


गाँधीयुग को हमारी राष्ट्रीय चतना का स्वर्ण युग माना जाना चाहिए
महात्मा गाँधी ने न केवल भारतीय राजनीति को प्रभावित किया अपितु, साहित्य को भी एक नई दिशा दी, उसे सत्याग्रह अहिँसा आत्मोसर्ग तथा आत्मानुशीलता की चेतना से अभीभूत किया.
" चाह नहीँ मैँ सुरबाला के गहनो मे गूँथा जाऊँ "
उसी चेतना की परिणति है, प्रसाद के नाटकोँ मेँ, निराला की गीतिका मेँ !स्वतँत्रता प्राप्ति के बाद हमारे युग की राष्ट्रीय चेतना ने एक नया परिवेश धारण कर लिया है.आलोचक डा. रामरतन भटनागर के अनुसार "पिछले ५० वर्षोँ मेँ हमारा राष्ट्रीय काव्य राजनीति काव्य मे बदल गया है और उसने विभिन्न राजनैतिक दलोँ से अपनी साँठ गाँठ बैठा ली है.आर्थिक विषमताओँ और सामाजिक उत्पीडन ने उनके स्वर को बराबर खँडित किया है "
पँडित नरेन्द्र शर्मा के काव्य मे हमे एक बहुमुखी राष्ट्रीय राष्ट्र चेतना के दर्शन होते हैँ उसमे एक उदीयमान राष्ट्र की वेदना, भावुकता , तेज, उनके उत्सर्ग एवँ त्याग की अदम्य लालसा अत्यँत सशक्त स्वरोँ मेँ मुखरित हुई है.उसमेँ देश की पीडा बडे ही सशक्त स्वरोँ मे मूर्तिमान हुई है.शर्मा जी की रचनाओँ मे देश भक्ति, राष्ट्र गौरव, समकालिन राजनीति के साथ ही साथ ग्राम जीवन और प्रकृति को भी महत्त्व दिया गया है -
उन्होँने "कदली वन " काव्य -सँग्रह की "देश मेरे " शीर्षक कविता मे कहा है "दीर्घ जीवी देश मेरे, तू, विषद वट वृक्ष है "
( इलाहाबाद मेँ ली गई एक पुरानी श्याम /श्वेत छवि)
नरेन्द्र शर्मा को छायावादी कवियोँ के अतिरिक्त्त छायावादोत्तर कवि बच्चन,अँचल आदि के साथ भी रखा जा सकता है.ये उत्तर छायावादी कवि अपने चतुर्दिक जीवन - जगत के प्रति पूर्ण सँवेदित हैँ ये सभी सद्` गृहस्थ हैँ
-पँ नरेन्द्र शर्मा के काव्य मेँ राष्ट्रीय चेतना का उदय इनके कवि कर्म के रुप मे ही हुआ है.सन्` १९४२ के आँदोलन के बाद शर्माजी की रचनाओँ देशभक्ति तथा जन जीवन के प्रति लगाव विशेष रुप से दिखाई देता है देश मे नित्यप्रति होते नैतिकता के ह्रास से दुखी होते हैँ
" अहँकार के साथ बुध्धि की जब से हुई सगाई है
हीन विवेक हुआ मानव - मन, नैतिकता बिसराई है "
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