांतरों और अन्य प्रादेशिक अंचलों
में, रेडियो सुनने वाले यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरे पड़े हैं। उन सुनने वालों
की आवश्यकताएँ और रुचि-संस्कार शहर के शौक़ीन दर्शकों की तुलना में बहुत
भिन्न हैं। भारत में घर और बाहर, ग्राम और नगर, आत्मीय और अजनबी और छोटे और
बड़े की दुनिया में बहुत अंतर है। रेडियो सुनने वालों के लिए 'ए' और 'यू'
की कोटि में बँटे हुए कार्यक्रम सुन सकने की सुविधा भी नहीं है। घर और
बाजार के विचार-व्यवहार और नियम-क़ायदे अलग-अलग हैं।
सिने-संगीत
में बोल का महत्त्व शास्त्रीय-संगीत की अपेक्षा बहुत अधिक होता है। बोलों
के कहने का ढंग भी कम महत्त्व नहीं रखता। एक ही बात को कई एक तरह से कहा जा
सकता है, सहज स्वाभाविक ढंग की शालीनता से भी और हेकड़ी और शोहदेपन से भी।
कहानी के मोड़ और चरित्र-चित्रण के जोड़-तोड़ गीतों की शैली को प्रभावित
करते हैं। गीतों का रंग रजत-पट की आवश्यकताओं के अनुसार बदलता रहता है।
बोल, धुन और वाद्य-यंत्र तथा उनका प्रयोग कहानी में बदलती हुई परिस्थिति के
अनुसार बदलता रहता है।
रेडियो पर सिने-संगीत सुनने वालों के लिए कहानी, चरित्र-चित्रण और परिस्थितिगत वातावरण की उपस्थिति नहीं है। उसके लिए तो गीत केवल एक गीत है। किसी चरित्रहीन पात्र का गीत कहानी में शायद इसलिए रखा गया है कि अंतत: उस पात्र को कुपात्र सिद्ध होना है। किंतु कहानी के सदंर्भ के बिना रेडियो सुनने-वाला उसे कैसे ग्रहण करेगा? पागल, शराबी, हत्यारा कहानी में अपने चरित्र-चित्रण के अनुसार गा सकता है, लेकिन उसके गाये हुए गीत का कहानी के संदर्भ के बिना क्या अर्थ है? किसी वर्ग विशेष का कोई व्यक्ति किसी घृणित पात्र की भूमिका में है और उसके विरोध में शिकायती गीत गाया जाता है, जिसकी लपेट में पूरा वर्ग आ जाता है। रेडियो सुनने वाले का उससे क्या प्रयोजन है? प्रादेशिक उच्चारण या गायन पद्धति का विद्रूपगत प्रयोग रेडियो पर वर्जित होना ही चाहिए, क्योंकि ऐसी चीज़ों से रेडियो सुनने वाले को ठेस भी पहुँच सकती है और उनके मन में पारस्परिक विद्रूप की भावना भी भड़क सकती है।
संगीत की ध्वनियाँ और लयकारियाँ मन को शांत भी कर सकती हैं और अशांत भी। अफ़्रीक़ा के वनवासियों के वासना-विह्वल और कामोद्दीपित उन्मत्त संगीत का प्रभाव पाश्चात्य संगीत पर पड़ा और उससे मन को भड़काकर, तन के चिथड़े-चिथड़े कर देने वाले संगीत की सृष्टि हुई। सुना है कि उसे सुनकर युवतियाँ बेहोश होने लगीं और युवक कपड़े फाडऩे लगे। उस संगीत की लहरें, पागल हाथी की सांढ़ों की तरह भारतीय सिने-संगीत से भी आ टकरायीं। ऐसे कामोन्मादक संगीत को किस हद तक प्रोत्साहित किया जाये, संगीतकार के लिए यह विचारणीय होना चाहिए।
युग-संधि और वय-संधि की बेला में एक विचित्र प्रकार का मानस-मंथन होता है। जैसे समुद्र-मंथन से अमृत, विष और सुरा की उत्पत्ति होती है, वैसे ही मानस-मंथन से भी कल्याणकारी और अकल्याणकारी भावों की निष्पत्ति होती है। आज कालकूट को पीने वाले शिव दिखायी नहीं देते; कालकूट को बेचने वाले और बाँटने वाले बहुत हैं।
इंद्र के घोड़े की नियति?
