ॐ
रचयिता राव चंद बरदाई भट्ट, जो चंडिसा राव के कलादी गौत्र से थे व पृथ्वीराज के बचपन के अनन्य मित्र भी थे, पृथ्वीराज के राज दरबार के वे, राजकवि थे। अपने महाराज की युद्ध यात्राओं के समय, वीर रस की कविताओं से सेना को प्रोत्साहित किया करते थे। चंदरबरदाई अपने मित्र पृथ्वीराज चौहान के कवि मित्र थे जिन्होंने अपने सखा को सुख व दुःख के क्षणों में, हानि तथा लाभ में
' रासौ ' महाकाव्य में, छः रस हैं किन्तु प्रधानता वीर रस की है। सर्वप्रथम चंदरबरदाई को बिरदावली से अभिसिक्त करें।
भारतवर्ष की प्राचीन भूमि पर चाहमान वंश में, शाकम्भरी नगरी में श्री सोमेश्वर नामक राजा राज करते थे। राजमाता का नाम था कर्पूर देवी ! इनके दो पुत्र थे। पृथ्वीराज तथा यशराज !
पृथ्वीराज चौहाण : को उनके नाना अनंगपाल ने दत्तक लिया था।
जन्म | १२/३/१२२० भारतीयपञ्चाङ्ग के अनुसार, १/६/११६३ आङ्ग्लपञ्चाङ्ग के अनुसार पाटण, गुजरातराज्य तब पाटण पत्तन अण्हिलपाटण के नाम से प्रसिद्ध था। ११९१-९२ में, जयंक नामक कश्मीरी कवि ने " पृथ्वीराज विजय महाकाव्य " लिखा था उसी का श्लोक है ~
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पुत्र
के जन्म के पश्चात् पिता सोमेश्वर अपने पुत्र का भविष्यफल बताने के लिए
राजपुरोहितों को निवेदन करते हैं। उसके पश्चात् बालक का भाग्यफल देख कर
राजपुरोहितों ने "पृथ्वीराज" नामकरण किया।" पृथ्वीराज विजय महाकाव्य " में
नामकरण का उल्लेख इस प्रकार है ~~
" पृथ्वीं पवित्रतान्नेतुं राजशब्दं कृतार्थताम्। चतुर्वर्णधनं नाम पृथ्वीराज इति व्यधात् " |
' पृथ्वीराज रासो' काव्य में नामकरण का वर्णन करते हुए चन्द्रबरदाई लिखते हैं
' यह लहै द्रव्य पर हरै भूमि। सुख लहै अंग जब होई झूमि॥' |
पृथ्वीराज की बाल्यावस्था : कुमारपाल के शासन में चालुक्यों के प्रासाद में जन्मा, पृथ्वीराज बाल्यावस्था से ही वैभवपूर्ण वातावरण में पलने लगा ।वैभव सम्पन्न प्रासाद में, पृथ्वीराज के चारों ओर, परिचायिकाओं का बाहुल्य था।
दुष्ट
ग्रहों से बालक की रक्षा करने के लिए, सेविकाएँ विभिन्न मार्गों का
अवलम्बन लेतीं थीं। पृथ्वीराज विजय महाकाव्य में महाकवि जयानक द्वारा ये
वर्णन प्राप्त है। "
महाविष्णु के दशावतार का मुद्रण किया हुआ कण्ठाभरण = कण्ठ का आभूषण बालक
पृथ्वीराज को पहनाया गया था। दुष्टग्रहो से रक्षा हेतु, व्याघ्रनख से
निर्मित आभरण सेविकाओं ने बालक को पहनाया था। व्याघ्र के नख को धारण करना
मङ्गल मानते है। अतः राजस्थान में परम्परागत रूप से व्याघ्र
के नख को सुवर्ण के आभरण में पहनते थे। बालक के कृष्ण केश और मधुकर वाणी,
सभी के मन को मोहित करते थे।शिशु के सुन्दर ललाट पर लगाया हुआ ' तिलक
' बालक के सौन्दर्य में अभिवृद्धि करते । उज्जवल दन्त हीरक समान आभायुक्त
थे। नेत्र में किया ' अञ्जन ' आकर्षण को अधिक बढाता था। घुटनों द्वारा जब
