Monday, March 25, 2019

संस्मरण : महीयसी आदरणीया महादेवी वर्मा जी

ॐ 
संस्मरण पुस्तक : शीर्षक : स्मृति दीप 
चित्र : महीयसी आदरणीया महादेवी वर्मा जी
एवं 
श्रद्धेय कवि श्रेष्ठ श्री सुमित्रानंदन पंतजी दादाजी 
 मेरे जीवन का एक अनमोल स्मृति पृष्ठ :  आदरणीया महादेवी जी की यादें !
  मुझे जहां तक याद पड़ता है कि मेरी उम्र होगी ७  या ८  वर्ष की  सं १९५७,
~' ५८ का कालखण्ड था।
  एक शुभ प्रातः हम से बतलाया गया कि, आदरणीया महादेवीजी वर्मा हिंदी साहित्य की विभूति, पूज्य पापा जी के घर, पापा जी से व हम सभी से मिलने, पधारने
वालीं हैं। हिन्दी साहित्य जगत की साक्षात सरस्वती,  हिंदी भाषा भारती को अपने उच्च स्तरीय, अलौकिक काव्य श्रृंगार वैभव से सजाने सँवारने वालीं, परम विदुषी, आदरणीया कवियत्री, सुश्री महादेवी वर्मा जी, स्वयं  बंबई, पधारेंगीं। समाचार सुनकर पापाजी पं. नरेंद्र शर्मा व हमारी अम्माँ सुशीला अत्यंत प्रसन्न थे।
आदरणीय दीदी जी का बम्बई नगरी में शुभागमन हुआ। अब पूज्य पापाजी व मेरी अम्माँ को पुजनीया दीदी जी से मिलने की उत्कंठा तीव्र होने लगी।
चित्र : मेरी अम्माँ पापाजी

अपने बंबई - प्रवास के दौरान हमारे घर अपने अनुज माने मेरे पापाजी,
पं. नरेंद्र शर्मा से मिलने, हम सब को आशीर्वाद देने,
सुश्री महादेवी वर्मा जी, पधारने वालीं थीं। 
       पापाजी का आवास, अब बंबई से देवी मुम्बा के नाम से ' मुम्बई ' कहलाने लगा है। घर अपरिमित जनसंख्या की आबादीवाले, भारत के इस  महानगर के
पश्चिम कोण में स्थित तथा जुहू ~ समुद्र किनारे तथा डाँडा नामक मछुआरों की बस्ती के मध्य बसे, एक छोटे से उपनगर ' खार ' के 
१९ वें रास्ते पर,  दाहिने हाथ पर, अगर हम मुड़ें, तो वहां से, हमारा घर, ठीक ५ वां पड़ता है। आज उस घर में, मेरा अनुज, मुझ से ५ वर्ष छोटा  परितोष नरेंद्र शर्मा रहता है। उस घर के संग, मेरे शैशव की अनगिनत अनमोल स्मृतियाँ जुडी हुईं हैं। आज जब उम्र के 7० दशक पार कर, मुड़कर देखती हूँ तब महसूस करती हूँ कि, उन यादों की ओजस्विता में
न तो प्रकाश कम हुआ है न, नेह के नातों की डोर में कोई शिथिलता ही आयी है। 