कैबरे और नाइट-क्लब देश में बहुत नहीं हैं, लेकिन सिनेमा में इनकी संख्या बढ़ती ही जा रही है। इनके वातावरण में जो संगीत प्रस्तुत किया जाता है, उसे कहानी में तो शायद दूसरे प्रकार के संगीत के द्वारा संतुलित भी कर दिया जाता है, लेकिन रेडियो-कार्यक्रम में ऐसी संभावना नहीं होती, क्योंकि वहाँ कहानी का संदर्भ नहीं है। एक गीत सिर्फ़ एक गीत है।
रेडियो सुनने वाला अपने घर में बैठा हुआ सुनता है। वह शायद ही पसंद करे कि उसका घर सिनेमाघर, अजायबघर, कैबरे या नाइट-क्लब बन जाये।
भारतीय जीवन का ढर्रा इतना बदल गया है कि ढिक-त्योहार, विवाहोत्सव की धूम-धाम, तीर्थयात्रा, मेला-दसहरा, देव-मंदिर, देवलीलाएँ, शाम की सैर, बाग़बहार, लावणी-कजली, ख़याल के दंगल, महफ़िल, मुजरा इत्यादि जीवन के रंगारंग पहलू अब रजतपट पर ही शेष हैं। रजतपट से बहुत कुछ आशा की जाती है। भारतीय जीवन के इन और अन्यान्य पहलुओं की ओर से आँख चुराकर भारतीय सिनेमा घटिया पाश्चात्य सिनेमा का अंधानुकरण करे, तो परिणाम भला नहीं हो सकता। सिने-संगीत की सृष्टि में रचनाकारों को इस विषय में सोच-विचार अवश्य करना चाहिए।
सोच-विचार को बिसारकर सिने-संगीतकार प्रचार और पैसे के लिए और उनके बल पर व्यावसायिक होड़ में फँसते जा रहे हैं, पर धंधे की धांधली भारतीय सिने-संगीत को कहाँ ले जायेगी? उनके पास एक अत्यंत शक्तिशाली और लोकप्रिय माध्यम है। सिने-संगीत इंद्र का घोड़ा है, उसे रेस का घोड़ा बनाना क्या उचित है?
कहा जाता है कि यह धंधा है। यह पारस्परिक प्रतिद्वंद्विता या होड़ाहोड़ी की व्यावसायिक दुनिया है। यह करोड़ों को प्रभावित करने वाला, लाखों का खेल है। हो सकता है कि यह ठीक हो, लेकिन रेडियो के माध्यम को धंधे-व्यवसाय की घुड़दौड़ में घसीटना कहाँ तक ठीक होगा, विचारशील व्यक्ति इस पर विचार करें।
सिने-संगीतकार-सम्मेलन के प्रधान श्री सी. रामचंद्र ने कल्याणजी-आनंदजी अभिनंदन-समारोह में ठीक ही कहा था कि सिने-संगीत के क्षेत्र में धंधेबाज़ी की धांधली अच्छे-बुरे संगीत के विषय में खोटे सिक्के उछलते हैं और टकसाली खरे सिक्के दब जाते हैं।
रजतपट व्यावसायिक है, किंतु भारत में रेडियो लोक-सेवा का नि:शुल्क माध्यम है। दोनों की रीति-नीति और मानदण्ड अलग-अलग हैं। सिने-गीतों के बल पर चल-चित्र चलते हैं और रेडियो-प्रसारण से सिने-गीत चलते हैं। लेकिन क्या किसी व्यक्ति या वर्ग के लाभ के लिए नि:शुल्क रेडियो-प्रसारण का उपयोग होना चाहिए? रेडियो इस व्यापारिक और व्यावसायिक होड़ में पड़ेगा, तो पैसे और प्रचार को प्रबल शक्तियाँ जीतेंगी और अच्छे सिने-संगीत की हार होगी। मेरे गीत चलाओ, इतना लो और मेरे प्रतिद्वंद्वी के गीत न चलाओ, इतना लो। इस ले-दे में रेडियो पड़ेगा, तो और किसी का हित हो न हो, श्रोता का हित तो नहीं ही होगा।
कहा जाता है कि भारतीय सेंसरबोर्ड ने रजतपट पर सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए जो कुछ निरापद माना है, उसे रेडियो-प्रसारण के लिए भी ठीक मानना चाहिए। कहने वाले यह भूल जाते हैं कि सार्वजनिक प्रदर्शन और सार्वजनिक प्रसारण दो अलग चीज़ें हैं। प्रदर्शन का लक्ष्य दर्शक है और प्रसारण का लक्ष्य श्रोता है। दोनों की परिस्थिति और मन:स्थिति का भेद स्पष्ट किया जा चुका है। इसके साथ ही यह भी न भूलना चाहिए कि प्रदर्शन व्यावसायिक धंधा है और वर्ग नि:शुल्क नहीं है। रेडियो का प्रसारण लोक-सेवा का अंग है और हमारे देश में यह नि:शुल्क सेवा है, जिसका प्रेरणा-वाक्य या 'मोटो' 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' है। थोड़े से लोगों के मुनाफ़े और हित-सुख के लिए रेडियो माध्यम का उपयोग अब तक तो उचित नहीं ही माना गया है।
