ये कन्याएं भी आनंद ले रहीं हैं ...
http://www.youtube.com/watch?v=dufsqvm4cec
ये गीत भी पापा जी का लिखा हुआ है जो नही गाया , पर आप सुनियेगा --
मेरी, आपकी, अन्य की बात
" मित्र, अनायास आए हुए के साथ मित्रता नहीं करनी चाहिये।
अज्ञातकुलशीलस्य वासो देयो न कस्यचित्। मार्जारस्य हि दोषेण हतो गृध्रो जरद्रवः।।
कहा भी गया है कि -- जिसका कुल और स्वभाव नहीं जाना है, उसको घर में कभी न ठहराना चाहिए, क्योंकि बिलाव के अपराध में एक बूढ़ा गिद्ध मारा गया।
यह सुनकर सियार झुंझलाकर बोला-- "मृग से पहले ही मिलने के दिन तुम्हारी भी तो कुल और स्वभाव नहीं जाना गया था। फिर कैसे तुम्हारे साथ इसकी गाढ़ी मित्रता हो गई ? "
यत्र विद्वज्जनो नास्ति श्रलाघ्यस्तत्राल्पधीरपि। निरस्तपादपे देशे एरण्डोsपि द्रुमायते।।
जहाँ पंडित नहीं होता है, वहाँ थोड़े पढ़े की भी बड़ाई होती है। जैसे कि जिस देश में पेड़ नहीं होता है, वहाँ अरण्डाका वृक्ष ही पेड़ गिना जाता है।और दूसरे यह अपना है या पराया है, यह अल्पबुद्धियों की गिनती है। उदारचरित वालों को तो सब पृथ्वी ही कुटुंब है।जैसा यह मृग मेरा बंधु है, वैसे ही तुम भी हो। मृग बोला --
" इस उत्तर- प्रत्युत्तर से क्या है ? सब एक स्थान में विश्वास की बातचीत कर सुख से रहो।क्योंकि न तो कोई किसी का मित्र है, न कोई किसी का शत्रु है। व्यवहार से मित्र और शत्रु बन जाते हैं। "
कौवे ने कहा-- " ठीक है। फिर प्रातःकाल सब अपने अपने मनमाने देश को गये।एक दिन एकांत में सियार ने कहा -- मित्र मृग, इस वन में एक दूसरे स्थान में अनाज से भरा हुआ खेत है, सो चल कर तुझे दिखाऊँ। "
वैसा करने पर मृग वहाँ जा कर नित्य अनाज खाता रहा। एक दिन उसे खेत वाले ने देख कर फँदा लगाया।
इसके बाद जब वहाँ मृग फिर चरने को आया सो ही जाल में फँस गया और सोचने लगा-- " मुझे इस काल की फाँसी के समान व्याध के फंदे से मित्र को छोड़कर कौन बचा सकता है ? "
इस बीच में सियार वहाँ आकर उपस्थित हुआ और सोचने लगा--
" मेरे छल की चाल से मेरा मनोरथ सिद्ध हुआ और इस उभड़े हुए माँस और लहू लगी हुई हड्डियाँ मुझे अवश्य मिलेंगी और वे मनमानी खाने के लिए होंगी। "
मृग उसे देख प्रसन्न होकर बोला --
" हो मित्र मेरा बंधन काटो और मुझे शीघ्र बचाओ। "
आपत्सु मित्रं जानीयाद्युध्दे शूरमृणे शुचिम्।भार्यो क्षीणेषु वित्तेषु व्यसनेषु च बांधवान्।।
में मित्र, युद्ध में शूर, उधार में सच्चा व्यवहार, निर्धनता में स्री और दु:ख में भाई (या कुटुंबी) परखे जाते हैं। और दूसरे विवाहादि उत्सव में, आपत्ति में, अकाल में, राज्य के पलटने में, राजद्वार में तथा श्मशान में, जो साथ रहता है, वह बांधव है।
सियार जाल को बार- बार देख सोचने लगा --
" यह बड़ा कड़ा बंध है और बोला-- ""मित्र, ये फँदे तांत के बने हुए हैं, इसलिए आज रविवार के दिन इन्हें दाँतों से कैसे छुऊँ मित्र जो बुरा न मानो तो प्रातः काल जो कहोगे, सो कर्रूँगा''। "
ऐसा कह कर उसके पास ही वह अपने को छिपा कर बैठ गया।
पीछे वह कौवा सांझ होने पर मृग को नहीं आया देख कर इधर- उधर ढ़ूढ़ते- ढ़ूंढ़ते उस प्रकार उसे (बंधन में) देख कर बोला --
"मित्र, यह क्या है ?''
मृग ने कहा -- ""मित्र का वचन नहीं मानने का फल है''।
हितकामानां यः श्रृणोति न भाषितम्। विपत्संनिहिता तस्य स नरः शत्रुनंदन।।
कहा गया है कि जो मनुष्य अपने हितकारी मित्रों का वचन नहीं सुनता है, उसके पास ही विपत्ति है और अपने शत्रुओं को प्रसन्न करने वाला है।
कौवा बोला -- "वह ठग कहाँ है ?" मृग ने कहा -
-"मेरे मांस का लोभी यहाँ ही कहाँ बैठा होगा ? "
कौवा बोला -- " मैंने पहले ही कहा था। मेरा कुछ अपराध नहीं है, अर्थात मैंने इसका कुछ नहीं बिगाड़ा है, अतएव यह भी मेरे संग विश्वासघात न करेगा, यह बात कुछ विश्वास का कारण नहीं है, क्योंकि गुण और दोष को बिना सोचे शत्रुता करने वाले नीचों से सज्जनों को अवश्य भय होता ही है।और जिनकी मृत्यु पास आ गयी है, ऐसे मनुष्य न तो बुझे हुए दिये की चिरांद सूंघ सकते हैं, न मित्रता का वचन सुनते हैं और न अर्रूंधती के तारे को देख सकते हैं। "
प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्। वर्जयेत्तादृशं मित्र विषकुम्भं पयोमुखम्।
पीछे काम बिगाड़ने वाले और मुख पर मीठी- मीठी बातें करने वाले मित्र को, मुख पर दूध वाले विष के घड़े के समान छोड़ देना चाहिए।
कौवे ने लंबी सांस भर कर कहा कि --
" अरे ठग, तुझ पापी ने यह क्या किया ?''
