Sunday, February 10, 2013

" ही इझ नो मोर "...


ही इझ नो मोर ! ११ फरवरी पापा की पुण्य तिथि --

स्व . पंडित नरेन्द्र शर्मा का यह शताब्दी वर्ष है - जन्म फरवरी  28 सन 1913  पुण्यतिथि : फरवरी 11 1989 

(ये चित्रों का कोलाज़ मेरी दीदी श्री लता मंगेशकर जी ने बना कर भेजा है सभी चित्र लता दीदी ने ही खींचे हैं )
स्व पँडित नरेन्द्र शर्माकी कुछ काव्य पँक्तियाँ :
" रक्तपात से नहीँ रुकेगी, गति पर मानवता की
हाँ मानवता गिरि शिखर, गहन, गह्वर
सीखै पाशवत व्यथा छिपे सीमा
 नहीँ मनुज के, गिर कर उठने की क्षमता की !

 आज हील रही नीँव राष्ट्र की,
व्यक्ति का स्वार्थ ना टस से मस !
राष्ट्र के सिवा सभी स्वाधीन,
व्यक्ति स्वातँत्र अहम के वश!
राष्ट्र की शक्ति सँपदा गौण,
मुख्य है, व्यक्ति व्यक्ति का धन!
नहीँ रग कोई अपनी जगह,
राष्ट्र की दुखती है नस नस!
राष्ट्र के रोम रोम मेँ आग,
बीन " नीरो " की बजती है
बुध्धिजीवी बन गया विदेह ,
राष्ट्र की मिथिला जलती है !
क्राँतिकारी बलिदानी व्यक्ति,
बन बैठे हैँ कब से बुत !
कह रहे हैँ दुनिया के लोग,
कहाँ हैँ भारत के सुत ?
क्योँ ना हम स्वाभिमान से जीयेँ?
चुनौती है, प्रत्येक दिवस !
जन क्राँति जगाने आई है,
उठ हिँदू, उठ मुसलमान-
सँकीर्ण भेद त्याग,
उठ, महादेश के महा प्राणॅ !
क्या पूरा हिन्दुस्तान, न यह ?
क्या पूरा पाकिस्तान नहीँ ?
मैँ हिँदू हूँ, तुम मुसलमान,
पर क्या दोनोँ इन्सान नहीँ ?"
नहीँ आज आश्चर्य हुआ,
क्योँ जीवन मुझे प्रवास ?
अहंकार की गाँठ रही,
निज पँसारी के हाथ !
हो भ्रष्ट न कुछ मिट्टी मेँ मिल,
केवल गल जाए अंहकार ,
मेरे अणु अणु मेँ दिव्य बीज,
जिसमेँ किसलय से छिपे भाव !
पर, जो हीरक से भी कठोर !
यदि होना ही है अँधकार,
दो, प्राण मुझे वरदान,
खुलेँ, चिर आत्म बोध के बँद द्वार!
यदि करना ही विष पान मुझे,
कल्याण रुप हूँ शिव समान,
दो प्राण यही वरदान मुझे!
तिनकोँ से बनती सृष्टि,
सीमाओँ मेँ पलती रहती,
वह जिस विराट का अँश,
उसी के झोँकोँ को ,
फिर फिर सहती !
हैं तिनकोँ मेँ तूफान छिपे ,
ज्योँ, शमी वृक्ष मेँ छिपी अगन !
-  पँडित नरेन्द्र शर्मा
कृष्ण - गीत :
राधा नाचे कृष्ण नाचे, नाचे गोपी जन !
मन मेरा बन गया सखी री सुँदर वृँदावन .
कान्हा की नन्ही ऊँगली पर नाचे गोवर्धन
राधा नाचे कृष्ण नाचे, नाचे गोपी जन !
मन मेरा बन गया सखी री सुँदर वृँदावन ।

श्याम सांवरे , राधा गोरी , जैसे बादल बिजली !
जोड़ी जुगल लिए गोपी दल , कुञ्ज गलिन से निकली ,
खड़े कदम्ब की छांह , बांह में बांह भरे मोहन !
राधा नाचे कृष्ण नाचे , नाचे गोपी जन !
वही द्वारिकाधीश सखी री , वही नन्द के नंदन !
एक हाथ में मुरली सोहे , दूजे चक्र सुदर्शन !
कान्हा की नन्ही ऊँगली पर नाचे गोवर्धन !
राधा नाचे कृष्ण नाचे , नाचे गोपी जन
जमुना जल में लहरें नाचें , लहरों पर शशि छाया !
मुरली पर अंगुलियाँ नाचें , उँगलियों पर माया !
नाचें गैय्याँ , छम छम छैँय्याँ , नाच रहा मधु - बन !
राधा नाचे कृष्ण नाचे , नाचे गोपी जन !
मन मेरा बन गया सखी री सुँदर वृँदावन .
गीत रचना : पँडित नरेन्द्र शर्मा
तीन वर्ष की मैं - लावण्या 
 

