Monday, April 8, 2013

' सपनों के साहिल ': देवदासी प्रथा : मेरे उपन्यास का पूर्व कथानक

ॐ 
सपनों के साहिल : 
न १९२० का समय !  इतिहास के मोड़ पर रूका है समय और देख रहा है  गुलामी की जंजीरों से बंधे  भारतवर्ष को ! कश्मीर से कन्याकुमारी और पश्चिम छोर पर अफघानिस्तान से लेकर पूर्व में बर्मा तक फैला एकछत्र , अखंड भारत वर्ष ! अपने देशवासीयों के जीवन की गहमागहमी में  रचा बसा भारत देश!  जहां एक नया सवेरा साकार हो कर , स्वतंत्रता का आन्दोलन बनकर , भारत के वीर संतानों के प्रयासों से ,  धीरे धीरे गति पकड़ कर,  भारत माता के  मालिक बन बैठे अंगरेजी शासन को दूर हटाने  के मंसूबे पाल रहा है हां, ये वही  वेद भूमि भारत है। पुराणों में वर्णित कथा जहां जन्म लेकर ग्रंथों में उकेरी गयी हैं । शास्त्रों  में वर्णित ' जम्बूद्वीप ' भारत वर्ष  आज  उपस्थित है अपने वर्तमान के साथ
          इतिहास की  बदलती हुई करवटों के साथ भारत भूमि ने कयी बदलावों को देखा है  अनगिनत राजा , महाराजा , संत , साधू ,  सन्यासी  योगी , कलाकार , रचनाकार यहां अवतरित हुए  और चले गये  समय बीतता  गया  जो पीछे छूटा वह इतिहास के पन्नों में छिप गया और नित नये पात्र उभर कर आते रहे 
                    भारत भूमि की समृध्धि और वैभव से आकर्षित होकर कयी  विदेशी आक्रमणकारी भी खींचे चले आये  कुछ यहीं रूक गये तो  कुछ, आतंक और विनाश , युध्ध और लूटपाट  करने के पश्चात , अपार संपत्ति लूट कर चले गये  मुगलिया सल्तनत की नींव भी इसी तरह  आक्रमणकारी बाबर के आगमन के बाद ही पडी थी 
           आज सन १९२० में  भारत भूमि पर परदेसी हुकूमत जारी है । अब अंग्रेजों की बारी  है। जो दिल्ली पे राज करे वो भारत का भी राजा ! गोरे राजा की तस्वीर भारत के रूपये  पे जडी हुई है चूंकि राज्य सत्ता आज  गोरों के हाथों में है
       भारत बदल तो रहा है पर धीरे धीरे ! सड़कें बन रहीं हैं  माल से लदे जहाज , ग्रेट ब्रिटन से ,  भारत आने लगे हैं और रेल यात्रा भारत को एक सूत्र में पिरो रही है  गांधीजी का सत्याग्रह आन्दोलन देश के लोगों का ध्यान आकर्षित करने लगा है भारत के गाँवों में अब भी छूआछूत , वर्ण व्यवस्था , गरीब और अमीर वर्ग की रेखाएं  ज्यों की त्यों , खींचीं हुईं हैं  और  समाज को जड़ता और रूढ़ियों  में जकड़े हुए इस वक्त टूटने के कोई आसार जतला नहीं रहीं।  जनरल डायर के पिछले साल किये नृशंस और जघन्य जलियांवाला बाग़ हत्याकांड ने भारतीय जन मानस को इस दुःख की बेला में एक सूत्र में पिरोकर मानों जोड़ दिया है अमृतसर में घटी इस घटना की दूर सुदूर दक्षिण भारत के छोटे बड़े गाँव और कस्बों तक खबर फ़ैल चुकी है कि , निर्मम गोरे जनरल ने महिला और भोले भाले बच्चों तक को गोलियों से भून देने का फरमान दिया था
                                