बालक यहाँ वहाँ घुमता था, तब उसके वस्त्र धूलिकामय होते थे। खेलते हुए
पुत्र को देख कर माता कर्पूरदेवी अपने पुत्र का कपोल चुम्बन लेतीं थी।
" मनिगन कंठला कंठ मद्धि, केहरि नख सोहन् घूंघर वारे चिहूर रुचिर बानी मन मोहन्त केसर समुंडि शुभभाल छवि दशन जोति हीरा हरन। |
इस प्रकार अण्हिलपाटण के सहस्र लिङ्ग सरोवर से अलङ्कृत सोपानकूप के मध्य में स्थित राजप्रासाद के विशाल भूभाग में पृथ्वीराज का बाल्य काल सुखपूर्वक व्यतीत हुआ। कुछ बड़े होने पर पृथ्वीराज का अध्ययन अजयमेरु प्रासाद में व विग्रहराज द्वारा स्थापित सरस्वती कण्ठाभरण विद्यापीठ में संपन्न हुआ। युद्धकला व शस्त्र विद्या का ज्ञान पृथ्वीराज ने प्राप्त किया। यद्यपि आदिकाल से ही शाकम्भरी के चौहान वंश स्रामाज्य की राजभाषा संस्कृत थी। उस काल में उस भूखण्ड पर संस्कृत, प्राकृत, मागधी, पैशाची, शौरसेनी तथा अपभ्रंश भाषाएँ प्रचलित थीं। पृथ्वीराज रासो काव्य में उल्लेख है कि,मृगशिरा नक्षत्र व सिद्धयोग में कुमार पृथ्वीराज, राजा पृथ्वीराज पंद्रह वर्ष की आयु में राज्य सिंहासन पर आरूढ हुए।
कनौज के राजमहल के प्रतोली द्वार पर तैयार हुई स्वर्ण प्रतिमा को द्वारपाल के स्थान पे रख दिया गया। राजसूय यज्ञ के साथ साथ अपनी पुत्री राजकन्या संयोगिता का स्वयंवर भी घोषित कर दिया। राजमहल के प्रवेश द्वार पर पृथ्वीराज की प्रतिमा को रखवाया गया।
तथा चन्द्रमा के तीसरे गृह में स्थिर होने के शुभ अवसर को पण्डितों ने चुना था। पृथ्वीराज को कनौज के राजसूय यज्ञ तथा संयुक्ता - संयोगिता के स्वयंवर की सारी जानकारियां उसके गुप्तचरों ने आकर बतलाईं थीं। जयचंद ने अपनी पुत्री के पृथ्वीराज से विवाह के प्रण व हठ के कारण, संयुक्ता को, गंगा नदी के किनारे एक ऊंचे आवास में रहने के लिए भेज दिया था। पृथ्वीराज के चुनिंदा सामंतो ने कहा ,
जयचंद ने संयोगिता के मन से पृथ्वीराज की छवि हटाने के अनेकों प्रयास किये।
कनौज शहर के समीप बहते गँगा मैया के दर्शन हुए तो पृथ्वीराज ने प्रणाम किया। वहीं चमकते हुए घड़ों में, गँगा जी का जल भरती हुई स्त्रियाँ दिखलाई दीं। नगर नारियों के वस्त्र लाल, पीले व नीले रंगों के थे जो प्रातः काल के स्वच्छ प्रकाश में आभा बिखेर रहे थे। चंदरबरदाई कवि मित्र भी महाराज पृथ्वीराज के संग, यह मनोरम दृश्य देख रहे थे। कवि ह्रदय चितेरा होता है, सो सहसा चंद बोले,
' इन सुंदरियों की पीठ पर झूलती वेणी ऐसे प्रतीत हो रहीं हैं मानों उनका शरीर स्वर्ण से निर्मित हुआ हो तथा उनके स्वर्णिम स्तम्भ पर सूर्यदेव चढ़ कर महाराज आपके विजयश्री की घोषणा कर रहे हैं ' पृथ्वीराज अपने कवि सखा के उपमाओं पर ठठाकर हंस पड़े उत्तर दिया, ' अरे मित्र चंद रहने भी दो ! अभी तो तुमने कनौज की यशस्विनी नारियों को देखा ही नहीं! मात्र इस प्रदेश की पनिहारियाँ ही देखीं हैं ! ' चंदबरदाई अपने मित्र के कटाक्ष पर मुस्कुराने लगे। कहा,' आज्ञा दो, मित्र ! राजपरिवार की टोह लेकर आता हूँ '
