Monday, August 11, 2008

पर्बत प्रदेश मेँ पावस



कविता का शीर्षक है : पर्बत प्रदेश मेँ पावस

पावस ऋतु थी , परबत प्रदेश ,

पल पल परिवर्तित प्रकृति वेश ,

मेखलाकार परबत अपार,

अवलोक रहा है बार बार ,

नीचे जल में निज महाकार

जिसके चरणों में पड़ा ताल ,

दर्पण सा फैला है विशाल

गिरी का गौरव , गा गा कर ,

मद में नस नस उत्तेजित केर ,
मोती की लड़ियों से सुंदर ,

झरते है , झाग भरे निर्झर !

गिरिवर के उर से उठ उठ कर ,

उच्चाकाक्षाओँ से तरुवर ,
हैं झाँक रहे नीरव - नभ पर ,

अनिमेष , अटल ,कुछ चिंतापर !

उड़ गया अचानक , लो भूधर ,
फडका अपार पारद के पर,
रव शेष रह गए है निर्झर ,

है टूट पड़ा , भू पर , अम्बर !

धंस गए धरा में , सभय शाल ,
उठ रहा धुंआ , जल गया ताल ,
यों जलद यान में विचर विचर ,
था इन्द्र खेलता इन्द्र -जाल !

वह "सरला" , उस गिरी को

कहती थी - " बादल -घर ! "

सरल शैशव की सुखद सुधि ~ सी ,

वह , बालिका मेरी मनोरम मित्र थी !

इस तरह , मेरे चितेरे ह्रदय की ,

बाह्य प्रकृति बनी चमत्कृत चित्र थी !

सरल शैशव की सुखद सुधि ~ सी ,

वह ,बालिका मेरी मनोरम मित्र थी !

hindi।org/sankalan/varsha_mangal/poems/pavas।htm : लिंक

पंतजी ने इस में प्रकृति वर्णन कितना सजीव किया है।

हिमालय की पर्वत श्रृंखला, कविता पढ़ने वाले के सामने , सहज , साकार हो उठे !

शब्द चयन , भावः प्रवाह , लय और गति , छँदो की मात्राओं में बंधी " हिम प्रपात सी सुंदर " , सरल और वेगवती काव्य - धारा बन कर साक्षात् हो उठती है --

पहली पंक्तियाँ है , ------->

" पावस ऋतु थी , परबत प्रदेश ,"

पहाडो पर बरखा ऋतू का आगमन हुआ है ,

" पल पल परिवर्तित प्रकृति वेश , "

कवि पन्त जी की सशक्त कलम , यहाँ पर , हमारे समक्ष , चल चित्रोसे दृश्य प्रस्तुत करने की भूमिका बना चुके हैं ।

पाठक उत्सुकता से बंधे आगे के दृश्यों को देखने के लिए लालायित है ~~>

" मेखलाकार परबत अपार, "अलंकार , उपमान = मेखलाकार परबत श्रेणी

" अवलोक रहा है बार बार , " क्या देख रही है परबत श्रृंखलाएं ?

" नीचे जल में निज महाकार "

परबत का प्रतिबिम्ब , जल -राशिः में द्रष्टिगोचर है और

सुंदर शब्द - चित्रण बन पड़ा है

" जिसके चरणों में पड़ा ताल , दर्पण सा फैला है विशाल "

यहाँ दर्पण के साथ ताल की उपमा देने से जल की स्वछता का आभास मिल जाता है , यही दर्शाता है , सही शब्द - चयन , जो , भावों को भी मुखरित करने में सक्षम है ।

" गिरी का गौरव , गा गा कर , मद में नस नस उत्तेजित केर ,

मोती की लड़ियों से सुंदर ,झरते है , झाग भरे निर्झर !"

