Saturday, May 15, 2010

प्रशांत महासागर और भारतीय शास्त्रीय संगीत की सुमधुर जुगलबं

प्रशांत महासागर और भारतीय शास्त्रीय संगीत की सुमधुर जुगलबंदी

लावण्या दीपक शाह


मैंने अमरीका भूखंड का एक छोर से दूसरे तक का लंबा प्रवास किया है । आज मेरा मन कर रहा है, कि चलिए, आज आपको ले चलती हूँ - उत्तर अमेरिका के पश्चिमी छोर पर ... जहाँ भारतीय शास्त्रीय संगीत और प्रशांत महासागर की सुमधुर जुगलबंदी से मेरा साक्षात्कार हुआ था । वहाँ का पहला प्रवास सन 1974 से 1976 तक रहा । आवास पश्चिमी किनारे पर बसे केलीफोर्निया प्रांत के लॉस एंजिलिस शहर में रहा और यह लॉस एँजिलिस शहर अमरीका के सबसे ज़्यादा घनी आबादीवाला प्रदेश है ।

लॉस एँजिलिस से उत्तर या दक्षिण दिशा में फ्रीवे नंबर 101 विश्व के सबसे रमणीय बृहत मार्ग से यात्रा करना अपने आप में एक अदभुत अनुभव है । आप जब अपनी कार में बैठकर यात्रा करते हैं तब पूरे समय ये मुख्य मार्ग विश्व के सबसे विशाल प्रशांत महासागर के नील वर्णीय जल में उठती उत्ताल फेनिल तरंगों के साथ हिलोरें लेते हुए समुन्दर के साथ सटे हुए रोकी नामक पहाड़ों की उठती गिरती नन्हीं-नन्हीं पहाडियों पर सर्पीली गति से आगे रेंगती, वृत्ताकार घूमती हुई साफ़ सड़क पर लगभग फिसलते हुए चलता है । और आप आगे बढ़ते रहते हैं ।

सच मानिए उस वक़्त आप अपने आपको एक नन्हे पंछी की तरह बादलों के पार मनहर गति से उड़ता हुआ सा अनुभव करते हैं । उस अवस्था में हम प्रकृति की मनोमुग्धकारी सुन्दरता के सामने अपने आपको एक लघु बिन्दु से अधिक नहीं जान पाते ! ऐसा मेरा अनुभव रहा है ।

सच, ये यात्रा अनुभव अति विशाल और क्षितिज के छोर तक फैले असीम प्रशांत महासागर को देखकर अपने अस्तित्त्व को अति लघु मान लेने के लिए विवश कर देता है ।

प्रशांत महासागर की विशाल लहरों के बीच में कहीं-कहीं विश्व की सबसे विशाल व्हेल मछली भी फूँफकार करती जल उड़ा कर ओझल हो जाती है तो कहीं सुफ़ेद सी गल नाम की पंछी हवा में तैरते हुए दूर उड़ कर जाते हुए दीख जाते हैं ।

समुन्दर अविरल उमड़ घुमड़ कर गर्जन-तर्जन करता अपनी स्वतन्त्र सत्ता का एलान करता है । हरियाली, पहाडी ढ़लान वाले रास्ते और नीलवर्ण महासागर तीनों के संग मनुष्य और आधुनिक राज्य मार्ग पर तेज़ रफ़्तार से सफ़र करतीं गाडियाँ एक अनोखा माहौल रच देती हैं । ऐसे ही एक पहाडी मोड़ पर प्रशांत महासागर पर खड़ा ये साईप्रस का पेड़ मुझे किसी तपस्यारत सन्यासी की याद दिला गया था । इस इलाक़े के समुद्र को 'अशांत सागर' या ' रेस्टलेस सी ' कहते हैं । देखिये ये चित्र जो मुझे बहुत प्रिय है -

http://hphotos-sjc1.fbcdn.net/hs391.snc3/23849_414787902194_504367194_5236380_5870393_n.jpg
Lonely Cypress Tree on Pacific coast Highway 101