अपने सखा से आज्ञा लेकर चंदबरदाई जयचंद के राजदरबार में छद्म नाम से पहुंचे। दरबार में भिन्न नाम से बरदाई ने पृथ्वीराज की वीरता तथा महाराज जयचंद की वीरता के गीत गाये। अपनी प्रशंसा सुनकर तो जयचंद प्रसन्न हुआ किन्तु पृथ्वीराज का बखान अनसुना कर दिया। चारण की प्रशंसा सुन कर जयचंद, चंदबरदाई की कवितावली से प्रभावित हुआ था अतः पूछने लगा,
चंदबरदाई ने मन के भावों को भली प्रकार छिपाते हुए कहा, ' महाराज जयचंद ! यह मेरा अनुचर है। मैं, अपनी सुरक्षा के लिए इसे अपने संग लिए भ्रमण करता रहता हूँ ! '
सखी मुँहलगी थी कहने लगी, ' हे बुध्धिहीना अबोध राज कुंवरी ! कहाँ वह लघु कुल का वंशज तथा कहाँ आप ! आप कनौज नरेश की पुत्री हैं, हमारी राजदुलारी हैं। हमारी राजेश्वरी हैं ! ' तब तड़प कर संयोगिता बोली, ' अरी दुष्टा, रहने दे ! उसी सूरमा नर वीर ने, अजमेर राज्य में धूम मचा रखी है ! मंडोवर राज्य को उन्हीं ने पराजित किया। मोरी के राजा से कर वसूल किया! रणथम्भोर के रण मैदान में विजयश्री प्राप्त की ! कालिंजर को जल निमग्न किया ! अरे, उस शूरवीर चौहाण की कृपाण तो राजाओं के खेत रुपी राज्यों को काटनेवाली ' हँसिया ' बनी हुई है। ' अपनी राजकुमारी से पृथ्वीराज चौहाण की प्रसंशा सुनकर वही सखी मुस्कुराने लगी। बोली, ' कुँवरी आपके मन के भाव आज शब्दों में आ ही गए ! जिस प्रकार चंद्र्मा के खिलने पर पावन गँगा जी में कमलिनीयाँ आतुरता से खिल उठतीं हैं तथा मुग्ध भाव से इन्दु ( चंद्र ) की शीतल किरणों का पान कर, चंद्र देव का ध्यान करतीं हैं, उसी प्रकार हे कुँवरी, आपकी समस्त बुद्धिमता, चतुरता तथा वाणी बस एकमात्र पृथ्वीराज का बखान करतीं रहतीं हैं ! हे सखी, आप के इन सुँदर अंग प्रत्यंग पर, मदन - ज्वर व्याप्त है। यह उसी प्रेम रोग का प्रताप है '
अब पृथ्वीराज ने मुड़कर पूछा, ' तुम कौन हो ? ' दासी ने अपना परिचय दिया सादर प्रणाम किया तथा कहा ' महाराज मैं कनौज राजकुमारी संयोगिता की दासी हूँ ' पृथ्वीराज बोले ' आपकी कुँवरी से मिलने ही तो कनौज आया हूँ चलो वहीं ले चलो राजकुमारी के पास '
" पायातु पंग पुत्रीय जयति जयति योगिनी पुरेस
पृथ्वीराज अपनी छावणी पर आ कर अपने सामंतों से जा मिले। उन में से एक कान्ह ने पूछा,' महाराज यह क्या है ? " तब पृथ्वीराज ने बतलाया की, ' मैंने जयचंद की बाला का वरण किया। उस का प्रण पूरा किया। अभी मैं उसे विलाप करते हुए उसे छोड़ कर यहां आया हूँ। ' तब वीर कान्हा उत्तेजित होकर बोलै,
सँयोगिता ने वीर राजपूतों की टोली को आते देखा तो भय कातर होकर सखियों से कहने लगी ' सखियों मेरे प्रिय पर लोग ऊँगली ना उठावें ! लोग ये ना कहें की युद्ध के भय से इन्होंने मेरे आवास की शरण ली ! ' किन्तु वहां पधारे वीर योद्धा