परबत से बहते हुए झरने , उसीका गौरव - गान , मद से उत्तेजित होकर गाते हुए , मोती की लड़ियों से शुभ्र + फेनिल , धारा लिए बह रहे हैं । ये कितना सजीव चित्रण है । उपमा , अलंकार सभी सफल हैं

" गिरिवर के उर से उठ उठ कर ,उच्चाकाक्षाओँ से तरुवर ,

हैं झाँक रहे नीरव - नभ पर , अनिमेष , अटल ,कुछ चिंतापर ! "

यहाँ कवि हमे उन्नत, उठे हुए वृक्षों से परिचित करवा रहे हैं , जो मौन होकर , कुछ चिंतित से , मानव - ह्रदय के उर = मनन से उठे भावों से प्रतीत हो रहे हैं । ये पाठक के " inner self - " अंतर्मन की चेतना " से जुडा, स्पर्श है जो काव्य को कालजयी स्वरुप प्रदान करता है ।

और अब ," उड़ गया अचानक , लो भूधर , फडका अपार पारद के पर,

रव शेष रह गए है निर्झर, है टूट पड़ा, भू पर , अम्बर ! "

यहाँ चित्र सजीव , सप्राण बन उठा है , भूधर पारे से , चमकीले , पर, फडफडाकर,

उड़ चला है ~~~ झरनों का संगीत भी जारी है , और अचानक , मानों सारा आकाश धरती पर टूट पड़ा हो ऐसे वर्षा , जोरों से गिरने लगती है !

यहाँ शब्द - चित्र में गति है , और पक्षी , झरना और बादल बरसने की ३ क्रिया , का एक साथ चित्रण
" धंस गए धारा में , सभय शाल ,

उठ रहा धुंआ , जल गया ताल

यों जलद यान में विचर विचर ,

था इन्द्र खेलता इन्द्र -जाल ! "

भारतीय पुरातन साहित्य में इन्द्र वर्षा ऋतु के देवता हैं । वे इस बरसाती मौसम में " जलद यान " मतलब पानी से संचालित विमान, जिस में घूमते हुए, "इन्द्र" - जाल का सम्मोहन " बिछा रहे हैं । जोरों की बारिश से डर कर शाल के पेड़ , जमीन में धंस से गए हैं । सरोवर की सतह पर कुहासा देख , कवि उसे धुएँ की उपमा देते हैं मानोँ ताल , जल रहा है और उसके ह्रदय से धुंआ उठ रहा है --

पिछले अंतरे में जो वर्षा का जोरों से गिरना उसके बाद ताल और शाल पर उसकी प्रतिक्रिया को इन्द्र के माया जाल के खेल के साथ जोड़ा गया है ।

" वह सरला , उस गिरी को कहती थी - " बादल -घर ! "

यह पंक्तियाँ एक बालिका के लिए लिखी गई हैं जो पर्बतों पर गिरती बारिश को देख उन्हें बादलों का घर कह कर पुकारा करती थी।

कवि की ये अन्तरमा की आवाज़ है , काव्य की आत्मा , या कहें , नज़्म की रूह है ये बालिका को कवि " सरला" यानि " मासूम" कहते हैं ।

कवि श्री सुमित्रानंदन पंतजी हिन्दी काव्य जगत के एक यशश्वी , अमर और जगमगाते नक्षत्र हैं । जिनकी दिव्य ज्योति , आज भी अजर - अमर है। उनकी कविताओं में जो एक मासूम , भोली , नादान नन्ही लड़की का पात्र है , वो अंग्रेज़ी साहित्य के विलियम वर्डज़्वर्थ के एक ऐसे ही पात्र , "LUCY " से भी मेल खाता है ~~ भाव एक से ही हैं , भाषाएँ दोनों कवि के काव्य की अलग अलग हैं , और

कविता रचनेवाले दो अलग भूखंड पर बसे कविर्मनीषी हैं ~~

ये लिंक देखें , ~

~ http://www.readbookonline.net/readOnLine/3315/

" इस तरह , मेरे चितेरे ह्रदय की , बाह्य प्रकृति बनी चमत्कृत चित्र थी "

कवि यह कहते हैं कि, बाहर , जो आँखें देख रही हैं , उसे मन रुपी चित्रकार एक रोमांचक चित्र की तरह अपने सजीव काव्य -शिल्पके द्वारा , रंगों में भर रहा है -

" सरल शैशव की सुखद सुधि ~ सी , वह ,बालिका मेरी मनोरम मित्र थी ! "

यह सरल बालिका , ये मासूम लड़की , शायद सच हो , या कविके सुनहले बचपन के दिनों की मीठी याद ही शायद हो ! या, एक नये अंदाज़ से, सामने आई हो , किसे पता ?

बचपन की याद किसे मीठी नही लगती ? और वे सभी मधुर यादें , आज उनकी मनोरम , सुंदर , बालिका मित्र में समां गई हैं !