क्योंकि अच्छे प्रकार से बोलने वालों को, मीठे- मीठे वचनों तथा कपट से वश में किये हुओं को, आशा करने वालों को, भरोसा रखने वालों को और धन के याचकों को, ठगना क्या बड़ी बात है ? और हे पृथ्वी, जो मनुष्य उपकारी, विश्वासी तथा भोले- भाले मनुष्य के साथ छल करता है उस ठग पुरुष को हे भगवति पृथ्वी, तू कैसे धारण करती है
दुर्जनेन समं सख्यं प्रीतिं चापि न कारयेत्।
उष्णो दहति चाड्गारः शीतः कृष्णायते करम्।
के साथ मित्रता और प्रीति नहीं करनी चाहिये ! क्योंकि गरम अंगारा हाथ को जलाता है और ठंढ़ा हाथ को काला कर देता है। दुर्जनों का यही आचरण है। मच्छर दुष्ट के समान सब चरित्र करता है, अर्थात् जैसे दुष्ट पहले पैरों पर गिरता है, वैसे ही यह भी गिरता है। जैसे दुष्ट पीठ पीछे बुराई करता है, वैसे ही यह भी पीठ में काटता है। जैसे दुष्ट कान के पास मीठी मीठी बात करता है, वैसे ही यह भी कान के पास मधुर विचित्र शब्द करता है और जैसे दुष्ट आपत्ति को देखकर निडर हो बुराई करता है, वैसे ही मच्छर भी छिद्र अर्थात् रोम के छेद में प्रवेश कर काटता है।
प्रियवादी च नैतद्विश्वासकारणम्।मधु तिष्ठति जिह्मवाग्रे हृदि हालाहलं विषम्।
दुष्ट मनुष्य का प्रियवादी होना यह विश्वास का कारण नहीं है। उसकी जीभ के आगे मिठास और हृदय में हालाहल विष भरा है।
प्रातःकाल कौवे ने उस खेत वाले को लकड़ी हाथ में लिये उस स्थान पर आता हुआ देखा, उसे देख कर कौवे ने मृग से कहा --"
"मित्र हरिण, तू अपने शरीर को मरे के समान दिखा कर पेट को हवा से फुला कर और पैरों को ठिठिया कर बैठ जा। जब मैं शब्द कर्रूँ तब तू झट उठ कर जल्दी भाग जाना। "
मृग उसी प्रकार कौवे के वचन से पड़ गया।
फिर खेत वाले ने प्रसन्नता से आँख खोल कर उस मृग को इस प्रकार देखा,
" आहा, यह तो आप ही मर गया। "
ऐसा कह कर मृग की फाँसी को खोल कर जाल को समेटने का प्रयत्न करने लगा, पीछे कौवे का शब्द सुन कर मृग तुरंत उठ कर भाग गया।
इसको देख उस खेत वाले ने ऐसी फेंक कर लकड़ी मारी कि उससे सियार मारा गया।
त्रिभिर्वषैंस्रिभिर्मासैस्रिभि: पक्षैस्रिभिर्दिनै:अत्युत्कटै: पापपुण्यैरिहैव फलमश्रुते।।
जैसा कहा गया है कि प्राणी तीन वर्ष, तीन मास, तीन पक्ष और तीन दिन में, अधिक पाप और पुण्य का फल यहाँ ही भोगता है।
लेखक : M. Rehman
http://tdil.mit.gov.in/CoilNet/IGNCA/hitop103.htm
से साभार
शनिवार की सँध्या हमारे शहर के मँदिर मेँ आयोजित हिन्दू अवेयरनेस डे के समारोह मेँ बिताकर आये तो लगा आप सभी को दीखलायेँ कि कौन महानुभाव आये थे और खास तौर पर बच्चोँ के प्रयास बहुत अच्छे लगे ~
अब शामेँ जल्दी आ जातीँ हैँ दिन सिकुडने लगे हैँ अब भी दोपहर को धूप होने पर बाहर घूमना अच्छा लगता है जब धूप भली लगती है पर सुबह और शाम आने तक ठँड पडने लगती है अब अक्तूबर माह भी बस, भागा ही जा रहा है ...
॥पता नहीँ जो समय बीत जाता है, वह कहाँ जाकर छिप जाता है ? काल के किस हिस्से मेँ बीता समय आसरा लेता होगा ? और नई सुबह, कहाँ से चल कर आतीँ हैँ ? मुझे पता है तो सिर्फ वर्तमान का
॥हाँ यहाँ जहाँ मैँ .... हूँ ........जहाँ साँसे ले रही हूँ, देख रही हूँ, सुन रही हूँ,........ टी।वी। तो कभी रेडियो तो कभी पँछीयोँ का चहचहाना या फव्वारे से निरँतर ऊपर उठकर धरा की ओर खर खर कर झरते पानी की आवाज़ सुनती हूँ,......
कई तरह के शोर मेरी दिनचर्या का हिस्सा हैँ, कभी किसी बच्चे की किलकारी तो किसी माँ का आवाज़ देना...... आहिस्ता से ! बसोँ का आना, फेडएक्स की ट्रक का आना जाना, असंख्य कारे आती जाती हैं मेरे कोम्प्लेक्स मेँ !
दुपहर को डाक बाँटने सरकारी नीली और लाल धारीयोँवाली सुफेद जीप कार मेँ आती " डेबी" जो डाक लाती है और "हाय मीसीज़ शाह " कहती मुस्कुराती है" ॥
और एक सज्जन हैँ बड़ी ऊम्र के हैं और बम्बई से पुत्र के घर पत्नी सहित आये हैँ और रोजाना सैर करने निकल पडते हैँ जब भी मिल जाते हैँ अचूक गुजराती मेँ पूछते हैँ, "केम छो? " ( "कैसी हैँ " ) और २ घँटा घूमते हैँ। उनकी पुत्रवधु के दूसरी सँतान नवम्बर माह तक आ जायेगी ..एक बार कह रहे थे, " हमेँ इस बार अमरीकी पडौसियोँ से बड अच्छे अनुभव हुए ..पहले हमारा इम्प्रेशन कुछ अलग ही था यहाँ के लोगोँ के बारे मेँ पर अब ४ माह से जितनोँ से भी मिलना हुआ, बडे भले और सच्चे लोग लगे हमेँ ! कई अपने वृध्ध माता पिता की देखभाल करते हैँ और कई अकेले रहते हैँ तब भी साहसी जीवन जीते हैँ और भलमनसाहत से पेश आते हैँ इत्यादी "
तो खैर ! बाहर की दुनिया मेँ दिन भर कुछ ना कुछ घटता रहता है ..पर सब कुछ शाँत रहता है ..ये अमरीकी जीवन का एक बहुत बडा सच है -
शाँति ! शोर शराबा , यातायात का हो तब भी नियँत्रित ! कोई होर्न नहीँ बजाता .ना ही कोई लाउड स्पीकर पर भजन या कव्वालीबजा कर अपने धार्मिक त्योहारोँ के समय, अपना हक्क मानकर दूसरोँ को परेशान करता है !