जो कोई ये सुनता एक पल को निस्तब्ध  , अवाक  खड़ा रह जाता ! ' हे देव ! ऐसा अत्याचारी तो कंस न था ना ही रावण ही होगा ...बड़े अधम हैं ये फिरंगी जो ऐसे पाप करते हैं ! ' लोग कहते और गांधी जी के प्रति श्रध्धा से नत मस्तक हो जाते 
                       भारत की कृषि प्रधान व्यवस्था भी अब बदल रही थी  जिस धान्य से अधिक धन की प्राप्ति हो ऐसे रूई की खेती पर  या नील या तमाकू जैसे धनार्जन के लिए लगायी  फसल पे  किसान की आस टिकने लगी थी चूंकि , यही कपास ब्रिटन की मेनचेस्टर और लेंकेशायर की कपड़ा मीलों के लिए जहाज़ों में लद कर भेज दिया जाता और बना बनाया कपड़ा भारत पहुंचता . हाथ करघे तथा अन्य बुनकरों के व्यवसाय , मंदी भुगतने लगे थे  तमाकू , सिगरेट बनाने के लिए निर्यात हो रहा था और नील रंग की खपत बढ़ रही थी .  ब्रिटीश राज सता के दमन का कुचक्र , कयी दिशाओं में अपनी धार से , जन जीवन को घायल करता अपनी धुरी पर घूम रहा था . जिसके  क्रूर वार से  कितने ही इंसान मार ख़ा कर लहूलुहान हो रहे थे परिवार उजड़ रहे थे. भारत के गाँव गरीबी की ओर झुकने लगे थे और पारम्पारिक उद्योग चरमराकर टूटने लगे थे
                 भारत में असंख्य छोटे , बड़े  राज घराने तब भी स्वतन्त्र थे उनकी अपनी सेनाएं थीं । राजा के चित्र लिए पैसों के सिक्के थे  नोट थीं  शासन था और उन राज परिवारों की शान शौकत , दबदबा और चकाचौंध अपनी चरम सीमा पर तब  भी कायम था  सन १९२० के समय में इन  ऊंचे घराने में जी रहे श्रीमंत  और धनिक वर्ग अपनी अपार  संपदा के  मद में चूर , शानो शौकत और रंगरेलियों में आबाद जीवन गुजार रहा था . 
 कयी राजा महाराजा योरोप जाकर ,  वहां के जीवन में , घुलमिलकर , सानन्द अपना  समय बिताते  थे .  राज परिवार के सदस्यों ने मानों  आँखों पे पट्टी बाँध रखी है . उस गुलाबी पट  के पीछे से उन्हें दुनिया  रंगीन और  हसीन नजर आ रही थी 
              आइये अब चलें भारत के दक्षिण की ओर ! 

