Sunday, August 12, 2007

भारतिय मनिषा / भारतीय मानस क्या है ? ( श्री प्रेम कपूर की यादेँ - उन्हीँ की ज़बानी )


यादें : प्रेम कपूर
लँदन - पार्टी की गहमा गहमी - कई एक भारतीय हैँ मित्र परिचय करा रहे हैँ " आप निर्माता हैँ  ' कृष्ण पर फिल्म बना रहे हैँ '  अँग्रेज़ी और हिन्दी मेँ - " कृष्ण " मेरे आराध्य !
फिल्म् के सँबँध मेँ अधिक जानने का कौतुहल  छिपा नहीँ पाता। मेरे हर प्रश्न का उत्तर उनसे बहुत सँक्षिप्त मेँ मिलता है। 
मेरे अधिक खोदने पर अपने स्थूलकाय शरीर को सँभालते हुए बोलीँ , " आपके जो भी सवाल हैँ उनका उत्तर भारत आने पर आपको हमारे पँडित जी, शर्मा जी देँगेँ, इसकी ज़िम्मेदारी उन्हीँ पर है और व्यवसाय का कँट्रोल मेरे हाथ मेँ है  " कह कर, पार्टी के माहौल मेँ गुल हो जातीँ हैँ। 
भारत : सन्` '८३, जून की नौ तारीख ! मैँ पँडित जी से मिलने आया हूँ। 
 उनका घर, उनका कमरा और पँडित जी खुद बिलकुल नहीँ बदले।
एक लँबे अँतराल की कडी जुड गयी है।  जब बँबई मेँ पहली बार, इस घर मेँ, उनके यहाँ आमँत्रित था, वह सन्` '६८ की गर्मियोँ वाली सुबह थी। 
 मैँ इलाहाबाद पर फिल्म बना रहा था। 
 पँत, फिराक गोरखपुरी, बच्चन जी, की फिल्मिँग कर आया था। 
 पँडित नरेन्द्र शर्मा जी के घर, कैमरा, लाइट के साथ, एक बार ही आना हुआ था। इसके पहले सन्` '५४ मेँ , बँबई आया था और चेँबूर मेँ, आर. के. स्टुडियो जाने के लिये, कुर्ला स्टेशन पर खडा था। तब वहाँ उस प्लेटर्फोर्म से इँजनवाली गाडी, चेँबूर जाती थी, शायद, एक घँटे के अँतराल से !
  चक्क खुली धोती, खादी का कुर्ता और जवाहर जाकेट , रोलगोल्ड फ्रेम का चश्मा। हम लोग साथ खडे हैँ।  मित्र ने परिचय कराया " पँडित नरेन्द्र शर्मा ! "
आगे मैँने मित्र को बोलने नहीँ दिया। जरुरत ही नहीँ थी।
 पर जब फिल्म "त्रिवेणी" बना रहा था, उस समय मैँ, "धर्मयुग " मेँ था।
तब मैँने फोन पे कहा था, " फिल्म बनेगी जुरुर, कब और कैसे ये कह नहीँ सकता।  जब तक बन नहीँ जाती, सारा कुछ गुप चुप रखना है --यहाँ तक की भारती जी को भी नहीँ मालूम कि मैँ फिल्म बना रहा हूँ। आप मेरी बात को सीक्रेट रखेँ और फिल्म मेँ आपकी एक कविता इलाहाबाद पर चाहिये.'
प्रयाग !
[ यह श्रद्धेय पंडित नरेन्द्र शर्मा की एक दुर्लभ कविता है जो मैंने 'सरस्वती हीरक-जयन्ती विशेषांक १९००-१९५९' से साभार ली है।
- लक्ष्मीनारायण गुप्त ]

मैं बन्दी बन्दी मधुप, और यह गुंजित मम सनेहानुराग
संगम की गोदी में पोषित शोभित तू शतदल प्रयाग
विधि की बाहें गंगा-यमुना तेरे सुवक्ष पर कंठहार,
-लहराती आतीं गिरि-पथ से, लहरों में भर शोभा अपार !
देखा करता हूँ गंगा में उगता गुलाब-सा अरुण प्रात :
यमुना की नीली लहरों में नहला तन ऊठती नित्य रात!
गंगा-यमुना की लहरों में कण-कण में मणि
नयानाभिराम बिखारा देती है साँझ 
हुए नारंगी रँग की शान्त शाम !

