कितनी सुँदर अहा, कितनी प्यारी,
ओ सुकुमारी, मैँ जाऊँ बलिहारी
नभचर, थलचर,जलचर सारे,
जीव अनेक से शोभित है सारी,
करेँ क्रीडा कल्लोल, नित आँगन मेँ,
माँ धरती तू हरएक से न्यारी !
अगर सुनूँ मैँ ध्यान लगाकर,
भूल ही जाऊँ विपदा,हर भारी,
तू ही मात, पिता भी तू हे,
भ्राता बँधु, परम सखा हमारी !
![[Frangipani+Flowers.jpg]](https://2.bp.blogspot.com/_PnvkyHm_19I/Rf8D-UkX2aI/AAAAAAAAAKc/X_6vzHFWZX8/s1600/Frangipani%2BFlowers.jpg)
दिवा -स्वप्न
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बचपन कोमल फूलोँ जैसा,
परीयोँ के सँग जैसे हो सैर,
नर्म धूप से बाग बगीचे खिलेँ
क्यारीयोँ मेँ लता पुष्पोँ की बेल
मधुमय हो सपनोँ से जगना,
नीड भरे पँछीयोँ के कलरव से
जल क्रीडा करते खगवृँद उडेँ
कँवल पुष्पोँ,पे मकरँद के ढेर!
जीवन हो मधुबन, कुँजन हो,
गुल्म लता, फल से बोझल होँ
आम्रमँजरी पे शुक पीक उडे,
घर बाहर सब, आनँद कानन हो!
कितना सुखमय लगता जीवन,
अगर स्वप्न सत्य मेँ परिणत हो!
तुहीन और तारे
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आसमाँ पे टिमटिमाते अनगिनत
क्षितिज के एक छोर से दूजी ओर
छोटे बड़े मंद या उद्दीप्त तारे !
जमीन पर हरी दूब पे बिछे हुए,
हरे हरे पत्तों पर जो हैं सजीं हुईं
भोर के धुंधलके में अवतरित धरा
पर चुपचाप बिखरते तुहीन कण !
देख, उनको सोचती हूँ मैं मन ही मन
क्यों इनका अस्त्तित्त्व, वसुंधरा पर ?
मनुज भी बिखरे हुए, जहां चहुँ ओर
माँ धरती के पट पर, विपुल विविधता
दिखलाती प्रकृति, अपना दिव्य रूप !
तृण पर, कण कण पर जलधि जल में !
हर लहर उठती, मिटती संग भाटा या
ज्वार के संग कहत , श श ... ना कर शोर !
-- लावण्या दीपक शाह
4 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (02-09-2018) को "महापुरुष अवतार" (चर्चा अंक-3082) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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श्री कृष्ण जन्माष्टमी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर रचनाएं
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन प्रेम-संगीत मिल के सजाएँ प्रिये - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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