अगले दिवस सँयोगिता के राजसी स्वयंवर में जो पृथ्वीराज को अपमानित करने की भावना से उनकी स्वर्ण प्रतिमा निर्मित की गयी थी उसे द्वारपाल के स्थान पर रखा गया था उसी स्थान पर, पृथ्वीराज स्वयं आ कर खड़े हुए। संयोगिता ने राजसभा में उपस्थित सभी राजाओं को अनदेखा करते हुए, द्वारपाल की प्रतिमा की दिशा में चरण बढाए तथा अपने कोमल करों में थामी सुगन्धित जयमाला महाराज पृथ्वीराज के गले में पहना दी । अब असली पृथ्वीराज ने अपनी पत्नी सँयोगिता का हाथ थाम कर उसे अपने संग लिया। इस भाँति पृथ्वीराज - सँयोगिता का विवाह भरी सभा के मध्य हुआ। पृथ्वीराज ने सँयोगिता का हरण कर, उसे अपने प्रिय अश्व नाटरामभश्व पर बैठाल लिया। स्वामीभक्त अश्व, योगिनीपुर की दिशा में स्वतः अपनी स्वामिनी तथा स्वामी को लिए हुए मुड़कर तेज गति से दौड़ पड़ा।
पृथ्वीराज ने अपने श्वसुर जयचंद के लिए सँदेसा भिजवाया ~ ' दहेज़ के रूप में तुमसे युद्ध की आकांक्षा है ! मेरी स्वर्ण प्रतिमा द्वारपाल के स्थान पर रखकर मुझे अपमानित करने की यही सजा है ! '
पृथ्वीराज के सँयोगिता को हर कर अपने संग ले जाने से जयचंद की सेना उनके पीछे दौड़ पडी। पृथ्वीराज के वीर सामंतों ने कहा , ' हे हमारे साम्भर राज, हम सेना को रोकेंगे। आप महारानी को लेकर शीघ्र हमारे नगर पहुंचें ' !
गुहलौत, नागौर का दाहिमा, चंद्रपुण्डीर सोलंकी का सूरमा सारंग, कूरंभ,
राज पालन देव, यह वीर योद्धा प्रथम दिवस के युद्ध में, वीरगति को प्राप्त कर गए । अन्य साथी सामंतों वीरों की तलवारें झनझनाने लगीं। दूसरे दिन के युद्ध में गुर्जर का माल चंदेल, थट्टा का भूपाल भाण भट्टी, सामळा शूर, अच्छ परमार व धार का निरवान वीर, देहत्याग कर युद्ध स्थल में गिरे। पृथ्वीराज के अनेक वीर सामंतों ने वीरता से युद्ध क्षेत्र में, हँसते हुए अपने प्राण खोये किन्तु इस युद्ध के होते हुए महाराज पृथ्वीराज महारानी संयोगिता के संग अपनी राजधानी योगिनीपुर सकुशल पहुँच गए। निराश होकर सीने में प्रतिशोध भाव से धधकती ज्वाला लिए जयचंद कनौज खाली हाथ लौट आया।विवाह पश्चात पृथ्वीराज, राजकार्य भूल गए। भोग विलास में रात्रि दिवस बीतने लगे। छः ऋतुएँ वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत, शिशिर आ आ कर लौट गईं परन्तु पृथ्वीराज सँयोगिता की भोग - विलास समाधि ना टूटी !एक दिन चंद्रबरदाई अपने मित्र महाराज पृथ्वीराज के महल में राजगुरु को संग लेकर आये। महाराज के लिए अन्तः पुर में एक सन्देश एक कहला भेजा ~