..क्लब होँ या डीस्को, सब मकान के भीतर पर वहाँ हमारा जाना नहीँ होता !
-हाइवे पर वाहनोँ का रेला ऐसा शोर करता है मानोँ जल प्रपात घोष करता हुआ बह रहा हो ! पर वह भी दूर की ध्वनि है ! कार, घर जब दरवाज़े व खिड़कियाँ बँद कर लो तब एकदम से शाँति पसर जाती है और तब दुपहर की धूप प्रखर होकर और भी स्वच्छ और भी साफ चमकने लगती है ..शाम होने से पहले, चाय के साथ ,आहिस्ता समय आगे सरक जाता है ..फिर आँख मिचौनी खेलता वक्त का लम्हा, हाथोँ से फिसल कर, छिपने को आतुर, फिर ओझल हो जाता है ...
गीतकार : पण्डित नरेन्द्र शर्मा
हम चाहें या ना चाहें
हमराही बना लेती हैं
हमको जीवन की
हम चाहें या न चाहें ...
ये राहें कहाँ से आती हैं
ये राहें कहाँ ले जाती हैं
राहें धरती के तन पर
आकाश की फैली बाहें
हम चाहें या न चाहें ...
उतरा आकाश धरा पर
तन मन कर दिया निछावर
जो फूल खिलाना चाहें
हँस हँस कर साथ निबाहें
हम चाहें या न चाहें ...
संगीत : रघुनाथ सेठ फ़िल्म: फ़िर भी - १९७१ शब्द : पण्डित नरेन्द्र शर्मा
कलाकार : प्रताप शर्मा, उर्मिला भट्ट , निर्माता : शिवेंद्र सिन्हा
फिर भी : से दूसरा गीत है ...
गायक : मन्ना डे : kyon pyaalaa chhalaktaa hai
क्यूँ प्याला छलकता है :
क्यूँ दीपक जलता है
दोनों के मन में कहीं अनहोनी विकलता है
क्यूँ प्याला छलकता है पत्थर में फूल खिला
दिल को एक ख़्वाब मिला
क्यूँ टूट गए दोनों इसका ना जवाब मिला
दिल नींद से उठ उठ कर
क्यूँ आँखें मलता है.. हैं राख की रेखाएँ लिखती है चिंगारी
हैं कहते मौत जिसे जीने की तैयारी
जीवन फिर भी जीवनजीने को मचलता है॥
मन्ना डे :
प्रबोध चंद्र डे मई - १ १९२० मन्ना डे के नाम से मशहूर हुए हिन्दी सिने संसार के गायक हैं । बंगला भाषा में : মান্ না দে
मन्ना बाबू के पिताजी का नाम था पूर्ण चंद्र और महामाया डे माताजी थीं -- उनके चाचाजी संगीताचार्य कै .सी . डे थे जिन्होंने मानना बाबू को बहुत प्रभावित किया था -इंदु बाबर पाठशाला में उनकी शिक्षा हुई थी । उसके बाद स्कॉटिश चर्च स्कूल में आगे की शिक्षा हुई : Scottish Church College, और बाद में विद्यासागर कोलेज से स्नातक हुए ।बचपन से कुश्ती और घूंसेबाजी से मन्ना बाबू को लगाव रहा था ।
कृष्ण चंद्र डे से आरंभिक संगीत शिक्षा लेने के बाद , उन्होंने उस्ताद दबीर खान से संगीत सीखा। , मन्ना डे , ३ साल कोलेज प्रतियोगिता में जीते थे । कृष्ण चंद्र डे १९४२ में मुंबई ले कर आए जहाँ सहायक के रूप में मन्ना बाबू ने काम किया - और फ़िर , सचिन देव बर्मन जी के लिए काम किया और कई संगीत निर्माताओं के लिए काम करते हुए स्वतंत्र कार्य शुरू किया।
उस्ताद अमन अली खान और उस्ताद अब्दुल रहमान खान . तमन्ना , १९४३ . से शास्त्रीय संगीत की तालीम लेते रहे ।
तमन्ना , १९४३ में बनी फ़िल्म प्रथम रही जिससे उन्हें ब्रेक मिला। सुरैया जी के साथ गीत गाया जो बहुत सराहा गया और एक गीत " ऊपर गगन विशाल " ,
फ़िल्म में गाया जो प्रसिध्ध हुआ । १९५० मशाल , सचिन देव बर्मन की धुनों से सजी फ़िल्म भी सफल हुई । १९५२ , फ़िल्म अमर भूपाली .बंगाली और मराठी में बनी फिल्म सफल हुई और मन्ना बाबू सफल हुए
यह दोस्ती , हम नही तोडेगे गीत फ़िल्म : शोले में गाया हुआ और एक चतुर नार कर के सिंगार फ़िल्म पडोसन का ये मन्ना बाबू के बहुत बाद के सफलतम गीत हैं
हेमंत कुमार मुखर्जी भी बँगाल से आये और बम्बई फिल्म इन्डस्ट्री मेँ बहुत लोकप्रिय हुए।
३५०० से ज्यादा गीत मन्ना बाबू ने गाये हैं ।
दिसम्बर १८ , १९५३ , मन्ना डे ने सुलोचना कुमारन जो केरल प्रांत से हैं उनसे विवाह किया । शुरोमा , अक्टूबर १९ , १९५६ ,और सुमिता , जून २० , १९५८ को जन्मी उनकी २ बेटियाँ हैं । .
