Wednesday, August 29, 2007

अँतिम भाग - ४ डा. अमरनाथ दुबे का आलेख -



ग्रामीण सँस्कृति का चित्रण राष्ट्रीय धारा का अँग माना जाता है. गोधूली मे घर लौटते ढोरोँ का यह चित्र कितना सहज, पर कितना मार्मिक है -- " हो रही साँझ, आ रहे ढोर,
हैँ रँभा रहीँ गायेँ भैँसेँ
जँगल से घर को लौट रही
गोधूली वेला मे धरती "
कृषि - भूमि पर श्रमरत कृषक गोरी का यह चित्र देखिये -
" सिर धरे कलेऊ की रोटी, लेकर के मट्ठा की मटकी,
घर से जँगल की ओर चली होगी बटिया पर पग धरती,
कर काम खेत मे स्वस्थ हुई होगी तलाब मे उतर नहा,
दे न्यार बैल को , फेर हाथ, कर प्यार बनी माता धरती "
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किस से कम है यह पली धूल मेँ, सोना धूल भरी धरती ?

तू तू मैँ मैँ तथा व्यक्तिगत स्वार्थ राष्ट्र को खोखला बना देते हैँ कवि उससे दुखी है -
" आज हिल रही राष्ट्र की नीँव, व्यक्ति का स्वार्थ न टस से मस,
राष्ट्र के सिवा सभी स्वाधीन, व्यक्ति - स्वातँत्रय अहम के वश ! "
कवि फिर भी देश को ललकारता है -- " ध्यान करो निज बल का मन मेँ,
भारत पवन कुमार,
एक बार फिर उठो गगन मे ,
कनक भूधराकार !"
शर्मा जी ने राष्ट्रीय चेतना के साथ कभी खिलवाड नहीँ किया. यध्यपि उनकी कुछ कविताएँ साम्यवाद , लाल निशान, तथा रुस के महापुरुषोँ से सँबँधित अवश्य हैँ पर वास्तव मे उनकी आत्मा भारतीय परिवेश तथा भारतीय जनजीवन से अपना सँबँध कभी भी तोड नहीँ सकी. उन्होने अपने काव्य मेँ राष्ट्रीय चेतना के श्रेष्ठतम आयामोँ की कल्पना की है, यही कवि के भावी भारत का सपना है, जिसके केन्द्र मेँ गाँधी जी स्वयम्` हैँ : ~
" आधा सोया, आधा जागा,
देख रहा था सपना,
भावी के विराट दर्पण मेँ ,
देखा भारत अपना ,
गाँधी जिसका ज्योति - बीज, उस विश्व वृक्ष की छाया,
सितादर्ष लोहित यथार्थ यह नहीँ सुरासुर माया -
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डा. अमरनाथ दुबे के आलेख को प्रस्तुत किया है पुस्तक " सृजन और सँवेदना - नरेन्द्र शर्मा " से लावण्या ने

3 comments:

mamta said...

अरे पता नही पिछले तीन भाग हमसे कैसे छूट गए। अब उन्हें पढने जा रहे है।
बड़ा ही सजीव चित्रण है।

Udan Tashtari said...

बहुत बढ़िया रही श्रृंखला. और लाईये ऐसी ही.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

ममता जी व समीर भाई, टिप्पणी के लिये ,बहुत बहुत धन्यवाद !