" गोरी रत्तउ तुव धरा, तुं गोरी अनुरत्त " अर्थात " गोरी तुझ पर राजी है या तेरी भूमि पर ? तू गोरी पर मर मिटा ! ' आगे पत्र में लिखा था ~ " अप्पज वान चहुआन सुनि, प्रान रषिक प्रारम्भ करि - सामंत नहीं सा - मंत करि, जिनि बोलइ ढिल्लिय जु धरि " अर्थात ~' हे चौहान सुन ! बाण तो अपने अधीन हैं। उद्योग कर, अपने प्राणों की रक्षा कर ~ संतों से मंत्रणा कर कि तेरे कारण ये साम्राज्य, ये धरा डूब न जाए ' पत्र सन्देश पढ़ते ही लज्जा वश पृथ्वीराज भूमि पर गिर पड़े। उठकर अपना तरकश सम्हाला। सोया हुआ पौरुष जागा मानों सोया हुआ सिंह जाग उठा !सँयोगिता उसे रोकने की चेष्टा में कहने लगी,' कहु सु प्रियह पउमिनिय कंत धनु धरउ तउ न धनुसुष सुषमार आरोहु असर सँसार मरन मन।दिन दिनिनयर दिन चंदु रयनि दिन दिन हि आवहि।जंतु जंतु इह रमनि स्रवन लग्गावि समझावहि।अरधंग धरा अरधंग हम अरधनगी अरधंग भरि।जस हंस हंस तह हँसिनी सर सुक्कई पंकज न परि 'अर्थात ~ वही धन, धन है जो भोगा जाय। काम सुख सच्चा सुख है। प्रेम रहित जीवन मृत्यु समान है। मनुष्य जीवन उस क्षण समाप्त हो जाता है। यदि धरा पृथ्वीराज की पत्नी है, तो सँयोगिता भी पत्नी है। मुझे सार्थक कीजिए नाथ !हँस ~ हँसिनी का जोड़ा मरने तक साथ रहता है ! 'पृथ्वीराज ने अपना जी कड़ा कर उत्तर दिया, ' हे वीर पत्नी, तूने मुझे मेरे बाहुबल के कारण वरण किया। आज युद्ध में जाने से मुझे क्यों रोक रही हो ? हे क्षत्राणी ! हे वीर राजपूत रमणी ! अब प्रणय की बेला गई ! विजयश्री तिलक लगाकर प्रस्थान करने दें, यही आप को शोभा देता है, यही उचित है '
अपने प्राण नाथ के वचन सुन नयनों से उमड़ते हुए अश्रुधारा में अपने रक्त को मिला कर सँयोगिता ने अपने स्वामी पृथ्वीराज के प्रशस्त भाल पर विजय तिलक लगा दिया । पृथ्वीराज ने प्रस्थान किया। पति पत्नी बिछुड़े। चंद्रबरदाई रचित ' पृथ्वीराज रासौ ' में यही इस पवित्र दंपत्ति युगल पात्रों का अंतिम मिलन दर्शाया गया है।प्रतिशोध की ज्वाला लिए जयचंद ने विश्वासघात किया। जयचंद ने तुर्की शहाबुद्दीन को पृथ्वीराज के नगर प्रवेश के गुप्त रहस्य बतलाये। जिस शाहबुद्दीन को अपनी माता महारानी कर्पूर देवी के कहने बार पृथ्वीराज ने सात, सात बार जीवनदान दिया था उसी दुष्ट ने, अब किले के भेद जान कर, पृथ्वीराज को युद्ध में परास्त किया। तथा बंदी बनाकर कारागार में डाला। तद्पश्चात अपने नगर ले चलकर आग में तपती हुई सलाखें गर्म कर, उन से पृथ्वीराज के दोनों नयनों को निर्ममता से छेद दिया, जिससे पृथ्वीराज अंध हो गया। अत्याचारी के सीने में तब भी आग बाकी थी । चित्र : चंद्र बरदाईकुछ काल पश्चात चारण चंद्रबरदाई, अपने मित्र पृथ्वीराज की शोध में, अपने महाराज व प्रिय सखा को खोजता हुआ, तुर्क शहाबुद्दीन के नगर तक आ पहुंचा। पृथ्वीराज कारागार में है यह जानकार उसे अत्यंत शोक हुआ। किसी प्रकार बंदीगृह पहुँच कर वह अपने परम मित्र से मिला।