तेरे प्रसाद के लिए, तीर्थ ! आते थे दानी हर्ष
जहाँ पल्लव के रुचिर किरीट पहन 
आता अब भी ऋतुराज वहाँ !

कर दैन्य-दुःख-हेमन्त-अन्त - वैभव से भर सब शुष्क - वृन्तहर
साल हर्ष के ही समान सुख-हर्ष-पुष्प लाता वसन्त !

स्वर्णिम मयूर-से नृत्य करते उपवन में गोल्ड मोहर ,
कुहुका करती पिक छिप छिप कर तरुओं में रत प्रत्येक प्रहर 
भर जाती मीठी सौरभ-से कड़वे नीमों की डाल डाल
लद जाते चल दल पर असंख्य नवदल प्रवाल के जाल लाल
मधु आया' , कहते हँस प्रसून, पल्लव  
'हाँ' कह कह हिल जाते आलिंगन भर,

मधु-गंध-भरी बहती समीर जब दिन आते !
शुची स्वच्छ और चौड़ी सड़कों के हरे-भरे तेरे घर में

सब को सुख से भर देता है ऋतुपति पल भर के अन्तर में !
मधु  के दिन पर कितने दिन के ! -

- आतप में तप जल जाता सबतू सिखलाता,
कैसे केवल पल भर का है जग का वैभव
इस स्वर्ण-परीक्षा से दीक्षा ले ज्ञानी बन मन-नीरजात,
शीतल हो जाता, आती है जब सावन की मुख-सरस रात

जब रहा-सहा दुख धुल जाता, मन शुभ्र शरद्-सा खिल जाता
यों दीपमिलिका में आलोकित कर पथ विमल शरद् आता

ऋतुओं का पहिया इसी तरह घूमा करता प्रतिवर्ष यहाँ,
तेरे प्रसाद के लिए तीर्थ !

आते थे दानी हर्ष जहाँ !
खुसरू का बाग सिखाता है, है धूप-छाँह-सी यह माया,
वृक्षों के नीचे लिख जाती है यों ही नित चंचल छाया !
वह दुर्ग !--जहाँ उस शान्ति-स्तम्भ में मूर्तिमान अब तक अशोक,
था गर्व कभी, पर आज जगाता है उर उर में क्षोभ-शोक !
तू सीख त्याग, तू सीख प्रेम, तू नियम-नेम ले अज्ञानी-
-क्या पत्थर पर अब तक अंकित यह दया-द्रवित कोमल वाणी?

--जिसमें बोले होंगे गद्गद वे शान्ति-स्नेह के अभिलाषी--
दृग भर भर शोकाकुल अशोक; सम्राट्, भिक्षु औ' संन्यासी !
उस पत्थर अंकित है क्या ? क्या त्याग, शान्ति, तप की वाणी ?
जिससे सीखें जीवन-संयम, सर्वत्र-शान्ति सब अज्ञानी !
सन्देश शान्ति का ही होगा, पर अब जो कुछ वह लाचारी-

-बन्दी बल-हीन गुलामों की जड़मूक बेबसी बेचारी !
दुख भी हलका हो जाता है अब देख देख परिवर्तन-क्रम,
फिर कभी सोचने लगता हूँ यह जीवन सुख-दुख का संगम !
बेबसी सदा की नहीं, सदा की नहीं गुलामी भी मेरी, हे काल क्रूर, सुन ! 
कभी नहीं क्या करवट बदलेगी तेरी ?

यह जीवन चंचल छाया है, बदला करता प्रतिपल करवट,
मेरे प्रयाग की छाया में पर, अब तक जीवित अक्षयवट ! -
-क्या इसके अजर-पत्र पर चढ़ जीवन जीतेगा महाप्रलय ?
कह, जीवन में क्षमता है यदि तो तम से हो प्रकाश निर्भय !
मैं भी फिर नित निर्भय खोजूँ शाश्वत प्रकाश अक्षय जीवन,
निर्भय गाऊँ, मैं शान्त करूँ इस मृत्युभित जग का क्रन्दन !
है नये जन्म का नाम मृत्यु, है नई शक्ति का नाम ह्रास,