रात्रि का समय है और दक्षिण भारत के ऐसे ही समृध्ध राज घराने के  राज महल की खुली खिडकियों से फ़ैल रहा प्रकाश,  बाहर घिरे अन्धकार को मानों अपने गौरव से महिमा मंडीत करता परास्त कर रहा है महल के बाग़ की हरियाली अन्धकार की चादर ओढ़े सो रही है परंतु कयी रात्रि वेला में खिलते फूलों की सुगंध पवन में फ़ैल रही है  राज महल से कुछ कोस की दूरी पर राज्य का मुख्य मंदिर है 
            काले पाषाण से बना यह प्राचीन मंदिर दूर दूर के प्रान्तों तक सुप्रसिद्ध है . यहां शिव , नटराज स्वरूप में विद्यमान हैं  चार हाथवाली कांस्य प्रतिमा भारतीय संस्कृति की परिभाषा लिए सदीयों से इस भव्य मंदिर के गर्भ गृह में , विद्यमान है 
              शिव - नटराजन ,  दाहिने हाथ में डमरू  धारण किये हैं  शिवजी के  डमरू से ही प्रथम प्रणव नाद उत्पन्न हुआ  ॐ कार से ज्ञान का सृजन हुआ और सृष्टि का आरम्भ हुआ  महर्षि  पाणिनी  को व्याकरण ज्ञान इसी डमरू के नाद के प्रसाद स्वरूप प्राप्त हुआ था  अत: उन्होंने पाणीनीय व्याकरण के प्रथम अध्याय को " शिव सूत्र " कहा और अपने ग्रन्थ में ,  भाषा व्याकरण के नियम प्रतिपादीत किये थे  बांयें हाथ में  परम शिव , अग्नि को उठाये हुए है और दुसरे दाहिने हाथ से भक्त गण को अभय मुद्रा से आद्यात्म मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते स्थिर खड़े हैं  नटराज शिव का दूसरा  बांया हाथ,  नीचे पग की ओर संकेत करते हुए झुका  हुआ है मानो  कह रहा है ,
 ' शरणागति स्वीकारो . मैं तुम्हारी  आत्मा को मुक्त करूंगा ताकि आवागमन के  फेर से तुम मुक्त हो जाओ  '  
सदाशिव एक बौने  असुर की आकृति पर  बांये  पैर  से स्थिर खड़े  हैं  ये बौना असुर ,  अज्ञान का प्रतीक है  शंकर भगवान् का दांया पैर,  कमर से ऊपर उठ गया है  इस योगमुद्रा में, पैर  ऊंचे किये हुए नटराज शिव  अपने अदभुत सौन्दर्य से ' सुन्दरेश्वरा ' नाम को चरितार्थ करते हुए , सुशोभित हैं 
        महादेव ने  जटाधारी  मस्तक  पर चंद्रमा धारण किया हुआ है  विश्व का सर्वाधिक विषैला  कोबरा नाग  , कैलाशपति के दाहिने बाजूबंद के स्थान से फुफकारता हुआ नटराज शिव का अलंकरण बना शोभायमान है और  महाविष्णु  जिस तरह वक्ष पर कौस्तुभ मणि धारण करते हैं , भोलेनाथ  ने अपने वक्ष पर उस स्थान पर नर  मुंड धारण किया है और वे इन विलक्षण आभूषणों को धारण किये  प्रसन्न व  शांत मुद्रा में तप लीन हैं 
                         महा अदभुत स्वरूप है शिव शंकर का !  जिसे देख हरेक भक्त निशब्द और मौन खडा रह जाता है । नटराज शिव , ब्रह्म का साक्षात स्वरूप हैं  ! आठ तत्व , आकाश, वायु, अग्नि, धरा, जल ,  मन , बुद्धि और अहंकार तो प्रकट हैं जिन्हें ज्ञानवान पहचानता है परंतु नौवां तत्त्व गुप्त है।   जिसे कोई नहीं जानता ! न ही जिसे व्याख्या में बांधकर समझाया जा सकता है।  
         नटराज का तीसरा नेत्र बंद रहता है। तांडव नृत्य करते शिव नटराज सृष्टि के प्रलय काल में यह तीसरा नेत्र जो कपाल पर दो भृकुटी के मध्य में स्थित है, खोलकर, सम्पूर्ण विनाश कर सृष्टि चक्र का प्रलय कर देते हैं नटराज के चारों  ओर बना हुआ  अग्नि का वर्तुल  जिसे ' प्रभावती ' कहते हैं , वह इसी पूर्ण संहार का प्रतीक है नव सर्जन और नव निर्माण भी शिव आज्ञा से ही ब्रह्मा जी द्वारा निर्मित होता है यह मूर्ति, पल्लव वंश के राज परिवारों के आदेश पर मूर्तिकारों ने सप्तम या आठवीं सदी में  निर्मित की थी नृत्य करते नटराज महा योगी हैं 