पृथ्वीराज का मनोबल परास्त हो चुका था व पृथ्वीराज, अत्यंत शोकाकुल था। अपना सर्वस्व हार चुका था। वह अपने प्राणों के प्रति मोह को भी खो चुका था ' चन्द्रबरदाई ने उसे भड़काया, कहा ' हे बंधे हुए सिँह, तू काल से भी विकराल काल स्वयं है ! पापी शहाबुद्दीन ने छल से सिँह को कैद कर लिया ! इस छल का बदला लेना होगा। मैं तेरे साथ हूँ मित्र ! ' अपने मित्र की उत्साहवर्धक बातें सुनकर पृथ्वीराज का सोया हुआ पौरुष जाग उठा। दोनों ने आपस में मंत्रणा की। तद्पश्चात चंद्रबरदाई शाहबुद्दीन के समक्ष उपस्थित हुआ। बोलै, ' हे बादशाह ! तुम्हारा कैदी पृथ्वीराज अँधा हो गया तो क्या हुआ ? वह तुम्हारे सरे सैनिकों से अब भी बेहतर निशाना लगा सकता है। वह अचूक निशानेबाज है - मेरे वचन को आजमा कर देख लो ! ' चंद्र बरदाई की बात सुनकर शहाबुद्दीन का कौतुहल जागा। अब चंद्र ने आगे कहा, ' हे बादशाह आपके शाही फरमान पर ही यह पृथ्वीराज बाण पकड़ने को राजी हुआ है। सो अब आप ही आदेश दें - आपके स्वर में यह बाण चलाने का आदेश गूंजे, तभी वह अपने अचूक निशाने का करतब दिख्लायेगा '
शहाबुद्दीन ने पृथ्वीराज के अचूक निशाने को परखने के लिए उसे धनुष्य बाण दिए। आयोजन किया गया। अब कवि मित्र चंद्रबरदाई ने अपना कवित्त बांचा ~ “ चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण, ता ऊपर सुल्तान है मत चुके चौहान”
अर्थात् ~ चार बांस, चैबीस गज व आठ अंगुल जितनी दूरी के ऊपर सुल्तान बैठा है ~ इसलिए चौहान तुम चूकना नहीं ! अपने लक्ष्य को हासिल करो। '
पृथ्वीराज चौहान ने इसी कवित्त के आधार पर निशाना साधकर तीर छोड़ा। जो सीधे ऊँचाई पर बैठे गौरी के सीने में जा लगा। दरअसल, चंदबरदाई की कविता से पृथ्वीराज को गौरी की दूरी का तो अंदाज़ा हो गया था, लेकिन वो किस दिशा में यह पता लगाना अभी बाकी था। तब चंद्रवरदाई ने गौरी से कहा कि, 'पृथ्वीराज आपके बंदी हैं, सो आप इन्हें आदेश दें ! तभी पृथ्वीराज आपकी आज्ञा प्राप्त कर अपने शब्द भेदी बाण का प्रदर्शन करेंगे। ' इस पर ज्यों ही घोरी ने पृथ्वीराज को प्रदर्शन की आज्ञा का आदेश दिया। प्रदर्शन के दौरान घोरी के " शाबास शुरू करो " लफ्ज के उद्घोष से पृथ्वीराज को घोरी किस दिशा में बैठा है यह मालूम हो गया उन्होंने तुरन्त बिना एक पल की भी देरी किये, अपने एक ही बाण से मुहम्मद घोरी के अपने एक बाण के वार से प्राण हर लिए और उसे, मार गिराया !शहाबुद्दीन के प्राण गंवाकर गिरते ही उसका सचिव, तातार खां क्रोध में लपक कर आया। उसने पृथ्वीराज के प्राण लेने चाहे। किन्तु तब तक चंद्रबरदाई लपक कर अपने मित्र पृथ्वीराज के पास आ चुके थे।
दोनों ने अपनी अपनी छिपी हुई कृपाण निकाल लीं तथा तुरंत एक दूसरे के ह्रदय में उन तीक्ष्ण कटार को खोंप दिया। कटार के तेज प्रहार से दोनों ने एकसाथ, उसी क्षण, ' हर हर महादेव ' का जय घोष करते हुए अपने अपने प्राण खोये ! दोनों एक साथ स्वर्ग सिधारे।
भारत
वर्ष के गरिमामय इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ में शूरवीरता की ज्वलंत कथा का
एक अध्याय जुड़ गया। लोकोक्ति है कि, " चंद्र से अलग पृथ्वी नहीं !
