Thursday, June 19, 2008

जनम जनम के फेरे

जनम जनम के फेरे:

पेरिस ऐयर पोर्ट से जब तक हवाई जहाज ने उडान भरी, शोभना , अपना आँसुओँ से गीला चेहरा , अपनी सीट के साथ लगी खिडकी से सटाये, विवशता, क्षोभ और हताशा के भावोँ मेँ डूबती उतरती रही। फ़िर अपना छोटा सा मलमली रुमाल ,कोट की जेब से निकाल कर उसने लाल हो रही आँखोँ से लगाया। आँसू सोखे ही थे कि फिर कुछ बूँदेँ निकलकर बह चलीँ ! पेरिस हवाई अड्डे की रोशनियाँ विमान के टेक ओफ की तेज गति के साथ उडान भरते ही धुँधलाने लगीँ... उसने आस पास नज़रेँ घुमाईँ तो देखा कि कुछ यात्री अपनी सीटोँ के हत्थोँ को कस कर थामे हुए थे। कुछ लोगोँ ने आँखेँ भीँच लीँ थीँ । किसी के दाँत से ओठोँ को दबा रखा था .. तो कुछ लोग बुदबुदा रहे थे! शायद प्रार्थना कर रहे होँ ! हर मज़हब के देवता से दया की भीख माँग रहे थे ऐसे समय मेँ फँसे ये सारे इन्सान जो उसके सहयात्री थे.
शोभना ने मन ही मन कहा,

" ये पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से बढती जा रही यान की दूरी का प्रभाव था जो ये हाल किये था तब एक माँ मैँ भी तो हूँ ! मुझसे अलग होते मेरे बच्चोँ को क्या मेरी कमी नही खलती ? "

शोभना पर विमान की उडान का कोई खास असर नही हुआ वह अपने आसपास की घटना से मानो बेखबर थी क्योँकि उसका मन तो अब भी भारत मेँ अपनी ससुराल के द्वार पर विवश होकर मानोँ वहीँ ठिठका हुआ, अब भी खडा था !

शोभना पूरे १० सालोँ के बाद ही भारत लौटी थी। भारत ! उसका प्रिय भारत मानोँ किसी दूसरे सौर मँडल का कोई ग्रह , या एक सितारा बन गया था , उसके लिये ! उस की पहुँच के बाहर ! अरे ! सितारे और सारे ग्रह , नक्षत्र तो वो देख भी लेती थी स्याह होते आकाश मेँ टिमटीमाते हुए. जब भी , देर से, सारा दिन काम करके थकी माँदी अपने वृध्ध माता , पिता के साथ जब वह कोन्डो ( Flat ) के लिये लौटती थी तब नज़रेँ आकाश की ओर उठ जातीँ और वो सोचती, बच्चे भारत मेँ शायद सूर्य को देख रहे होँगेँ अगर यहाँ रात घिर आयी है तो ! भारत तो बस अब उसके सपनोँ मेँ ही दीख जाता था और दीखाई देते थे उसके दो बेटे !
दीव्याँश और छोटा अँशुल !

कितने कितने जतन करके उन्हेँ बडा किया था शोभना ने ! हाँ सास जी मधुरा माहेश्वरी जी भी अपने दोनोँ पोतोँ पर जान छिडकतीँ थीँ । देवरजी सोहन भैया भी कितना प्यार करते थे दोनोँ बच्चोँ को !

" हमारे प्रिँस हैँ ये " हमेशा ऐसा ही कहा करते थे ! उस के साथ शोभना को ये भी याद आया कि फैले हुए भरे पूरे ससुराल के कुनबे के रीति रीवाज़ोँ , त्योहारोँ, साल गिरह के जश्न जैसे उत्सवोँ के साथ उसे २४ घँटोँ का दिन भी कम पड जाया करता था. २०, २५ लोगोँ का भोजन, चाय, नाश्ता तैयार करवाना, बडी बहू होने के नाते हर धार्मिक अनुष्ठान मेँ उसका मौजूद होना अनिवार्य था , साथ साथ बडोँ की आवभगत, मेहमानोँ के लिये सारी सुख सुविधा जुटाना ये सारे काम उसी के जिम्मे हुआ करते थे.
रात देरे से , चौका निपटाकर वह सोने जाती तब तक उसके पति धर्मेश, पीठे किये सो रहे होते - कई बार, खिन्न मन से चारपाई पर लेटते मन मेँ उभरे अवसाद को वह कहीँ गहरे गाड देती और ईश्वर को नमन कर के थक के चूर हुई शोभना को कब नीँद आ घेरती उसे पता भी नही चलता !

