Sunday, August 10, 2014

सत्य

क्या आप हमेशा सच बोलते हैं? बोल पाते हैं ? क्यूँ 
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कोशिश तो यही रहती है की सच बोलूं और अगर कुछ अप्रिय सत्य है तब 

' ना ही बोलूं तो अच्छा हो ' ये उम्र बढ़ते हुए सीख लिया है। 

तब सही उत्तर तो यही रहेगा कि अभ्यास से मन और विचारों को केन्द्रीत करते हुए 

' सत्य ' बोलने की कोशिश रहती है। बोल पाती भी हूँ और इसके लिए क्यों तो सरल

सा उत्तर है कि ' सत्य हमेशा जैसा हमारे स्वयं के लिए सही और उपयुक्त रहता है वैसे

ही हम समानभाव से अन्य को भी देखते रहें तब वही ' सत्य '  दूसरों के लिए भी सही

और उपयुक्त रहता है। जीवन में शान्ति, संतोष और स्वभाव में दया ममता वात्सल्य

एवं करूणा जैसे अच्छे भावों का उदय भी ' सत्य ' व्रती होने से संभव हो जाता है।
 

आधुनिक युग २१ वीं सदी का आरम्भ काल अत्याधिक बदलाव और असमंजस भरा

समय है। आजकल किसी के पास समय ही कहाँ है कि , किसी की सुनें ! इसलिए

बेहतर है कि अवसर और पात्र को देख कर व्यक्ति या तो बोलें, चुप रहैं, सुने या

गुनें। 


यह भी संभव है कि अगर व्यक्ति , अप्रिय या कटु सत्य बोले तब वहां सुनने के लिए 

ठहरेगा भला कौन ?


आज का समय २१ वीं सदी तक आकर सम्प्रेषणाओं, त्वरित फैलते समाचार व्यूह के


दमन चक्र और घात एवं प्रतिघातों का समय है। सच का स्वरूप तो वही रहा परन्तु

उक्त ' सत्य ' को दर्शाने के जरिये कई विध हो गए। टेलीविजन, फेसबुक ट्वीटर जैसे

संसाधनों ने विश्व में दिन रात हो रही हलचलों को ' ब्रेकिंग न्यूज़ ' का मसाला बना

लिया है और दिन रात जनता के समक्ष विभिन्न देशों की सरकारें और समाज व्यवस्था

अपने ढंग से जो हो रहा है उसका आँखों देखा हाल जारी किये जा रही है।  


आवश्यकता है उस समय एकचित्त होकर अपने अंतर्मन में एक तटस्थ द्वीप स्थापना


की। उस द्वीप में शाश्वत मूल्यों का एक दीप स्तम्भ भी अवश्य जला रहे जो भावनाओं

के प्रतिघातों के सुनामी के मध्य भी स्थिर खड़ा रहे। सुनें सब की परन्तु अपने अंतर

आत्मा में बैठे , एक अन्तर्यामी प्रभु की शरण में मन रहे। इस का ध्यान रहे।


अब , कई विभिन्न ग्रंथों व व्यक्तिओं के ' सत्य ' पर लिखे सुविचार जो जग प्रसिद्ध

हैं। उन्हें भी देखते चलें और उन्हें पुन : याद कर लें।


हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।

तत् त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।।

(सत्य का मुख स्वर्णिम चमकीले पात्र से ढँका है। हे परमपुरुष! इस आवरण को हटा 

दीजिए और सत्य की ओर उन्मुख ऐसी दृष्टि प्रदान कीजिए, जिससे मैं उसका दर्शन 

कर सकूँ।)
सत्यं वद, धर्मं चर', सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, मा ब्रूयात सत्यमप्रियम्। ‘

   सत्य बोलो, प्रिय बोलो किंतु अप्रिय सत्य तथा प्रिय असत्य मत बोलो।’ 
‘हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः।’ 

यानी प्रिय-सत्य एक साथ नहीं हो सकते। जब सत्यता कटु है और असत्य में माधुर्य 

है तो क्या करना चाहिए? 
सत्य अप्रिय और असत्य प्रिय होता है, इसीलिए असत्य का बोलबाला है। 

