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जब् से हम खार नामक उपनगर में रहने आये, अरबी समुद्र का सानिध्य
पापाजी का घर १९ वे रास्ते पर था । उससे आगे , २०, २१ और २२ नंबर की सड़कें थीं । जहाँ, बने बस स्टाप पर, बृहन मुम्बई नगर पालिका की बसें रुकतीं थीं । २२ वे रास्ते के आगे का इलाका , डांडा , कहलाता था ।
इस इलाके की विशेषता यही थी के ये बंबई नगरी के मूल निवासी , मछुआरों की बस्ती थी बिलकुल समंदर की गोद में बसी हुई, खारे पानी के किनारे ऐसे सैट हुई थी की हमेशा दरिया के खारे पानी और हवा और मत्स्य गंध से लिपटी हुई एक अलग ही एहसास दीलाती थी।
यहाँ रहतीं थीं समंदर में , लकडी की नाव पर सवार होकर , अपने मछुआरे पति के संग कभी कभार , मछलियाँ पकडने जानेवाली साहसी महिलाएँ , जो ज्यादातर मछली बेचने का काम किया करतीँ थीँ । उनकी वेशभूषा भी ख़ास तरह की हुआ करती थी । जांघ तक की पहनी हुई साडी को , दो भागों में विभक्त किये पहनी जाती , कसी हुई चोली , रंगीन वस्त्र की और ऊपर , सुफेद दुपट्टा , जिस पे , फूल वाली बॉर्डर हुआ करती थी ।
कानो में भारी सोने के मत्स्य आकार की बालियाँ, गले में , गोल दानो की सोने की मनियां पिरोई माला और केशों को कसकर बांधा हुआ जुडा
जिसमेँ बगिया के सारे सुगँधी
और रँगबिरँगी फूल खोँसे हुए रहते थे :-)
इन मछुआरीन स्त्रियोँ की वेशभूषा , एकदम अलग लगती है । जिस को
" बोबी " फिल्म में राज कपूर ने बखूबी दर्शाया है !
हमारे घर भी एक कोली लड़की जिसका नाम था काशी ,
वो काम करती थी और ऐसी कोली साडी पहना करती थी और उसे हम जब देहली साथ ले गए तब बेचारी का जीना दूभर हो गया था । जो कोई उसे रास्ते में देखता , बस वहीं आँखें फाड़े , देखता रहता !
फ़िर , उसने , आम महिला की तरह साडी पहनना शुरू कर दिया ।
भारत में कितनी विभिन्नता है -- सच !
राज साहब के चेम्बूर के घर "देवनार फार्म " पर अकसर एक बहुत अमीर मछुआरे व्यापारी "राजा भाऊ " आया करते थे । ३ समुद्री जहाज (जिन्हें फिशिंग ट्राव्लर्स कहते हैं ) के राजा भाऊ , मालिक थे और लोब्स्टर , झींगा, पोम्फ्रेट जैसी फीश और केँकडे इत्यादी ताजा पकड़े हुए , राज कपूर के परिवार के लिए , भिजवाते थे।
प्रेमनाथ जो बोबी फ़िल्म में , नायिका डीम्पल के पिताजी के रोल में हैं , उनका चरित्र , इन "राजा भाऊ " पर ही आधारित है ।
डीम्पल कापाडीया ने भी उसी मछुआरीन सी शैली की साडी " बोबी " के कीरदार को जीते हुए , पहनी है ।
याद कीजिये इस गीत को,
" झूठ बोले, कौव्वा काटे , काले कौव्वे से डरीयो,
मैँ मायके चली जाऊँगी, तुम देखते रहीयो "
http://www.youtube.com/watch?v=GKF8UbndXfI
बंबई या आज मुम्बई नाम से जाना जाता ये महानगर , भारत के पश्चिमी किनारे पर बसा हुआ है । पहले यहाँ , ७ भूभाग थे , कोलभात , पालवा बंदर , डोंगरी , मज़गाँव, नयी गाँव और वरली , ये मूल सात टापू थे जिनके बीच की जमीन को समुद्र को पाट कर हासिल किया गया है और बहुधा जमीन खोदने पर , समुद्री जल तुरँत सतह तक आ जाता है । नारीयल के पेड़ तथा कई तरह के वृक्ष और पौधे यहाँ देखे जाते हैं ।
कोली प्रजाति के लोग, महाराष्ट्र , गुजरात, आंध्र प्रदेश और भारत के कई हिस्सों में बसे हुए हैं । महाराष्ट्र में बसे कोली जनजाति के लोग, क्रीस्चीयन या हिदू धर्मी हैं । वे मराठी भाषा से मिलती हुई कोली भाषा बोलते हैं । वसई में भी कोली बस्ती है ।
कोली प्रजा में , कोली, मंगला कोली , वैती कोली, क्रीस्चीयन कोली , महादेऊ कोली और सूर्यवंशी कोली के विभाग भी हैं ।
एकवीरा देवी इनकी मुख्य देवी हैं जो कार्ला गुफा में , आसीन हैं । चैत्र पूर्णिमा देवी पूजन का मुख्य दिवस है। नारीयल पूर्णिमा या राखी का त्यौहार कोली लोगों के लिए ख़ास दिन होता है जब अच्छे हवामान के लिए कोली लोग , समुद्र देवता की पूजा करते हैं और अपने धंधे की सफलता की कामना करते हुए , नारीयल , फूल और कुंकू से समुद्र पूजन करते हैं ।
दूसरा त्यौहार , जिसे कोली मनाते हैं वह है , होली !