- कब दिन बीते, सालोँ साल गुजरे, उसे पता ही न चला ! पर, शोभना का वैवाहिक जीवन मँझधार मेँ डूबती उतरती नैया की मानिँद हिचकोले खा रहा था। इस बात से शोभना मुँह मोड न पाती थी।
धार्मिक उतसवोँ पर, परिवार के लिये सास ससुरजी पानी की तरह पैसा बहा देते और जब जब उसे बच्चोँ की स्कुल के लिये कीताब, या फीस देनी होती या डाक्टर परिमल सेठना के पास उन्हेँ ले जाना होता , या उसे खुद की जरुरतोँ के लिये केमिस्ट की दुकान जाना पडता और वह अपने पतिसे पैसोँ की माँग करती , धर्मेश दो टूक जवाब देते,

" मेरे पास कहाँ है पैसा ! सारा काम काज बाबुजी देखते हैँ उन्हीँ से जाकर माँग लो ! "

कई बार वह हार कर बाबुजी के पास जाती या मधुरा जी से कहती , तब भी , वे लोग किसी ना किसी काम के बहाने यहाँ वहाँ हो जाते. पैसा जब माँगने पर भी न मिलता तब शोभना की हताशा खीझ मेँ बदल जाती ! कई बार ऐसे बहाने भी बनाये जाते,

" कुछ दिनोँ बाद बील दे देँगेँ बहु, कुछ दिनोँ बाद ले जाना -- "

ऐसा बार बार होता तब उसे भी सँकोच होने लगा था. शोभना भीतर ही भीतर तिलमिलाने लगती,

" कोल्हू का बैल बनी बडी बहु की बस यही औकात है ! आखिर हर बार मिन्नतेँ करनी होँगीँ मुझे ? बच्चोँ से जब ये सभी प्यार करते हैँ तब उनकी देखभाल, शिक्षा की जिम्मेदारी भी क्या सँयुक्त परिवार का जिम्मा नही ? ये कहाँ का न्याय है ? नही नहीँ , ये सरासर अन्याय है ! कब तक इस तरह घुटती रहूँगी मैँ ? "

वो सोच सोच कर परेशान हो जाती ! सँयुक्त परिवारोँ मेँ ऐसे भी होता है, किसी का दम घुट जाता है तो कोई जिसके हाथ मेँ सत्ता की बागडोर है, पैसोँ का व्यवहार जो थामे हुए हो वे मौज करते हैँ मनमानी करते हैँ और शाँत घरोँ मेँ, सभ्य रीत से फैलता है - एकाकीपन !

ये विडम्बना ही तो है आधुनिक युग की ! कबीर जी ने सही कहा था, " दो पाटन के बीच मेँ बाकी बचा न कोई ! "

यहाँ कोई अदालत या कचहरी नहीँ जो न्याय, व्यवस्था देखे - एक दिन जब उसने अपनी माँ से दबी जबान मेँ कहा कि,

" माँ , मुझे रुपयोँ की जरुरत है "

तब रमा देवी भाँप गईँ कि, उनकी लाडली बिटिया दो कुलोँ की लाज बचाये, आज माँ से माँग रही है अपनी बिखरती गृहस्थी के बचाव के लिये सहारा और माँ ने फौरन कुछ रुपये अलमारी से निकाल कर उसके हाथोँ पे रखते हुए, शोभना की हथेली को उन पैसोँ पर अपने काम्पते हाथोँ से ठाँक दिया था , बेटी की इज्जत माँ ही तो ढँकती है आखिर!

माँ के कहने पर कुछ दिनोँ बाद उसके पिताजी एक दिन उससे मिलने आये थे उसकी ससुराल और आवभगत से निपटकर शोभना को अपने साथ एक स्थानीय बैँक मेँ ले जाकर उन्होँने पूरे ५०,००० हज़ार रुपये जमा करवाये और कहा था ,

" बेटा, जब भी जरुरत हो इसी खाते से ले लेना " - और प्यार से उसका माथा सहलाते हुए, " मेरी अच्छी बिटिया ?"