‘‘मधुर वचन है औषधी, कटुक वचन है तीर।’’ 

यानी सत्य हानिकारक शस्त्र है और असत्य लाभदायक औषधि है। 


बाबा तुलसी ने स्पष्ट कर दिया, 

‘‘सचिव वैद गुरु तीन जो प्रिय बोलें भय आश। 

राज धर्म तन तीन कर होय वेग ही नाश।।’’
सत्-चित्-आनंद यानी सच्चिदानंद स्वरूप वह परमतत्व है, जिसे परब्रह्म परमात्मा या 

परमेश्वर कहते हैं। ‘‘सत्यं ब्रह्म जगन्मिथ्या’’ यह वेदबाक्य स्पष्ट करता है कि सत् रूप 

ब्रह्म है, सत् से सत्य शब्द बना अर्थात् जो सत् (ब्रह्म के योग्य है वही सत्य है। यह 

सत् जब मन-वाणी-कर्म ही नहीं बल्कि श्वांस-श्वांस में समा जाता है तब किसी तरह 

द्विविधा नहीं रहती। सिर्फ सत् से ही सरोकार रह जाय, तब ‘सत्यं वद’ को कंठस्थ 

हुआ मानो।
सन्मार्ग से विचलित न होना सत्स्वरूप परमेश्वर की कृपा से ही संभव है। सन्मार्ग पर 

पहला कदम है सद्विचारों का आविर्भाव होना। विचारों से दुबुद्धि का सद्बुद्धि के रूप में 

परिवर्तन दिखाई देगा। बुद्धि से संबद्ध विवेक में सत् का समावेश होगा और वह 

सत्यासत्य का भेद करने की राजहंसीय गति प्राप्त कर लेता है। 
अष्टांग योग प्रथमांग यम का प्रथम चरण ही सत् है, सत् पर केंद्रित होने की दशा में 

ही ‘योगश्चित्त वृत्तिः निरोधः’ सद्बुद्धि ही चित्तवृत्तियों को नियंत्रित करती है। 
अन्तःचतुष्टय में बुद्धि के बाद चित्त, अहंकार में ब्रह्मरूपी सत् समावेश होते ही मन पर 

नियंत्रण पाया जा सकता है। मन पर केंद्रित हैं, कामनायें। जो इन्द्रियों की अभिरुचि 

के आधार पर प्रस्फुटित होती है। कामनाओं का मकड़जाल ही तृष्णा है। संतोष रूपी 

परमसुख से तृष्णा का मकड़जाल टूटता है। मन द्वारा कामनाओं के शांत हो जाने से 

आचरण नियंत्रित हो जाता है। 
‘‘आचारः परमो धर्मः’’ आचरण में सत् का समावेश ही सदाचार कहा गया है। ऐसे में 

कदाचार की कोई गुंजाइस नहीं रहती, मनसा-वाचा-कर्मणा लेश मात्र भी कदाचार 

दिखे तो मान लो कि यहां सत्यनिष्ठा का सिर्फ दिखावा है। सदाचार स्वच्छ मनोदशा 

का द्योतक है। जबकि कदाचार की परधि में अनाचार, अत्याचार, व्यभिचार और 

भ्रष्टाचार अदि आते हैं। 
सत्-जन मिलकर ' सज्जन '  शब्द बनता है। प्रत्येक व्यक्ति सज्जन नहीं होता। इसी 

तरह सत् युक्त होने पर सन्यास की स्थिति बनती है। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि 

सत्यनिष्ठा ही धर्मनिष्ठा, कर्मनिष्ठा और ब्रह्मनिष्ठा है। क्योंकि धर्म, कर्म ही ब्रह्मरूप 

सत् है। सत्य परेशान भले हो मगर पराजित नहीं होता। तभी तो ‘‘सत्यमेव जयते’’ के 

बेदवाक्य को राष्ट्रीय चिन्ह के साथ जोड़ा गया। यह भी विचारणीय है- सत्य परेशान 

भी क्यों होता है? अध्यात्म विज्ञान स्पष्ट करता है कि,  सत्यनिष्ठा में अंशमात्र का 

