Sunday, February 24, 2008

आस्कॅर, हिन्दी और बॉलीवुड


आस्कॅर, हिन्दी और बॉलीवुड
http://en.wikipedia.org/wiki/Oscars-

हमारे असफल रहने की वजह क्या है ?? ये प्रश्न अनुगूंज में भी एक बार पूछा गया है या यूँ क्यूं न कहें कि, भारतीय सिनेमा की धूम , माने " बोलीवुड " आज भी , होलीवुड में , प्रख्यात क्यों नही है ? जब के आम जनता और खास कर एन। आर। आई । प्रजा , बोलीवुड को , चाहती है।

इस उत्तर को आप सुधिजनोँ के सामने लाते , सबसे पहले, ये स्पष्ट कर दूँ कि, मैँ-" उत्तर अमरीका" मेँ रहती अवश्य हूँ परँतु, फिर भी मेरा अवलोकन व मत सर्वथा, "निष्पक्ष " है --चूँकि, "ओस्कर" अमरीकन चयन प्रणाली है , हम ये भी समझ लेँ कि,अमरीका की सोच , उसकी आधारित पृष्ठभूमि है।

अमरीका हमेशा "लोक -तँत्र " को फैलाने के प्रचार, प्रसार से अपने आप को जुडा दीखाता हो पर वास्तव मेँ, जो एक राष्ट्र प्रमुख ने कहा वही मूलभूत विचार धारा, कई सारे मुद्दोँ पर भी लागु होती है -याद है क्या आपको, जो " गौ-बालक " [ COW -BOY ] टेक्सास के निवासी, राष्ट्रपति ने कहा था ?

" अगर आप हमारे साथ नहीँ हैँ, तब आप, हमारे, विपक्ष मेँ हैँ"

यही बात " ओस्कर" के साथ भी है - हमारे अभिनेता / निर्माता निर्देशकोँ/ सँगीतज्ञ / इत्यादी का कुसूर कम मात्रा मेँ है - बोलीवुड को क्यों , मान्यता आज भी होलीवुड की अपेक्षा में, कम मिली दीखालाई देती है उसके अगर हम कारण तलाशें तो , पायेंगे के, कई अभिनेता हिन्दी के बजाय, अँग्रेजी मेँ बोलते नजर आते हैँ -सार्वजनिक माध्यमोँ के उपकरणोँ से प्रसारित होनेवाले ,उनके साक्षात्कारोँ मेँ !! हाँ, हिन्दी का आग्रह, उचित है

( & Now -- Regarding this observation ) :" भाषा की इज्जत नही करना है जिस भाषा में वो फिल्म बनी है। अगर हिन्दी फिल्मों के कलाकार ही फिल्म के डायलॉग भर बोल के इति समझ लेंगे तो हम कैसे दूसरे विदेशियों से ये आशा करें की वो इन फिल्मो को देखेंगे ही। "(तरुण) -पर ये ना भूलेँ हम की, भारत की राष्ट्र भाषा अवशय हिन्दी हो, दूसरे प्राँतोँ की भाषाएँ भी अपना उतना ही महत्त्व रखतीँ हैँ - जैसे, बाँग्ला, तमिल, कन्नड, या फिर मराठी या गुजराती ---" ऑस्कर" व उसके " तमगे " या "तोहफे" = "Awarda" - अमरीकन वर्चस्व को कायम रखने मेँ कोई कसर बाकी नहीँ रखता --

-अगर भारतीय फिल्म ऐसी हो, जो भारत को दकियानूसी, रुढीवादी , पुरातनपँथी बता रही हो, जैसे दीपा मेहता जी की,"वोटर" या (सत्यजीत रे की पुरानी फील्म," पाथेर पँचाली" तो, उसे अवश्य "तेज केँद्र मेँ चुँधियाती रोशनी " = मतलब " लाइम लाईट" मेँ खडा कर के ऐवोर्ड से नवाजा जाता रहा है --" देवदास" = नई , उसके गीत सँगीत, आम अमरीकी " मस्तिक्ष प्रवाह" = " वेव लेन्थ" से अलग है -

- भारतीय सँस्कृति, हमारी जड से फूली, कोँपलोँ से सिँचित वृक्ष है -जिसकी छाया भारतीय, मानस के अनुरुप है -