              वेदाचार्य योग गुरु पतंजलि द्वारा पूजित शिव लिंग भी यहीं संग्रहीत है कथा है , आदीशेष  भगवान को शिव तांडव देखने की उत्कट इच्छा हुई 
      तब शिवजी ने उन्हें वरदान दिया और कहा कि ,
' तुम पतंजलि के रूप में जन्म लोगो , मेरे दर्शन करोगे और तभी मेरा तांडव नृत्य भी देख पाओगे '  
     इसी रमणीय मंदिर के पास साधना करते हुए आचार्य पतंजलि को शिव वरदान से यह सुख प्राप्त हुआ था इस शिव अनुकम्पा के पश्चात स्वयं पतंजलि नाट्य शास्त्र में प्रवीण हो गये थे त्रिचिनापल्ली से २० किलोमीटर  दूर , तिरुपत्तर के ब्रह्म्पुरीश्वर मंदिर में पतंजलि महाराज की जीव समाधि है  यहीं ब्रह्माजी ने १२ शिव लिंगों की स्थापना की थी 
           योगाचार्य  महर्षि पतंजलि ने दीक्षीतार ब्राह्मण पुजारी  को कैलाश प्रांत से लाकर दक्षिण भारत में स्थायी किया और  शिवोहम भाव से, यहां प्रतिदिन की जाती आराधना अर्चना ,  रहस्यमय पूजाविधि सीखलायी थी जिस विधि से, शिव परब्रह्म के आकाश तत्त्व की पूजा अर्चना सदीयों से यहां संपन्न होती रही है  
          शिवा या देवी उमा को शिवकामी  सुन्दरी या शिवानन्द नायिका कहते हैं चित्त के आकाश या अम्बर  और उसी  रिक्त स्थान में स्थित परब्रह्म परमात्मा ही नटराज शिव स्वरूप से  इस देव मंदिर में , सदीयों से  पूजित हैं।  यह ऐसा अनोखा व अदभुत तथा  अति प्राचीन मंदिर है  
        महादेव शंकर योग के आदिगुरू हैं और नृत्य शास्त्र के भी जनक हैं  प्रभू महेश ने तांडव नृत्य और देवी पार्वती ने लास्य नृत्य गन्धर्व वृन्द और अप्सराओं को सिखलाया  नृत्य शास्त्र का ज्ञान तब भरत मुनि को देकर पृथ्वी पर भेज दिया गया । जिसे ' नाट्य शास्त्र ' में ईसा पूर्व २०० वीं सदी में ग्रन्थ के रूप में संगृहीत किया गया आज तक, यही भरत मुनि द्वारा लिखा गया नाट्य शास्त्र भारत के नृत्यों का आधार है
        चौल राज परिवार और राजवंश के शासन काल में ' देवदासी ' प्रथा प्रचलित थी थान्जुवर के ब्रुहदारेश्वर मंदिर ग्राम में ४०० से अधिक देवदासीयों  का समुदाय समाज का अंग था  मंदिर के साथ लगे विशाल प्रांगण में, वाध्य यन्त्रों के ज्ञाता , गायक पुजारी , पाक शास्त्र में निपुण सेवक वृन्द , पुजारी , माली स्वर्णकार , शिल्पी , बढई मंदिर निर्माण में दक्ष वास्तुकार , मूर्तिकार जैसे कयी सारे मुख्य मंदिर और राज वंश की सेवा में संलग्न थे 
           कालिदास के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ' मेघदूत ' में उज्जयनी नगरी में महाकालेश्वर मंदिर में देवदासी प्रथा की ओर संकेत किया गया है तान्जोर , ट्रावन्कोर राज्यों में देवदासी संख्या की बहुलता थी देवदासी नृत्य कर देवता को रिझाते हुए अपनी आत्मा के उत्थान पर केन्द्रीत रहते हुए कला के चरम बिन्दु पर पहुँचती थी परंतु ' राज नर्तकी ' महाराजाधिराज को रिझाने के लिए नृत्य प्रस्तुत करती थी . इसी कारण ' राजदासी ' कहलाती थी  
      देवदासी प्रथा सनातन हिन्दू धर्म के अति विशाल वितान के नीचे , एक प्रथा मात्र थी परंतु अंग्रेज सरकार जो अधिकतर ईसाई धर्म का अनुशरण करता था और भारत के नये बुध्धीजीवी , अंगरेजी शिक्षा पध्धति से शिक्षा प्राप्त , समाज सुधारक वर्ग को ' देवदासी प्रथा ' के उन्मूलन की अधिक चिंता हो आयी थी भारत में मौजूद , अधिकाँश वेश्यालय अंग्रेज़ी हूकुमत के संरक्षण में पनप रहे होने के बावजूद , देवदासी प्रथा का अंग्रेजों ने नये कानून बनाकर विरोध किया जिस विरोध में भारत का पढ़ा लिखा वर्ग , समाज सुधार की भावना लिए , उनके साथ हो लिया  