बंगाली में लिखी "जिबोनेर जल्सघोरे " मन्ना बाबू की आत्मकथा है
"यादें जी उठी " हिन्दी में पेंगुइन बुक्स से प्रकाशित हुई है
पद्मभुसन मन्ना बाबू को भारत सरकार ने दिया
१९६९ National Film Award for Best Male Playback Singer , मेरे हुजुर के लिए मिला १९७१ में National Film Award for Best Male Playback Singer बंगाली निशि पद्मा को मिला - १९७१ में पद्म श्री मिला
क़व्वाली : ' 'यह इश्क इश्क है , ए मेरी जोहरा -जबीं , यारी है इमां मेरा
प्यार भरे नगमे : प्यार हुआ इकरार हुआ , आ जा सनम मधुर चांदनी में हम ,तुम गगन के चंद्रमा हो , दिल की गिरह खोल दो , ये रात भीगी भीगी , सोच के ये गगन झूमे , शाम ढले जमुना किनारे इत्यादी हैं
भाव भरे गीत : जिंदगी कैसी ये पहेली हाय , कसमे वादे प्यार वफ़ा , हरतरफ अब ये ही अफसाने हैं , नादिया चले चले रे धारा , जैसे गीत हैं
मस्ती भरे नगमे : आओ ट्विस्ट करे ,किसने चिलमन से मारा ऐ भाई , जरा देख के चलो , झूमता मौसम मस्त महिना , एक चतुर नार , चुनरी संभल गोरी
देश भक्ति के गीत : ए मेरे प्यारे वतन , जाने वाले सिपाही से , होके मजबूर ,
भक्ति गीत : तू प्यार का सागर है , , भज रे मन राम सुखदाई , और
मधुशाला के सारे गीत मन्ना बाबू की हिन्दी साहित्य के प्रति अनुपम भेंट ही है --
तीन बार इज़ाबेला ने हाँ और ना की जब कोलम्बस ने अपनी योजना का प्रस्ताव रखा कि भारत की खोज के लिये जाने की अनुमति दी जाये भारतीय गरम मसाले युरोपीय माँसभक्षीयोँ के लिये अत्यँत आवश्यक होने लगे थे और भारत के रत्न, सुबर्ण और वैभव के किस्से भी युरोपीयन को आकृष्ट करने लगे थे - कोलम्बस ने भी भारतीय वैभव को हथियाने के मनसूबे से ही व्यापारीय जहाज लेकर, एक नई दुनिया की खोज मेँ प्रवास करने का निर्णय लिया था जिसके लिये राजसी स्वीकृती व आदेश भी निहायत आवश्यक था -
कोलंबस एक नाविक थे साहसी थे और उनका जीवन काल १४५१ से – मई की २० , १५०६ तक का रहा। स्पेन राज्य का नए भूखंड पर फैलाव और प्रसार उनके जीवन काल के बाद से ही हुआ। दक्षिण अमरीकी भूखंड पर इसके पहले तक , यूरोप से कोई भी आया नहीं था -
बहामा द्वीप के सान साल्वाडोर नामके स्थान पर कोलम्बस का जहाज लँगर डाल कर खडा हुआ तब जो लोग उसे दीखे उन्हेँ कोलम्बस ने इन्डीयन कहकर पुकारा - पर ये अमेरीकी इन्डीयन थे नाकि भारत वाले विशुध्ध देसी इन्डीयन !!
कोलंबस का १४९२ की साल में , अमेरिका के भूखंड पर उतरना अमेरिका और स्पेन अक्टूबर १२ के दिन कोलंबस दिवस के नाम से मनाया जाता है : क्लीक कीजिये : (Columbus Day)
और कुछ नहीँ तो कोलम्बस महाशय को अनेक विभिन्न समाज व सँस्कृतियोँ को एक दूसरे के सामने लाकर खडा करने मेँ सहायक भूमिका अदा करनेवाले के तौर पर तो हम रख ही सकते हैँ -
आज यहाँ अमरीका मेँ बैन्क होलीडे है पर अधिकतर ओफीस खुली रहतीँ हैँ -
१७९२ से कोलम्बस दिवस मनाये जाने की प्रथा का आरँभ हुआ है। इटली से आकर अमरीका मेँ बस गये अब अमरीकी नागरिकोँ का बहुत बडा वर्ग, अपने इस शोधकर्ता खलासी नाविक को गर्व से याद करता है।
तो अमरीकी रेड इन्डीयन इस दिवस को "अमरीकी भूखँड की खोज का दिवस " मानने से इन्कार करते हुए जबर्दस्त विरोध प्रदर्शन करते हैँ चूँकि उनका कहना है कि, "हम लोग यहाँ रहते ही थे आप आये उससे भी पहले से अमरीका आबाद था !! रेड इन्डीयन विरोध प्रदर्शन कोलोराडो स्टेट के डनवर शहर मेँ जोर शोर से किया जाता रहा है -और बर्कली कोलज मेँ भी इस दिन को " मूल नागरिक रेड इन्डीयन दिवस " के तौर पर मनाया जाता है !
पूर्वीय प्राँतोँ मेँ जैसे न्यू योर्क, मेसेचुस्टेस, कनेटीकट,न्यु जर्सी मेँ कोलम्बस दिवस को फिर भी शौख से मनाया जाता है -
खैर! जो भी हुआ सो हुआ ॥
कोलंबस के कारनामे से विश्व का नक्शा जरुर बदला बदला सा दीखने लगा !
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है!
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।
जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरतेऔर लाखों बार
तुझ-से पागलों को भी चांदनी में बैठ
स्वप्नों पर सही करते आदमी का स्वप्न?
है वह बुलबुला जल का आज बनता
और कल फिर फूट जाता हैकिन्तु,
फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो?
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।
मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?
मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ,
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ।
मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने,
जिसकीकल्पना की जीभ में भी धार होती है,
बाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।
स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे-
रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।
दिनकर जी का जन्म भूमिहार ब्राह्मण : Brahmin परिवार में हुआ / सिमरिया गाँव , बेगुसराय तालुका, बिहार : Bihar वीर रस के कवि की जन्मभूमि है।
वे ३ बार रज्य सभाके मनोनीत सदस्य रहे और पद्म भूषण से भी सुशोभित किये गये थे । दिनकर जी न केवल एक महान साहित्यकार थे बल्कि गृह मंत्रालय में हिन्दी सलाहकार के रूप में उन्होंने दक्षिण एवं उत्तरी भारत को भाषाई स्तर पर जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
मानस बवेजा से सुनिए "रश्मि रथी "
बढ़कर विपत्ति पर छा जा , मेरे किशोर मेरे ताज़ा ,
जीवन का रस छन जाने दे , तन को पत्थर बन जाने दे ,
तू स्वयं तेज भयकारी है , क्या कर सकती चिंगारी है ?"