उसी तरह, अमरीका का अपना अलग रोजमर्रा का जीवन है जिस के आयाम, उसके सँगीत, रहन सहन, प्रथाएँ , त्योहार, जीवन शैली सभी मेँ प्रत्यक्ष होते हैँ -- ये कहना, शायद उन सभी को बुरा भी लग सकता है कि, जब तक आप अमरीका आकर, एक लँबी अवधि तक ना रहेँ, आप इस देश को अच्छी तरह पहचान नहीँ पाते !- पर मैँ जो कह रही हूँ वो है बिलकुल सच! अमरीकन " छाया चित्रोँ " = ( फिल्मोँ ) पर यहूदी कौम की गहरी पकड है - दूसरी यूरोप की कई नस्लेँ, जातियाँ भी प्रतिनिधित्व रखतीँ हैँ -ज्यादातर, वे जुडाओ, क्रिस्चीयन, ऐँग्लो ~ सेक्सकन, प्रोटेस्टेँट प्रणाली से सँबँधित होते हैँ -और उन्हीँ का वर्चस्व रहे, उनके विचारोँ का बाहुल्य, व बहुमत रहे उस बारे मेँ वे सजग व, प्रयत्नशील रहते हैँ -इस दशा मेँ " भारत को बहोत ज्यादा ऊँचाई मिले " = ग्लैमरस " वैसी छवि दीखलाने मेँ उन्हेँ क्यूँ रस रहेगा?

भारत के साथ १ अबज भारतीय हैँ - विदेश मेँ बसे भी असँख्य भारतीय मूल के दर्शक हैँ जो बडे ही चाव से, आजकल बन रही नई , आधुनिक फिल्मेँ देखते हैँ --कम मात्रा मेँ विदेशी भी, कौतुहल या जिज्ञासा वश , कभी कभार , भारतीय फिल्मेँ देख लेते हैँ -

अच्छी फिल्मेँ जैसे किसी भारतीय को पसँद आतीँ हैँ उसी तरह, विदेशी शख्स को भी पसँद आतीँ हैँ - परँतु, आज भी उतनी लोक प्रियता विशुध्ध हिन्दी फिल्मोँ को नहीँ मिलती जितना कि, होलीवुड प्रेषित फिल्मोँ को ! -

- ये होलीवुड का व्यावसायिक सफल तँत्र , प्रचार -प्रसार की सशक्त विधा, किसी भी आयु के दर्शक को जिसे दर्शक पसँद करे उसी को परोस कर, मँत्र मुग्ध करने की परम चेष्टा, प्रबल आकर्षण पैदा करने के सारे हथकँडे अपनाने का रवैया ये कई बातेँ "खाद= फर्टीलाइजर" सा काम करतीँ हैँ -

- इन सारी , बातों मेँ " होलीवुड" सिध्ध हस्त" है -

बिलकुल उसी तरह जैसे - भारत , सदीयोँ से, कई सारे शुध्ध इत्तर का निकास करता आया है परँतु, जो वित्तीय व व्यापारीक सफलता फ्रान्स ने हासिल की है, परफ्यूम बन्नने व उन्हेँ बेचकर अबजोँ की तादाद मेँ नफा कमाने की, वो भारत क्यूँ हासिल नहीँ कर पाया आज तक? पेरिस मेँ बनी इत्र की शीशीयोँ मेँ नकली इत्र भरकर बेचने से मुनाफा कमाने की नकलची बँदर वाली हमारी सोच हम क्यूँ नहीँ बदल सके ??

शायद, आज भारत जाग गया है -- कई सफल व्यापार आज आगे आ रहे हैँ तो भविष्य मेँ हम सभी इस तरह की चुनौतीयोँ को स्वीकार के, अपने को सफल सिध्ध कर पायेँगे -

दूसरा मुद्दा है कि, " फैशन की गुडियों की दौड में बहुत कुछ हासिल कर लिया। " "(तरुण) ~~~उसके बारे मेँ यूँ सोचिये कि, सबसे ज्यादा सिगरेट का उत्पादन करने वाला अमरीका " देश , खुद अपने शहेरोँ मेँ + जीवन मेँ " धूम्रपान" के विरुध्ध --- > प्रचार करता है - अपने मकानोँ से "धूम्रपान" हटाकर , कानूनन अवैध घोषित कर, अपने मकानोँ, रेस्तराँ, दफ्तरोँ को धूम्रपान से मुक्त कर उन्हेँ " ग्रीन ज़ोन" कहलाने मेँ फख्र महसूस करता है --तो दूसरी तरफ, इँडोनेशिया, भारत या चीन इत्यादी मेँ जोश खरोश के साथ, इसी दूषण को फैलाने मेँ बिलकुल सँकोच नहीँ इनके व्यापारीयोँ को ..... जिसे सरकार भी अनदेखा कर देती है !!-