भारतीय सेंसरबोर्ड पटकथा को संपूर्णता से, सम्यक दृष्टि से, देखता है। भले-बुरे तत्त्वों का नाटक में एक संतुलन रहता है। संदर्भ से हटा दीजिए, तो बुरा ही रहेगा। रेडियो-प्रसारण गीत को कहानी के संदर्भ के बिना एक गीत की तरह से ही प्रसारित कर सकता है। रेडियो को बिना पासंग की तोल से बचना ही पड़ेगा। ऐसी परिस्थिति में यह प्रस्ताव किया जा सकता है कि जैसे रजतपट पर सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए अच्छे बुरे का विवेक करने वाला एक सेंसर बोर्ड है, वैसा ही एक सेंसरबोर्ड सार्वजनिक उपयोग की श्रवण सामग्री के लिए भी नियुक्त किया जाये। रजतपट और रेडियो दो अलग-अलग माध्यम हैं।
शृंगार और शृंगार का भेद ~
रेडियो से बहुत तरह के कार्यक्रम प्रस्तुत किये जाते हैं। मोटे तौर पर कहें तो रेडियो का कार्यक्रम पंचसूत्री होता है। इसमें राष्ट्रीय महत्त्व के मौलिक और मूल्यगत कार्यक्रम होते हैं, जिनमें साहित्य, संगीत, चिंतन की आधारभूत उपलब्धियाँ प्रस्तुत की जाती हैं। सूचना और समाचार देने वाले कार्यक्रम होते हैं। क्षेत्रीय महत्त्व के व्यक्तित्व और कृतित्व को सामने रखने-वाले कार्यक्रम होते हैं, जिनमें क्षेत्र की भाषा, संस्कृति और भूमि को महत्त्व दिया जाता है। विशेष श्रोता-वर्गों के लिए कार्यक्रम होते हैं, जैसे स्त्रियों और बच्चों के लिए या मज़दूरों और श्रमिकों के लिए या स्कूल और कॉलेज के छात्रों के लिए। सार्वजनिक मनोरंजन के विविधतापूर्ण कार्यक्रम पाँचवाँ सूत्र प्रस्तुत करते हैं। मनोरंजन का यह कार्यक्रम सिने-संगीत को अधिक प्रस्तुत करता है और सामग्री के उपयोग के लिए मालिक या निर्माता को पूर्वनिश्चित शुल्क देता है, लेता कुछ नहीं है कि उससे धंधे के प्रचार-प्रसार की अपेक्षा की जाये।
रेडियो-प्रसारण के लिए गीतों का चुनाव और सेंसर का फ़ैसला दो अलग बातें हैं। रेडियो चुनाव या चयन करता है, सेंसर या बैन नहीं करता। रेडियो के कार्यक्रम पत्र-पत्रिकाओं के विभिन्न स्तंभों के समान होते हैं, जिनके लिए उपयुक्त और आवश्यक सामग्री का चयन-संकलन संपादक की सूझ-बूझ रुचि-अरुचि और पत्र या पत्रिका की रीति-नीति पर निर्भर रहता है। रेडियो के कार्यक्रम-नियोजक और पत्र-संपादक की स्थिति बहुत-कुछ मिलती-जुलती है। संपादक अपने संस्थान के उद्देश्य और पाठक के हित-सुख के प्रति जागरूक रहता है। इसी प्रकार की मर्यादाएँ और सीमाएँ रेडियो के कार्यक्रम-नियोजक के लिए मान्य होनी चाहिए। संपादक की दृष्टि में जो पाठक का स्थान है, नियोजक के लिए वही स्थान श्रोता का है। मुद्रित सामग्री के लिए संपादक पारिश्रमिक देता है। प्रसारित गीतों के लिए रेडियो रॉयल्टी देता है।
