Sunday, January 17, 2010

कविता : स्व. पंडित नरेन्द्र शर्मा / कविता - कोष " की पूरी टीम को मेरी हार्दिक बधाई

एक गीत का आनंद लीजिये , कृपया क्लीक करीए

http://www.sopanshah.om/lavanya/1949.wma

Mid-Night Moon - beauty, cool, warm

तुम उसे उर से लगा स्वर साधतीं--

 उठते सिसकते स्वर तुम्हारे मधुर बेला के!          मूक होती कथा मेरी,         शून्य होती व्यथा मेरी,         चीर निशि-निस्तब्धता जो,  तीर-से आते सिसकते स्वर तुम्हारे मधुर बेला के!          चाँद भी पिछले पहर का,         मुग्ध हो जाता, ठहराता!         क्या विदा-बेला न टलती  यदि कहीं आते सिसकते स्वर तुम्हारे मधुर बेला के?          बनी रहती चाँदनी भी         गगन की हीरक-कनी भी         ओस बन आती अवनि पर  चाँदनी, सुनकर सिसकते स्वर तुम्हारे मधुर बेला के?          रुद्ध प्राणों को रुलाते,         आज बाहर खींच लाते         निमिष में अंगार उर-सा  सूर्य, यदि आते सिसकते स्वर तुम्हारे मधुर बेला के?

कविता : स्व. पंडित नरेन्द्र शर्मा
कविता कोष में जिसे देखकर सुखद आश्चर्य हुआ
चूंकि ये कविता मैंने , वहीं पहली बार देखी है
पूज्य पापा जी की अनगिनत कवितायेँ हैं - कई ऐसी हैं जिन्हें पढ़कर अचानक ध्यान आ जाता है
अरे , ये वाली तो याद नहीं ..पर हैं उन्हीं की ...आज इन्हें आपके सामने प्रस्तुत करते खुशी हो रही है
और " कविता - कोष " की पूरी टीम को मेरी हार्दिक बधाई

भरे जंगल के बीचो बीच,
न कोई आया गया जहां,
चलो हम दोनों चलें वहां।

जहां दिन भर महुआ पर झूल,
रात को चू पड़ते हैं फूल,
बांस के झुरमुट में चुपचाप,
जहां सोये नदियों के कूल;

हरे जंगल के बीचो बीच,
न कोई आया गया जहां,
चलो हम दोनों चलें वहां।

विहंग मृग का ही जहां निवास,
जहां अपने धरती आकाश,
प्रकृति का हो हर कोई दास,
न हो पर इसका कुछ आभास,

खरे जंगल के के बीचो बीच,
न कोई आया गया जहां,
चलो हम दोनों चलें वहां।

कविता : स्व. पंडित नरेन्द्र शर्मा

सूरज डूब गया बल्ली भर-
सागर के अथाह जल में।
एक बाँस भर उठ आया है-
चांद, ताड के जंगल में।

अगणित उंगली खोल, ताड के पत्र, चांदनी में डोले,
ऐसा लगा, ताड का जंगल सोया रजत-छत्र खोले

कौन कहे, मन कहाँ-कहाँ
हो आया, आज एक पल में।

बनता मन का मुकुर इंदु, जो मौन गगन में ही रहता,
बनता मन का मुकुर सिंधु, जो गरज-गरज कर कुछ कहता,

शशि बनकर मन चढा गगन पर,
रवि बन छिपा सिंधु तल में।

परिक्रमा कर रहा किसी की, मन बन चांद और सूरज,
सिंधु किसी का हृदय-दोल है, देह किसी की है भू-रज

मन को खेल खिलाता कोई,

सुनकर सिसकते स्वर तुम्हारे मधुर बेला के?

रुद्ध प्राणों को रुलाते,

आज बाहर खींच लाते

निमिष में अंगार उर-सा सूर्य,

यदि आते सिसकते स्वर तुम्हारे मधुर बेला के?

Midnight Moon, 48"x48" , acrylic on canvas, 2006

17 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा पोस्ट दीदी..

डॉ. मनोज मिश्र said...

यह पूरा गीत मन को झंकृत कर गया ,प्रस्तुति के लिए बहुत धन्यवाद.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

"कविता : स्व. पंडित नरेन्द्र शर्मा / कविता - कोष " की पूरी टीम को मेरी हार्दिक बधाई"

बहुत बढ़िया प्रस्तुति!

डॉ महेश सिन्हा said...

मन को खेल खिलाता कोई !

वाह बहुत खूब

डॉ .अनुराग said...

सचमुच मन भी गुनगुना उठा ....

rakhshanda said...

bahut khoob...udaas dil bhi pursukoon ho gaya

Arvind Mishra said...

बढियां ,सादर, .

Abhishek Ojha said...

अच्छी हिंदी में कवितायें पढनी हो तो ऐसी बहुत कम मिलती हैं ! आभार !

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर कविता

Alpana Verma said...

बहुत ही उम्दा कविताएँ और प्रस्तुति .
गीत अभी सुनती हूँ.

प्रकाश पाखी said...

लावण्या दी,
आप द्वारा हर पोस्ट एक नए अंदाज में प्रस्त्तुत की जाती है...अभिव्यक्ति की यह कला आपको विरासत में मिली है...बहुत बेहतरीन पोस्ट के लिए आभार!

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

लावण्या जी, आदाब
बसंत पंचमी की शुभकामनाएं...
नाचीज़ के ब्लाग पर
नज़रे-सानी करने के लिये
तहे-दिल से शुक्रिया
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

स्वप्न मञ्जूषा said...

लावण्या दीदी,
बहुत पुरकशिश आवाज़ सुनने को मिली यहाँ..
कविता भी मनोहारी ..लेकिन पता नहीं क्यूँ उसकी formating में कोई समस्या लगी .. मेरे लैपटॉप पर..फिर भी बाकि सब एकदम बढ़िया लगा..
आभार...

pran sharma said...

khoob,bahut khoob.Aanand aa gya
geet sunkar.

वन्दना अवस्थी दुबे said...

सुन्दर प्रस्तुति. धन्यवाद. वसन्तपंचमी की शुभकामनायें.

Smart Indian said...

बहुत अच्छा लगा. लोरी गीत अभी सुन रहा हूँ.

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

मम्मा ...आपकी यह पोस्ट दिल को छू गई..... बहुत सुंदर चित्रों के साथ....कवितायेँ मन में उतर गयीं.... बहुत अच्छी पोस्ट.....

आपका बेटू....

महफूज़.....