वैचारिक प्रदूषण यथा सामथ्र्य परेशानीदायक बन जाता है। 
सत्यनिष्ठा का सारतत्व यह है-‘‘हर व्यक्ति सत्य, धर्म व ज्ञान को जीवन में उतारे। 

यदि सत्य-धर्म-ज्ञान तीनों न अपना सकें तो सिर्फ सत्य ही पर्याप्त है क्योंकि वह पूर्ण 

है सत्य ही धर्म है, और सत्य ही ज्ञान। सदाचार से दया, शांति व क्षमा का प्राकट्य 

होता है। वैसे सत्य से दया, धर्म से शांति व ज्ञान से क्षमा भाव जुड़ा है। सत् को 

परिभाषित करते हुए रानी मदालिसा का वह उपदेशपत्र पर्याप्त है जो उन्होंने अपने 

पुत्र की अंगूठी में रखकर कहा था कि जब विषम स्थिति आने पर पढ़ना। ‘‘संग 

(आसक्ति) सर्वथा त्याज्य है। यदि संग त्यागने में परेशानी महसूस हो तो सत् से 

आसक्ति रखें यानी सत्संग करो इसी तरह कामनाएं अनर्थ का कारण हैं, जो कभी 

नहीं होनी चाहिए। कामना न त्याग सको तो सिर्फ मोक्ष की कामना करो।’’ 
अनासक्त और निष्काम व्यक्ति ही सत्यनिष्ठ है। आसक्ति और विरक्ति के मध्य की 

स्थिति अनासक्ति है। जो सहज है, ऋषभदेव व विदेहराज जनक ही नहीं तमाम ऐसे 

अनासक्त राजा महाराजा हुए है। आज भी शासन, प्रशासन में नियोजित अनासक्त 

कर्तव्यनिष्ठ नेता व अफसर हैं जिन्हें यश की भी कामना नहीं है।
अब कुछ अपने मन की बात :


मेरी कविता द्वारा मन में हिलोरें लेतीं अनुभूतियाँ कहतीं हैं ,

घना जो अन्धकार हो तो हो  रहे, हो रहे 

तिमिराच्छादित हो निशा भले हम वे सहें  

चंद्रमा अमा का लुप्त हो आकाश से तो क्या 

हूँ चिर पुरातन, नित नया रहस्यमय बिंदु मैं 

हूँ मानव ! ईश्वर का सृजन अग्नि शस्य हूँ मैं! 

काट तिमिर क्रोड़ फोड़ तज  कठिन कारा , 

नव सृजन निर्मित करूं निज कर से पुनः मैं !

हैं बल भुजाओं में  वर शाश्वत शक्ति पीठ का  

हे माँ ! दे मुझे वरदान ऐसा हूँ शिशु अबोध तेरा  

कन्दराएँ फोड़ निर्झर सा बहूँ  ऐसा वरदान दे !

अब हम ' सत्य ' को परिभाषित करें तब कहेंगें कि  ' सत्य ' ईश्वर का अंश है।  

' ईश्वर सत्य है , 
  सत्य ही शिव है ,
  शिव ही सुन्दर है 
जागो उठ कर देखो जीवन ज्योति उजागर है 
सत्यम शुवम् सुंदरम ' 

यह गीत रचना मेरे पापा जी पंडित नरेंद्र शर्मा जी की है जिसमे संक्षिप्त में ' सत्य ही 

सुन्दर है क्यों कि सत्य में ' शिवतत्व ' का वास है यह प्रतिपादित किया गया है। 

इंसान असत्य बोलता है तो वह भी ' सत्य ' का आधार लेकर और ये सोचकर कि 

संभवत; उस के झूठ को शायद सच मान लिया जाएं ! 

' तीन चीजें ज्यादा देर तक नहीं छुप सकती, सूरज, चंद्रमा और सत्य ! ' ये कहा था 

भगवान गौतम बुद्ध ने ! 

