
मोगरे के फूल पर थी चांदनी सोई हुई
रूठ कर रात बन्नो भी नींद में खोई हुई
उसने कहा था ' आ जाऊंगा ईद को
माहताब जी भर देखूंगा, कसम से।'
फीकी रह गई ईद, हाय, वो न आये
सूनी हवेली,सिवईयें रह गईं अनछुई !
नई दुल्हन का सिंगार फीका बोझिल गलहार
डूबते आफताब सी वीरां,फीकी, ईद की साँझ।
अश्क सूखे इंतज़ार करते नैन दीप अकुलाए थे
मोगरे के फूल पर सोई हुई थी चांदनी उस रात !
- लावण्या
4 comments:
सार्थक प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (19-01-2015) को ""आसमान में यदि घर होता..." (चर्चा - 1863) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
bahut khubsurat prastuti
तमन्ना इंसान की ......
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सम्मानित लावण्या जी, अच्छी रचना आपकी। "
सुंदर रचना!!!
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