घर से जितनी दूरी तन की
उतना समीप रहा मेरा मन, धूप~छाँव का खेल जिँदगी क्या वसँत,क्या सावन! नेत्र मूँद कर कभी दिख जाते, वही मिट्टी के घर आँगन, वही पिता की पुण्य~छवि, 
सजल नयन पढ़ते रामायण !  
अम्मा के लिपटे हाथ आटे से फिर सोँधी रोटी की खुशबु बहनोँ का वह निश्छल हँसना साथ साथ,रातोँ को जगना ! वे शैशव के दिन थे न्यारे आसमान पर कितने तारे! कितनी परियाँ रोज उतरतीँ मेरे सपनोँ मेँ आ आ कर मिलतीँ ! किसको भूलूँ किस को याद करूँ ? मन को या मन के दर्पण को ? ~~ * ~~ * ~~ * ~~ * ~~
खार के उस घर नंबर ५९४ में  पहले हम लोग जब मेरी उम्र ४ से ५ वर्ष की थी तब, आये थे। उससे पहले हम  माटुंगा नामक उपनगर के ' शिवाजी पार्क, इलाके के पास  ' तैकलवाडी ' में रहते थे।' शिवाजी पार्क ' वह उद्यान है जहाँ भारत के मशहूर क्रिकेट खिलाड़ी ' सचिन तेंदुलकर' अपने बचपन में बल्ला पकड़ने का अभ्यास करते हुए युवा हुए हैं । हम वहीं से, खार रहने आ गए थे।  हमारे नए  घर का प्लाट नंबर है ५९४ ! आज भी इसी पते पर डाक पहुंचती है। कारण यह है कि इस घर का नामकरण हुआ ही नहीं ! पापाजी को ' पुनर्वसु ' जो एक नक्षत्र का नाम है, वह पसंद था और अम्मा को पसंद था ' सुविधा ' नाम ! बस, इन दोनों ने कभी अपनी पसंद बदली नहीं ! तो  इस कारण  इस नए घर का विधिवत नामकरण भी न हो पाया ! अक्सर हम देखते हैं कि अधिकाँश भारतीय घरों के साथ यह होता है कि सरकार जो घर का नंबर देती है उस के साथ प्रत्येक गृहस्वामी, एक ख़ास नाम भी चुनकर रख ही देते हैं। कालान्तर में यह चुना हुआ नाम फ़िर  घर की एक ख़ास और अलग पहचान बन जाता है। तो इस ५९४, १९ वां रास्ता, खार, मुम्बई के  इस घर को अब भी नंबर ५९४ से ही याद किया करतीं हूँ।

वहाँ, 
जब महीयसी महादेवी जी का आगमन हुआ था तब हम बच्चों में  काफी उत्साह था। हमारी प्यारी अम्मा सुशीला ने हमे समझा दिया था कि," बच्चों भारत की महानतम कवयित्री पूज्य महादेवी जी हमारे  घर पर पधार रहीं हैं। जब दीदी आएं न, तब तुम सभी, पूजनीया दीदी जी के पैर छूकर, उन्हें ठीक से सादर प्रणाम करना समझे ? " और आगे अम्माँ ने हमें यह भी कुछ कड़क आवाज़ में समझा  दिया था कि, ' यदि पूज्य दीदी यदि कुछ देने लगें न  तो मना करना, समझ गए ना ?' 

हम अम्माँ और पापाजी के आज्ञाकारी व अच्छे  बच्चे थे। पापाजी हमें कम ही डाँटते थे। अम्माँ ही हम सभी पर कड़ा अनुशाशन रखा करतीं थी। काफी बड़े होने पर कॉलेज के दिनों में भी अम्माँ के हाथ की चपत खाई है ~~
वह भी मुझे  याद है ! सो, 
चपत लगाना, डाँट - फटकार करना, धमकाना ये डिपार्टमेंट  अम्म्मा के हाथों में था। पापा जी ने कभी हमें डाँटा नहीं ! उनकी एक वक्र या
कृद्ध द्रष्टि, हमारे आंसूओं का बाँध तोड़ कर, सैलाब बहाने के लिए पर्याप्त थी। तब भला हम हमारी प्यारी अम्माँ की हिदायत का पालन, कैसे न करते ? सो हमने वैसे ही करने का निश्चय किया। 
       