' सत्य अकाट्य है। द्वेष इसपे हमला कर सकता है, अज्ञानता इसका उपहास उड़ा 

सकती है, लेकिन अंत में सत्य ही रहता है। ' ये कहा विन्सेंट चचिल ने। 

' मेरा धर्म सत्य और अहिंसा पर आधारित है। सत्य मेरा भगवान है।अहिंसा उसे पाने 

का साधन।' ये कहा महात्मा गांधी जी ने।  

मुन्डकोपनिषद के मुंडक ३ के पांचवें श्लोक का अवलोकन करें-
सत्यमेव जयति नानृत
सत्येन पन्था विततो देवयानः
येनाक्रममन्त्यृषयो ह्याप्तकामा
यत्र तत् सत्यस्य परमं निधानाम् ।।
सत्य (परमात्मा) की सदा जय हो, वही सदा विजयी होता है। अनृत - असत् (माया) 

तात्कालिक है उसकी उपस्थिति भ्रम है। वह भासित सत्य है वास्तव में वह असत है 

अतः वह विजयी नहीं हो सकता. ईश्वरीय मार्ग सदा सत् से परिपूर्ण है। जिस मार्ग से 

पूर्ण काम ऋषि लोग गमन करते हैं वह सत्यस्वरूप परमात्मा का धाम है।

मांडूक्य उपनिषद में  १२ मन्त्र समस्त उपनेषदीय ज्ञान को समेटे हैं  जाग्रत , स्वप्न 

एवं सुषुप्त मनुष्य अवस्था हर प्राणी का सत्य है और इस सत्य के साथ ही निर्गुण पर 

ब्रह्म व अद्वैतवाद भी जुडा हुआ है  ऊंकार ही हर साधना , तप एवं ध्यान का मूल 

मन्त्र है यह मांडूक्य उपनिषद की शिक्षा है 


अथर्ववेद : ‘ गणपति उपनिषद ‘ का समावेश अथर्व वेद में किया गया है  

अंतगोत्वा यही सत्य पर ले चलते हुए कहा गया है कि, ईश्वर समस्त ब्रह्मांड का लय 

स्थान है ईश्वर सच्चिदान्द घन स्वरूप हैं, अनंत हैं, परम आनंद स्वरूप हैं 


सीता उपनिषद :

सीता नाम प्रणव नाद , ऊंकार स्वरूप है ।

 परा प्रकृति एवं महामाया भी वहीं हैं । 

” सी ” – परम सत्य से प्रवाहित हुआ है । 

” ता ” वाचा की अधिष्ठात्री वाग्देवी स्वयम हैं । 

उन्हीं से समस्त ” वेद ‘ प्रवाहित हुए हैं।

सीता पति ” राम ” मुक्ति दाता , मुक्ति धाम , परम प्रकाश श्री राम से समस्त ब्रह्मांड , 
संसार तथा सृष्टि उत्पन्न हुए हैं जिन्हें ईश्वर की शक्ति ‘ सीता ‘ धारण करतीं हैं कारण 

वे हीं ऊं कार में निहित प्रणव नाद शक्ति हैं।  श्री रूप में, सीता जी पवित्रता का 

पर्याय हैं। सीता जी भूमि रूप भूमात्म्जा भी हैं । सूर्य , अग्नि एवं चंद्रमा का प्रकाश 

सीता जी का ‘ नील स्वरूप ‘ है । 

चंद्रमा की किरणें विध विध औषधियों को, वनस्पति में निहित रोग प्रतिकारक गुण 

प्रदान करतीं हैं। 

यह चन्द्र किरणें अमृतदायिनी सीता शक्ति का प्राण दायक, स्वाथ्य वर्धक प्रसाद है । 
वे ही हर औषधि की प्राण तत्त्व हैं सूर्य की प्रचंड शक्ति द्वारा सीता जी ही काल का 

निर्माण एवं ह्रास करतीं हैं । सूर्य द्वारा निर्धारित समय भी वही हैं अत: वे काल धात्री 

हैं । पद्मनाभ, महा विष्णु, क्षीर सागर के शेषशायी श्रीमन्न नारायण के वक्ष स्थल पर ‘ 
श्री वत्स ‘ रूपी सीता जी विद्यमान हैं। 