धीमे से कहकर बाबुजी लँबे लँबे डग भरते हुए,पीछे मुडकर देखे बिना, तेजी से शोभना को बैँक के बाहर अकेली खडा छोड कर चले गये थे !

उनकी सीधी पीठ को गली के पार ओझल होता देखती रही थी वह - और फिर लम्बी साँस लेकर घर लौट आयी थी वह ! हाँ घर वही ससुराल ही तो अब एक ब्याहता का घर होता है ! ऐसे उदार पिता श्री धनपतराय उसे मिले जो बिटिया का सँसार एक बारगी फिर सँवार कर चले गये थे। सज्जन मनुष्य ऐसे ही तो होते हैँ नेक चलन के भले इन्सान बाबा ने शादी के समय भी समधियोँ की खूब आवभगत की थी हर तरह से उन्हेँ सँतुष्ट करके ही बेटी को विदा किया था उन्होँने ! राजशाही ठाठ से सम्पन्न हुई शादी मेँ बेटी "पराया धन " होती है उसे कन्यादान देकर रमा देवी और धनपतराय जी ने अपना ये जन्म पुण्यशाली बानाने का गौरव अवश्य प्राप्त कर लिया था. अपने इस पराये धन को कुछ और धन से जोड कर, उन्होँने अपनी सुशील कन्या को ससुराल भेज कर , अपने मन को साँत्वना देते हुए कहा था,

" यही जगत की रीति है "

धर्मेश को बैँक के खाते के बारे मेँ कुछ दिनोँ बाद ही पता चला और कारण बहुत जल्दी उभर कर सामने आ गया जब शोभना ने, अपने खर्च के लिये और अपने दोनोँ बेटोँ के खर्च के लिये, ससुराल के किसी भी सद्स्य से पैसे माँगना जब बँद कर दिया तब अचानक धर्मेश को ये विचार आया कि मामला क्या है ? शोभना के मन मेँ कोई छल नहीँ था सो वह बैन्क की पासबुक अपनी साडीयोँ के साथ , सामने ही कबाट मेँ रखती जो धर्मेश ने देख ली थी और तब भी कुछ दिन वह अनजान बना रहा , सोचता रहा कि किस तरह , इस बैन्क खाते के बारे मेँ बात शुरु की जाये ! पर वह हिम्मत जुटा ही न पाया -

फिर कुछ महीने आराम से बीते. उपर से शाँत लग रहे वातावरण मेँ भी एक भीतर ही भीतर मानसिक सँताप की दहकती लकीर, कहीँ गहरे, फिर भी जल रही थी. उनके परिवार मेँ एक तरह की उद्विग्नता प्रवेश कर चुकी थी।

उसी बीच शोभना ने बी. एड. का डीप्लोमा हासिल करने का कोर्स भी शुरु कर दिया. बच्चे अब सारे दिन की स्कुल मेँ जाने लगे थे और ३.३० के बाद जब तक वे घर लौटते, शोभना भी भागती पडती अपना कोर्स निपटा कर उनका होम -वर्क लेने, अगले दिन का पाठ तैयार करने और उन्हेँ नाश्ता खिलाने घर पहुँच ही जाती. खूब मेहनत कर रही थी वह भी ! ससुराल के फैले भरे पूरे परिवार के पर्व, उत्सव, अतिथि सत्कार , पूर्ववत्` चलते रहे ।

कई बार, अतिथि समुदाय को नास्ता देकरशोभना अपने कमरे मेँ बेटोँ को बँद कर के पढाती... चूँकि बडी कक्षा की पढाई काफी कठिन हो चली थी वह कई बार सोचती ,

'टीचर का कोर्स उसे सही समय पर लाभ दे रहा था , सहायक सिध्ध हो रहा था जिस से वह अपने बच्चोँ को सही मार्गदर्शन दे पायी थी ! '

'अब दीव्याँश और अँशुल को लाभ हो रहा था और वे क्लास मेँ टोप करने लगे थे. इस बात का श्रेय भी बहु को न मिलता - परिवार यही कहता कि,

" ये तो हरेक माँ का फर्ज़ है ! "

