Saturday, August 25, 2007

नरेन्द्र शर्मा के काव्योँ मेँ राष्ट्रीय चेतना :डा. अमरनाथ दुबे- -- भाग -- १

ऐतिहासिक युग मे मौर्य काल मे आसेतु हिमालय सम्पूर्ण भारत को एक राष्ट्र के रुप मे सँगठित करने का प्रयत्न सँस्कृत भाषा के माध्यम से हुआ था. इसके पूर्व भी वेद, उपनिषद, पुराण, रामायण, महाभारत आदि ग्रँथोँ के अतिरिक्त कालिदास, जयदेव, आदि के ग्रँथोँ मेँ भी हमेँ साँस्कृतिक एकता के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना के दर्शन होते हैँ. महाकवि तुलसीदास ने तो अनेक स्थानोँ पर इसका वर्णन किया
" भलि भारत भारत भूमि भलो कुल जन्म, समाज सरीर भलो लहि के "
तो दूसरे स्थान पर कहते हैँ
--" धन्य देश सो जहँ सुरसरी, धन्य नारि पतिव्रत अनुचरी, धन्य सो भूप नीति जो करईँ, धन्य सो द्विज निज धर्म न टरईँ "
भूमि, जन, एवँ सँस्कृति के समन्वय से राष्ट्र निर्मित होता है. इनमे से एक के प्रति भी यदि उपेक्षा का भाव रहा तो वह, प्रवृत्ति राष्ट्र के लिये घातक बन जाती है.राष्ट्रीय चतना के उदय की पृष्ठभूमि मे यही तीनोँ तत्त्व काम करते हैँ -
चाहे जन मानस मे हो अथवा साहित्य मे !
राष्ट्रीय चेतना के अँकुर साहित्य मेँ प्राय:
लोकगीतोँ के माध्यमोँ उभर कर आते हैँ


तुलसी ने इस चेतना के प्रतीक के रुप मे "राम -राज्य " की कल्पना की थी. इसके लगभग १०० वर्ष बाद समर्थ गुरु रामदास ने भी महाराज शिवाजी जैसे राष्ट्रपुरुष के द्वारा ' हिन्दू पद पादशाही " का उद्`घोष करवाया. हिन्दी साहित्य का मध्यकाल मुख्यत: भक्ति आँदोलन , हमारे साँस्कृतिक जीवन के पुनर्निर्माण एवँ राष्ट्रीय जीवन को एक नया परिवेश देते हुए उसे सुसँगठित करने का अभिनव प्रयास माना जा सकता है. गाँधी जी का अँग्रेजोँ के विरुध्ध सत्य और अहिँसा का आँदोलन स्वतँत्रता सँग्राम के इतिहास मे इसी चेतना धारा की अगली परिणीती मानी जायेगी, जिसका प्रवाह - पथ भारतेन्दु हरिस्चँद्र , प्रेमचँद , प्रसाद, निराला आदि के साहित्य से स्पष्ट परिलक्षित होता है. राष्ट्रीय चेतना के इसी प्रवाह ने आगे चलकर जन आँदोलन का रुप लिया और सन्` १८८५ के कोँग्रेस की स्थापना इसकी चरम परिणति बनी.

गाँधीयुग को हमारी राष्ट्रीय चतना का स्वर्ण युग माना जाना चाहिए
महात्मा गाँधी ने न केवल भारतीय राजनीति को प्रभावित किया अपितु, साहित्य को भी एक नई दिशा दी, उसे सत्याग्रह अहिँसा आत्मोसर्ग तथा आत्मानुशीलता की चेतना से अभीभूत किया.

माखनलाल चतुर्वेदी की कविता

" चाह नहीँ मैँ सुरबाला के गहनो मे गूँथा जाऊँ "

उसी चेतना की परिणति है, प्रसाद के नाटकोँ मेँ, निराला की गीतिका मेँ !स्वतँत्रता प्राप्ति के बाद हमारे युग की राष्ट्रीय चेतना ने एक नया परिवेश धारण कर लिया है.आलोचक डा. रामरतन भटनागर के अनुसार "पिछले ५० वर्षोँ मेँ हमारा राष्ट्रीय काव्य राजनीति काव्य मे बदल गया है और उसने विभिन्न राजनैतिक दलोँ से अपनी साँठ गाँठ बैठा ली है.आर्थिक विषमताओँ और सामाजिक उत्पीडन ने उनके स्वर को बराबर खँडित किया है "

पँडित नरेन्द्र शर्मा के काव्य मे हमे एक बहुमुखी राष्ट्रीय राष्ट्र चेतना के दर्शन होते हैँ उसमे एक उदीयमान राष्ट्र की वेदना, भावुकता , तेज, उनके उत्सर्ग एवँ त्याग की अदम्य लालसा अत्यँत सशक्त स्वरोँ मेँ मुखरित हुई है.उसमेँ देश की पीडा बडे ही सशक्त स्वरोँ मे मूर्तिमान हुई है.शर्मा जी की रचनाओँ मे देश भक्ति, राष्ट्र गौरव, समकालिन राजनीति के साथ ही साथ ग्राम जीवन और प्रकृति को भी महत्त्व दिया गया है -

उन्होँने "कदली वन " काव्य -सँग्रह की "देश मेरे " शीर्षक कविता मे कहा है "दीर्घ जीवी देश मेरे, तू, विषद वट वृक्ष है "

डा. हरिवँशराय बच्चन जी, श्री सुमित्रा नँदन पँत जी व श्री नरेन्द्र शर्मा
( इलाहाबाद मेँ ली गई एक पुरानी श्याम /श्वेत छवि
)
नरेन्द्र शर्मा को छायावादी कवियोँ के अतिरिक्त्त छायावादोत्तर कवि बच्चन,अँचल आदि के साथ भी रखा जा सकता है.ये उत्तर छायावादी कवि अपने चतुर्दिक जीवन - जगत के प्रति पूर्ण सँवेदित हैँ ये सभी सद्` गृहस्थ हैँ

-पँ नरेन्द्र शर्मा के काव्य मेँ राष्ट्रीय चेतना का उदय इनके कवि कर्म के रुप मे ही हुआ है.सन्` १९४२ के आँदोलन के बाद शर्माजी की रचनाओँ देशभक्ति तथा जन जीवन के प्रति लगाव विशेष रुप से दिखाई देता है देश मे नित्यप्रति होते नैतिकता के ह्रास से दुखी होते हैँ

" अहँकार के साथ बुध्धि की जब से हुई सगाई है

हीन विवेक हुआ मानव - मन, नैतिकता बिसराई है "

क्रमश: : ~~

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