चंद्रबरदाई से विलग सखा पृथ्वीराज नहीं !"
" पृथ्वीराज रासौ " इसी कथा की
यशस्विनी कीर्तिगाथा है। वीर रस से सभर एक उच्च स्तर की शौर्य गाथा है। नव
रस से निर्मित " पृथ्वीराज रासौ " एक अपूर्व ग्रन्थ ही नहीं है अपितु एक
महाकाव्य है। इस में प्रयुक्त छंदों को चंद्रबरदाई ने अपने रक्त समर्पण
द्वारा अमृतदान दिया है। श्रृंगार, वीर रस से निर्मित,करूण रस से भींजा
हुआ, बीभत्स रस समेटे, भय, अद्भुत एवं शाँत ऱस को काव्य में सिंचित किये '
पृथ्वीराज रासौ ' भारतीय काव्य परम्परा का अद्भुत साहित्यिक आभूषण है। " रासउ असंभु नवरस सरस् छंदु चहुँ किअ अमिअ सम।
श्रृंगार, वीर, करुणा, विभछ , भय , अद्भुतह संत सम। "
पृथ्वीराज संयोगिता की पुत्री ' बेला' के लिए यह प्रसिद्ध है कि, वह कुतुबमीनार पर चढ़ कर, प्रातः गँगा मैया के दर्शन करने के पश्चात अन्न ग्रहण किया करती थी।
आज के आधुनिक समय में जिसे देहली नगर का ' लाल किल्ला ' कहते हैं उसे पृथ्वीराज के शासन काल में, ' लालकोट ' के नाम से पुकरा जाता था। उसी किले में, महारानी सँयोगिता तथा उनकी ननद जी पृथ्वीराज की बहन ' पृथा ' को पृथ्वीराज के प्राण त्याग का अशुभ सन्देश मिला तो दुर्ग में, मृत्यु सा भयंकर सन्नाटा छा गया। पृथ्वीराज के दुश्मन आततायी आक्रमण करेंगें यह निश्चित था। अनेकों प्राणों की विनाश लीला, स्त्रियों के शील भंग की संभावना भी थी। अतः वीरांगना राजपूत रमणियों ने, जौहर कर, अपने अपने पवित्र शरीरों को,पवित्र अग्नि - स्नान द्वारा अग्नि देव की कोख में समर्पण करने का प्रण लिया। चिताएँ शरीर पर्यन्त धू धू कर जलतीं रहीं , शेष रहीं भारतीय इतिहास के ज्वलंत अमर युगल दंपत्ति की वीर गाथा !
शत शत प्रणाम ! " सँयोगिता - पृथ्वीराज की वीर गाथा ! प्रणाम ! चंद्रबरदाई के महानायक - महानायिका अमर रहें !****************************************************- लावण्या ~ : आगामी पुस्तक : अमर युगल पात्र :