(रश्मिरथी , सर्ग ३ )
दिनकर जी की बड़ी सुंदर पंक्तियां हैं-
" बड़ा वो आदमी जो जिंदगी भर काम करता है।
बड़ी वो रूह जो तन से बिना रोए निकलती है।"
क्षमा शोभती उसी भुजंग को जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दन्त हीन, विषरहित,विनीत,सरल हो।
दिनकर जी की सर्व प्रथम प्रकाशित कृति है : विजय संदेश १९२८
प्रन्भंग १९२९
रेणुका : Renuka १९३५
हुंकार : १९३८
रसवंती : १९३९
द्वंद्वगीत : १९४०
कुरुक्षेत्र : Kurukshetra१९४६
धुप छाँव : १९४६
सामधेनी १९४७
बापू १९४७
इतिहास के आंसू १९५१
धुप और धुआं १९५१
मिर्च का मज़ा १९५१
रश्मिरथी : १९५४
नीम के पत्ते १९५४
सूरज का ब्याह १९५५
नील कुसुम १९५४
चक्रवाल १९५६
कविश्री १९५७
सीपी और शंख १९५७
नए सुभाषित १९५७
रामधारी सिंघ 'दिनकर '
Urvashi उर्वशी : १९६१ : ज्ञान पीठ पुरस्कार
परशुराम की प्रतीक्षा १९६३
कोयला और कवित्व १९६४
मृत्ति तिलक १९६४
आत्मा की आंखे १९६४
हारे को हरिनाम १९७०
काव्य संचय :
लोकप्रिय कवि दिनकर : १९६०
दिनकर की सूक्तियां : १९६४
दिनकर के गीत : १९७३
संचयिता : १९७३
रश्मिलोक : १९७४
उर्वशी तथा अन्य श्रृंगारिक कवितायें : १९७४
दूसरी रचनाएं :
मिटटी की ओर : १९४६
चित्तौर का साका : १९४८
अर्धनारीश्वर : १९५२
रेती के फूल : १९५४
हमारी सांस्कृतिक एकता : १९५४
भारत की सांस्कृतिक कहानी : १९५५
राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीय एकता : १९५५
उजली आग : १९५६
संस्कृति के चार अध्याय : १९५६ : साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कृति
काव्य की भूमिका : १९५८
पन्त , प्रसाद और मैथिलीशरण : १९५८
वेणु वन : १९५८
धर्मं , नैतिकता और विज्ञानं : १९५९
वट - पीपल : १९६१
लोकदेव नेहरू : १९६५
शुद्ध कविता की खोज : १९६६
साहित्यामुखी : १९६८
हे राम ! : १९६८
संस्मरण और श्रद्धांजलियां : १९७०
मेरी यात्रायें : १९७१
भारतीय एकता : १९७१
दिनकर की डायरी : १९७३
चेतना की शिला : १९७३
विवाह की मुसीबतें : १९७३
आधुनिक बोध : १९७३
"दिनकर" जी के कुछ काव्य संकलन हैं
दिनकर चाचाजी का व्यक्तित्व बेहद प्रभावशाली था। मेरी मुलाक़ात जब हिन्दी साहित्य केतेजस्वी कवि श्री दिनकर जी से हुई तब मेरी उमर शायद २० बरस की होगी ।
यही तो भारतीय सनातन धर्म की रीत है जो हर जगह अपना अस्तित्व नये सिरे से, बना कर दुबारा पल्लवित हो जाती है।
अमेरीका मेँ भी इसी ऋतु मेँ अलग किस्म के त्योहार मनाये जाते हैँ.
जिसका नाम भी बडा अजीओगरीब है !
जी हाँ, ये है, हालोईन का त्योहार ! (The Festival of Halloween )--
३१ अक्तूबर , अँतिम रात्रि को आइरीश मूल के लोग, १ नवम्बर से पहले अपने मृतक पूर्वजोँ के लिये मोमबत्तियाँ जला कर, प्रार्थना किया करते थे।
जिसकी नीँव रखी गयी थी, २००० साल से पहले !
"समहेन" केल्टीक याने आयर्लैन्डके लोगोँ के यम देवता हैँ --
औरु उनकी मान्यता थी कि मृतक आत्माएँ १ नवम्बर के अगली रात्रि को धरती पर लौटतीँ हैँ -
सो, तैयार हुई फसल की कटाई के बाद,
विविध प्रकार के परिधानोँ मेँ सज कर,
बडे कद्दूओँ को काट कर, उस के भीतर जगह करने के बाद,
जली हुई मोमबतीयाँ रखीँ जातीँ थीँ कि जिससे प्रेतात्मा की बाधा ना होऔर दूसरे दिवस की सुबह, हर आत्मा की भलाई के लिये पूजा करके बिताई जाती थी.
७ वीँ शताब्दि के बाद औयरलैन्ड से चल कर समूचे युरोप मेँ ये प्रथा, प्रचलित हुईऔर जब वहीँ से प्रवासी, अमरीका भूखँड बसाने आये
तो अपनी रीति रीवाज, रस्मोँ को त्योहारोँ को भी साथ लेते आये।
आज अमरीका मेँ बीभत्स, भयानक, वेश भूषा, पहन कर लोग एक दूसरे को डराते हैँ
तो कई सारे मनोविनोद के लिये, तस्कर, खलासी,नाविक, नर्स,राजकुमारी, कटे सर से झूठ मूठ का रक्त बहता हो ऐसे या डरावने मुखौटे लगा कर,
सुफेद, लाल, नीले पीले, हरे ऐसे नकली बाल लगा कर ,
विविध रुप धर लेते हैँ और अँधेरी रात मेँ खुद डर कर मजा लेते हैँ
या औरोँ को डराने के प्रयास मेँ तरकीब करते हैँ.
छोटे बच्चोँ के साथ उनके माता पिता भी रहते हैँ
हर घर पर दस्तक देकर बच्चे पूछते हैँ,
" ट्रीक ओर ट्रीट ? "
मतलब, कोई करतब देखोगे या हमेँ खुश करोगे ?
तो घर से लोग बाहर निकल कर,
चोकलेट, गोली, बिस्कुट इत्यादी उनकी झोली मेँ डाल देते हैँ.
खूब सारी केन्डी मिल जाती है बच्चोँ को !
कई बुरे सुभाव को लोग, बच्चोँ को परेशान भी करते हैँ
इसलिये टी.वी. पर खूब सारी,हिदायतेँ दीँ जातीँ हैँ -- खैर !जैसा देश, वैसे त्योहार !