हमने शहर लॉस एँजिलिस से सान फ्रान्सीसको शहर तक इसी फ्रीवे से ऐसी कई बार यात्राएँ कीं हैं । सन 1975 में और फिर बच्चों के संग सन 1985 में भी । 1995 में फिर लॉस एँजिलिस जाना हुआ था । अब तो यह मनोरम स्थान अपना-सा,चिरपरिचित और पहचाना सा लगता है ।

ऐसी ही एक यात्रा की बात है...जब हम सान फ्रान्सीसको से 10 मील की दूरी पर स्थित एक सुन्दर पर्वत के ढलान पर बसे छोटे और शांत शहर सान राफ़ेल की ओर मुड़े थे और वहाँ एक महान भारतीय संगीतकार का नाम देखकर हर्ष मिश्रित आश्चर्य हुआ था और मैं विचारों के सागर में डूबकी लगाते वक़्त सोच रही थी...

" अरे ! मुग़ल वंश के शहनशाह अकबर के राज दरबारी गायक, मियाँ तानसेन के घराने से सम्बंधित , संगीत प्रणाली रामपुर राज्य के राज गायक मुहम्मद वजीर ख़ान साहब से चलकर जो बाबा अल्ल्लाउद्दीन ख़ान साहब के गुरु थे और उनके मशहूर बेटे तक चलकर आज अमेरिका के पश्चिम तट पर "संगीतम मनोरम" का उदघोष करती विराजमान है ...यह कैसी विस्मयकारी संयोग है !"

सामने रास्ते के ऊपर टँगी एक विशाल तख्ती पर नाम लिखा था -

" अली अकबर ख़ान कोलेज ऑफ़ म्युझिक " और नीचे राज गायक मुहम्मद वजीर ख़ान साहब का चित्र ।

Allaudin 1929 image
"अली अकबर ख़ान कोलेज ऑफ़ म्युझिक " !
यह कैसा सुखद संयोग है ! मैक डोनाल्ड के प्रदेश में भारतीय शास्त्रीय संगीत कहाँ से आन पडा ? यही सोचती रही .... जिसने मेरा ध्यान खींच लिया था, वह नाम था - उस्ताद अली अकबर ख़ान सा'ब का ! जो मन में ना जाने कितनी संगीतमय सुरीली यादें सरोद के तारों की खनकार की तरह जागा गया । आपने भी सुप्रसिद्ध संगीतकार, सरोद वाध्य यंत्र के उस्ताद जनाब अली अकबर ख़ान साहब का नाम अवश्य सुना होगा ।
अली अकबर जी के पिता बाबा अल्लाउद्दीन ख़ान साहब 20 वीं सदी के शायद सबसे समर्थ संगीतकार रहे हैं ।
http://music.calarts.edu/%7Ebansuri/images/baba.web.jpg
सन 1922 में जन्मे अली अकबर ख़ान साहब को गायकी और सरोद में उनके पिता बाबा अल्लाउद्द्दीन ख़ान साहब ने तैयार किया और 13 वर्ष की कम उम्र में इलाहाबाद के जलसे में सबसे पहली बार अली अकबर जी की कला से श्रोताओं का परिचय हुआ ।

सन 1955 में अली अकबर ख़ान साहब पहली बार अमरिकी धरा पर आये । सबसे पहली भारतीय संगीत की सीडी अमेरिका में, उन्होंने बनवाई थी । सन 1960 में टेलीविज़न पर प्रथम भारतीय शास्त्रीय संगीतकार के दर्शन अमरिकी जनता को अली अकबर ख़ान साहब ने अपने दीदार से ही करवाए थे जिसके बाद अनगिनत कलाकारों ने अमेरिका आकर अपनी कला का प्रदर्शन किया है । परन्तु खां साहब इन सभी में अग्रणी रहे हैं ।