खैर! समूचे विश्व को सुधारने की जिम्मेवारी भला अमरीका क्यूँ अपने माथे ले ?? क्या इतना कम नहीँ कि सारी दुनिया की "पुलिस" बन कर वह "सुरक्षा " के सामान मुहैया करवाती है ?? ;-) इसी भाँति, "रेवेलोन" "ऐवोन" -- "ऐस्टी लोडर" जैसी सौँदर्य उत्पादन सँस्थाएँ करोडोँ डोलर का मुनाफा करतीँ हैँ बल्के, उसे द्वीगुणीत करतीँ हैँ -- चारगुना बढातीँ हैँ --- जब भारत्त्य सुँदरी, " विश्व सुँदरी" घोषित होती हैँ !!

भारत के बडे शहरोँ , से विस्तरीत , होकर सौँदर्य प्रसाधनोँ की लालसा और माँग छोटे शहरोँ की बस्तीयोँ को पार कर, कस्बोँ या गाँवोँ तक फैल जाती है और तब भी कहा जाता है कि, "भारत का मध्यम वर्ग" जाग गया हैऔर आय बढने से खर्च की क्षमता बढी है !!--तो अमरीकी सौँदर्य प्रसाधन बनानेवाली कँपनी भी क्यूँ ना हिस्सा लेँ ?? और सौँदर्य प्रतियोगिता आयोजनोँ से क्यूँ ना मुनाफा व सेँध लगाकर प्रवेश किया जाये उन बाजारोँ मेँ व प्रदेशोँ मेँ, जहाँ आज तक प्रवेश नहीँ मिला ?? मुझे अचरज इसी बात का है कि, भारत का हर क्षेत्र क्यूँ "अमरीकन समाज प्रणाली " का अँधा अनुकरण कर, अपने को " आधुनिक" कहलवाने की कोशिश मेँ लगा, ये भूल रहा है कि, भारत दुनिया के पूर्वी गोलार्ध मेँ है जहाँ से सूर्य पस्चिम गोलार्ध को प्रकाशित करता है-

एक काल , एक फूल, एक समय नहीँ खिलता !!-

हर देश की सँस्क़ृति उसे अपनी जड से जोडे रखे तभी वह मजबूत होकर पनपती है-- ना कि दूसरे से उधार ली गई सोच या समझ !!

इसलिये, भारत की समझदार , शिक्षित प्रजा से मैँ विनम्र प्रार्थना करुँगी कि,वे अपना योगदान देते रहेँ -- अपनी जडोँ के प्रति निष्ठा से , अपना "जल रुपी " " अर्घ्य " चढाते रहेँ ! जिससे एक शक्तिशाली भारत, विश्व के सामने, अपनी प्राचीन सँस्कृति के साथ साथ, आधुनिक कार्य क्षमता के बूते पर, एक सशक्त व सफल राष्ट्र का उज्ज्वल दृष्टाँत बन कर दीखला सके !!

यही मेरे सपनोँ का भावी भारत होगा !! जिसे मेरे कोटी कोटी प्रणाम !!

-लावण्या

http://antarman-antarman.blogspot.com/2007/03/23.html





5 comments:

Gyan Dutt Pandey said...

सही बात है; नकल और अन्धानुकरण के साथ आपको एक अच्छा डुप्लीकेट तो मिल सकता है पर ओरिजिनॉलिटी तो कदापि नहीँ आ सकती। यही आधुनिक भारत की विडम्बना है।

Harshad Jangla said...

Lavanyaji
The article shows your deep knowledge, heavy thinking with an extremely controlled language. Excellent one.
Rgds.

mamta said...

बहुत ही अच्छा और सुलझा हुआ विश्लेषण ।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

ज्ञान जी, ममता जी , आभार आपके आने का मेरे जाल घर पर और अपनी महत्त्वपूर्ण राय देने का !

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

Thank you so much Harshad bhai, i write straight from my heart & do not claim to be "know it all "
but, i do look at events , news and things or people with a sceptic's eye ! hence, these , thoughts !
Your visits are deeply appreciated on Lavanyam -Antarman "