जब हम छोटे थे तब पता नहीँ था कि मेरे पापा जो हमेँ इतना प्यार करते थे वे एक असाधारण प्रतिभाशाली व्यक्ति हैँ जिन्होँने अपने कीर्तिमान अपने आप बनाए  
और वही पापा जी, 
हमेँ अपनी नरम हथेलियोँ से , ताली बजाकर गीत सुनाते
और हमारे पापा,उनकी ही कविता गाते हुए हमेँ नृत्य करता देखकर मुस्कुराते 
हुए गाते थे
"राधा नाचे कृष्ण नाचे, 
नाचे गोपी जन !
मन मेरा बन गया सखी री सुँदर वृँदावन 
कान्हा की नन्ही ऊँगली पर नाचे गोवर्धन "
ये गीत पापा जी जब गाया करते थे तब शायद मेरी ऊम्र ४ या ५ बरस की रही होगी.....


११ फरवरी करीब आ रही है और पापा जी की फिर याद, बार बार् , मन को मसोस जाती है -
१९८९ की काल रात्रि थी ९ बजे थे और हम चारोँ, मैँ,मँझली, बडी बहन वासवी, मुझसे छोटी बाँधवी हमारे पति, (सबसे छोटा परितोष पूना गया था ) और अम्मा पापा जी के इन्टेन्सीव वोर्ड मेँ, खडे थे , जब्, अम्मा , पापा जी के,पैरोँ को सहला रहीँ थीँ और पापा अनवरत "प्रभु ...प्रभु " कुछ रुक रुक  कर बोल रहे थे। हल्की लकीर मुस्कान की भी थी उनके पान से रँगे होँठेँ पर ...हाँ पान, जो आखिरी बार टहलते हुएशाम के करीब ४.३० बजे , उसे, रास्ता पार करके, नुक्कड की दुकान से लाये थे 
अम्मा से कहा था,'सुशीला , तुम चाय बनादो , मैँ तुम्हारे लिये पान ले आता हूँ "
पिछले ७ दिनोँसे, पापा ने, अपना भोजन नहीवत्` कर दिया था - सिर्फ सँतरा मुसम्बी का जुसही पीते थे ! 
वो भी दिन मेँ बस २ बार , शाम ढलने से पहले ! अम्मा भी परेशान थीँ -मुझसे ३ दिन पूरे हुए तब शिकायत भी की थी, " लावणी पापा न जाने क्यूँ सिर्फ जूस ही पी रहे हैँ और बेटे, फल भी खत्म् हो गये हैँ !"
मैँने फौरन बात काटते हुए कहा,
"अम्मा, मैँ हमारे महराज जी को अभी भेजती हूँ ..कुछ तो मेरे पास हैँ उनका जूस पीला देना और वे और बाज़ार से लेते आयेँगेँ मैँ समझा दूँगीँ "
'खैर ! बात आई गई हो गई ..
पापा निर्माता निर्देशक श्री बी. आर. चोपडा जी की "महाभारत " टी.वी.सीरीझ के निर्माण से जुडे हुए थे और सारी प्रक्रिया मेँ आकँठ डूबे हुए थे॥
रोजाना मीटीँग्स्, सुबह ९ बजे से तैयार , निकलते और शाम देरी से लौटते ! 
फल भिजवाने के दूसरे दिन, मैं, शाम को अम्मा पापा जी के घर पहुँच गई ..देखा , पापा चाय सामने रखे,गुमसुम से पालथी लगाये, डाइनीँग टेबल की क्रीम नर्म चमड़े से बनी कुर्सी पर बैठे हैँ ! -ये बिलकुल साधु सँतोँ जैसा उनका पोज रहता था सूती मलमल की , धोती, उनके पैरोँसे लिपटी रहती थी,वो पैर जो हमेशा चलते रहे ..काम का बोझ सरलता से उठाये ॥
अम्मा किचन से आयीँ और छोटी स्टील और ताँबे की कडाही मेँ गेहूँ का शीरा तभी बना के लाईं थीं -
जिसे १ निवाले जितना पापा ने मुझे दिया , खुद खाया और बस्! खत्म हो गया !!
-अम्मा को नहीँ दिया गया ! शायद वो मेरे "परम योगी" पिता का अँतिम प्रसाद था ॥
३ दिन गुजरे इस बात को और पान लेकर पापा लौटे तब तक उन्हेँ बैचेन देख अम्मा ने मुझे फोन किया मैँ चप्पलेँ पैरोँ मेँ डालकर भागी ॥