सन 1953 में हिन्दी चित्रपट ‘आँधियाँ’ देवानंद के भाई चेतन आनंद के निर्देशन में नव केतन निर्माण संस्था की प्रथम फ़िल्म के लिए उस्ताद अली अकबर ख़ान साहब ने अपना संगीत दिया था जो फ़िल्म के लिए पहला संगीत था और इस फ़िल्म के गीत लेख़क मेरे स्वर्गीय पिता पण्डित नरेंद्र शर्मा जी ही थे । इसीफ़िल्म काएकगीत (स्वर साम्राज्ञीसुश्री लता मंगेशकरद्वारा गाया हुआ) सुनिए....

click ....here ....

(गीतकार आदरणीय पंडित नरेन्द्र शर्माजी को उनकी पुण्यतिथि (11 फरवरी पर सादर समर्पित ) आप कल्पना कीजिये अगर हिन्दी के सुप्रसिद्ध गीतकार पंडित नरेन्द्र शर्माजी, जिनके अधिकांश गीत शुद्ध हिन्दी में लिखे गये हैं; अगर उर्दू में गीत लिखें तो....

http://music.calarts.edu/%7Ebansuri/images/baba.web.jpg

आँधियाँ फ़िल्म के अलावा 'हाउस होल्डर ' जो आईवरी मर्चेंट फ़िल्म संस्था की प्रथम फ़िल्म थी, उसका संगीत भी अली अकबर ख़ान सा'ब ने दिया था । सत्यजीत रे की प्रसिद्ध फ़िल्म 'देवी ' का संगीत ख़ान साहब की देन है, जिसमें देवी के क़िरदार को जीया शर्मिला टैगौर ने । बांग्ला फ़िल्म जगत में शर्मीला जी का यह पहला क़दम था और उन्होंने असीम सफलता भी हासिल की थी । उसके बाद ' क्षुधित पाषाण ' फ़िल्म का संगीत भी अली अकबर ख़ा साहब ने दिया था । मशहूर इतालवी फ़िल्म निर्माता बर्नान्दो बर्तोलुच्ची ने 'लिटिल बुध्धा' फ़िल्म बुद्ध भगवान् पर बनायी तब उसके लिए भी उस्ताद अली अकबर ख़ान साहब ने संगीत दिया था ।

कोलकाता, स्विटज़रलैंड और केलिफ़ोर्निया जैसे विविध भौगोलिक स्थानों पर इन्होंने संगीत संस्थाएँ व शास्त्रीय संगीत की स्कूल खोली और दुनिया के कोने-कोने में भारतीय शास्त्रीय संगीत को फैलाया

ये उनकी अनेकविध उपलब्धियों में से सिर्फ़ कुछेक हैं -

भारत स्वतंत्रता समारोह न्यूयोर्क के संगीत जलसे में अपने जीजा सुप्रसिद्ध सितारवादक पंडित रविशंकर के साथ संगत करते हुए उस्ताद अली अकबर ख़ान साहब ने संगीत संध्या में भारतीय संगीत के झंडे गाद दिए और हर देसी और विदेशी को, अपनी सुरीले संगीत के बल से, मन्त्र मुग्ध कर दिया था ।

संगीत सीमा में कहीं बंध पाया है ? संगीत हर कौम, मज़हब या देश से परे ईश्वरीय आनंद की धारा है, जो हर इंसान में बसे ख़ुदा या ईश्वर से सीधा सम्बन्ध जोड़ने में सहायक सिद्ध होती है ।

उस्ताद अली अकबर ख़ा साहब के प्रयास से अमरीका में भारतीय संगीत संस्थान प्रतिष्ठित हो चुका है । कई अमरीकी विद्यार्थी दूसरे मुल्क़ों से आये संगीत शिक्षा के प्रति उत्सुक छात्रों ने यहाँ भारतीय शास्त्रीय संगीत प्रणाली की विविध विधा व वाद्य यन्त्रों को सीखकर बजाने की विधिवत शिक्षा पायी है । आज यहाँ तबला वादन में स्वप्न चौधरी विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं । इस कारण यह संस्थान भारतीय शास्त्रीय संगीत की पताका को पश्चिम के मुक्त आकाश में फहरानेवाली एक विशिष्ट भूमिका में देखी जाती है । इसका पता है - www.aacm.org

