राधे, सुनो, तुम मेरी मुरलिया फ़िर , ना बजी !
किसी ने तान वँशी की फ़िर ना सुनी !
वँशी की तान सुरीली, तुम सी ही सुकुमार ,
सुमधुर कली सी , मेरे अँतर मे,घुली - मिली सी ,
निज प्राणोँ के कम्पन सी , अधर- रस से पली पली सी !
तुम ने रथ रोका -- अहा ! राधिके ! धूल भरी ब्रज की सीमा पर ,
अश्रु रहित नयनोँ मे थीपीडा कितनी सदियोँ की !
सागर के मन्थन से निपजी , भाव माधुरी,
सौंप दिये सारे बीते क्षण, वह मधु - चँद्र - रजनी,
यमुना जल कण , सजनी ! भाव सुकोमल सारे अपने ,
भूत , भव के सारे वे सपने, नीर छ्लकते हलके हलके ,
सावन की बूँदोँ का प्यासा , अन्तर मन चातक पछताता ,
स्वाति बूँद तुम अँबर पर , गिरीं सीप मेँ, मोती बन!
मुक्ता बन मुस्कातीँ अविरल, , सागर मँथन सा मथता मन !
बरसता जल जैसे अम्बर सेमिल जाता द्रिग अँचल पर !
सौँप चला उपहार प्रणय कामेरी मुरलिया, मेरा मन!
तुम पथ पर निस्पँन्द खडी,तुम्हे देखता रहा मौन शशि,
मेरी आराध्या, प्राणप्रिये, मन मोहन मैँ, तुम मेरी सखी ! आज चला वृँदावन से --- नही सजेगी मुरली कर पे -
अब सुदर्शन चक्र होगा हाथोँ पे , मोर पँख की भेँट तुम्हारी,
सदा रहेगी मेरे मस्तक पे!
--लावण्या
6 comments:
आपकी रचना पढ़ कर आदरणीय गुलाबजी की कुछ पंक्तियां याद आ गईं
मुरली कैसे अधर धरूँ
जो मुरली सबके मन बसती
जिससे थी तब सुधा बरसती
आज वही नागिन सी डँसती
छूते जिसे डरूँ
" ऐ मुरली अधराधर की , अधरा न धरुँगी,
मोर पखा सर ऊपर राखिहौँ,
मूँज की माल गले पहिरौँगीँ "
"रसखान जी"
भी ऐसा ही कह गये थे !!
श्रेध्धेय दुलाब जी को नमन !
-- लावण्या
बेचारे कृष्ण। जिन हाथों में मुरली रहती थी। वह खाली नहीं। एक हाथ से वह बजती नहीं। दूसरा पकड़ लिया सुदर्शन ने। अपनी व्यथा ही कह सकते थे राधिका से। आपने खूब लिखा है।
बहुत सुन्दर और बहुत अनूठे अन्दाज में। धन्यवाद प्रस्तुति के लिये।
दिनेश भाई साहब, ज्ञान भाई साहब,
धन्यवाद आप का जो आप ने मेरे प्रयास को सराहा !
स्नेह ,
- लावण्या
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