पता नही क्या सोचकर रुपयोँका बँडल भी पर्स मेँ जल्दी से डाल दिया ! मुझसे छोटी बाँधवी अपने पति दीलिप के सँग डाक्टर को लेकर आ पहुँची
पापा ने बडी विनम्रता से उठकर सब का स्वागत नमस्ते से किया परँतु उन्हेँ दिल का सीवीयर दौरा पडा है ऐसा डाक्टर ने कहा तब हम सभी, कुछ घबडाये -तुरँत कार मेँ अस्पताल जाने को निकले ॥
अम्मा पीछे की सीट पे मेरे साथ बैठीँ थीँ और पापा जी ने अम्मा का हाथ अपने सीने से लगा रख था और वे "प्रभु " प्रभु " बोल रहे थे !
मैँने सोचा, ' अगर मामला सीरीयस होता तब वे अवश्य "राम राम" बोलते ॥ गाँधी बापू की तरह !! ॥  मेरे पापा जी को कुछ नही होनेका ..वे स्वस्थ हो जायेँग़े ..' सोचा,  अरे, परितोष को , उसकी ज़िद्द पे ही, कितने प्रेम से, पीठ सहला कर नयी गाडी लाने भेजा था उन्होँने !
परितोष कहता, "पापा आप भी नयी कार मेँ काम पर जाया करिये ना, सभी जाते हैँ !" और पापा मुस्कुरा के रह जाते ॥
वे तो अक्सर, दूरदर्शन, आकाशवाणी,अन्य शैक्षिकणिक सँस्थानोँ के आमंत्रणों पर, ट्रैन, बस या अक्सर पैदल ही मीलोँ बम्बई मेँ घुम आत थे !
इतनी सहजता से, मानोँ ये कोई मुशिकल काम ही नहीँ !! और पापा के असँख्य प्रसँशक, मित्र, सहकर्मी, बडे बडे कलाकार, साहित्यकारोँ का
घर पर ताँता लगा रहता  !
           ऐसे पापा अस्पताल पहुँचे तब हार्ट स्पेशीयालीस्ट१ घम्टे विलम्ब से आये ! :-( :-(...और, अम्म नो हाथ फेरा तो पापा ने उनकी ओर देखा और आहिस्ता से आँखेँ मूँद लीँ ! बस्स ! क्या हुआ इसका किसी को भान न था :-((
एक मेरे पति दीपक के सिवा ..उसने अम्मा को प्यार से कहा, " चलिये अब घर जाकर थोडा, सुस्ता लेँ अम्मा आप भी थक गयीँ होँगीँ "
और अम्मा अनमने ढँग से बाहर आयीँ और दीपक उन्हेँ बाँद्रा से, खार के घर ले गये. हम तब भी वहीँ खडे थे पापा को घेरे हुए ...
और एक दूजे से कह रहे थे ,आज मैँ रात पापा के पास रहूँगी , कल तुम रहना "
पापा जी की , नर्म हथेली सहलाते वक्त , उन्होँने मुझे ढाढस बँधाया था, " बेटा, सब ठीक हो जायेगा" जैसे वे हमेशा कहा करते थे 
पर ,अम्मा के जाते ही हम पर मानोँ सारा आकाश टूट पडा और धरती खिसक गयी जब नर्स ने रुँआसे स्वर से कहा " ही इझ नो मोर "...

पंडित नरेन्द्र शर्मा ' सम्पूर्ण रचनावली ' तैयार है।  कृपया अधिक जानकारी के लिए देखें : 
परितोष नरेंद्र शर्मा 
टेलीफोन : दूरभाष : 226050138
 ई मेल : panditnarendrasharma@gmail.com 

प्रेषक :  - लावण्या दीपक शाह 

6 comments:

वाणी गीत said...

स्मृति में सदा साथ रहने वाले पिता को नमन !

Smart Indian said...

विनम्र श्रद्धांजलि!

प्रवीण पाण्डेय said...

कान्हा नाचे, नाच नचावे,
जिनको चाहे, पास बुलावे।

विनम्र श्रद्धंाजलि..

Rajendra kumar said...

बहुत ही भावपूर्ण प्रस्तुति

उन्मुक्त said...

पापा जी से मिलकर अच्छा लगा।

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

सुन्दर संस्मरण...बहुत बहुत बधाई...