यह तर्क भी सामने आता है कि काव्य-साहित्य और लोक-साहित्य में भी शृंगार की कमी नहीं है। शृंगार जीवन का संजीव अंग है, जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। नारी-सौंदर्य के प्रति आकर्षण अस्वाभाविक नहीं है और न इसको वर्णित करना वर्जित है। किंतु शृंगार-शृंगार में भेद करना होगा। सौंदर्य-कलिकाओं को मसलने का भाव या उन्हें रौंद डालने की वासना शृंगार नहीं है। अजी, जाओ तुमसे बहुत देखे! यह है ऐसी मनोवृत्ति का परिचायक, जिससे उद्दण्ड छिछोरापन सामने आता है और शृंगार दब जाता है। जीवन-सौंदर्य और भाव गरिमा के प्रति अवज्ञा, नर-नारी के संबंधों में हलका पन और प्रेमाकर्षण को बायें हाथ का खिलवाड़ बना देना बहुत आसान है, लेकिन इसके बुरे-भले पक्ष पर विचार करना आज कठिन हो गया है। किंतु क्या हम अपने जीवन-मूल्यों की ओर से बहुत दिनों तक बेख़बर रह सकते हैं? सिनेमा और रेडियो का संबंध बहुजन-समाज से है। इनकी चपेट में पूरा समाज आता है, जिसमें छोटी-बड़ी आयु और परिपक्व-अपरिपक्व बुद्धि के बहुत लोग शामिल रहते हैं। साहित्य का संबंध समाज के एक छोटे से वर्ग से होता है। साहित्य का उपयोग वैयक्तिक होता है। साहित्य एकांत में पढ़ा जाता है। साहित्य के प्रसार की सीमाएँ हैं। बाज़ारूपन या भद्दी भड़क साहित्य में असहनीय है और इसके साथ ही यह भी स्मरणीय है कि साहित्य का भी सब कुछ प्रसारणीय नहीं होता। इस क्षेत्र में भी चयन और चुनाव प्रसारणार्थ होता है।
वर्ग का हित या समाज का हित ~
अलिखित लोककाव्य भौगोलिक दृष्टि से परिबद्ध और अपने प्रचार-प्रसार में सीमित होता है। भोले लोगों का सामयिक ग्राम्य विलास बनफूल की तरह खिलता और बुझता है। उसे व्यापार की वस्तु बनाकर, शहरी फूलदान में रखना कहाँ तक उचित है? परिश्रमी किसान जिसे कल सबेरे तक भूल जाएँगे, शहरी निठल्ले उसका महीनों मजा लेंगे। स्थायी भाव को क्षणिक और क्षणिक को स्थायी बनाने की व्यवसायी भावना अप्राकृतिक ही कही जायेगी। सहज स्वाभाविक रूप में यथार्थ चित्रण एक बात है और व्यावसायिक हित में 'शॉप विंडो' सजाना दूसरी बात है।
सिनेमा, रेडियो, टी.वी. सार्वजनिक महत्त्व के अत्यंत शक्तिशाली माध्यम हैं। टी.वी. में तो रेडियो और सिनेमा की संयुक्त शक्ति का समावेश है। इन माध्यमों के साथ समाज के हित और सुख का प्रश्न सदा जुड़ा रहेगा। किसी व्यक्ति और वर्ग का स्वार्थ, सार्वजनिक हित और सुख से बढ़कर नहीं समझा जा सकता। जो सिद्धांत शरीर को पुष्ट और स्वस्थ बनाने वाले भोजन के संबंध में मान्य हो, वही सिद्धांत मन की भूख बुझाने यानी भारत के सामान्य जन का मनोरंजन करने वाले संगीत के विषय में भी मान्य होना चाहिए। रजतपट पर प्रदर्शन होटल या रेस्तराँ के षड्रस छत्तीस व्यंजनों के समान शुल्क-साध्य और घर के बाहर प्राप्त होने वाला है। उसकी तुलना में रेडियो-प्रसारण घर की रसोई है, नि:शुल्क और सहज सुलभ। दोनों के हेतु और मानदण्ड अलग-अलग हैं।
कहा जाता है कि प्रसारणीय न समझे जाने वाले बहुत से मज़ेदार सिने-गीतों को छोटे बच्चे भी गाते हैं। इस तर्क के उत्तर में दो बातें कही जा सकती हैं। एक तो यह कि कहीं-कहीं छोटे बच्चे भी सिगरेट पीते दिखाई देते हैं, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि सिगरेट पीना उनके लिए लाभदायक है। दूसरी बात यह है कि भोले-भोले छोटे शिशु तो सांप से भी खेल लेते हैं और सांप भी उन्हें नहीं काटता। भोले की रक्षा भगवान करते हैं।
भगवान कृष्ण ने रास और गोपी-विलास करने से पहले कालिया नाग को नाथा। क्या सिने गीतकार-संगीतकार नाथे हुए नाग को नाथ और पगहे से मुक्त करके अनाथ जनता पर छोड़ना चाहेंगे?
(माधुरी, 21 अप्रैल, 1967 में प्रकाशित)