शायद हर कवि ह्रदय, तभी कविता लिखता है जब वो उस भाव -भूमि पर जा कर बैठ जाता है जहाँ हर व्यक्ति , एक नादान , भोला बच्चा बन कर , समाज को , लोगों को , घर परिवार को , रिश्तों - नातों को और उनसे उठी अनुभूतियों को तो कभी , प्रकृति को भी देखता है !

कभी ऐसा भी होता है कि , इन सब को देखने परखने के बाद , ये भी सोचता है कि , " मैं कौन हूँ ? मेरा वजूद क्या है इस जहाँ में ? " और तब कवि उस के बारे में सोचता है जो इंसान को दीखलाई नही देता !

प्रत्यक्ष से परोक्ष का सफर वहीँ से शुरू होता है !



~~ लावण्या

18 comments:

कुश said...

इतनी सारी जानकारी एक ही पोस्ट में.. पावस ने तो भिगो दिया..

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

कुश जी,
ये पँतजी के काव्य की समीक्षा का प्रयास है -
पूरी कविता ,
जो मुझे समझ मेँ आई
वही लिख दिया है !
- आशा है आपको
पावस मेँ भीगने का मज़ा आया ! :)
सस्नेह,
- लावण्या

दिनेशराय द्विवेदी said...

वर्षा से भीगा
मन,
उदगार हृदय
उढ़ेलता
ऐसे ही।

Yunus Khan said...

स्‍कूल में ये कविता हमारे पाठ्यक्रम में थी । और तब से इसका रस लेते आ रहे हैं ।
जब भी बारिश होती है ये बरबस याद आ जाती है ।
शुक्रिया हमारी बारिश को रंगीन बनाने के लिए ।

रंजू भाटिया said...

बहुत सुंदर पावस ..भीग गया इसको पढ़ कर अंतर्मन

डॉ .अनुराग said...

भीग गये है जी......सरोबर पूरी तरह.......

admin said...

पंत जी की कविता और उसपर सुंदर से चित्र साथ ही सार्थक विवेचन।
.मैं तो बस इतना ही कहूंगा कि बहुत खूब।

नीरज गोस्वामी said...

अहा...आनंद वर्षा करवा दी आपने..हम धन्य हुए
नीरज

Harshad Jangla said...

Lavanyaji

Enjoyed reading. Thanx.

-Harshad Jangla
Atlanta, USA

Udan Tashtari said...

स्कूल के दिनों के बाद अब पढ़ी-आभार इस प्रस्तुति और सुन्दर समीक्षा का.

Anonymous said...

आँखे भी भीग गयी हैं न जाने साक्षात कब देखने का मौका मिलेगा

Smart Indian said...

लावण्या जी,
बहुत सुंदर आलेख है. कविता भी उतनी ही सुंदर है. दोनों कवियों में समानता सामने रखना भी आपके ही बस की बात है. मैंने यह दोनों ही कवितायें दशकों पहले पढी थीं. याद फ़िर से ताज़ा कराने का शुक्रिया.

rakhshanda said...

पूरी तरह भिगो दिया आपने,तन मन में बस गई बारिशों की तरह...शुक्रिया,

art said...

arre waah....bahut hi sundar vivechan kiya hai....kuch din pehle hi mai yehi kaviya bachhon ko padha rahi thi

राज भाटिय़ा said...

बहुत बहुत धन्यवाद पुरानी यादे याद दिला दी हम जब बहुत छोटे थे तो हमारे पाठया पुस्तक मे थी, इस के साथ ही आप ने ओर ठेर सारी जानकारी भी दे दी,इन सब के लिये धन्यवाद

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

आप सभी को ये कविता उतनी ही पसँद आई जितनी मुझे है
टीप्पणीयोँ के लिये और सराहना के लिये बहुत बहुत आभार !

Bohemian said...

पन्त जी की ये रचना स्कूल मैं पड़ी थी और सदा बारिश आने पर दिमाग मैं आजाती थी.. आज मुंबई मैं बहुत बारिश हो रही थी तो इस रचना को नेट पर ढूँढ रहा था और यंहा आपके ब्लॉग मैं पाया ... इसके लिए धन्यवाद - - रवि

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

Ravi bhai,
Glad you found this poem here -
I also recall Mumbai & its monsoon season with heavy rains.
Thank you for visiting.