फिर मुलाक़ात होगी...ऐसी ही किसी विशिष्ट शख़्शियत से मुलाक़ात और संगीत साहित्य और कला के विविध आयामी पहलूओं से आपसे बतियाने के लिए...

Wednesday, May 5, 2010

एक अमरीकी , भारत प्रेमी लेख़क से मिलिए, जिनका नाम है, श्री रोबेर्ट आर्नेट


एक अमरीकी , भारत प्रेमी लेख़क से मिलिए,

जिनका नाम है, श्री रोबेर्ट आर्नेट :

" India Unveiled " / भारत की छवि , बे नकाब सी "के लेख़क

" INDIA UNVEILED "

कुछ वर्ष पूर्व, जब् मेरी मुलाक़ात श्री रॉबर्ट आर्नेट से हुई तब मुझे , मेरे पति दीपक जी और रॉबर्ट आर्नेट जी को ,
मेरी सहेली श्रीमती शुभदा जोशी जी ने, उनके आवास पर सांध्य - भोजन के लिए निमंत्रित किया था ~
अब, आप को एक बड़े मार्के की बात से अवगत करवा दूं ,
अमरीका में , अपने नाम को अकसर संक्षिप्त करने का एक ख़ास चलन है .
जिसके कारण , थोमसन नाम के इंसान को टॉम और चार्ल्स , को चार्ली या रॉबर्ट को बोब, तो रिचर्ड को रीक और वीलीयम को बील के संक्षिप्त नाम से , अकसर पुकारा और पहचाना जाता है -
ये बात , मैं, एक दीर्घ अंतराल के अमेरीकी निवास और उससे जन्मे अनुभव के बाद ही जान पायी हूँ जी हां, तो इसी बात से , कुछ याद आया क्या ?