अब भारतीय लोग नवरात्र के साथ साथ हेलोईन भी मना ही लेते हैँ
और द्वार पर आये बच्चोँ का मन तोडते नहीँ --
विश्व का सबसे विशालकाय कद्दू
जानते हैँ आप कि सबसे विशाल कद्दू,१६८९ पाउन्ड का है
जिसे " जो जुत्रास " नामके एक शख्श ने,
सितम्बर २९ , २००७ के दिन, मेसेचुसेट्स प्राँत मेँ दर्ज करवा कर,
विश्व के सबसे विशालकाय कद्दू उगानेवाले का इनाम जीत लिया.
आजकल, अमरीका के हर मोल की दुकान पर
या घरोँ की सामने हर घर की ड्योढी पर,
केसरी रँग के कद्दू, मक्का, और खेत मेँ रखते हैँ वैसा गुड्डा सजाया दीख जाता है. और, इस तरह परदेस मेँ रहते हुए भी,
धरती माता और जगजन्नी अम्बिका का प्रसाद मिल जाता है.
अब चलूँ ..
माँ की आरती का पावन अवसर है..
आप सभी को,
"अमरीका की पाती" " जय माता दी " कहते हुए, विदा लेती है।
http://www.youtube.com/watch?v=oZA66kG5UEc.
.फिर मिलेँगे ..
तब तक, भगवती प्रसन्न रहे !-
( सृजन गाथा से साभार )
- स स्नेह, -- लावण्या
कौन जानता था कि, एक नन्हा सा पौधा इतना घटादार,घना, हरा भरा बरगद सा फैला विशाल वृक्ष बन जायेगा ?
मेरे पूज्य पापा जी स्व.पँडित नरेन्द्र शर्मा तथा अन्य कर्मठ साथियोँ की मेहनत से लगाया ये नन्हा बिरवा, "विविध ~ भारती" स्वर्ण जयँती उत्सव मना रहा है...
भारत सरकार द्वारा आरँभ किया गया, भारत की जनता के प्रति पूरी ततह समर्पित, आधुनिक वायु सँचार माध्यम का यशस्वी रेडियो कार्यक्रम, अबाध, सुचारु रुप से चलता रहे, ये मेरी शुभकामना है और विविध भारती से जुडे हरेक व्यक्ति को मेरे सस्नेह अभिवादन !
स्वर्ण जयँती सु -अवसर आया,
जन जन के मन उमँग छाया
नव सँशोधन, स्वर लहर मधुर
विविध भारती बन,मधुराकर्षण
भारत के गौरव सा, ही हो पूरण
शत वरष,भावी के कर गुँजारित
प्रेम वारिधि छलका कर ,अविरत
जन जन का बन समन्वय -सेतु
फहराता रहे, यशस्वी, हर्ष - केतु
-- लावण्या
जोगलिखी संजय पटेल की said...
पचासवाँ शुभ जन्म दिवस मनाओ विविध भारती,
हम श्रोताओं की भावनाएँ उतारे तुम्हारी आरती
नाच रहा है मन - मयूरा ; जगमगाए दीपक सरस
लावण्य बढ़े प्रतिपल तुम्हारा पल पल रहे अति सरस
Prem Piyush said...
लावण्या,
आपके पापाजी की यह सारी संकल्पना समय के धारा के साथ आज भी बह रही है विविध भारती का नाम, इसकी संकल्पना, अनेक कार्यक्रमों की रुपरेखा जो समय के साथ अपनी मौलिकता लेकर आज भी वैसी ही मनोरंजक और ज्ञानवर्धक है ।शैशवावस्था से पाल पोसकर बड़ा किया गया विविध भारती का सदा युवा रहने वाला इस रुप का श्रेय पंडित जी को जाता है । अपनी सारी कृतियों और रेडियो मनोरंजन के उन नामों में पंडितजी अमर हैं ।
m.p. said...
lavanya ji ,aapki panktiyon mein chhupa aashirwad man ko chhoo gaya. humare poorvaj the panditji aur aap unki santaan hain ,hamare liye garv ka vishay hai ki aapka aashirvad hamen mila hai.hamne seemit saadhnon ke saath jo prayas kiya,aapko kaisa laga agar aap do panktiyan likhengi to mahati kripa hogi.mere paas hindi font nahin hai,roman mein likh raha hoon kshamaprarthi hoon........ mahendra modi,
sahayak kendra nideshak,vividh bharati,mumbai mpmodi@gmail.com
(यहाँ ऊपर दी हुई सारी सामग्री पुनः प्रकाशित कर रही हूँ )
..और अब आगे
http://radionama.blogspot.com/ " रेडियोनामा "
देखिये ये लिंक्स :
http://radionamaa.blogspot.com/2007/10/blog-post_25.html
http://radionama.blogspot.com/2008/02/blog-post.html
http://radionama.blogspot.com/2007/09/blog-post_8214.html
प्रकाशित आलेख को मेरे जाल घर पर भी दे रही हूँ ~~~
आप अवश्य पढेँ और आपकी शुभकामना व आशीर्वाद
विविध भारती के लिए अवश्य दीजिये ~~~
धन्यवाद !
" बधाई हो जी बधाई ..
आप सारे श्रोताओँ को और दूर परदेस मेँ बसे या भारत मेँ विविध भारती के रंगारंग कार्यक्रमोँ को सुन रहे अनगिनत रसिक श्रोताओँ को विविध भारती के स्वर्ण जयँती के उपलक्ष्य मेँ अनेकोँ बधाईयाँ ! आशा है आपकी ईद बढिया मनी होगी और नवरात्र के उत्सव का आप भरपूर आनँद ले रहे होँगेँ ...आज आपके सामने विविध भारती की शिशु अवस्था की यादेँ लेकर लौटी हूँ ..
जनाब रिफत सरोश जी ने हमेँ यह बतलाया था कि, कैसे पहले इन्डियन पीपल्स थियेटर यानी इप्टा रंगमंच की दुनिया में सक्रिय था ॥
वहीँ किसी कार्यक्रम मेँ रिफत साहब ने नाटक के सूत्रधार की आवाज़ सुनी और ये भी जान लिया कि श्रोता जिस आवाज़ के जादू से बँधे हुए से थे वह हिन्दी कविता से नाता रखते कवि नरेन्द्र शर्मा थे.