काम धेनु एवं स्यमन्तक मणि भी सीता जी हैं ।

वेद पाठी, अग्नि होत्री द्विज वर्ग के कर्म कांडों के जितने संस्कार, विधि पूजन या 

हवन हैं उनकी शक्ति भी सीता जी हैं ।

सीता जी के समक्ष स्वर्ग की अप्सराएं जया, उर्वशी, रम्भा, मेनका नृत्य करतीं हैं एवं

 नारद ऋषि व तुम्बरू वीणा वादन कर विविध वाध्य बजाते हैं चन्द्र देव छत्र धरते हैं 

और स्वाहा व स्वधा चंवर ढलतीं हैं ।
राजकुमारी सीता : रत्न खचित दिव्य सिंहासन पर श्री सीता देवी आसीन हैं । 

उनके नेत्रों से करूणा व् वात्सल्य भाव प्रवाहमान है । 

जिसे देखकर समस्त देवता गण प्रमुदित हैं । 

ऐसी सुशोभित एवं देव पूजित श्री सीता देवी ‘ सीता उपनिषद ‘ का रहस्य हैं । वे कालातीत एवं काल के परे हैं ।
यजुर्वेद ने ‘ ऊं कार ‘ , प्रणव – नाद की व्याख्या में कहा है कि ‘ ऊं कार , भूत 

भविष्य तथा वर्तमान तीनों का स्वरूप है । 

एवं तत्त्व , मन्त्र, वर्ण , देवता , छन्दस ऋक , काल, शक्ति, व् सृष्टि भी है ।

सीता पति श्री राम का रहस्य मय मूल मन्त्र ” ऊं ह्रीम श्रीम क्लीम एम् राम है । 

रामचंद्र एवं रामभद्र श्री राम के उपाधि नाम हैं ।

 ‘ श्री रामं शरणम मम ‘

श्रीराम भरताग्रज हैं । वे सीता पति हैं । सीता वल्लभ हैं । 

उनका तारक महा मन्त्र ” ऊं नमो भगवते श्री रामाय नम: ” है ।

 जन जन के ह्दय में स्थित पवित्र भाव श्री राम है जो , अदभुत है ।


श्री सीता - स्तुति :


सुमँगलीम कल्याणीम सर्वदा सुमधुर भाषिणीम

वर दायिनीम जगतारिणीम श्री रामपद अनुरागिणीम

वैदेही जनकतनयाम मृदुस्मिता उध्धारिणीम

चँद्र ज्योत्सनामयीँ, चँद्राणीम नयन द्वय, भव भय हारिणीम

कुँदेदुँ सहस्त्र फुल्लाँवारीणीम श्री राम वामाँगे सुशोभीनीम

सूर्यवँशम माँ गायत्रीम राघवेन्द्र धर्म सँस्थापीनीम

श्री सीता देवी नमोस्तुते ! श्री राम वल्लभाय नमोनम:

हे अवध राज्य ~ लक्ष्मी नमोनम:

हे सीता देवी त्वँ नमोनम: नमोनम: ii

[ सीता जी के वर्णन से सँबन्धित श्लोक  / 

मेरी कविता आप के सामने प्रस्तुत कर रही हूँ। ]

” ॐ नमो भगवते श्री नारायणाय “  -

 ” ऊं नमो भगवते वासुदेवाय “

[ ये सारे मन्त्र, अथर्व वेद में श्री राम रहस्य के अंतर्गत लिखे हुए हैं । ]

जिस क्षण से देखा उजियारा 
  
टूट गए रे तिमिर जाल 
  
तार तार अभिलाषा टूटी 
  
विस्मृत गहन तिमिर अन्धकार 

निर्गुण बने, सगुण वे उस क्षण 

शब्दों के बने सुगन्धित हार 

सुमनहार अर्पित चरणों पर 

समर्पित जीवन का तार तार ! ' 

-  लावण्या 

सच कहा है , ' सत्य निर्गुण है। वह जब अहिंसा, प्रेम, करुणा के रूप में अवतरित 

होता है तब सदगुण कहलाता है।' 