अमरीका के भूतपूर्व राष्ट्रपति का पूरा नाम वीलीयम ही है पर वे " बील क्लिंटन " के नाम से ही सु - प्रसिध्ध हुए हैं और पूरा संसार उन्हें " बील " के संक्षिप्त नाम से ही आज पहचानता है।  अत: रॉबर्ट आर्नेट जी ने अपना परिचय कराते हुए हमें ,अपना नाम , अमरीकी रस्म के मुताबिक़ "बोब " ही बतलाया !
बोब से मिलकर हमने ये जाना के वे एक सौम्य, शांत और मृदुभाषी व्यक्तित्त्व के धनी ' बोब ' , भारत देश के अनन्य पुजारी भी हैं और हमें ये भी पता लगा के, वे, भारत में, कई यात्राएं कर चुके हैं और आम भारतीयों से मिलजुल कर बेहद प्रसन्न होते हैं। 
रॉबर्ट का जन्म संपन्न परिवार में हुआ था ये बात , मैं समझ पायी थी , हालांकि, उन्होंने अपने बीते जीवन के बारे में ज्यादा खुलकर , उस वक्त , बातें नहीं कीं थीं ~ उनके जीवन में ऐसी कौन सी घटना घटी होगी जिससे उनमे पश्चिम की जीवन शैली को छोड़ कर , भारत के प्रति अदम्य आकर्षण और अपनत्व का भाव पैदा हुआ ये मैं नहीं जानती थीरॉबर्ट के जीवन से सम्बंधित कुछ तथ्य, बाद में, जान पायी हूँ~ 
शिक्षा एवं कार्य क्षेत्र : एम्. ए., मास्टर्स की शिक्षा, इतिहास के विषय में, इन्डीयाना विश्व विद्यालय से प्राप्त की, जोर्जिया, तुलाने विश्व विद्यालय , लन्दन विश्व विद्यालय में शिक्षा लेने के बाद, २ वर्ष अमरीकी सेना में सेवारत रहते हुए टर्की राज्य में कार्य किया - मेरीलैंड विश्व विद्यालय में , पश्चिमी सभ्यता का इतिहास विषय का अद्यापन कार्य किया था. रॉबर्ट ने अपनी पुस्तक की भूमिका में एक ये प्रसंग भी लिखा है ~एक बार वे जब  किसी कला प्रदर्शनी देखने गये थे और किसी मित्र की बातों ने उन्हें , भारयीय योग प्रणाली तथा इतिहास तथा भारतीय सभ्यता के प्रति सर्व प्रथम आकर्षित किया था ~ नतीजन, रॉबर्ट ने भारत यात्रा का निर्णय ले लिया था और प्रथम यात्रा में ही उन्हें , भारत भूमि ने आकर्षित कर लिया ~ दूसरी यात्रा तक वे इस कदर भारत के मोहपाश में बंध चुके थे के उन्हें भारत ही अपना असली घर महसूस होने लगा और फिर भारतीय रंग ने पूरी तरह उनके व्यक्तित्त्व को बसन्ती रंग में भिगो दिया !
आज जो रॉबर्ट का व्यक्तित्व सामने देखा वही , सच था जिसे , अमेरीकी अंदाज़ में कहें तो ' फेस वेल्यु ' माने ' जैसा पाया वैसा ही ' इस मैत्री भावना से, हमने भी , रॉबर्ट जी की मित्रता को और उनके व्यक्तित्त्व को अपना लिया
मेरी मान्यता है के जन्मजन्मान्तर में जब् हम चोला बदलकर, बसन्ती रंग का चोला धारण कर लेते हैं तब हम सच्चे भारतीयत बन पाते हैं और हमारी अंतरात्मा भी गा उठती है, " मेरा रंग दे बसन्ती चोला माँ ये रंग दे बसन्ती चोला " तो बोब का चोला भी , विशुध्ध बसन्ती , भारतीय रंग में रंग उठा था और भारत की ओर खिंचा चला आया था ~

उन्हीं के शब्दों में, सुनिए
" जब् मैं भारत पहुंचा तब मुझे एक भरपूर विश्रांति मिली , ऐसा लगा , मानों , मैं बहुत बरसों बाद अपने घर , लौट कर, आ पहुंचा हूँ ! "
         वाकई रॉबर्ट आर्नेट का व्यक्तित्त्व मुझे एक अनमोल रत्न की तरह, एक चमत्कृत करनेवाली आभा लिए , भारतीय संस्कृति की ज्योति से दमकता हुआ सा , ही दीखलाई दिया !
उनसे प्रथम बार भेंट हो रही थी सो, मैं , उनके लिए , एक छोटा सा चांदी का सिक्का ,( बिलकुल चार आने के सिक्के जितना ) ले आयी थी जिस पर श्री ठाकुर रामकृष्ण परमहंस देव की पावन छवि बिराजमान थी जिसे मैंने , कुछ अरसे से संजो कर रखा था  ~ मैं, ठाकुर रामकृष्ण देव को, अपने गुरु मानती हूँ और इस नवागंतुक , बाह्य रूप से परदेसी , परंतु मन से सर्वथा भारतीय , लेख़क को , यही भेंट करना चाहती थी. रॉबर्ट महोदय ने , मेरा अनुरोध स्वीकार करते हुए, इसे , सहर्ष स्वीकार किया और जो उन्होंने इसे, लेते वक्त कहा वह रहस्यपूर्ण था - उन्होंने कहा, ' मैं, जोर्जिया प्रांत ( जो दक्षिण में है ) से आ रहा था तब , सागर किनारे , कुछ पल रूका था और सागर की उत्ताल तरंगों का नीला रंग , मुझे अभिभूत कर रहा था और मैं , ( रॉबर्ट ) अनायास श्री रामकृष्ण परमहंस देव को याद कर रहा था चूंकि, " राम और कृष्ण " दोनों ही , हिन्दू धमानुसार, नील वर्ण हैं ..और आप श्री रामकृष्ण का मिलाजुला स्वरूप , भगवान् ठाकुर , मेरे लिए भेंट स्वरूप ले कर आयीं हैं ! लीजिये पहना दीजिये ..." और इतना कहकर वे एक भोले भाले शिशु की तरह , मेरे सामने , गर्दन झकाकर, बैठ गये ! सच ! ऐसा निश्छल स्वरूप , मैंने इससे पहले किसी वयस्क में पहले कभी नहीं देखा था!  मैंने वह लोकेट उनके गले में पहना दिया और तब रॉबर्ट ने सहर्ष , आभार प्रकट किया।
हमारी बातचीत हुई तब मेरा अनुमान शीघ्र दृढ निश्चय में बदल गया और यही निष्कर्ष पर पहुँची के ऊपर से शांत सौम्य सर्वथा साधारण दीखाई देनेवाले अमरीकी "बोब ", वास्तव में असाधारण ज्ञानी हैं ! आगे पता चला ,
क्रिया - योग में भी उनकी काफी पहुँच है। रॉबर्ट आर्नेट ने एक बच्चों के लिए ,
सचित्र पुस्तक लिखी है -  जिसके नाम का भावार्थ है,
" जिन खोजा तिन पाईया " Finders Keepers "