भारत की स्वतँत्रता के बाद आकाशवाणी की नीति मेँ परिवर्तन आया और रेडियो के लिये हिन्दी लेखकोँ और कवियोँ की तलाश जारी हुई. नीलकँठ तिवारी, रतन लाल जोशी, सरस्वती कुमार दीपक, सत्यकाम विध्यालँकार, वीरेन्द्र कुमार जैन, किशोरी रमन टँडन,डा. शशि शेखर नैथानी, सी. एल्. प्रभात, के. सी. शर्मा भिक्खु, भीष्म साहनी जैसे हिन्दी के अच्छे खासे लोग रेडियो प्रोग्रामोँ मेँ हिस्सा लेने लगे.
अब रिफत सरोश जी के शब्दोँ मेँ आगे की कथा सुनिये ..
" उन्हीँ दिनोँ हम लोगोँ ने पँ. नरेन्द्र शर्मा को भी आमादा किया- एक विशेष कार्यक्रम का आयोजन किया गया- " कवि और कलाकार" उसमेँ सँगीत निर्देशक अनिल बिस्वास, एस्. डी. बर्मन, नौशाद और शैलेश मुखर्जी ने गीतोँ ,गज़लोँ की धुनेँ बनाई । शकील, साहिर और डाक्टर सफदर "आह" के अलावा नरेन्द्र जी भी इस प्रोग्राम के लिये राजी हो गये - नरेन्द्र जी के एक अनूठे गीत की धुन अनिल बिस्वास ने बनाई थी, जिसे लता मँगेशकर ने गाया था -
" युग की सँध्या कृषक वधू -सी, किसका पँथ निहार रही "
पहले यह गीत कवि ने स्वयँ पढा, फिर इसे गायिका ने गाया उन दिनोँ आम चलते हुए गीतोँ का रिवाज हो गया था और गज़ल के चकते दमकते लफ्ज़ोँ को गीतोँ मेँ पिरो कर अनगिनत फिल्मी गीत लिखे जा रहे थे - ऐसे माहौल मेँ नरेन्द्र जी का यह गीत सभी को अच्छा लगा, जिसमेँ साहित्य के रँग के साथ भारत भूमि की सुगँध भी बसी हुई थी - और फिर नरेन्द्र जी हमारे हिन्दी विभाग के कार्यक्रमोँ मेँ स्वेच्छा से आने लगे - एक बार नरेन्द्र जी ने एक रुपक लिखा -
" चाँद मेरा साथी " उन्होँने चाँद के बारे मेँ अपनी कई कवितायेँ जो विभिन्न मूड की थीँ एक रुपक लडी मेँ इस प्रकार पिरोई थी कि मनुष्य की मनोस्थिति सामने आ जाती थी - वह सूत्र रुपक की जान था - मुझे रुपक रचने का यह विचित्र ढँग बहुत पसँद आया और आगे का प्रयोग किया -मैँ बम्बई रेडियो पर हिन्दी विभाग मेँ स्टाफ आर्टिस्ट था और अब्दुल गनी फारुकी प्रोग्राम असिस्टेँट ! फारुकी साहब नरेन्द्र जी से किसी प्रोग्राम के लिये कहते , वे फौरन आमादा हो जाते - आते , और अपनी मुलायम मुस्कुराहट और शान्त भाव से हम सब का मन मोह लेते !
समय ने एक और करवट बदली उस समय के सूचना तथा प्रसारण मँत्री डा. बी.वी. केसकर फिल्मी गानोँ से आज़िज थे मगर पब्लिक गाना सुनना चाहते थे - केसकर साहब ने एक व्यापक कार्यक्रम बनाया कि आकाशवाणी के बडे बडे केन्द्रोँ पर लाइट म्युजिक यूनिट ( प्रसारण गीत विभाग ) बनायेँ जायेँ, परन्तु उनमेँ फिल्मी गानोँ जैसा छोछोरापन और बाजारुपन न हो ! बम्बई मेँ इस भाग के प्रोड्युसर नरेन्द्र जी नियुक्त किये गये - कल तक नरेन्द्र शर्मा हमारे अतिथि बनकर आया करते थे , अब वे, जिम्मेदार और प्रभावशाली अफसर बन गये जिनकी डायरेक्ट पहुँच मँत्री महोदय तक थी और हमने देखा कि बी. पी. भट्ट जैसे स्टेशन डायरेक्टर उनके आग पीछे घूमने लगे परन्तु नरेन्द्र जी की मुस्कुराहट मेँ वही मुलायमियत और वही रेशमीपन था ! वह सहज भाव से हम लोगोँ से बातेँ करते -
उनको एक अलग कमरा दे दिया गया था प्रसार गीत विभाग भारतीय सँगीत का एक अँग नहीँ, बल्कि हमारे हिन्दी सेक्शन का एक हिस्सा था और नरेन्द्र जी की वजह से सेक्शन चलाने मेँ हमेँ बडी आसानी थी - कहीँ गाडी नहीँ रुकती थी , चाहे आर्टिस्टों का मामला हो या टेपोँ और स्टुडियो का ! उन्होँने हिन्दी सेक्शन के अन्य कामोँ मेँ हस्तक्षेप करना उचित नहीँ समझा उन्हेँ प्रसार गीत से ही सरोकार था आधे दिन के लिये दफ्तर आते थे - या तो सुबह से लँच तक या लँच के बाद शाम तक ! अपने ताल्लुकात की वजह से उन्होँने फिल्मी दुनिया के मशहूर सँगीतकारोँ से प्रसार गीतोँ की धुनेँ बनवाईँ जैसे नौशाद , एस. डी बर्मन, सी. रामचन्द्र, राम गांगुली, अनिल बिस्वास, उस्ताद अली अकबर खाँ और कोई ऐसा फिल्मी गायक न था जिसने प्रसार गीत न गाये होँ - लता मँगेशकर, आशा भोँसले, गीता राय, सुमन कल्याणपुर, मुकेश, मन्ना डे, एच. डी. बातिश, जी. एम्. दुर्रानी, मुहम्मद रफी, तलत महमूद, सुधा मल्होत्रा - सब लोग हमारे बुलावे पर शौक से आते थे - यह नरेन्द्र जी के व्यक्तित्त्व का जादू था - एक सप्ताह मेँ एक दो गाने जरुर रिकार्ड हो जाते, जो तमाम केन्द्रोँ को भेजे जाते आज मैँ अनुभव करता हूँ कि, नरेन्द्र जी का एक यही कितना बडा एहसान है आकाशवाणी पर कि उन्होँने उच्चकोटि के असँख्य गीत प्रसार विभाग द्वारा इस सँस्था को दिये !