 भारतीय गणराज्य का प्रतीक भी यही कहता है ,  सत्य की  विजय सर्वदा निश्चित है।  
'सत्यमेव जयते' मूलतः मुण्डक-उपनिषद का सर्वज्ञात मंत्र ३ .१ .६  है। 
पूर्ण मंत्र इस प्रकार है:
सत्यमेव जयते नानृतम सत्येन पंथा विततो देवयानः।
 येनाक्रमंत्यृषयो ह्याप्तकामो यत्र तत् सत्यस्य परमम् निधानम् ।
अर्थात अंततः सत्य की ही जय होती है न कि असत्य की। यही वह मार्ग है जिससे 

होकर आप्तकाम (जिनकी कामनाएं पूर्ण हो चुकी हों) मानव जीवन के चरम लक्ष्य 

को प्राप्त करते हैं। 

' सत्यमेव जयते '
अगर हम मुक्ति की जगह सत्य को ढूंढे तो सबसे अच्छा होगा। क्योंकि सत्य के बिना 

अपने बुद्धि और भावना से मुक्ति शब्द को परिभाषित करे तो वह सही न होगा। एक 

समय की बात है जब भारत में श्वेतकेतु नामक युवक रहता था । उसके पिता उद्दालक 

थे। उन्होंने एक दिन प्रश्न किया, " क्या तुम्हे रहस्य ज्ञात है ? जिस प्रकार सुवर्ण के 

एक कण की पहचान से समस्त वस्तुएं जो सुवर्ण से बनी हों उनका ज्ञान हो जाता है 

भले ही नाम अलग हों, आकार या रूप रेखा अलग हों।  सुवर्ण फ़िर भी सुवर्ण ही 

रहता है। यही ज्ञान अन्य धातुओं के बारे में भी प्राप्त होता है। यही सत्य का  ज्ञान है ।

उद्दालक , अरुणा के पुत्र ने ऐसा प्रश्न अपने पुत्र श्वेतकेतु से किया। 


उद्दालक : "पुत्र, जब हम निद्रा अवस्था में होते हैं तब हम 


उस तत्त्व से जुड़ जाते हैं जो सभी का आधार है ! हम कहते हैं, अमुक व्यक्ति सो रहा 

है परन्तु उस समय वह व्यक्ति उस परम तत्त्व के आधीन होता है । पालतू पक्षी हर 

दिशा में पंख फडफडा कर उड़ता है आख़िर थक कर, पुन: अपने स्थान पर आ कर, 

बैठता है । ठीक इसी तरह, हमारा मन, हर दिशा में भाग लेने के पश्चात्  अपने जीवन 

रुपी ठिकाने पर आकर पुनः बैठ जाता है।  जीवन ही व्यक्ति का सत्य है। 

मधुमखियाँ मध् बनाती हैं। विविध प्रकार के फूलों से वे मधु एकत्रित करतीं हैं जब 

उनका संचय होता है तब समस्त मधु मिल जाता है और एक रस हो जाता है। इस 

मधु में अलग अलग फूलों की सुगंध या स्वाद का पहचानना तब कठिन हो जाता है। 

बिल्कुल इसी प्रकार हर आत्मा जिसका वास व्यक्ति के भीतर सूक्ष्म रूप से रहता है।  

अंततः परम आत्मा में मिलकर , विलीन हो कर, एक रूप होते हैं ।  शेर , बाघ, भालू, 

कीट , पतंगा, मच्छर, भृँग, मनुष्य सभी जीव एक में समा जाते हैं !  किसी को इस 

ज्ञान का सत्य , विदित होता है, अन्यों को नहीं !  वही परमात्मा बीज रूप हैं बाकी 

सभी उसी के उपजाए विविध भाव हैं ! वही एक सत्य है - वही आत्मा है - हे पुत्र 

श्वेतकेतु, वही सत्य तुम स्वयं हो ! 

तत्` त्वम्` असि ! 
नाम : लावण्या दीपक शाह 

3 comments:

Smart Indian said...

सत्यं वद, धर्मं चर', सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, मा ब्रूयात सत्यमप्रियम्।
सत्य वचन! जन्माष्टमी के पावन पर्व पर सपरिवार आपको हार्दिक मंगलकामनाएँ!

वाणी गीत said...

सत्य ही शिव है !
ज्ञान की गंगा के लिए आभार !

विभा रानी श्रीवास्तव said...

शुभ प्रभात
संग्रहनीय आलेख के लिए आभार