उनकी दूसरी पुस्तक है ," भारत की छवि , बेनकाब सी "

या अंग्रेज़ी में कहें तो, " India, Unveiled "

देखिये लिंक : प्रस्तावना में रॉबर्ट आर्नेट लिखते हैं ,

देखिये लिंक : भारत की छवि बे नकाब सी प्रस्तावना में रॉबर्ट आर्नेट लिखते हैं 

" यह  पुस्तक , मैं, आटोबायोग्राफी ऑफ़ अ योगी " लिखनेवाले परम योगी योगानंद जी की स्मृति को तथा सदीयों से भारत भूमि पर अवतरित होते उन
संत महात्माओं को समर्पित करता हूँ , जिन्होंन्ने दुनयवी प्रलोभनों का परित्याग करते हुए, आत्मोसर्ग करते हुए, योग के, उद्धारक व महाज्ञान की ज्योति को सर्व धर्मानुलाम्बी मानव समुदाय के लिए उजागर किया
जिसके फल स्वरूप , हर आत्मा, उस " एक " में, पुन: प्रस्थापित हो पायेगी " इस पुस्तक में अनेक रंगीन चित्र हैं देखिये ये लिंक :

आशा है , आपको श्रीमान रॉबर्ट आर्नेट से मिलना सुखद लगा होगा .भारत माता के कई ऐसे सपूत हैं जिनका जन्म भारत भूमि पर न हुआ तो क्या हुआ ? पर इन्होंने कर्म भूमि भारत को ही माना और आत्मोसर्ग का संबल , भी भारत भूमि से ही पाया और भारत भूमि की सुगंध को , इन सपूतों ने विश्व व्यापी बना दिया ...
जीवन में मौसम का आना और जाना सुनिश्चित है परंतु जीवन पथ पर हमारा कब, किससे मिलना होगा ये सर्वथा अनिश्चित है..आशा करती हूँ कि जीवन यात्रा के किसी खुशनुमा पड़ाव पर फिर दुबारा रॉबर्ट आर्नेट सरीखे , भारत माता के सच्चे सपूत से मुलाक़ात होगी .. तब तक शायद उनकी कोइ नयी पुस्तक भी तैयार हो जाए , क्या पता ....
हो निर्भय हे पथिक तेरा हर पग,
चलता चल तू , न हों डगमग पग
जय हिंद ! वन्दे मातरम ~

- लावण्या