आकाशवाणी को बदनामी के दलदल से निकालने और प्रोग्रामोँ को लोकप्रिय बनाने मेँ नरेन्द्र जी का महत्त्वपूर्ण योगदान है " प्रसार -गीत " तो उसकी एक मिसाल है परन्तु जो अद्वितीय कार्य उन्होँने किया वह था, " विविध भारती " की रुपरेखा की तैयारी तथा प्रस्तुति ! अपने मित्र तथा आकाशवाणी के महानिर्देशक श्री जे. सी. माथुर के साथ मिलकर नरेन्द्र जी ने आल इँडीया वेरायटी प्रोग्राम का खाका बनाया जिसका अति सुँदर नाम रखा " विविध भारती " आकाशवाणी का ऐसा इन्कलाबी कदम था जिसने न सिर्फ उस की खोई हुई साख वापस दिलाई, बल्कि आकाशवाणी के श्रोताओँ मेँ नई रुचि पैदा की और उसमेँ हलके -फुलके प्रोग्रामोँ द्वारा राष्ट्रीयता और देश प्रेम का एहसास जगाया और आगे चलकर यह कार्यक्रम आकाशवाणी के लिये " लक्ष्मी का अवतार " साबित हुआ - इस तमाम आकाशवाणी के इतिहास मेँ उनका नाम सुनहरे अक्षरोँ मेँ लिखा जायेगा -
मेरे फरिश्तोँ को भी पता न था कि नरेन्द्र जी जैसे विद्वान मेरे बारे मेँ इतनी अच्छी राय रखते हैँ कि जब "विविध भारती " विभाग की स्थपना होने लगी तो उन्होँने अपने असिस्टँट प्रोद्युसरोँ के लिये जहाँ दिल्ली से बी. एस्. भटनागरजी, विनोद शर्मा, सत्येन्द्र शरत्` और नागपुर से भृँग तुपकरी को चयन किया तो बम्बई से मुझे योग्य समझा और मेरा नाम हिन्दी प्रोड्युसरोँ की सूची मेँ रखा इस प्रकार मेरी ज़िन्दगी मेँ एक नया मोड लाने मेँ नरेन्द्र जी का एह्सान है - उन दिनोँ आकाशवाणी मेँ " आसिस्टेँट प्रोड्यूसर " बनना बडे गौरव की बात समझी जाती थी
जब विविध भारती के लिये नमूने के प्रोग्राम तैयार किये जाते थे, तो मैँने नरेन्द्र जी की " चाँद मेरा साथी " वाली टेकनीक को अपनाकर गज़लोँ और गीतोँ का मिलाजुला प्रोग्राम " गजरा " बनाया जिसमेँ हल्की फुल्की चटाखेदार हिन्दुस्तानी जबान की कम्पेयरिँग मेँ पिरोया - यह पहला प्रोग्राम था जो श्री जे. सी. माथुर को सुनाया गया था और उन्हेँ पसँद आया " यह आकाशवाणी का पँचरँगी प्रोग्राम है - विविध भारती, गजरा ! गीत के रँग -बिरँगे फूलोँ से बनाया गया - गजरा "
बीच मेँ एक बात याद आ गई - नरेन्द्र जी अच्छे खासे ज्योतीषी भी थे -
" विविध भारती " प्रोग्राम पहली जुलाई को शुरु होने वाला था - फिर तारीख बदली आखिर पँडित नरेन्द्र शर्मा ने अपनी ज्योतिष विध्या की रोशनी मेँ तय किया कि यह प्रोग्राम ३ अक्तूबर १९५७ के शुभ दिन से शुरु होगा और प्रोग्राम का शुभारँभ हुआ तो " विविध भारती " का डँका हर तरफ बजने लगा -
लेखक: ज़नाब रीफत सरोश साहब ....
( आगे की कथा ..फिर कभी सुनाऊँगी ..आज इतना ही ..कहते हुए आपसे आज्ञा ले रही हूँ ...और मेरे पापा जी के लगाये इस पवित्र बिरवे को आज हरा भरा सघन पेड़ बना हुआ देखकर विविध भारती व आकाशवाणी सँस्था को सच्चे ह्र्दय से शुभकामनाएँ दे रही हूँ !
ईश्वर करेँ कि हर इन्सान जो इनसे जुडा हुआ है कार्यक्रम प्रस्तुतकर्ता या श्रोता के रुप मेँ, चाहे देशवासी होँ या परदेसी श्रोता, मित्र व साथी, सभी को बधाई देते अपार हर्ष हो रहा है ! शुभम्-भवति ..स-स्नेह सादर-- लावण्या
लावण्यम----अंतर्मनशीर्षक में विषय-वस्तु के बीज समाहित होते हैं.लावण्यम----अंतर्मन इसी बीज का पल्ल्वीकरण है.हृदयेन सत्यम (यजुर्वेद १८-८५) परमात्मा ने ह्रदय से सत्य को जन्म दिया है. यह वही अंतर्मन और वही हृदय हैजो सतहों को पलटता हुआ सत्य की तह तक ले जाता है.लावण्य मयी शैली में विषय-वस्तु का दर्पण
बन जाना और तथ्य को पाठक की हथेली पर देना, यह उनकी लेखन प्रवणता है. सामाजिक, भौगोलिक, सामयिक समस्याओं
के प्रति संवेदन शीलता और समीकरण के प्रति सजग और चिंतित भी है. हर विषय पर गहरी पकड़ है. सचित्र तथ्यों को प्रमाणित करना उनकी शोध वृति का परिचायक है. यात्रा वृतांत तो ऐसे सजीव लिखे है कि हम वहीं की सैर करने लगते हैं.आध्यात्मिक पक्ष, संवेदनात्मक पक्ष के सामायिक समीकरण के समय अंतर्मन से इनके वैचारिक परमाणु अपने पिता पंडित नरेन्द्र शर्मा से जा मिलते हैं,
जो स्वयं काव्य जगत के हस्ताक्षर है.पत्थर के कोहिनूर ने केवल अहंता, द्वेष और विकार दिए हैं, लावण्या के अंतर्मन ने हमें सत्विचारों का नूर दिया है.पारसमणि के आगे कोहिनूर क्या करेगा?- डा. मृदुल कीर्तिAll sublime Art is tinged with unspeakable grief.
All Grief is a reflection of a soul in the mirror of life'SONGS are those ANGEL's sound that Unite US with the Divine.'
About me:
Music and Arts have a tremendous pull for the soul and expressions in poetry and prose reflects from what i percieve around me through them.