जिसे वे " शिम्ग्या " कहते हैं और खूब प्रसन्नता से
यह उत्सव भी मनाते हैं ।
दँडकारण्य मेँ रहने वाले, वाल्मिकी ऋषि खानदेश महाराष्ट्र के निवासी थे और कोली लोग रामायण के रचियता को भी बहुत मानते हैँ ।
कोली संगीत काफी समृध्ध है -
ये रहा लिंक :
मीनू पुरुषोत्तम और जयदेव जी की कला से बना ये पुराना और
शब्द हैं --
आँगन में बैठी है मछेरन , तेरी आस लगाए
अरमानों और आशाओं के लाखों दीप जलाए
भोला बचपन रास्ता देखे ममता कहे मनाये
ज़ोर लगाके कहे मछेरन , देर न होने पाये
जनम जनम से अपने सर पर तूफानों के साए
लहरें अपनी हमजोली हैं और बादल हम साए
जल और जाल है जीवन अपना क्या सरदी क्या गर्मी
अपनी हिम्मत कभी न टूटे रुत आए रुत जाए ।
क्या जाने कब सागर उमडे कब बरखा आ जाए
भूख सरों पर मंडराए मुहँ खोले पर फैलाए
आज मिला सो अपनी पूँजी कल की हाथ पर आ ये
तनी हुई बाँहों से कह दो लोच न आ ने पाये ....
http://www.youtube.com/watch?v=Ed-SmWhzCSU
22 comments:
इन विवरणों को पढ़ कर लगता है मुम्बई कितना बदल गया है।
बहूत सुन्दर प्रस्तुति लावण्यम जी ,मछुआरिनों पर ! दरअसल मुम्बई का पूरा मत्स्य व्यापार इन्ही के कन्धों पर टिका है -मैं चूकि मत्स्य कर्म में ही हूँ -मुम्बई की दो वर्षीया ट्रेनिंग ९१-९३ में इनका सामीप्य रहा -इतनी कर्मठ और जीवट की महिलायें मैंने नहीं देखी तब से कहीं भी !
आज ही मैं माँ से यहाँ(गुजरात)के कोली समाज की बात कर रही थी और आज ही आपका यह लेख देखा। बहुत अच्छा लिखा है।
घुघूती बासूती
कोली समाज की इतनी विस्तृत जानकारी के लिए आभार.
पहली बार कोली समाज के बारे में इतने विस्तार से जानकारी मिली .. धन्यवाद।
कोली समाज की जानकारी देने के लिए शुक्रिया |मई भी कुछ साल खार मे रही हू खार डाआण्डा के थोड़ा और आगे जाने पर वाँद्रे गाँव आजाता है जहाँ छोटी छोटी गलिया है, जहाँ पर समरधह कोलीसमाज रहता है और वहाँ उनके उपयोगी सारे सामान मिलते है जिसमे टोने टोटके का भी सामान बहुतायत मे मिलता है |
आपकी हरेक पोस्ट लाजवाब होती है|
आभार
आपको इतना कुछ याद है? इसीलिए तो आपका ब्लॉग निराला है, अनमोल है.