--है आदि अन्त का, अन्त आदि का यों सब दिन क्रम-बद्ध ग्रास !
प्यारे प्रयाग ! तेरे उर में ही था यह अन्तर-स्वर निकला 
था कंठ खुला, काँटा निकला, स्वर शुद्ध हुआ, कवि-हृदय मिला !
कवि-हृदय मिला, मन-मुकुल खिला, 
अर्पित है जो श्री चरणों में,पर हो न सकेगा अभिनन्दन 
मेरे इन कृत्रिम वर्णों में !ये कृत्रिम, तू सत्-पृकृति-रूप, 
हे पूर्ण-पुरातन तीर्थराज

क्षमता दे, जिससे कर पाऊँ तेरा अनन्त गुण-गान आज
दे शुभाशीस, हे पुण्यधाम !वाणी कल्याणी हो प्रकाम-
-स्वीकृत हो अब श्री चरणों में बन्दी का यह अन्तिम प्रणाम !
तेरे चरणों में शीश धरे आये होंगे कितने नरेंद्र,
कितने ही आये, चले गये, कुछ दिन रह अभिमानी महेन्द्र !
मैं भी नरेन्द्र, पर इन्द्र नहीं, तेरा बन्दी हूँ, तीर्थराज !
क्षमता दे जिससे कर पाऊँ तेरा अन्न्त गुण-गान आज !!..
नरेन्द्र शर्मा...१९३६
"उस शूटीँग के बाद फिल्म का प्रदर्शन ! उन्हेँ वह अच्छा लगा था लेकिन जम कर कभी बैठना नहीँ हुआ। 
" वे भी बात करना चाहते हैँ " निर्माता ने बताया पँडित जी से आप जरुर मिलिये - मिलने गया, तो बातोँ का जो सैलाब उमडा, तो लगा, उसे रीकोर्ड करना जरुरी है।  कहा, कल फिर आऊँगा और टेपरीकोर्डर के साथ !
 गलती हो गयी आज टेपरीकोर्डर नहीँ लाया !  जाने क्योँ वे राजी हो गये!
मैँ अगले दिन टेप के साथ उनके पास बैठा हूँ  ~
  लग रहा है, हम कितना कम जानते हैँ  ! मैँ, इस छोटी सी अवधि मेँ वह सारा जी लेना चाहता हूँ , जो उन्होँने स्वतँत्रता आँदोलन मेँ जिया था और उसके बाद, बँबई मेँ रहते, फिल्मोँ मेँ गीत लिखते -लिखते ! बात विचार कृष्ण तक सीमित नहीँ रही।
 मेरा खोजी मन, जीवन के कुल -कुँजोँ का पता चाहता है। 
उस दिन के बाद, जब भी समय मिलता है, मैँ, उनके पास जाता हूँ -

पँडित जी के न रहने की बात, रेडियो पर सुनी है - धक्क्` से रह गया हूँ !
देश, उन जैसोँ की कद्र नहीँ कर सका !  भारतीय मानस पर वे ऐनसाइक्लोपीडिया से कम नहीँ ! उस दिन की रेकार्डीँग के बाद मैँने उनसे लगातार कहा है कि, उनका इतना गहन चिँतन, उस सबको, किसी तरह, घरोहर के रुप मेँ सुरक्शित रखना चाहिये।  यह सब कैसे हो ? वे मुस्करा के टाल जाते हैँ। 
जानते हैँ देश जिस लीक पर चल रहा है, उसमेँ अब, यह सब नहीँ होता -