शोभना चाह कर भी कभी ये न कह पाती कि धर्मेश निठ्ठलू है - काम करने से कतराते हैँ ! उनका परिवार भी कुछ नही कहता - काम पर जाते जाते दोपहर हो जाती , सुबह उठकर, स्नान के बाद पूरे चार घँटोँ तक धर्मेश पूजा पाठ करते मानोँ अपना नाम ही चरितार्थ करते ! शोभना को ये अजीब लगता पर वह खामोश ही रहती - उसी अर्से मेँ ससुर जी का ह्र्दय गति रुक जाने से अचानक देहाँत हो गया ! सारा परिवार शोक सँतप्त था कि देवरजी सोहन ने घर के व्यवसाय पर अपनी पकड मजबूत करते हुए सारा अपने कब्जे मेँ कर लिया तो दूसरी ओर धर्मेश सँसार मेँ रहते हुए भी मानोँ विरक्त, सँयासी से बन गये !

शोभना के साथ उसके सम्बँध सिर्फ पूजा की सामग्री ग्रहण करने मेँ या बारामदे मेँ पुरखोँ के समय के लगे बडे से काठ के झूले पे बैठे बैठे रात्रि के आगमन की प्रतीक्षा मेँ उमस भरे , बोझिल दिनोँ की पूर्णाहुति करते हुए, इतने सघन हो उठते कि शोभना को अपना जीवन, व्यर्थ लगने लगता - उसका जीवन मानोँ बियाबान रेगिस्तान मेँ तब्दील हो चुका था जिसके अँत का न ओर दीखता था न छोर !

जैसे तैसे २ वर्ष ऐसी ही मनस्थिति मेँ शोभना ने गुजार दीये. बच्चोँ को यँत्रवत पढाती , घर के कार्य को निपटाती , गृहस्थी का भार उठाती वह युवावस्था मेँ वृध्धा सा महसूस करने लगी थी. थकी थकी रहती ।

बाबा और माँ भी उसी अर्से मेँ भाइयोँ के पास अमरीका चले गये थे. तब तो वह और भी अकेली पड गयी थी. एक दिन धर्मेश ने ही सुझाव रखा, कि ,

" तुम्हारे बाबा जो पैसा जमा करवा गये हैँ उन्हीँसे कुछ बाँधणी साडीयाँ, राजस्थानी अलँकार वगैरह लेकर क्योँ न हम अमरीका जायेँ और वहाँ प्रदर्शनी करेँ , अवश्य मुनाफा होगा ! "

तब शोभना विस्मय से देखती ही रह गई पर आखिर मान गई क्योँकि पहली बार उसके पतिने कोई नया काम करने के प्रति उत्साह दीखलाया था और उसे सहमत होना सही लगा था।

खैर ! वे दोनोँ ने ठीक जैसा सोचा था उसी तरह किया -- बच्चोँ को सासजी के पास छोडकर वे अमरीका गये, माँ, बाबुजी और भाइयोँने स्वागत किया और सारा इँतजाम भी करवाया और सच मेँ मुनाफा भी हुआ !

प्रदर्शनी सफल रही और सारा साथ लाया हुआ सामान बीक गया था. रात देर से , भैया के घर के कमरे मेँ धर्मेश ने सारा पैसा गिनकर सहेजा और कहा,

" कल मैँ यहाँ बैन्क मेँ जाकर खाता खुलवा देता हूँ ! "

पता नहीँ क्या हुआ कि शोभना के धैर्य का बाँध जो वर्षोँ से उसने किसी तरह, सम्हालकर रखा था वह भावावेग की नदी सा बह निकल और सारी सीमाएँ तोडकर बह चला ! वह एकदम से बिफर पडी,

" ना ! ये मेरे बाबा का दिया पैसा था धर्मेश , उन्हेँ उनका पैसा लौटा दो और बाकी का मुनाफे का हिस्सा मुझे दो धर्मेश ! "

पहली बार, हक्क जताते हुए, कुछ ऊँची आवाज़ मेँ शोभना ने ये कहा तो धर्मेश भौँचक्का रह गया !