आप मुम्बई से इतनी दुर है फिर भी यहॉ कि सस्कृति को याद करती है , बहुत अच्छा लगा मुम्बई के बारे मे, कोली समाज के रवाज के बारे ,मे एकविरा देवी के बारे मे जानकर।
आभर्
मुम्बई टाईगर
हे प्रभु यह तेरापथ
स्मृतियों के गलियारे में भटकते हुए आप कितनी सहजता से माज़ी के दरवाज़ों को खोलते हुए वहां से कुछ बीते हुए पल उठाती हैं और उनको शब्दों का लिबास पहना कर हमारे सामने प्रस्तुत कर देती हैं । आदरणीय दीदी साहिब आदरणीय पंडित नरेंद्र शर्मा जी सुपुत्री संस्मरणों को काव्य का बाना पहना कर एक नया ही प्रयोग कर रहीं हैं । आपके इन संस्मरणों को पढ़ते हुए लगता है जैसे कि हम भी उम्र के उस कालखंड में आपकी उंगली थाम कर आपके साथ चल रहे हैं । पूज्यनीय पंडित जी पर जो पुस्तक आपके भाई साहब तैयार कर रहे हैं वो पुस्तक कहां तक पहुंची । आप ने कहा था कि आप नवंबर दिसंबर में उसी पुस्तक को लेकर भारत आयेंगीं, सो उस कार्यक्रम का क्या है ।
आपका ही अनुज
सुबीर
बहुत आभार इन सब को पढने के बाद!!
बेहतरीन प्रस्तुति ,आभार .
बोबी फिल्म का कोली से सम्बन्ध पता नहीं था.. आपने बढ़िया जानकारी दी...
अब कोली समाज के बारे में बहुत कुछ जान गए हम। आपकी पिछली पोस्ट बहुत अच्छी लगी। बचपन में मैंने भी अपने गांव में दशहरा के मौके पर पद्मा जी की एक भोजपुरी फिल्म देखी थी.. शायद ‘बलम परदेशिया’ नाम था उसका ....राकेश पाण्डेय हीरो थे शायद।
वाकई समय सब कुछ बदल देता है ....सब कुछ
हमेशा की तरह अनूठी जानकारी. एक पूरे कोली समाज के कल्चर के साथ साथ आपने उस समय की सुंदर सैर करवाई. बहुत धन्यवाद आपको.
रामराम.
बम्बई में इन लोगों को बहुत ध्यान से देखा है। इनकी भाषा-गीत फिल्मों में भी नजर आये हैं। कुल मिला कर इनके प्रति बड़ा फैसिनेशन है।
बढिया जानकारी.
अभी कोंकण के द्वार पर स्थित दिवे आगर बीच पर जा कर आया हूं. स्वयं वेजीटेरीयन हूं , मगर वहां मछली का बडी ही लज़ीज़ भोजन मिलता है. मगर चूंकि यह समय उनके प्रजनन का है, स्थानीय कोली लोगों ने मछली मारना बंद कर दिया है, जो बडा ही अच्छा कदम है.
आपने तो मुम्बई और मछुआरों का पूरा परिवेश जीवंत कर दिया लावण्या बेन.देखिये तो आपका ह्र्दय और मानस ज़माने भर शक्तिशाली कम्प्यूटर्स से भी कितनी अधिक व्यापक हार्डडिस्क से सुसज्जित है जिसमें सालों पूर्व की स्मृतियों का डाटा सुसज्जित है. मानवता ऐसी सुरीली बातों को बाँटने से ही तो बचेगी.अपना निरर्ग,परिवेश,परम्पराएं,संगीत,काव्य,रहन-सहन और अपने लोग ही तो हमारी थाती हैं.
बहुत साधुवाद समंदर के किनारे बसी समृध्दि की इस राजधानी की इस लोक संगीतपूर्ण सैरे के लिये.
प्रणाम.
Kaphi kuch janne ko mila.Aabhar.
ये महत्वपूर्ण जानकारी दी आप ने....
Ye Mumbai Hai n...Phir Se Dekhne Ki Tammana Hai
कोली कौम के बारे में बहुत ही khubsurat और well organised जानकारी दी है आप ने.
राज कपूर जी ने अपनी फिल्म बोबी में मछुआरों का जीवन बखूबी दर्शाया है.
आप की यह पोस्ट बहुत ही अच्छी लगी.
और हाँ...Congratulations!! आप का एक Article Padama khanna जी के बारे में था..उस की चर्चा एक NewsPaper में हुई...ऐसा मैं ने Pabla जी के ब्लॉग पर पढ़ा .
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