श्रद्धेय महादेवी जी का भव्य आगमन हुआ। उनके घर पधारते ही हम सभी ने
 खूब झुक कर, बारी बारी से, आदरणीया दीदी जी के चरण स्पर्श किए। वे अत्यंत प्रसन्न हुईं। हम सब को आशिष दिए।
                पापाजी का जो बैठकखाना था, जहां अक्सर हमारे घर पधारनेवाले महान व्यक्ति 
आ कर विराजित होते, वहीं आदरणीया दीदी जी आईं तथा विराजित हुईं। उस कमरे में पापाजी की असंख्य चुनिंदा पुस्तकें थीं। एक अत्यंत कलात्मक, हाथीदाँत से निर्मित, आधे हाथ जितनी ऊंची देवी सरस्वती जी की सुँदर प्रतिमा थी सरस्वती देवी की कलात्मक प्रतिमा, दक्षिण भारत से बंबई हमारे घर पधारीं थीं।
     तमिळ भाषा से, हिंदी में डब की हुई, सुप्रसिद्ध व अविस्मरणीय  फिल्म मीराँ कि, जिस में मुख्य किरदार भारत रत्न सुश्री एम. एस. सुबबीलाक्षमी जी ने निभाया थाउक्त फिल्म के निर्माण के दौरान पापाजी दक्षिण भारत से, चेन्नई प्रवास के समय  उस प्रतिमा को बंबई लाये थे। चित्र : चेन्नई मद्रास में भारत रत्न सुश्री एम. एस. सुबबीलाक्षमी जी के आवास पर, पं. नरेंद्र शर्मा, हिंदी के मूर्धन्य कविश्रेष्ठ श्री सुमित्रानंदन पंत जी तथा सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री अमृतलाल नागर जी चाचाजी 

 आदरणीया दीदी जी कुछ समय रुकीं। उन्होंने पूज्य पापा जी से अंतरंग बातें भी कीं। 
सत्यवादी व स्पष्टवक्ता होने से उन्होंने अपने अनुजवत नरेंद्र शर्मा को यह सलाह भी दीं थीं  कि, ' नरेन तुम्हारा साहित्यिक विकास इस महानगर में, अवरूद्ध न हो इस बात का तुम्हें  ध्यान रखना है। इलाहाबाद में जो तुम्हारे काव्य का बिरवा पल्ल्वित हुआ है, वह यहां महानगर में पनपे व विकसित हो इसके प्रयास तुम्हें परिश्रम पूर्वक करने होंगें। '  
यह मुझे आज भी याद है। 