" क्या कहा तुमने ? "

इतना ही बोल पाया तो साहस बटोर क शोभना ने कहा,

" पैसाबबलू ( दीव्याँश ) और मुन्ना ( अँशुल ) पर ही तो आज तक मैँने खर्च किया है ! "

तब धर्मेश ने शोभना को उसी के भाई के घर मेँ बैठे बैठे खूब खरी खोटी सुनाई, खूब डाँटा ! शोभना उसके कापुरुष रुप को , उसके मुखौटे को उतरा हुआ , हताशा से भर कर, देखती रही ! यही था उनके आपसी पति पत्नी के रीश्ते का अँत ! वे खूब झगडे थे ...उस रात, सारे बँधन टूट गये थे और बात " डाइवोर्स " शब्द पर आ रुकी - " तलाक " शब्द धर्मेश ने ही पहले कहा और रोती हुई शोभना को , छोड कर , टेक्सी मँगवाकर, माँ बाबुजी या भाई साहब को मिले बगैर, रात के अँधेरे मेँ , Air - port के लिये धर्मेश निकल पडा तब शोभना को उस के भग्न ह्र्दय और टूटे रीश्ते का अह्सास हुआ - और एह्सास हुआ अपनी आँखोँ के तारे जैसे दोनोँ बेटोँ के भारत मेँ रह जाने का !

बाद मेँ धर्मेश के वहाँ पहुँचने के बाद तो सास जी और देवर जी ने बच्चोँ को बहकाया कि,

" तुम्हारी ममी को डालर पसँद हैँ - तुम नहीँ ! पर हमेँ तो तुम पसँद हो ! "

१० साल तक शोभना अपने पैरोँ पर खडा होने का सँघर्ष करती रही ! बच्चोँ से बात करने के लिये गिडगिडाती रही परँतु, सब व्यर्थ ! बैन्क मेँ नौकरी करती रही तब क्रीसमस के दिन जब सारा अमरीका छुट्टी मनाता है उस वक्त भी शोभना ओवर टाइम करती रही।

आखिर जब पैसे ज़ुडे तब भारत गयी - श्वसुर गृह के द्वार पर खडी शोभना को उसके ससुराल के किसी भी सद्स्य ने अब कुमार हो चुके , उसी के बेटोँ से मिलने नहीँ दिया !

- अब सोहन देवर की शादी हो चुक़ी थी देवरानी भी आ गयी थी और घर के रसोइये ने बतलाया कि,

" नई बहु जी बच्चोँ का बहुत खयाल रखतीँ हैँ "

हजार मिन्नतेँ कीँ शोभना ने पर किसी ने एक ना सुनी - तब हार कर वह अमरीका वापसी के लिये हारे मन से प्लेन मेँ आकर बैठ गयी !

-- भारत से प्लेन उडा तब तक वह सँज्ञाहीन हो गई थी परँतु री फ्यूलिँग के बाद पेरिस रुककर दोबारा जब प्लेन उडातो जो रुलाई शुरु हुई कि बस, रुकी ही नही।

हाँ , ऐसी यात्राएँ भी जीवन मेँ होतीँ हैँ !

आज का समय :

अब शोभना अपना खुद का सफल व्यवसाय चलाती है। ड्राय क्लीँनीँग का बीझनेस है उसका जो उसने बैन्क से लोन लेकर शुरु किया और काफी कर्जा वह चुका चुकी है, सम्पन्न हो गई है, अपने बाबुजी व माँ को एक नये , बडे घर मेँ अपने साथ रहने के लिये भाइयोँ से आग्रह कर के वह लिवा लायी है. मर्सीडीझ कार भी खरीद की है अब उसने. स्वाभिमान की , स्वतँत्र परँतु मेहनकश जीँदगी जी रही है। अकेलापन आज भी उसके साथ है क्यूँकि उसने किसी दूसर मर्द को अपने पास आने ही नही दिया कभी। काम ही उसके जीवन का पर्याय बन गया है . उसके ससुराल मेँ उसे " धोबन " कहकर सम्बोधित किया जाता है जब भी दीव्याँश और अँशुल की मम्मी जो अमरीका मेँ रहती है उसके बारे मेँ कोयी बात निकल आती है तब!

- दोनोँ बेटोँ की पढाई का कोलेज का खर्चा शोभना ने ही यहाँ से मनी ओर्डर ड्राफ्ट भेजकर दिया जिसे वहाँ किसी ने साइन करके ले लिया था - अब बच्चे उस के साथ कभी कभार बात करने लगे हैँ , शोभना नियमित हर २, ३ दिनोँ मेँ उन्हेँ फोन करती रहती है।

शोभना को द्रढ आशा है कि बेटोँ का भविष्य सँवारने मेँ एक दिन वह अवश्य मदद करने मेँ सफल होगी - जैसा आजतक उसने किया है धर्मेश आज भी नित ४, ५ घँटे पूजा पाठ मेँ गँवाते हैँ , उनके परिवार का काम , सोहन लाल देवर जी ही देखते हैँ सासजी अपनी दादी माँ की भूमिका ओढे दिन गुजारते, नई पीढी को कोसती रहतीँ हैँ , कि

" हमारे जमाने मेँ ऐसा तो न था ! "

और विश्व के सबसे समृद्धदेश अमरीका मेँ , मेहनत करती शोभना,

शादी - ब्याह को आज भी " जनम जनम के फेरे " मानती है !