टेप खोजकर निकालता हूँ - उसे सुनता हूँ -
 पँडित जी की आज के जमाने पर टिप्पणी -
 राज, कवि और देश के सँबँध मेँ
- मेरे प्रश्न करने पर, कि " इतनी गहराई के स्तर पर, कैसे वे, चिँतन के स्तर पर उतर सकते हैँ ?
उन्होंने कहा, " "स्वतँत्रता आँदोलन - मैँ कवि तो था ही - कवि होने के नाते, आई हैड ए कमिटमेँट टू सोसायटी - बट आई वोज़ फाइटीँग तू जनरेट इनफ अनर्जी तू सर्व सोसायटी -आई डीस्कवर्ड माई ओन सोलीट्यूड ! क्यूँकि व्होट वन गीव्ज़ तू सोसायटी, इट्`स ओनली फ्रोम वन्स्` सोलीट्यूड !
अगर हम सोयेँ नहीँ अच्छी नीँद से, तो हम जाग करके कुछ नहीँ कर सकते।
 सोना जो है, सोलीट्यूड का एक रुप है।
 ये जो कहा है कि, मैन एज ए सोशीयल ऐनीमल। तो ' ही'  ओर 'शी '
 इस आल्सो ए चाइल्ड ओफ - सोलीट्यूड टू ! सोलीट्यूड हसबँड और वाईफ भी चाहते हैँ।  एक डबल बेड मेँ सोये हैँ - वे सोते हैँ तो अपनी - अपनी नीँद सोते हैँ और उस समय वे पूर्ण बीइँग हैँ। 
वह सोलीट्यूड मुझे मिला -  इलाहाबाद से मैँ यहाँ आ गया।
 बँबई , फिल्मोँ मेँ बाँबे टाकिज़ मेँ उनके साथ पूरा वक्त, सँबँध तो था नहीँ , पोएट तो मैँ था - सो, विचार भी करता था - फ्रीडम -फाइटर भी रह चुका था तो मुझे यहाँ पर, एकाँत मिला ," जैसे बँद अँधेरे कमरे मेँ, आदमी, बैठे -बैठे,  धीरे, धीरे, वहाँ रखी हुई चीजोँ को देखने लगता है, मन के अँधेरे कोने मेँ कहीँ बैठ करके, उसे, मन के अँधेरे भवन मे भी चीजेँ देखनी शुरु की - धीरे - धीरे समझ मेँ आने लगा कि, जो हमारे वेद मेँ है, वही हमारे "लोक -गीत " मेँ है -

हमारे यहाँ तीन चीजेँ कही गयीँ हैँ  --
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैँ
-राम जी को , आदेश दे रहे हैँ  - वसिष्ठ जी " कि , कर्म करो ! " लोकमत यानि कि जो लोक का मत है, उसके अनुसार काम करो।
 साधु का मतलब, साधु, सन्यासी, वैरागी नहीँ  !
 साधु का मतलब है - शिष्टजन -
समाज - में जो सँस्कृत, अच्छे लोग हैँ जो हमारे समाज का जो नेतृत्व कर रहे हैँ, उन लोगोँ का जो मत है, वैसा करो और नृप जो राजा की नीति, वेदोँ से लेकर, आज तक श्रुति, स्मृति मेँ चली आ रही है, उस नित्य और उन तीनोँ मेँ, नियम का निचोड है, वैसा नियम मानेँ वेदोँ का  है  जो हमारे हाईवेज़ हैँ कलचर के और बाइवेज़ हैँ कालचक्र के और जो रुट एक्स्पोसेस हैँ सबको अपने भीतर सँबोधित करके, मत निस्चय करने का सौभाग्य तुम्हेँ मिला है "

हमारे यहाँ राजा - नेता की क्या कहेँ , किसी की भी कोई प्राइवेट लाइफ नहीँ है - पब्लिक लाइफ है - बच्चा पैदा होता है, उत्सव !
नामकरण = उत्सव !
 पढने जाता है - उत्सव !
कामकाज करता है - मान लेँ वही, रिटायर होकर, वानप्रस्थ मेँ जाता है,
वह भी उसकी पब्लिक लाइफ है  !
उसकी प्राइवेट लाइफ तो होती नहीँ  !
सन्यासी की तो एकदम नहीँ  !
 हमारे यहाँ, एवरी मिनिट, एवरी डे, HE  ओर SHE  इज़ अकाउन्टेबल टू पिपल्`, ओन दी अर्थ एँड गोड अबव ! ये हमारे यहाँ का कल्चर है "

- और मैँ सोच रहा हूँ, हम यह सारा कितना कम जानते हैँ !
इस आपाधपी मेँ किसे फुरसत है, पीछे मुडकर देखने की और कृष्ण पर जो कुछ उन्होँने कहा, वह एकदम नया द्रष्टिकोण है ....वह फिर कभी ....!!-

- लेखक : श्री प्रेम कपूर की - यादेँ



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