आदरणीया पूज्य दीदी जी का पहनावा भी याद मेरी स्मृति में झलक रहा है। सुफेद ख़द्दर - की सूती साड़ी, सीधा पल्ला, माथे को ढांके  हुए, एक आदर्श एवं सर्वथा भारतीय सन्नारी की छवि उपस्थित कर रहा था ! 
मुखमण्डल  पर अपार बौद्धिक तेज की आभा थी। नासिका पर टिका हुआ, काले फ्रेम का चश्मा पहनें हुए थीं जिससे  झाँकतीं हुए कुशाग्र आँखें, सब कुछ सजग हो परख रहीं थीं।  इन नयनों में कविता के स्वप्न लोक में विचरण करने की अलौकिक क्षमता तो थी ही परन्तु इस ठोस यथार्थ से भरे विश्व को बखूबी भाँपने  का माद्दा भी वे रखतीं थीं। आदरणीया दीदी जी की प्रखर चेतना, अपना प्रत्येक कार्य सुचारु रूप से, करने में सक्षम थीं। होंठों पर मंद हास्य उद्भासित था। अंतर्मन के वातसल्य का प्रतीक, मुख के आभामंडल को स्निग्धता लिए, महिमा मंडित कर रहा था।उनकी पावन छवि, जो  आज बरसों पश्चात धूमिल नहीँ हुई, जिसे शैशव अवस्था में मैंने देखा था, उसे आज अंतर्मन के शीशे पर,  पापाजी के घर के बारामदे में, गहरे मरून  कलर के फर्श पर, पूर्ण आलोक सहित विराजित देख रही हूँ। 
         मैं, उस पवित्र छवि को, हाथ जोड़कर, मस्तक झुका कर, सादर प्रणाम करती हूँ।
उस वक्त तो बाल सुलभ मानस में यह विचार आये न होंगें किन्तु बच्चे, अक्सर बड़ों को बहुत ध्यान से देखते हैं और अपने जीवन में मिले हर व्यक्ति को याद भी रखते हैं।  
      आज सोच रही हूँ, यह मेरा पम सौभाग्य नहीं तो और क्या है जो मैंने ऐसी विलक्षण प्रतिभा के, बचपन में दर्शन कर लिए ! जानती हूँ कि पूज्य पापा जी की बिटिया होने का सौभाग्य ही मुझे ऐसे अलौकिक अवसर प्रदान करवा गया ! यह सत्य, है। 
     साक्षात सरस्वती स्वरूपा, आदरणीया पूज्य दीदी के खान ~ पान इत्यादी की सेवा,
हमारी प्यारी अम्माँ
 सुचारू रूप से कर रहीं थीं।उस रोज़  अतिथि की अभ्यर्थना में,
कोई कसर शेष
 न रही थी। बड़ों ने ढेर सारीं बातें कीं।समय तेजी से बीतने लगा। 
     कुछ समय पश्चात दीदी ने चलना चाहा। सम्माननीय अतिथि को अब घर से भावभीनी विदा देने की घड़ी आ पहुँची थी। पूज्य दीदी जब  चलने लगीं, तो अपने बटुवे से (पर्स से)  कुछ रूपये निकाल कर, उन्होंने मेरी छोटी बहन बाँधवी की हथेली पे, वे पैसे रख दिए।
तब हमें अम्माँ की नसीहत याद आई!  जो सिखलाया गया था उस के अनुसार 
५, वर्ष की बाँधवी जिसे हम घर पर, प्यार से मोँघी बुलाते हैं, वह एकदम से 
' न न ' करने लगी। हाथ पे  धरे हुए वो पैसे वह पूज्य दीदी जी को लौटाने लगी। 
अब महादेवी जी बोलीं,' अरे ले ले बिटिया ' ~ तब तो बांधवी धर्म संकट में पड गयी।
अब क्या करे ? प्रतिक्रिया या आदेश के हेतु से उसने अम्माँ
 का मुख देखा।
तब भी वह समझ नहीं पाई कि अब क्या किया जाए !  अम्माँ मुस्कुरा रहीं  थीं ! 
तब ५ वर्ष की बाँधवी ने इस दुविधा से उभरने का स्वयं समाधान ढूंढ निकाला !
तपाक से बोली, ' इत्ते  सारे नहीं ..थोड़े से दे दीजिये अम्मा ने लेने को मना किया है ना ! ' 
चित्र : मैं लावण्या व मुझ से छोटी बाँधवी

बच्चे की भोली बात सुनकर सबसे पहले महादेवी जी खूब खुल कर ठठाकर हंसीं।
वे गिने चुने व्यक्ति जो आदरणीया महादेवी जी से मिलने का सौभाग्य प्राप्त कर चुके हैं
वे जानते हैं कि, उनकी आवाज बहुत भारी थी और वहां बारामदे में जितने लोग खड़े थे 
उनका आदरणीया दीदी के यूं खुलकर हंसने पे जो ठहाका लगा वह आज तक याद है ! 
- लावण्या
 क्रमश : ~~ " अब तो तुम्हें और भी मेरी याद न आती होगी "
कविवर श्रद्धेय सुमित्रानंदन पंतजी का पोस्ट कार्ड

अनुज सखा पंडित नरेंद्र शर्मा के नाम : 

2 comments:

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन विद्यार्थी जी को याद करते हुए ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

Rajesh kantilal Vakil said...

Great childhood memories