( Sad to say but this happens to b a True Story :(


-- लावण्या


11 comments:

Udan Tashtari said...

प्रेरणादायक कहानी है. लग रहा है पढ़कर ही कि सत्य कथा पर आधारित होगी. आभार इस कहानी के लिए.

Gyan Dutt Pandey said...

एक बार में पढ़ गया यह कथा। एक काहिल, कायर और लम्पट आदमी से नारी की मुक्ति। और उस प्रक्रिया में खाये जख्म।
जिन्दगी आसान नहीं होती सामान्यत:।

दिनेशराय द्विवेदी said...

बहुत कुछ है इस कहानी में। यह आज का यथार्थ है। टूटता संयुक्त परिवार और बनता एकल परिवार। दोनों के बीच झूलता पति-पत्नी, पिता-संतान, बहू-सास ससुर और मां और संतानों के रिश्ते।
इस से बेहतर सामाजिक यथार्थ कहाँ हो सकता है। समीक्षा को समय चाहिए।

रंजू भाटिया said...

एक सच तो है ही यह ..कई शोभना की यह कहानी है ..दिल अजीब सा हो गया है इसको पढ़ कर .शुक्रिया इसको यहाँ शेयर करने के लिए

आभा said...

जनम जनम के फेरे को शोभना ने बहुत ही अच्छे से निभाया है , उन्हें साधुवाद......
आप को प्रणाम .

डॉ .अनुराग said...

पता नही क्यों मुझे तो सच्ची कहानी लगी ....ऐसी कई शोभा को जानता हूँ ..कुछ भारत में ही रही ..ओर आज अपना मुकाम बनाये हुए है.....

inancial indepedence होने से बहुत सारी समस्याये सुलझ जाती है....

Abhishek Ojha said...

प्रेरणादायक कहानी... एक बार में पूरा पढ़ डाला... बहुत दिनों के बाद आज अच्छी कहानी पढने को मिली. सची कहानी !

mamta said...

इस कहानी को पढ़ते-पढ़ते बहुत सारी बातें भी दिमाग मे घूम गई । स्त्री को हमेशा ही संघर्ष करना पड़ता है ।

Shiv Kumar Mishra said...

प्रेरणादायक...बहुत ही शानदार कहानी.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

आप सभी का बहुत बहुत आभार
- इस सत्य कथा को लिखकर शायद मैँ मेरी सहेली का दर्द समाज के सामने लाने मेँ कुछ हद्द तक सफल हुई हूँ ...
ऐसा लगता है ....
काश कि उसे अपने बिछुडे लाल भी जल्द मिल जायेँ !
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आधुनिक युग की त्रासदी और विडम्बना नारी के स्वावलँबी और अपने पैसोँ को कमाकर आजादी पाने तक सीमित नहीँ है - समाज एक एकाई है जहाँ पुरुष और स्त्री दोनोँ की अहम भूमिका है और उन्के आपसी सँबँधोँ की सँतुलितता से ही स्वस्थ समाज का निर्माण - जो भविष्य के लिये, सुख और शाँति लाता है - इसके बिना हमारा मानव समाज्, रसहीन, शुष्क होता चला जायेगा -ऐसा मेरा मानना है
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when the justice is met with a complete union of husband & wife, resulting in healthy family life, & thus a Just SOCIRTY, then & only then,
मेरी प्रार्थना ईश्वर तक पहुँच गयी है ऐसा समझुँगी -
आप भी अवश्य दुआ कीजियेगा -
सादर,
स -स्नेह,
-- लावण्या

Smart Indian said...

लावण्या जी,
इस हृदयस्पर्शी कहानी के लिये बधाई। चार घंटे पूजा में बैठकर भी जिनका मन मैला ही रहा उनका क्या इलाज है भला?