रुक्मिणी  देवी
जन्म : २९  फरवरी  १९०४
मदुरै  तमिलनाडु  भारत 
 थियोसोफीकल सोसायटी ने नृत्यांगना रुक्मिणी देवी अरूंडेल का विवाह जोर्ज अरूंडेल के संग हुआ था जब रुक्मिणी मात्र १६ वर्ष की थीं और जे. कृष्ण्मूर्ति के गुरु जोर्ज  ४२ साल  के थे जोर्ज  स्वयं लिबरल केथोलिक चर्च के बिशप थे और वाराणसी सेन्ट्रल हिन्दू कोलेज के इतिहास विषय के प्राद्यापक भी थे भारत नाट्यम नृत्य शैली की आधुनिक प्रचलित रीति इन्हीं दम्पति की उपज है  कलाक्षेत्र  भारत नाट्यम के आधुनिक स्वरूप का प्रथम महाविद्यालय रुक्मिणी और जोर्ज अरुंडेल दम्पति ने भारत वर्ष को उपहार में दिया है जिसकी प्रसिद्धी जग विख्यात है 

Balasaraswati
बाला सरस्वती 

बाला सरस्वती ...
     बाला सरस्वती के प्रयासों को सहायता देकर देवदासी प्रथा के संग  विनिष्ट होने के कगार पर , भारत की अति प्राचीन नाट्य संपदा ,  प्राचीन भारत नाट्यम नृत्य प्रणाली जिसे ' साडीर '  भी कहते हैं, उस को लुप्त होने से बचाने में सहायता की थी 
              अन्यथा आज भारत के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में चाव से और भारतीय कला के प्रति अभिमान की भावना से देखे जा रहे भारत नाट्यम, ओडीसी  और मोहिनी अट्टम जैसे अति प्राचीन नृत्य शायद हमे देखने को नसीब न हो पाते   
          सन १९८८ में देवदासी प्रथा को आंध्र प्रदेश में समाप्त करने की घोषणा की गयी थी और समूचे स्वतन्त्र भारत में कानून बनाकर इस प्राचीन प्रथा को  समाप्त करने की घोषणा हुई  सन २००४ तक देवदासी प्रथा  के किस्से उभरते रहे  कर्नाटक प्रांत में सन १९८२ से देवदासी प्रथा का कडा विरोध आरम्भ हो चुका था . कर्नाटक प्रांत में देवदासी को ' बसवी ' कहते थे , तो महाराष्ट्र में ' मातंगी ' नाम लिया जाता था  कहीं उन्हें ' नल्ली ' तो कहीं ' मुरली ' तो कहीं ' वेंकटसन्नी ' या ' थेयारीडीयन  भी पुकारा  जाता था       

 ओरीस्स्सा के जगन्नाथ मंदिर की ' मेहरी ' भी जगत के नाथ ईश्वर के प्रति श्रध्धा रूपी नर्तन से भक्ति की पताका फहराती थी  महरी नाम है ' मोहन की नारी ' का !
                      ओडीसी नृत्य के आचार्य पंकज चरण दास कहते हैं, ' पञ्च  महा रिपु अरी  इति महरी ' जो पांच महा पापों की काटनेवाली  आरी है वह महरी है  सन १३६० में सुलतान शाह ने ओरीस्सा पर धावा बोला और तब से स्त्रियाँ, परदे की आड़ में अपनी लज्जा छिपाने लगीं और ' महरी प्रथा भी लुप्त प्राय: होने लगी   तब इन महरियों की संख्या , सन १९५६ तक मात्र ९ और सन १९८० तक मात्र ४ की संख्या रह गयी थी   उनके नाम थे , हरप्रिया , कोकिल्प्रभा , परोश्मोनी  एवं  शशिमोनी . कुछ वर्षों पश्चात , शशिमोनी और परोश्मनी नव्कलेबर , नन्द उत्सव तथा रथ उत्सव जैसे जगन्नाथ पुरी के उत्सवों में भाग लेतीं दीखलायी पड़ जातीं थीं  
           कर्नाटक प्रांत में देवदासी प्रथा १० सदीयों से अटूट चली आ रही थी  वहां ' येल्लाम्मा ' देवी की पूजा की जाती है  जामदग्न ऋषि पत्नी रेणुका परशुराम की माता ही देवी येल्लाम्मा ' नाम से  कर्नाटक में स्थित देवदासी सम्प्रदाय में प्रसिध्ध हैं और पूजी जातीं हैं  
              देवदासी  ईश्वर से ब्याही हातीं हैं जब् मंदिर में गर्भ गृह के समक्ष ईश्वर मूर्ति से कन्या का विवाह किया जाता है  कन्या का ऋतुमती होना उत्सव का रूप ले लेता है ।  इस ईश्वर के संग विवाह समारोह के हो जाने पर वह कन्या देवदासी , ' नित्य सुमंगली ' या ' अखंड सौभाग्यवती '  कही जाती है   

 - लावण्या